….….वेसे यह सातवां है पर बात इसी से प्रारम्भ है।अभी अभी हुए झग़डे के बाद की शाँति है। सब कुछ ऐसा जैसे एक तूफान आया और चला गया। पुरुष जो पति कम दोस्त था।वह सम्पूर्ण अधिकार तो चाहता था पर अधिकार देने का मन नही था। वह भी कोनसे उससे अधिकार मांगने वाली थी? जो स्वतःसदैव प्राप्त हैं उसे फिजूल में क्यो मांगकर इनकी गुलामी की जाए?ऐसी सोच थी उसकी। बात प्रारम्भ हुई एक सेमिनार में जाने से जो दूसरे राज्य में था।वह अड़ गया था कि अकेले नही जाना,किसी के साथ जाओ या मत जाओ।वह प्राध्यापक थी,समझदार थी,दो बड़े बच्चों की माँ थी परंतु "घर सर्वोपरि,उसकी कीमत पर कभी कुछ नही करना बिटिया" उसकी माँ की सीख उसके कानों में गूंजती।जो खुद उसके पिता के कहने पर तीनोंबच्चों को संभालने के लिए अपनी नोकरी छोड़ घर सँभालती थीं। घर जिसमें कुल जमा छह प्राणी थे।सास तब तक जीवित रहीं जब तक उन्हें यह तसल्ली नही हो गई कि जो उन्होंने चालीस साल पहले भुगता वही आज के दौर में यह नए चालचलन की उनकी बहू भी अच्छी तरह से भुगते। जब तक सक्रिय रहीं मां की छाती पर सवार।मां कुछ कहे तो किससे?पिता इकलौते थे तो कुछ सुनने को तैयार नही। कई कई बार पिटने के बाद उसने अपनी नियति स्वीकार कर ली।और कोल्हू में अपनी सास की जगह लग गई। पर अपनी बेटियों को बराबर से हर ख़ुशी, हर स्वाद देती।कभी उनकी पढ़ाई में बाधा नही आने देती। वह इस देश की करोड़ो स्त्रियों की तरह,जो अपनी बेटी की आंखों,उसके जीवन से जीना चाहती हैं,अपने को पूर्णतः होम करके।वेसी ही हो गईं।
वह जो न कर सकी वह आगे बेटी करके दिखाएगी और अपनी ज़िंदगी अपने मन से,दिल से जियेगी यह तो कामना थी परंतु वह कब और क्या होगा यह वह भी नही जानतीं थीं । पिता अपने पुरुषोचित अहंकार से भरे भरे उसका ब्याह बाइस की होते ही करने पर अड़ गए थे।वह पीएचडी करना चाहती थी। जो करना शादी के बाद करना ससुराल जाकर से प्रारम्भ हुई बात उसके घर से भाग जाने पर खत्म हुई थी।
अपनी सहेली दिव्या के साथ वह दिल्ली आ गई थी। वहीं पीएचडी के लिए फॉर्म आदि भर रही थी।पिता आए थे बुलाने। बड़ी मुश्किल से वह छुपा गए थे उसके बाहर निकलने की बात। घर चलो और अब जो तुम कहोगी वही होगा के बाद वह घर आई थी।पर पीएचडी का फॉर्म भरके। पिता ने घर आकर न जाने उसकी माँ से क्या कहा परन्तु अब वह उससे एकदम निस्पृक्त हो गए थे। छोटी वाली पर पूर्णतः शिकंजा कस दिया था जो अभी अभी कॉलेज में गई थी।वह पीएचडी की प्रवेश परीक्षा पास करके दिल्ली हॉस्टल में आ गई थी।
