इस जीवन घट (कुम्भ) में क्या भरा जाये ? भव सागर में सहज सुलभ है विष, किन्तु यह मारक होता है। समुद्र का देवता है वरुण, इसलिए यहाँ वारूणी भी सहजोपलब्ध है, किन्तु वह मादक होती है। ये दोनों द्रव उपद्रवकारी हैं, इसलिए वैष्णव भक्तों ने सिद्धों, तांत्रिकों तथा हठयोगियों के सहज रस-सोमरस को भक्ति के रसायन के रूप में बदल दिया। यहाँ एक मात्र महाद्रव है- अमृत, जिसके पान से अमरत्व प्राप्त होता है, किन्तु यह अमृत कैसे प्राप्त किया जाये? प्रत्येक संस्कृति में, प्रत्येक देशकाल में, सुर-असुर, नर-नाग प्रत्येक जाति में इस अमरत्व को प्राप्त करने के लिए संघर्ष होता रहा है। प्रत्येक देश के पुराख्यान, सभी मिथक धर्म-दर्शन और विज्ञान इस अमृतत्व की खोज से सम्बद्ध दिखायी देते हैं। वस्तुतः प्राणिमात्र की चिन्ता का सबसे बड़ा कारण रहा है, और है- मृत्युबोध। भारतीय दर्शन में जीवन को नश्वर कहा गया, उसके प्रति मोह न रखने का प्रबोध दिया गया। स्वर्ग और मोक्ष का विधान किया गया, किन्तु इच्छा मृत्यु, जौहर या समाधि के कुछ प्रसंगों को छोड़कर जीवन की वासना से कोई मुक्त नहीं हो पाया। जन-जन की इस जिजीविषा को केन्द्र में रखकर ही हमारे मनीषियों ने अमृत-कुम्भ का एक रूपक रचा। क्षीर सागर का मंथन। चौदह रत्नों की प्राप्ति और सबसे अन्त में अमृत कलश का प्राकट्य। उसकी छलकी बूंदों में जो नहाए, अमर हो जाए ! अमृत है जीवनेच्छा का बिम्ब। यह रूपक बड़ा रहस्यपूर्ण है। बड़ा कवित्वपूर्ण भी। मन्दराचल की मथानी बासुकि की रज्जु। सृष्टि के पालनहार विष्णु का कच्छप रूप में पृष्ठाधार। देव-दानव यानी सभी प्रजातियों ने पूरे भव सागर को मथ डाला, तब कहीं धन्वन्तरि प्रकट हुए, अमृत कुम्भ के साथ। बड़ा विराट रूपक है यह। यह कोरी कल्पना नहीं, बल्कि प्राणी की दुर्दम जीवनेच्छा का एक अनोखा आद्यबिम्ब है। मानव मात्र की एक मंगलाशा मृत्योर्मा अमृतं गमय'(अर्थात् मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो) की काव्यात्मक परिणति है यह। समुद्र मंथन के रूपक को इस प्रकार व्याख्यायित किया जा सकता है- संसार एक सागर (भवसागर) है। इसमें रहने वाले सत्-असत् प्रवण प्राणी ही देव-दानव हैं। सब अपने ज्ञान-विज्ञान के सहारे इसके गूढ़ तत्त्वों को खोज निकालने (मथने) के लिए तत्पर हैं। भव सागर में गहरे उतरने के लिए ऊँचाइयों का आश्रय लेना होता है, इसलिए मन्दराचल को, जो पृथ्वी का उत्तुंग शैल-श्रृंग रहा है, जो निर्वाण क्षेत्र है और अलभ्य संजीवनी तत्त्व से युक्त है, उसे मंथन का उपकरण (मथानी) बनाया गया है। बासुकि नाग रज्जु है। नाग जाति देवों की मित्र जाति रही है। उसे सहायक (रज्जु) बनाना समीचीन ही था। उससे अभिमुख होकर भिड़ते हैं दानव और वे उसकी विषैली फूत्कार से आहत होते रहते हैं। देव उनके पीछे हैं, इसलिए वे सुरक्षित हैं। पूरे घटनाचक्र के मूलाधार हैं विष्णु। विष का शमन करते हैं शिव। मद का सेवन करते हैं दानव और अमृतपान करते हैं देव। जब दानव मदान्ध हो जाते हैं तो देवगण शेष 12 रत्नों (उपयोगी पदार्थों) का अधिग्रहण कर लेते हैं। अमृत-कुम्भ के प्रकट होने पर दोनों झगड़ पड़ते हैं। पहले अपने देहबल द्वारा दानव उसे झपट लेते हैं, फिर उसे अपने बुद्धिबल से देवता हड़प लेते हैं। छलकता अमृत