यहां की दुनिया खुली खुली और चहकती थी। पीएचडी के लिए घण्टो किताबें, पुस्तकालय,चर्चा ,बहसें,हंसना बोलना। उन्मुक्त,स्वच्छन्द वातावरण और हॉस्टल की आजाद दुनिया। वहां की हर लड़की मानो घुटन से मुक्ति पाने के लिए यहीं दो तीन सालों में पूरी जिंदगी जी लेना चाहती थीं। खूब जोर जोर से हँसना, घूमना, सब तरह के आउटफिट्स पहनना, मस्त रहना,दोस्त ,आउटिंग सब कुछ। कुछ तो ड्रिंक और स्मोक भी करके देख लेना चाहतीं थी।मानो यह गुलामी में धकेल दिए जाने से पहले अपनी हर इच्छा,हर खुशी खुद अपने बूते पूरी कर लेना चाहतीं थीं। ऐसी बगिया थी जिसमें चम्पा,चमेली भी थीं तो गुलाब और बोगनवेलिया भी।कुछ भी वर्जित नही था।बल्कि खुद वर्जित शब्द ही वर्जित था। इस महानगर के हॉस्टल में मानो पूरी जिंदगी लहलहा रही थी। रही बात वर्जिनिटी की तो वह तो एक शब्द मात्र था। फन जीने की खुशी और मनपसंद साथ पर निर्भर था। और लड़के जो पुरूष बनने की राह पर थे ,आगे अपनी बीवियों पर शिकंजा कसते, गुलाम बनाते वह नए रूप में खुद गुलामी कर रहे थे। इन अल्हड़,मासूम पर जिंदगी जीती लड़कियों के सामने कोई घुटने पर झुक गुलाब के साथ प्रपोस करता तो कोई गिफ़्ट पर गिफ़्ट देकर उन्हें निहाल कर देता। और वह भी कई बार रेस्टोरेंट्स में अपने साथ तीन चार सहेलियों को भी ले जातीं, चलो तुम भी क्या याद करोगी। और वह भावी पुरूष बनता लड़का खुशी खुशी हर बात,हर शर्त पूरी करता। न जाने क्यों विवाह होते ही यह अपनी पत्नी को ही क्यों दोयम दर्जे की,जानवरों से बदतर मानते हैं?उसकी हर सांस पर पहरा लगा देते हैं। घुट घुटकर उसे मरते देखते हैं।लड़कियां यह जानती,समझती थी और इसीलिए भरपूर जी लेना चाहतीं थी। और ठहरे,कुछ आगे का न सोचें की इसकी कीमत वगैरह। वह इतना आसान नही।वास्तव में अच्छे से अपनी और सबकी सेवा कई कई बार करवाने के बाद लड़की की मर्जी होती तो वह उन्हें उंगली पकड़ने देती,वरना वह भी नही। हॉस्टल दुनिया इन्हीं नियमों से आज भी चलती आ रही है।
तो लड़की का युवा दोस्त जब यह सब कर चुका तो एकदिन अड़ गया उसे होटल ले जाने को।
लड़की बोली,"होटल क्यों? हम बात अच्छे से कर रहे हैं न।और यहां भी एकांत है। मैं भी तुम्हे पसन्द करतीं हूँ।"
लड़का होटल जाने को बेताब ,अपनी जिंदगी के रोमांचक अनुभव के लिए उत्सुक।"अरे कहीं बाहर चलेंगे तो मन बहलेगा, अच्छा लगेगा। और फिर तुम और हम बस।"
लड़की मुस्कराती हुई आसमान में उड़ती तितली को देखती रही, फिर बोली,"तो यहां क्या दिक्कत है?हम मिल तो रहे हैं न।पर फिर भी तुम कहते हो तो अगले सप्ताहांत पर चलेंगे।"
लड़का खुश भले ही कुछ दिन बाद सही पर कुछ तो होगा।
-------"अरे मैं बाहर जा रही हूं काम से और इन्हें यह भी पसन्द नही,बोलो क्या करूँ?"
"अमित बहुत चाहता है तुझे। प्यार करता है तुझसे....सच्चा। यही लगता है मुझे।"
"भाटा, बेकार की बात।उसे लगता है कि हाथ से सोने का अंडा देने वाली मुर्गी न चली जाए। तभी तो हर महीने पूरी सैलेरी झट निकाल ले जाता है।यहां इतनी दूर,दूसरे शहर में रह रहीं हूँ,नोकरी के लिए और मेरी ही कमाई पर मेरा हक़ नही?"
कुछ देर उधर सन्नाटा रहा फिर गहरी आवाज आई,",यह तो हमारी ही गलती है कि हम इन्हें सर्वस्व सोंपने में इतने डूब जातें हैं कि अपनी खुशी,अपने सपने ,अपना कोना तक मिटा देते हैं। क्योकि मना करेंगे तो यह बवाल मचाएंगे,हल्ला करेंगे। और बरसों बरस के साथ,प्यार (?),लिहाज को तार तार करने में जरा भी देर नही लगाएंगे। तो इसी डर से हम इन्हें मनमानी करने देतीं हैं।यह पैसे ही नही बल्कि हर सप्ताह,दिन जब मन हो ,हमसे हमारा शरीर तक ले लेते हैं। भले ही हमारा मन हो या नही। सच में लगता है हम नगरवधुएं हैं।"कहते हुए उसकी आवाज में दर्द छलक आया।
' पर क्या इससे इन पर कोई फर्क पड़ता है?क्या यह हमारी तरफ और संवेदनशील होते हैं?क्या इन्हें यह अहसास भी होता है कि मैं,इनकी पत्नी, एक स्वतन्र्त इंसान हूँ?मेरी भी इनसे भिन्न रुचि,पसन्द,सोच और दायरा है,यह तो इन्हें ख्याल तक नही आता। और नगरवधुएं तो फिर भी हमसे बेहतर हैं। उन्हें मना करने का और अपनी शर्तों पर देह सोंपने का अधिकार होता है।हमें तो वह भी नही।
मैंने मना कर दिया।"
" क्या? क्या मना कर दिया?तुम क्या कह रही हो?"
कुछ पल दोनो तरफ खामोशी रही। मानों दर्द दर्द से बात कर रहा हो,बेआवाज,बिना अल्फाज।
"क्या मना कर दिया?कुछ बेवकूफी मत करना।पंद्रह साल की जमी जमाई ग्रहस्थी है तेरी।"
"तो ?उसे निभाने,बचाने की जिम्मेदारी अकेली मेरी है? और वह भी ऐसी की हर बात,हर शर्त मैं ही मानूँगी?हर इच्छा,सपना मैं ही घर के नाम पर छोडूंगी? और फिर भी अपराधबोध से मुझे ही प्रताड़ित किया जाएगा?"
"यब हॉस्टल लाइफ नही है मेरी लाडो।जहां खुलापन,कोई बंधन नही और सपने देखने और उन्हें पूरा करने के पंख होतें हैं। यह है भारतीय विवाह संस्था। जहां के नियम,कायदे,कानून सब तय हैं जो तुम्हे ही मानने हैं। और हाँ, जरा देख लेना, पंख कबके काट दिए गए हैं।तो उड़ान भूल जाओ। पीठ पीछे पति के,छुपकर कभी कभी यह बढास निकालना और बात है।जो सभी स्त्रियां करतीं हैं पर इसे अमल में लाना असम्भव है। लाई तो तूफान आ जाएगा और उसमें हर बार स्त्री ही उड़ती है तिनके की भांति।"
"अच्छा। देखते हैं ।मैंने तो दोनों,पैसे देने और शरीर देने से मना कर दिया है। कब तक मैं अपनी ही निगाह में गिरती रहूंगी?कब तक मेरा शारीरिक,मानसिक शोषण होगा और मैं सहन करूँगी? आज मैं खुश हूं। वह गुस्सा हुआ पर उसकी हिम्मत नही हुई मेरे से लड़ने की। जानने लगा है मेरा स्वभाव। सुबह की गाड़ी से चला गया अपने शहर। हर बार आ जाता था सूदखोर महाजन की तरह रुपया और ज़िस्म वसूलने।"
कुछ देर की खामोशी के बाद उधर से आवाज आई,",तू सचमुच नही बदली।बल्कि और मजबूत और समझदार हो गई है। पर यह साहस,हिम्मत अपने में नही। रखती हूं अब बच्चों के आने का समय हो रहा है। फिर शाम को इनके आने पर आज पनीर पकौड़े बनाने हैं। तू भी आना कभी खाने।"
",पनीर पकोड़े और फ्रेंच फ्राई भी खाने होंगे तो तू यहाँ आना।हाल ऑर्डर कर ऑनलाइन मंगवा देती हूं। तू सेवा कर परन्तु अपना जीना मत भूल जाना " व्यंग्यात्मक ढंग से कहकर उसने फोन रख दिया।
किस तरह शीत आंखों से देखता रवाना हुआ था अमित उसे अभी भी याद है। अब जरूर जाकर अपनी मां का बड़ी बहन के आगे रोएगा की यह पैसे अपने पास रख रही है। यह कहना नही मानती। जबकि शरीर की जो मनाही की है उस पर नही बोलेगा। वह मन ही मन मुस्कराई और सेमिनार में जाने की तैयारी करने लगी।