विष्णु (मोहिनी) की सम्मोहन शक्ति दानवों को छलती है, फिर बड़ी चतुराई से गरुड़ उस अमृत घट को लेकर उड़ जाता है। उसकी सहायता के लिए इन्द्र चार ग्रहों को लगा देते हैं। सूर्य दिन के प्रकाश द्वारा, चन्द्र रात्रि के प्रकाश द्वारा, गुरु विद्या बुद्धि के सहारे और शनि अपनी सक्रियता, सुदीर्घ गतिशीलता द्वारा गरुड़ को संरक्षण देते हैं। बारह दिनों के सुरासुर संघर्ष में, पूरी सावधानी के बावजूद, कुम्भ का अमृत चार स्थानों पर कुछ-कुछ छलक जाता है- शायद मर्त्यलोक के प्राणियों के कल्याणार्थ (१) प्रयाग के त्रिवेणी संगम में, (२) हरिद्वार की गंगा में, (३) उज्जैन की शिप्रा में, (४) नासिक की गोदावरी में और कुछ-कुछ वृन्दावन में तथा दक्षिण के कुंभकोणम में। विचारणीय है कि अमृत सर्वत्र नदियों में ही गिरता है। हमारी संस्कृति में नदियों का बड़ा ही महत्व है। इसीलिए उनके तट प्रायः तीर्थ बन गये हैं। 'तीर्थ' का अर्थ है पार करना अर्थात जीवन सरिता को उत्तीर्ण कर लेना। यह भौतिक सफलता का प्रतीक है। यही हमारी तीर्थ संस्कृति है। इस सागर मंथन की एक कथा दुर्वासा के शाप और लक्ष्मी के प्राकट्य से संबद्ध है। दूसरी कथा में विनता-कद्रू की स्पर्धा में गरुड़ द्वारा अमृत घट लाने का विवरण है। तीनों में पृथ्वी पर अमृत छलकने का वृत्तांत है। तीनों में समुद्र, वायु और पक्षिराज हैं। अमृत कुम्भ
इस अमृत-कुम्भ का रूपक बढ़ा विलक्षण है। इसके मुख में विष्णु, कंठ में शिव, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृशक्ति, कुक्षि में सागर, पृष्ठ में सप्तद्वीप हाथों में ऋक्, यजु, साम तथा अथर्ववेद, अंग में सविता अर्थात् पूरी सृष्टि समाहित है इसमें। सम्पूर्ण पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड का प्रतीक है यह अमृत-भाण्ड। इस प्रकार महाकुम्भ का यह मिथक एक स्नानपर्व के रूप में परिणत हो गया। इस तीर्थाटन को दुस्साध्य बनाना भी जरूरी था। जोखिम उठाने (ऐडवन्चर) का एक जनमनोविज्ञान होता है, इसलिए ये स्नान कड़ाके की ठंड या प्रचण्ड पावस के साथ जोड़ दिये गये। ज्योतिष गणना का भी आश्रय लिया गया। जब बृहस्पति मेष राशि में हो और सूर्य-चन्द्र मकर राशि में अर्थात् पूरे खगोल में उथल-पुथल हो रही हो तो पृथ्वी पर भी उसकी अनुकृति या प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक प्रतीत हुई। सर्वाधिक महत्त्व अमावस में मौनी अमावस्या को दिया गया, इसलिए कि "मौनं सर्वार्थसाधकम् । "अमा का अर्थ है साथ, 'वस' का अर्थ है रहना, अर्थात् सूर्य, चन्द्र का साथ-साथ बस जाना। चूँकि ये दोनों पृथ्वी के निकटस्थ और सर्वाधिक भास्वर ग्रह हैं, इसलिए पृथ्वीवासी मनुष्यों के समस्त कार्यकलाप सूर्य तथा चन्द्र की गति से परिचालित होने लगे। इसलिए दोनों का संयोग सुखद प्रतीत हुआ। अस्तु! "सूर्येन्दु गुरु संयोग'' एक महापर्व बन गया। पर्व पर मन, वचन और कर्म की पवित्रता अभीष्ट होती है, इसलिए ६-६ वर्षों बाद अर्धकुम्भ, बारह वर्षों बाद आयोजित पूर्ण कुम्भ और १४४ वर्षों बाद महाकुम्भ में महत्त्वपूर्ण पर्वों का लगभग डेढ़ माह में कई स्थानों का विधान किया गया- १. पौष पूर्णिमा, २. मकर संक्रांति, (सिद्ध संक्रांति) ३. मौनी अमावस्या, ४. बसंत पंचमी ५. माघी पूर्णिमा, ६. महाशिवरात्रि। कहीं-कहीं श्रविणीपूर्णिमा भी। धीरे-धीरे विष्णु पुराण की यह धारणा दृढ़ हो गयी कि-
" अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च। लक्ष प्रदक्षिणा पृथव्या: कुम्भ स्नानेच च तत्फलम्।''
अर्थात हजार अश्वमेध करने से, सौ वाजपेय यज्ञ करने से और लाखों बार पृथ्वी-प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य लाभ होता है, यह पुण्य मात्र कुम्भ में स्नान करने से प्राप्त हो जाता है। यह विश्वास दिलाया गया कि कुम्भ क्षेत्र का स्पर्श कर लेने या वहां की रेणु का लेपन कर लेने से भी समस्त पाप-ताप शाप का क्षरण हो जाता है। गंगा तो 'स्वर्गमोक्षप्रदा' है ही, यमुना यम की भगिनी यानी मृत्यु-भय-हारिणी है। गोदावरी भी गौतम द्वारा नामान्तरित गंगा ही है। क्षिप्रा को भी 'गंगालिंगिता' कहा गया है। तात्पर्य, ये नदियां "सकल मुद मंगल मूला' हैं। प्रत्येक धार्मिक संगठन हेतु यह अभयदान आवश्यक है- 'अहं त्वां सर्वपा पापेभ्यो रक्षयिष्यामि।' सब ऊहापोह त्यागकर "मामेकं शरणं ब्रज।'' मेरी शरण में आ जाओ। कुम्भ का आयोजन करते हुए भी इस प्रकार की आश्वस्तियाँ प्रसारित की गयीं- भारतीयों, सनातन धर्मावलम्बियों को, प्रायः वर्ष-प्रतिवर्ष एक विशिष्ट स्थान पर एकजुट करने के लिए। कुम्भ के इतिहास को लेकर यद्यपि काफी मतभेद हैं, फिर भी इतना सिद्ध है कि इसका सुनियोजित मंगलारम्भ नौवीं सदी में आचार्य शंकर द्वारा किया गया। जगदगुरु शंकराचार्य जी विदेशी आक्रमणों से चिन्तित थे। देशी नरेशों पर भरोसा न होने के कारण उन्होंने जनशक्ति के आह्वान का यह नया उपक्रम निकाला। उन्होंने पहले भारत के चार कोनों में चार धाम बनाये, जो अरब सागर, हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय से घिरे हुए हैं। ये स्थान उन समुद्री मार्गों और पहाड़ी कन्दराओं के निकट हैं, जहाँ से घुसपैठ की अधिक आशंका थी। इन कोनों को सुरक्षित कर लेने के बाद उन्होंने कुम्भ के बहाने मध्य भाग में जनशक्ति के एकत्रीकरण की एक विराट योजना बनायी। यथासमय इसे चैतन्य महाप्रभु ने भी विकसित किया और इस प्रकार ये स्वतः प्रेरित महाकुम्भ सफलतापूर्वक सम्पन्न होने लगे। कालान्तर में, ये महाकुम्भ भारतीय धर्मतन्त्र के विराट् समारोह के रूप में परिणत हो गये। इनके समक्ष राजतन्त्र फीके पड़ गये।
कुम्भ के माध्यम से जो धर्म परिषदें गठित की गयीं, उन्होंने सुनियोजित रूप से स्वरक्षा (अमरत्व) हेतु एक नये अध्यात्म दर्शन की श्रीवृद्धि की और दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए 'नागा' नामक जुझारू संत योद्धाओं के अखाड़ों की स्थापना की। जूना अखाड़ा, दशनामी, निरंजनी, आवाहन, आनन्द, अग्नि, अटल, उदासी, निर्मला, सिक्ख वैष्णव, विरानी, शैवनागा, दिगम्बरी, निर्वाणी जैसी अनेक पेशवाइयाँ इसी उद्देश्य से स्वगठित हो गयीं। इनका संकल्प हो गया-प्राणार्पण करके स्वधर्म की रक्षा करना। इसी भावना का परिविस्तार गुरु गोविन्द सिंह ने सिक्ख खालसा पंथ के संत योद्धाओं के द्वारा किया। इन्हीं की प्रेरणा से अयोध्या, मथुरा आदि में वैष्णव भक्तों ने छावनियां बनायीं। आज भी नागा बनाने का कार्य महाकुम्भ में ही सम्पन्न होता है। वहीं महन्तों का चुनाव किया जाता है। वहीं सम्प्रदायों का पंजीयन होता है। तात्पर्य यह है कि धार्मिक प्रशासन, (थियोक्रेसी) का केन्द्र है महाकुम्भ।