-----कल चलेंगे शाम को और परसों सुबह आ जाएंगे। हॉस्टल के कॉमन फोन पर वह बता रहा था। "ठीक है तुम शाम 5 बजे तक आ जाना। " वह तैयारी कल ही करेगी ।दो घण्टे नजदीक ही है वह शहर। घूमना भी हो जाएगा काफी दिनों से बाहर नही गई। " तुम चलोगी?" सब बातें सुन रही रूम मेट से कहा तो वह हंसते हंसते लोटपोट हो गई। "तू न गजब है।अरे बेचारा कब से पीछे पड़ा है।तेरी हर बात मान रहा है और तू जो है अभी भी मुझे ले जाएगी। चल हट, खुद नही जाने की हिम्मत हो तो बोल दे।मैं चली जाऊंगी फिर।"खूब जोर से दोनो हंसी।
शाम को चले वह रात नो बजे पहुंचे। अच्छा होटल था।दोनो कमरे में सामान रख ,फ्रेश होकर डिनर के लिए डाइनिंग हाल में आ गए। 'बहुत टेस्टी खाना होता है यहाँ का।और खासकर मटर पनीर। नान तो इतनी कुरकुरी और मक्खन लगी कि मुहँ में डालते ही घुल जाए।"वह उत्साह से बता रहा था। और उसे याद आ रहा था अपना बोर्ड रिजल्ट के बाद की पार्टी जो उसके मामा ने दी थी। हालांकि पंद्रह वर्षों से अधिक हो गए थे पर वह इसी शहर में होगें।कल मिलेगी उनसे।
खाना अच्छा था। और वह वापस कमरे में।वह सोने से पहले कुछ पढ़ना चाहती थी। "कस्तूरी कुंडल बसे" एक ऐसी लेखिका का आत्मकथात्मक उपन्यास जो अपनी सोच, व्यवहार से भारतीय साहित्यजगत के घिसे पिटे ढरे को तोड़ती हुई महिलाओं और पुरुषों दोनो में समान रूप से लोकप्रिय हुई। जिसे सुनने के लिए उसके कॉलेज के सभागार में तिल धरने की भी जगह नही थी। और सभी लड़कियों तक उनकी यह बात पहुंची थी," कुछ भी वर्जित नही है। जो करना चाहती हो वह करो। अपने अनुभवः खुद लो।ठोकर भी लगेगी पर उससे जो अनुभवः मिलेगा वह बेशकीमती होगा।"
"व्हाट् अ वोमेन ,व्हाट अ वोमेन।" वह मुरीद हो गई उनकी। जो उम्र के पांचवे दशक में पहली बार लेखन से जुड़ीं। जिनकी प्रथम कहानी सुविख्यात सम्पादक लेखक ने दर्जन बार से अधिक सुधरवाई और वह एक कहानी पर डेढ़ वर्ष विश्वास के साथ काम करती रहीं। यह नही की आज के लेखक की तरह जो अभी लिखते है,बिना सुधारे भेज दी। यहां नही आई तो दूसरी जगह नही तो चौथी जगह छपवाने के जुगाड़ में (और अब
तो फेसबुक पर ही लगा देते हैं या वेब पत्रिकाओ में।बस नाम देखना है अपना)। और ऐसे लोग तीन दिन छपकर पांचवें दिन लुप्त हो जातें हैं।
उस प्रिय लेखिका को संवारने वाले राजेन्द्र यादव के विचारों,बुद्धिमता की वह कायल थी। स्त्री को उसका स्पेस, आजादी देने के बाद वह खुद कुछ देना या करना चाहे तो यह नितांत उसका निजी फैसला है। इसका सम्मान हर एक को करना चाहिए।
और यही वह अभी देने के मूड में आ ही रही थी कि .....। वह उसके पास आया और उसे बाहों में लेने लगा। ",तुम मुझे सबसे अच्छी लगती हो। तुम्हारे से दोस्ती मेरे सभी दोस्तों को ईर्ष्या से भर देती है।"
वह मुस्कराती रही और सुनती रही।
"आज तुम बहुत अच्छी लग रही हो।लगता है कोई आसमान से उतरी है परी। अब आओ न।"
अब यह जो प्यार है यह ऐसा नही है कि स्विच ऑन किया और हो गया। पहले दिल,भावनाएं मिलतीं हैं,आंखे बातें करती हैं।मुस्कान बिना बोले सब कह देती है।यह सब बहुमूल्य,बेशकीमती होता है। यह नवाजिश बहुत ही कम सोभाग्यशाली लोगों को मिलती है। हर एक को नही।
"अभी ठहरो।बातें करो, जल्दी क्या है?"