महाकुम्भ का महाभाव है-वर्ण, जाति, वर्ग, क्षेत्र, भाषा आदि के भेद भूलकर समग्र विश्व बंधुत्व भारतीयता को वरण करना। महाकुम्भ हमें विचार-स्वातन्त्र्य के साथ-साथ समन्वय, सर्वधर्म समभाव, सहिष्णुता तथा विविधता में एकता का संदेश देता है। कुम्भ में पूरे भारत के रहन-सहन का परिचय मिलता है अर्थात् असली भारत की पहचान होती है। यहाँ दान को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। संचय न करना और जरूरतमंदों के बीच अपने अर्जन का विसर्जन कर देना एक विशिष्ट धार्मिक समाजवाद है, हर्षवर्धन की तरह।
कुम्भ में विभिन्न मत-मतांतरों से सम्बन्धित मनीषियों के प्रवचन होते हैं और आध्यात्मिक साहित्य प्रसारित किया जाता है, जिससे जिज्ञासुओं का बौद्धिक विकास होता है। पर्यटकों को यहाँ कुतूहलजन्य आनन्द मिलता है। किन्तु सर्वाधिक तो महाकुम्भ द्वारा जनजीवन में एक अकुंठ आस्था का संचार होता है। आज कुम्भ में समवेत करोड़ों की भीड़ जनसम्पर्क विज्ञान के लिए एक पहेली है। विश्व शक्तियों के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि सुविधापरस्ती, नास्तिकता एवं व्यक्तिवाद के इस दौर में निमंत्रण, प्रचार-प्रसार तथा प्रलोभन के बिना भी इतनी संख्या में आबाल वृद्ध नर-नारी समुदाय कैसे एकत्र हो जाते हैं? वस्तुतः भारत एक विशाल महामानव सागर है, जिसकी एक गागर है महाकुम्भ। उसमें आस्था पूर्वक सुस्थिर होकर ही भारत की आत्मा का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। जब तक कुम्भ चलेगा, हमारी संस्कृति और अमृतत्व की हमारी आस्था अक्षुण्ण बनी रहेगी। कुम्भ का अमृत छलकता रहे, उसमें स्नान कर हम दीर्घायु प्राप्त करते रहें, त्रिविध ताप पापमोचन करते रहें, किन्तु यह रीतने न पाये, इसलिए हमें अपना-अपना भावामृत इसमें भरते रहना है। यही है कुम्भ का महाभाव।
कुछ पुनर्विचार
इसी संदर्भ में कुंभ मेले की प्रासंगिकता का प्रश्न भी विचारणीय है। कभी-कभी देश-विदेश के कुछ कुतर्की दुराग्रही लोग यह प्रश्न छोड़ देते हैं कि इतने बड़े आयोजन से क्या लाभ? इससे कितनों को रोजी-रोटी मिलती है? क्या एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से यह अपेक्षित है कि केंद्र और राज्य की सरकारें,अन्य कार्यकलाप छोड़कर एक धार्मिक मेले के आयोजन में इस तरह अस्त-व्यस्त हो जाएं? क्या यह नौकरशाहों की कमाई का बहाना नहीं है? क्या इतनी बड़ी भीड़भाड़ जुटा कर हम सैकड़ों निर्दोष व्यक्तियों की जान से नहीं खेलते हैं? क्या यह एक राजनीतिक दल का ही प्रचार मेला नहीं है? वस्तुतः यह प्रश्न भारत में सत्तारूढ़ पार्टी को बदनाम करने के उद्देश्य से इधर विपक्षियों द्वारा उठाए जा रहे हैं। वे हताशा के कारण अब कुछ ज्यादा ही मुखर हो गए हैं। प्रतिपक्षियों को लगता है कि ऐसा विरोध व्यक्त करने से मुस्लिम तुष्टिकरण होगा और तभी उनका राज्य कायम होगा। कम्युनिस्टों का कुछ गम गलत होगा और सनातन विरोधी विश्व शक्तियों को यह संतोष अनुभव होगा कि उनके ''एजेंट'' भारत में अच्छा विघटन फैला रहे हैं। विश्व में ईसाइयत और इस्लाम के ''क्रुसेड'' चलाने वाले सनातन की उठती ताकत से क्षुब्द्ध हैं। इधर जो हिंदू नवजागरण हुआ है उससे धर्मांतरण की प्रक्रिया रुक सी गई है। इसलिए कुंभ जैसी धर्म लहर को कोसना उनकी प्रवृत्ति हो गई है। दूसरी ओर विश्व की बड़ी आर्थिक शक्तियां कुंभ के माध्यम से प्रकट होती हुई इस नई भारतीय ऊर्जा से चिंतित हो उठी हैं। सोरोस, पन्नू, पिंग जैसे कुचक्रियों ने इसीलिए अपने पालित पप्पुओं को भूंकने का ठेका दे दिया है। फिर भी भारतीय जनता अपनी गहरी आस्था के साथ गज गति से अपने रास्ते चलती जा रही है।
आवश्यकता है, सकारात्मक सोच की। विचार कीजिए अर्ध कुंभ,पूर्ण कुम्भ, महाकुंभ के जरिए कितनी राष्ट्रीय भावनात्मक एकता पैदा होती है। जाति, संप्रदाय, लिंग, वर्ग, क्षेत्र भाषा से जुड़ा सनातनी समाज डेढ़-डेढ़ महीने तक इन पांच,छह जगहों पर आयोजित कुंभ मेलों में सारी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भाईचारे का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। मुस्लिम भाई भी इसमें सहयोग करने लगते हैं। और वक्फ बोर्ड ने इस क्षेत्र पर अपना दावा छोड़कर इसे बक्श दिया है। इस प्रकार के आयोजन जितने होंगे साहचर्य यानी भावैक्य बढ़ता चला जाएगा और एक दिन लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाला यह महादेश फिर विश्व गुरु बन जाएगा। कुंभ मेले में हमें विश्व हिंदू समुदाय के दर्शन होते हैं। पड़ोसी हिंदू देश नेपाल उसमें सोत्साह शामिल होता है। विश्व स्तर पर बिखरे हिंदू या सनातनी संस्कृति से प्रभावित नर-नारी समुदाय यहां आकर दीक्षा लेते हैं। मेले में विचरण करते हुए, चमत्कारी संतों से भेंट करते हुए, पुराख्यानों का श्रवण करते हुए लोग अपनी भूली बिसरी गौरवमयी परंपराओं को ताजा कर लेते हैं। इसमें दक्षिण भारत तथा ग्रामीण भारत उमड़ पड़ता है। मोक्षकामी माता,पिता पितामहों को कंधों पर बिठाये हुए, मीलों चलकर जब संगम में डुबकी लगवा देते हैं, तो सबको जीवन की सार्थकता का बोध होता है। अब तो कुंभ जिला बन गया है। इसमें कई कॉरिडोर हैं। कल्पवृक्ष कॉरिडोर में जाकर देखते हैं कि अकबर ने इलावर्त,प्रतिष्ठानपुर, प्रयागराज को ध्वस्त करने की कितनी बड़ी योजना बनाई थी। अल्लाह का नाम देकर उसे इलाहाबाद बना दिया।
इन मेलों को आकर्षक बनाने के लिए इसके साथ ग्रह, नक्षत्र, सिंघस्थ एवं अमृत वर्षा का योग तो जोड़ा ही गया, यहां के सभी छह स्थान मुख्यतः संक्रांति, मौनी अमावस्या एवं बसंत तो स्नान - शूरता की चुनौती बन गए। इस चुनौती में सर्वोपरि रहे नागा अखाड़े क्योंकि यह नागा साधु प्रायः देहातीत हैं। सनातन को बचाने में अकाली, खालसा, सिख संतों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। इन सबके साथ बलिदानी मराठा पेशवाइयों के प्रति भी सनातन समाज में अकूत श्रद्धा भाव है। मेले के मुख्य आलंबन वही होते हैं। उनका अपना धर्म