जल्दी उसे थी अपनी इन्वेस्टमेंट वसूलने की।जी भरके। चार महीने से वह एक टांग पर खड़ा लड़की की हर बात मानता, सहता आ रहा था। घर पर जो माँ बाप की बात नही सुनता था,(भविष्य में स्त्री की भी नही सुनता)वह लड़की की हर बात,हर इच्छा और हर खुशी पूरी कर रहा था। और अब व्याकुल था। रात की घड़ियां बीत रहीं थी।लडक़ी किताब के जादू में खोई थी और साथ ही लड़के के धैर्य को भी परख रही थी। वह जरा भी जल्दबाजी करता तो रात को भी एक ट्रेन उसके शहर जाती थी। पर वह धैर्य से इंतज़ार कर रहा था। उसे शायद लड़की से इश्क़ हो गया था।
कमरे में गुलाम अली की मखमली आवाज का जादू तारी था, ",तुम्हारे साथ भी तन्हा हूँ, तुम न समझोगे...न समझोगे।" और धैर्य जीत गया,लड़की ने किताब बन्द करदी ।
-------पत्नी अचानक से कमाई न दे,ऊपर से दाम्पत्य सुख भी राशन की तरह दे।मतलब साफ है कि इसके पर निकल आए हैं।जब भी वह आए तो बहाना तैयार।दो हफ्ते,दो महीने बाद वह बिगड़ उठा। "मुझे तुम गुलाम मत समझना। ऐसी ऐसी बातें कोईभी आज की पत्नी नही करती । तुमसे शादी की है कोई भगाकर नही लाया। "कहते हुए वह उस पर झपटा। आखिर उसकी मां, दोस्त सभी ने कहा था कि वह कैसा पुरुष है जो अपनी ही हक की वस्तु नही ले पा रहा? लानत है।
उस रात वह हुआ जो हर स्त्री सहन करती है पर कभी बोलती नही। जो समझती है कि शादी हो गई तो उसके जिस्म का एकमात्र स्वामी,मालिक उसके साथ जब जो चाहे करेगा।और उसे मना करने का उसका नही बनता।
अब भले ही लोग इसे जन्मों का बंधन,दांपत्य सुख कहें पर लोहे का स्वाद उससे पूछिए जिसके मुहँ में लोहा ठुका है।और यह एक दिन की बात नही बल्कि रोज,बरसों की बात है और एक स्त्री की नही लगभग हर स्त्री खासकर जो आज्ञाकारी,पतिव्रता,धार्मिक हैं उनकी तो नियमित ही यही कहानी है। स्त्री की नियति यह क्यो है?
पर अगले ही हफ्ते तलाक का नोटिस स्त्री ने भेज दिया।पुरुष भी नही माना और तलाक हुआ।
----------मामाजी की कई यादें उसके जहन में ताजा थीं अगले दिन सुबह जब दोनों उठे तो प्यार से मुस्कराती दुनिया दोनो के सामने थी। लड़का रात भर कहता रहा तुमसे ही शादी करनी है,करनी है।और वह मुस्कराते हुए सोचती रही कि इस चीज का शादी से क्या वास्ता? और जरूरी है क्या की तुम तो मुझसे शादी करना चाहो पर मैं न करना चाहूं तो?
मामाजी के घर का रास्ता याद था तो वह वहां पहुंच गईं। घर पर साठ के मामा की आंखें उसे देख खुशी से चमकी। "बहुत दिनों बाद दिखाई दी हो । कैसी हो कहते हुए उनके हाथ उसकी पीठ को पहले कि तरह दूर तक सहला आए।
आज वह उनके पास ही बैठी। "देखो कौन आया है? हमारी रजनीगन्धा आई है।" सीधी सादी आठवीं पास मामी उम्र में मामा से कम होते हुए भी उनसे दस साल बड़ी लग रही थीं।
"अरे,बिट्टी,? तुम कैसी हो? अब याद आई। "कहते हुए मामी खातिरदारी के लिए अंदर गईं। मामा उठे और अंदर वाले कमरे की तरफ चलने का इशारा किया। वह कैसे भूल सकती थी उस कमरे को? मम्मी हर गर्मी की छुट्टियों में यहां ले आतीं। और वह नासमझ से समझदार यहीं बनाई गई। जब तक बड़ी हुई यहाँ आना बन्द कर दिया।
मामा ने अलमारी खोलीऔर पुराना एल्बम निकाला और उसे बैठाकर उसके कंधे के पीछे से हाथ डालकर एल्बम की फोटो बताते रहे। "यह हम तीनों भाई बहन ,यह जीजाजी और यह तुम।" कहते हुए उसके गुटखे से सने होंठ बिल्कुल उसके कानों को छूने लगे। सामने ही एक भारी भरकम कृष्ण जी की मूर्ति थी।
कुछ देर बाद मामी नाश्ते की ट्रे लेकर अंदर आईं तो वहां कोई नही था। मामा अंदर जमीन पर गिरे कराह रहे थे।उनके सिर से खून बह रहा था। "फोटो उतारने के चक्कर में गिर गया। उसे देर हो रही थी तो वह चली गईं।"
मामी ने एक नजर टूटे फूटे मामा पर डाली और दूर गली में जा रही भांजी को देख स्मित मुस्कान चेहरे पर आईं।
-------कामकाजी स्त्री और उसकी सोच,धैर्य और सपनों में एक अलिखित करार होता है।वह यह कि जब उसे एकदिन फुर्सत मिलेगी वह अपने सपनों पर पड़ी धूल झाड़कर उन्हें देखेगी। पर यह कभी नही होता।और यदि वह जोश दिखाने के लिए कदम उठाती है, बिना विचारे अलग होने का तो वह अकेली,तन्हा ही अपनी राह की राही होती है।ऊपर से हर रिश्ते,अडोसी पड़ोसी,कुलीग को अच्छा अच्छा बनकर दिखाती रहती है । जब यही सेल्फ रिस्ट्रिक्टेड होना था तो अलग क्यो हुए? उधर जो स्त्री घुटन और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने को अलग होती है वह बहुत जल्द अपनी जिंदगी जीने लग जाती है। पंख लग जाते हैं उसके।वह हँसना,घूमना और अपने सफर को एन्जॉय करना सीख जाती है। पर अकेलापन काटने को जब दौड़ता है तो भरोसेमंद साथी ही उसे भरता है।आज की भागमभाग की दुनिया में भरोसेमन्द साथ ऐसा ही है
जैसे क्रिकेटर्स का देश के लिए खेलना बजाय पैसों के । और खाली वक़्त का शगल फेसबुक पर एक जगह उसकी निगाह पड़ी।
"एक दिखने में ठीकठाक,अच्छे लेखक (व्यवसाय से कंप्यूटर इंजीनियर)को महिला साथी की आवयश्कता है। नीचे लिखी शर्तों से सहमत हो तो ही कॉल करें।
1.उसने कम से कम एक किताब लिखी हो।
2 जो भी साथ साथ रहने में व्यय होगा दोनों आधा आधा बांटेंगे।
3 (यही सबसे रुचिकर लगी उसे) बिना इजाजत एक दूसरे को टच नही करेंगे।"
मो 1234567890 दिया हुआ था। वह हँसी थी उस दिन तो की यह भी कोई तरीका है? और वह भी फेसबुक जैसे फेक जगह पर।लोग भी अकेलपन से लड़ने की जगह क्या क्या फितूर करते रहते हैं।
पर जल्द ही उसने कॉल कर दिया था। देखें क्या होता है।शब्दों से तो आदमी समझदार लगता है।
"हेलो, वह आपके ,विज्ञापन कहूँ या क्या कहूँ के बारे में बात करनी है।"
"क्या आप तीनो शर्तों को मानती हैं ?ऑफकोर्स मानती ही होंगी तभी कॉल किया।"दोनो हँस दिए।
"सो कोनसे शहर में हैं आप?"
"राजनगर, आपकी किताब का नाम क्या है?पढ़ना चाहूंगा।"
आगे कब वह मिले, समझा एक दूसरे को और पंसद भी करने लगे और अब वह तीन माह से साथ हैं। शुरू में अजीब लगता था कि वह अकेले घूमने जाता ,फ़िल्म देख आता ,कुछ अच्छा सा खाने का आइटम ले आता।
उसे यह बात सबसे अच्छी लगी कि कभी उसे स्त्री होने के नाते वह अतिरिक्त एडवांटेज नही देता था। उम्र तो महज एक नंबर है मुख्य बात समझदारी है।पर आता वह वीकेंड पर ही था। सिटी उसकी दो घण्टे दूर थी। कभी वह चली जाती। जिंदगी में यह साथ यादगार था।कविताएं चलती तो मुक्तिबोध से लेकर अरुण कमल, सारा लोहा उनका अपनी केवल धार, ज्ञानेन्द्रपति की चेतना पारीक कैसी हो? क्या अभी भी जिससे क़रती हो प्यार, उसे लंबे बाल रखवाती हो?आलोक धन्वा की घर से भागी हुई लड़कियां,ब्रूनो के कुत्ते,गोली दागों और विश्व कविता तक उसने यही सुनी,समझी और एक नई आत्मविश्वास से भरी वह मानो नई दुनिया अपने चारों ओर पाने लगीं। वह कभी बियर ले आता और कह देता,",इससे नशा हो जाता है अतएव तुम्हे नही मिलेगी।"और वह उससे जिद करके, बार बार बताकर की वह हॉस्टल लाइफ में ड्रिंक कर चुकी है,उसे बियर पीने दी जाए। एक ही बोतल बियर की वह लाता और उसमें से उसे आधा गिलास देता।इसशर्त के साथ कि वह नशे में गाना नही गाएगी। बड़ा बेसुरा गाती हो तुम।न गाया करो। मनः होता कुछ पूछुं, जानू उसके बारे में।पर वह इससे दुखी हो जाता ,कहता,"मैं हूँ न सामने तुम्हारे यही मेरा अंदर बाहर,वर्तमान, भविष्य सब है। क्या करना उन लोगों की बात करके जिन्होंने हमे अकेला छोड़ दिया है।"
पर मैं उससे खूब बातें क़रतीं। अपनी सब समस्याएं,खुशी ,दुख उसे बताती।उसके पास सबका जवाब था। "बहुत थक गया हूँ अब सोने जा रहा अक्सर वह डिनर करते ही घोषणा कर देता।
दो वीकेंड वह नही आया। बताया कि अपने किसी नजदीकी बुजुर्ग के ऑपरेशन ,इलाज़ में व्यस्त है। दो हफ्ते ऐसे खालीपन के सूने सूने बीते।कहीं बाहर जाने आने का मन नही। उसका फोन आ जाता, "जाओ बाहर,अपने नए पुरुष मित्र बनाओ। खूबसूरत हो,आकर्षक दिखती हो थोड़ी सी बुधु जरूर हो। पर दोस्त बनाओ।उनके साथ बाहर जाओ।मेरे इंतज़ार में घर पर खाली न बैठो। तुम आजाद हो लड़की।"
वह कह देती की उसका कोई दोस्त वोस्ट बनाने का इरादा नही।
"अकेली रह जाओगी। डरो मत ,जाओ बनाओ।बस पहले तीन या चार कसौटी पर कस लेना।जब खरा उतरे तो आंख बंद करके आगे बढ़ो उसके साथ। वह हंसता पर उस हँसी में छुपे दर्द को वह महसूस करती। फिर पूछती क्या हैं वह कसौटी?
",लड़की कितनी बार बताया है।यह दुनिया खराब लोगो से भरी है।किसी उम्र का व्यक्ति हो वह स्त्री को बस ....यही समझता है।पर अच्छे लोग भी हैं,कम हैं पर हैं।उन्हें ढूंढो।" उसकी यही बातें दिलो दिमाग में उतर जातीं।
मन करता इससे बातें होतीं ही रहें। ",फिर सुनलो। जो रोज सुबह गुड़ मॉर्निंग, रात को गुड़ नाईट कहे उससे बचकर रहो। दूसरे जो जल्दी ही मिलने की जिद करे उसे भी हटाओ। और जो यह कहे कि दो बच्चों के साथ घरवाली गांव मे है उसे पसन्द नही।तो उससे भी दूर रहे। और इनके बाद उसके स्त्रियों को लेकर विचार भी जान लेना। बस।जो यह सब पास कर जाए उसके साथ तुम जमकर दोस्ती करना।वह तुम्हे छोड़कर नही जाएगा।"
वह कहना चाहती तुम क्यों नही? तुम मेरे सबसे अच्छे,प्यारे से। साथी बन जाते। पर कह नही पाती, उसे खोने के डर से।
और इस तरह दोस्ती,प्यार से बढ़कर एक सम्पूर्ण रिश्ता पाया। लेकिन याद रखें ऊपर कोई भगवान,अल्लाह नही बैठा जो आपको अपना मानता हो।
वह अब की गया तो कई हफ्ते नही आया। वह इंतज़ार क़रतीं रही। फोन भी बार बार लगाए पर कोई उत्तर नही।
"क्या बात हो गईं?क्या यह भी अपने मतलब से आया था? मतलब हल हुआ और गायब? बड़ा गुस्सा आया। पर विश्वास था कि वह गलत आदमी तो नही था।उसकी बातें याद करती ,दोहरतीं। कहता जाता था,कोई मोह मत पालना ।हमारा तुम्हारा जब तक चलेगा चलाएंगे। पर इतना है निकलने का फैसला तुम्हारा होगा।मैं फ़ोर्स नही करूँगा। और मैं सोचती की क्यों निकलूंगी इस खूबसूरत,सम्मोहक रिश्ते से? मेरेऊपर है न।तो कभी नही चाहूंगी। पर अब वह दो महीने से गायब था।
"कभी मेरा नंबर बन्द हो जाए।या कोई जवाब न आए तो क्या करोगी?" प्यार करने का या कहो अपनापन महसूस कराने का यह उसका एक तरीका था।वह हिल जाती मन ही मन।दिल कांपता। आगे कुछ न वह जानना चाहता न बताना।
"तो यह श्री आदिशक्ति के पास जाना वह तुम्हे बता देंगी।सब जो तुम जानना चाहा।
पर कभी भी मत घबराना,अपने को अकेला मत पाना। तुम बहुत बहुत काबिल और अच्छी हो।
मुझे ढूंढने निकलोगी? वह कभी खोया खोया सा आसमान की ओर देखता कहता।वह उसके होठों पर हाथ रख देती।तुम्हे कहीं नही जाने दूँगी।
पर आज तीन महीने हो गए।वह नही आया।उसके कमरे में अभी भी उसका सामान पड़ा है,मानो वह अभी आने वाला है। जॉइंट अकॉउंट, जो उसने जिद करके खुलवाया था,और एक साल के रुपए वेसे के वेसे पड़े हैं।कहाँ हो तुम?,कहाँ चले गए?
कहाँ जाऊं उसे ढूंढने?
ज़िंदगी दर्द का ही नाम क्यो है?
डॉ संदीप अवस्थी ,आलोचक,शिक्षाविद
राजस्थान ugc नेट, पीएचडी फिलोसोफी,हिंदी ,मानद dlit ,10 किताबे(चार कथा संग्रह,दो काव्य संग्रह, 4 आलोचना पुस्तके) प्रकाशित, दस राज्यो से 50 से अधिक सम्मान अवार्ड्स, केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान द्वारा साहित्य भारती ,हंस कथा सम्मान,महाकवि माघ सम्मान राजस्थान,टैगोर सम्मान ,हल्दी घाटी ,राजसमंद , कमलेश्वर कथा बिम्ब सम्मान,मुम्बई,सेवक स्मृति सम्मान वाराणसी, हम एकजुट सम्मान चाँदीवाल संस्थान,गोविंदपुरी, दिल्ली,पंडित बृजमोहन अवस्थी राष्ट्रीय सम्मान,बुंदेलखंड,गोपालराम गहमरी साहित्यकार सम्मान,गहमर,गाजीपुर,शोधश्री सम्मान,जबलपुर, साहित्य समर्था सम्मान,जयपुर, कबीर सम्मान,भीलवाड़ा सहित पचास से अधिक सम्मान।
समकालीन भारतीय साहित्य,हंस,नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य,पाखी,प्रेरणा,मधुमती सहित सभी प्रमुख पत्रिकाओ में कहानियों,आलोचनात्मक आलेखो का नियमित प्रकाशन,फ़िल्म लेखन, निजी विश्वविद्यालय में शोध निदेशक
अन्तरराष्ट्रीय सम्मान
1.हिंदी सेवी सम्मान,केलिफोर्निया,अमेरिका,2020
2 फिलीपीन्स से हिंदी के लिए मानद डीलिट की उपाधि, 2021
3 कई विश्वविद्यालयों में कहानी और कविताएं पाठ्यक्रम में शामिल। अनेक रचनाओं का इंग्लिश,मराठी,नेपाली,राजस्थानी में अनुवाद।
4 केंद्रीय हिंदी सचिवालय,मॉरीशस, से हिंदी और फिलॉसॉफी की वैश्विक स्वीकार्यता के कार्य हेतु साहित्य भूषण सम्मान,2021।
5 अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक और दार्शनिक सम्मान जूरी के अध्यक्ष
6.नव अन्वेषण, अंतरराष्ट्रीय e शोध जर्नल के मुख्य संपादक अवैतनिक
7 शोध समागम, ugc जर्नल आदि के सम्पादकीय मंडल में
शिक्षाविद,मीडिया विशेषज्ञ और आलोचक, निजी विश्वविद्यालय में शोध निदेशक ,अजमेर
मो 7737407061
राजस्थान,