तंत्र है। उनकी अपनी धर्म ध्वजा है। सत्ता उनके आगे झुकती रही है। मुगल और अंग्रेज उनसे काफी डरते रहे हैं। इस अवसर पर उनसे प्रेरित लोग नागा साधु बनकर प्रशिक्षण लेते हैं। विभिन्न संप्रदाय यहीं धर्म संसद में शंकराचार्य, महामंडलेश्वरों और मठाधीशों का चयन करते हैं। पदावनति और पद-वंदन करते हैं। इनका यह धर्म साम्राज्य इस कथन का प्रमाण है कि झंडे भले ही बदल गए हों पर भारत माता कभी किसी की गुलाम नहीं रही। एक महत्वपूर्ण पक्ष है अर्थ तंत्र का। कुंभ जैसे मेलों से धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। देश-देशांतर से संपर्क होता है। शुद्ध सात्विक मनोरंजन होता है। ज्ञान लाभ भी होता है। एक ही जगह समूचा धर्म प्राण भारत, उसकी कई पीढ़ियां और श्रेणियां दिख जाती हैं। युवा पीढ़ी प्रधान इस देश को धार्मिक मेलों, मंदिरों तीर्थों से जोड़ देंगे तो वह पश्चिमीकरण से बची रहेगी, यानी भारतीय बनी रहेगी। मेले के कौतुकी दर्शन हेतु देश-विदेश से युवा-प्रौढ़ पीढ़ी प्रयाग पहुंचती है। उससे बहुत बड़े परिमाण में अर्थ लाभ होता है- परिवहन को, होटल-रेस्त्रां को, बाजार को और आश्रमों को। यानी कर के माध्यम से सरकार को। बहुत बड़ा आय का स्रोत है यह धार्मिक पर्यटन। कुंभ के शुरुआती दौर में यहाँ दान-धर्म का सप्रयास प्रचलन किया गया था। हर्षवर्धन यह आकर अपना सर्वस्व लुटा देते थे। उनकी प्रेरणा से या उनकी देखा देखी यहां दानदाता बढ़ते गए और गरीब दानार्थी बढ़ते गए। आज भी वह क्रम जारी है। असन-बसन सेवा सब प्रायः निःशुल्क। साम्यवाद का असली रूप दिखता है यहाँ।
एक पक्ष है प्रकृति-पर्यावरण का। गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी। गंगा की श्वेत धारा, यमुना की श्याम। सरस्वती अंतः सलिला है। कल्पना में लोग उसकी गुलाबी धारा को देख लेते हैं। तीनों पतित पावनी नदियां। चारों ओर बड़ा उन्मुक्त वातावरण। भांति-भांति के साइबेरियन पक्षी, सैलानियों को बड़ा नयनाभिराम लगता है कुंभ नगरी का यह जगमगाता दृश्य। नदियाँ पवित्रता की प्रतीक हैं। इन दिनों उनकी निर्मल जल धाराओं को देखकर मन ललचा उठता है डुबकी लगाने को। लोग घंटों नौका-विहार करते हैं, जल क्रीड़ा करते हैं, समय पाकर कल्पवृक्ष के दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि प्रलयांत में मात्र यही वट वृक्ष बच पाता है। यहीं से वट वृक्ष शायी प्रभु नव सृष्टि का शुभारंभ करते हैं। ब्रह्मा जी यहीं प्रथम यज्ञ करके इसे प्रयाग बना देते हैं। यों देश में लगभग डेढ़ दर्जन प्रयाग हैं। उनमें इस तीर्थराज को प्रयागराज कहा जाता है। ऐसी आस्था है कि इस बीच सारे तीर्थ यहीं एकत्र हो जाते हैं। खगोल के कई ग्रह इस बीच परस्पर जुड़ जाते हैं। सर्दी का उभार कम होने लगता है। बड़ी राहत मिलती रही होगी उन भारतवासियों को, जिनके पास शीत से जूझने के लिए तब आज जैसे संसाधन नहीं थे। कुंभ में नहा कर और होली ताप कर वे शीतमुक्त हो जाते थे। इतना महत्व है कुंभ का, विशेषतः १४४ वर्ष बाद आने वाले महाकुंभ का, जो जीवन में केवल एक बार ही मिल सकता है।
हार्दिक शुभकामनाएं
प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित