हिन्दी भाषा साहित्य पर वर्तमान आर्थिक दुरावस्था का भयानक कुप्रभाव पड़ा है। पिछली सरकारों में गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई, बेगार, बलात्कार, घूस, कमीशन खोरी, मिलावट, ब्लैक मेल, तस्करी, नकल, मुनाफाखोरी, जमाखोरी, सूदखोरी, बदखर्ची आदि इतनी बढ़ गयी कि इससे आर्थिक विकास दर की वृद्धि निष्प्रभाव हो गयी है। फलतः साहित्यकार निरर्थकता बोध एवं पलायन वृत्ति के शिकार हो गये हैं। पुस्तकों का बाजार हेराफेरी, तस्करी, भूत लेखन आदि से घिर गया है। पारिश्रमिक मिलने के बजाय किताब छपवाने हेतु अग्रिम धन आज भी प्रकाशकों को देना होता है। अधिकतर लेखक लोकार्पण के जलसे में फँसे दिखाई देते हैं। नकली सिक्कों ने असली सिक्कों को बाहर कर दिया है। इससे श्रेष्ठ साहित्य का अनुपात कम होता जा रहा है। संपादकों, समीक्षकों, संस्थाध्यक्षों और महन्तों ने सरकारी अफसरों-लेखकों और सेठानियों की एजेंसी ले रखी थी, शेष दर किनार हैं। प्रदूषण की समस्या ने हमारे दिलोदिमाग को काफी विकृत कर दिया है। हम पर्यावरणगत वैचारिक प्रदूषण से ग्रस्त त्रस्त हैं। किसी को कहीं कोई सत्य शिव सुन्दर नहीं दिखता है। ज्यादातर नकारवादी या निषेध मूलक हो गये हैं। इसका साहित्य पर भीषण कुप्रभाव पड़ा है। अब समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान नहीं सुझा पा रहा है। प्रायः केवल अतिरंजित, रोमैटिक, 'वर्चुअल' यथार्थ में लिप्त हैं और प्रायः पापशंकी हो गये हैं। यह मनोरुग्णता संक्रामक होती जा रही है। दलीय विचारधारा, क्षेत्रीयता, जाति-सम्प्रदाय की संकीर्णता, वर्ग-भेद और पीढ़ी द्वन्द्व भी सम-सामयिक साहित्य के मार्ग में बहुत बाधक हैं। इस बीच दलित चेतना, स्त्री-विमर्श और आदिवासी विमर्श के जो नारे लगाये गये, युवा लेखन के नाम पर जो 'ऐंटी फादर' या परिवार-विवाह विरोधी अभियान चला, यौन क्रान्ति की जो भँड़ास व्यक्त हुई, उससे हमारा साहित्य मानसिक विकलांगता का शिकार हो गया और 'गटर साहित्य' हो गया है।
इस बीच आंचलिकता के नाम पर क्षेत्रीयता को बहुत बढ़ावा दिया गया। शील वैचित्र्य एवं कथा कौतुक के बावजूद इससे भारत की अखण्डता और संप्रभुता को आघात लगा है। इस साहित्य में भाषा के लटके झटके हैं, जनजातियों की यौन मुक्तता के तड़के हैं, टूरिस्टों की चटखारी है, न कि सहज संवेदना है। कई अंचलों के स्थानीय लेखन में प्रान्तीयता अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा उभर रही है। इसी का कुफल है कि पूर्वोत्तर के कुछ राज्य तो अपने को भारत संघ का अपरिहार्य अंग ही नहीं मानते हैं। दुर्भाग्य वश बुद्धिजीवी पत्रकार, साहित्यकार आदि भी इस आग को हवा दे रहे हैं। आवश्यकता है, इस 'विघटन की जगह राष्ट्रीय भावैक्य को विकसित करने की। जो लेखक माओवाद और नक्सल पंथ से जुड़े हुए हैं, उन्हें राष्ट्रीय संस्कृति से जोड़ना अति आवश्यक है। सेंसर तो आपद्धर्म है ही। सबसे बड़ा उपचार है, ऐसे बदनीयत लेखकों का समग्र बहिष्कार या उनका पुनः संस्कार।
वर्तमान भारतीय समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली लगभग ध्वस्त हो गयी है। दहेज, पर्दा प्रथा, अविवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह, विवाह-विच्छेद का नियंत्रण तथा बाल कल्याण, नर-नारी-सह अस्तित्व, वेश्या वृत्ति उन्मूलन, नशा मुक्ति, वरिष्ठ नागरिक और लोक मर्यादा का सही संज्ञान साहित्य और कलाओं के ही माध्यम से दिया जा सकता है, किन्तु यह शुभेच्छा तथा समरसता अब विलुप्तप्राय हो गयी है। व्यक्तिवाद की शिकार नई पीढ़ी सामुदायिक जीवन से वंचित होती जा रही है, इसलिए उसका साहित्य भी 'अलगाववाद एवं ऐब्सर्डबोध' का शिकार हो गया है।
सत्ता की बहुत बड़ी समस्या है-चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार अर्थात् घपला, घोटाला, कामचोरी, कालाबाजार, कालाधन, अतिरिक्त कराधान तथा नेताओं, अफसरों, सामन्तों, महन्तों और पूँजीपतियों द्वारा किया जा रहा शोषण। यहाँ पहले पेशेवर नेता, शिक्षा माफिया, दहशतगर्द वकील, भ्रष्ट इंजीनियर, घपलेबाज प्रशासक और मीडिया माफिया बुरी तरह हावी थे। परिणामतः बिजली, पानी, आवास, सुरक्षा, चिकित्सा, परिवहन तथा न्याय जैसी जन सुविधायें, बहुत दुर्लभ हो गयीं थीं। जन-जीवन विक्षुब्ध हो उठा था। अधिकतर रचनाकार एकांगी लेखन करते रहे। इससे साहित्य की रचनाधर्मिता एवं उपादेयता ह्रस्व होती जा रही थी। दिशाहीनता के कारण आज भी वह कोल्हू के बैल की तरह व्यर्थ-चक्कर काट रही है और आत्म हनन कर रही है।
इस बीच हमारा लोकतंत्र भी अस्त-व्यस्त हो गया था। सत्ता ने साम दाम दंड भेद द्वारा हमारा वाक् स्वातन्त्र्य काफी कुछ छीन लिया था। अखबारों पर सेठों का अघोषित सेंसर था। अभी तक आपातकाल का वह खौफ बरकरार है। संसद में पैसा लेकर प्रश्न पूछा जाता रहा है। प्रायः सबने 'सेटिंग' या 'फिक्सिंग' कर रखी थी। यानी सत्य का मुख्य हिरण्यमय पात्र से ढका हुआ था। आम चुनाव धन एवं जन बल पर निर्भर है। सत्तारुढ़ पारिवारिक पार्टियाँ 'डिक्टेटरशिप चला रही थीं। राजनीति का अधिकांशतः अपराधीकरण हो गया। चुनाव के इस गणित में भाषा साहित्य का कोई स्थान नहीं बल्कि भाषाओं को क्षेत्र तथा मजहब से जोड़कर, बोलियों को तथा उर्दू जैसी भगिनी भाषा-शैली का पृथकीकरण करके हिन्दी को भाषी क्षत-विक्षत किया गया था। कुछ क्षेत्रों में हिन्दी भाषी आतंकवाद से पीड़ित रहे। हिन्दी भाषी जनता को जब तब मार दिया जाता था। लेखक या तो समझौता करे या पलायन। साहित्य को इबादत या शहादत माना जाता रहा है, पर अब शहादत का जोश कितनों में रह गया है? विघटनकारी तत्व उससे जबरन लिखवाते रहे कि हमारी मातृभाषा हिन्दी न होकर अमुक है। सीमान्त प्रदेशों में ईसाई, बौद्ध धर्म आदि से प्रेरित, उल्फा, अलकायदा, सिम्मी, आई०एस०आई०, नक्सली, बोडो आदि आंतकी संगठन हिन्दी भाषियों पर जब-तब आक्रमण करते रहते हैं। आतंकवाद के कारण अतिसाहसिक, खूँखार, आतंकी, खलनायक हमारे साहित्य के भी महानायक बन गये जैसे फूलनदेवी, गोडसे, वीरप्पन आदि। राजनीतिक विदूषकों पर काव्य रचे जा रहे थे। 'विलेन' ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया था। यानी साहित्य में चरित्र की परिकल्पना ही उलट गयी। लघुमानव से महामानव परास्त हो गया फलतः समाज के समक्ष कोई महान मॉडल ही नहीं आ पा रहा था। अति यथार्थ के नाम पर जुगुप्सापूर्ण कथाओं की चटखारी लेते अधिकतर कथाकार 'क्राइम रिर्पोटर' एवं 'न्यूड कलाकार' बन गए। अब आदर्शोन्मुख यथार्थ में उनकी आस्था ही नहीं रही।
इस बीच ग्रामोन्मुखता कम हो गयी, बल्कि शहरीकरण की बाढ़ आ गयी है। फलतः किसान, मजदूर, लोक संस्कृति और कुटीर व्यवस्था की जगह महानगर बोध साहित्य पर हावी हो गया। यदा-कदा कुछ लेखक साहित्यिक 'पिकनिक' सी मानते हुए फर्ज अदायगी पूर्ण ग्राम कथायें लिख देते और कुछ अतीत रोमांस को भुनाने की चेष्टा करते। वस्तुस्थिति यह है कि इस सुविधा जीवी वर्ग का अब लोक अंचल के साथ प्रबल तादात्म्य बोध नहीं रहा।
इधर संवेदन शून्यता भी बहुत बढ़ गयी है। जन साधारण अमानुष, बल्कि अर्थपिशाच हो गया है। बुद्धिवाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, मूल्यहीनता तथा अपसंस्कृति के कारण उदात्तीकरण पर प्रायः रचनाकारों का विश्वास नहीं रहा। कई लेखकों ने तो वर्तमान के साथ ही विगत को यानी पौराणिक और ऐतिहासिक प्रकरणों को भी विकृत, कर डाला। अशिक्षावश जनता अंधास्था की शिकार हो गयी। संसार के वैज्ञानिक चिंतक जहाँ अंतरिक्ष की खोज में लगे हुए है, हम जाति, क्षेत्र, वर्ग, भाषा, विचारधारा और मजहब में उलझे हुए हैं। आज भी, सकारात्मक सोच के अभाव में साहित्य सही सोच नहीं दे पा रहा है, बल्कि प्रदूषण फैला रहा है। मूल उद्देश्य हो गया है, कुछ विचित्र कहकर, सनसनी पैदा करते हुए ध्यानाकर्षण करके, नामा और नाम हड़पने का। भारतीय ज्ञान परंपरा उपहासास्पद बनी रही। राम तक को 'मिथ' घोषित कर दिया गया था। शिवाजी और महाराणा प्रताप का नाम लेना गुनाह था।
इसी बीच भूमंडलीकरण का दौर चला। उससे राष्ट्रीयता की परिधि टूट गयी और प्रतिभा पलायन कई गुना बढ़ गया है। जनकविता, जनकथा, जननाट्य आदि हाशिये पर पहुँच गये। समूची जनवादी चेतना ही बिखर गयी। ज्ञान और मनोरंजन देने के दूसरे बेहतर विकल्प (जैसे-टी०वी०, सोशल मीडिया, इण्टरनेट, फोन आदि) समाज को मिल गये जिससे साहित्य की पठनीयता-पाठकीयता बहुत कम हो गयी। प्रकाशन दुर्लभ हो गया और साहित्य दिनचर्या से काफी दूर चला गया। दूसरी ओर विडम्बना यह कि हर तीसरा व्यक्ति कवि कथाकार हो गया। आज भी उनकी बेतहासा किताबें छप रही हैं। इस झाँड़ झंखाड़ में सही लेखन दब गया है। शोधक समीक्षक अपनी 'एन०जी०ओ० एजेन्सी' चला रहे हैं। पाठक अस्त-व्यस्त है, फिर सही साहित्य की कौन खोजे?
इन चुनौतियों का दूरदर्शिता और दृढ़ता के साथ सामना करना तथा इनके विधेयात्मक विकल्पों की खोज करना वर्तमान साहित्य के साथ-साथ आगामी शताब्दी में साहित्य के सार्थक अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है। आवश्यकता यह है कि कविता को जन जन की वाचिक परंपरा से जोड़ा जाए। मंचों पर व्यावसायिक विदूषकों की जगह सही कवियों को स्थान दिया जाए। संगीत के सहारे कविता का जन संप्रेषण बढ़ाया जाए और उसके द्वारा जन-प्रबोधन दिया जाए। कथा लेखन द्वारा 'मानुष धर्म' सिखाया जाए। उसे संकीर्ण मतवाद से तथा विमानवीकरण से मुक्त किया जाए। नाटक को तकनीकी 'ग्लैमर' से मुक्त करके जननाटक / जनमंच में ढाला जाए। समीक्षा को शिविर बद्धता से मुक्त किया जाए। परंपरा और नवीनता दोनों को सापेक्षिक महत्व मिले। बोलियों तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सह संबंध विकसित हो, ताकि विघटन रुके और समेकित भारतीय साहित्य उभरे। सहकारी प्रकाशन, विपणन, सार्वजनिक पुस्तकालय, सरकारी खरीद, पाठ्यक्रम, शोध समीक्षा, पुरस्कार अलंकार आदि की सुव्यवस्था सुनिश्चित की जाए। साहित्य को प्रयोजन मूलक अर्थात् रोजगारपरक भी बनाया जाए और मात्र राज्याश्रय का सहारा न लिया जाए। साहित्य का सृजन प्रशिक्षण अधिकाधिक उपलब्ध कराया जाए, पाठकीय अभिमत एकत्र किए जाएँ और फिर लोकमत के आधार पर (रेटिंग ,रैंकिंग द्वारा) साहित्यकारों का 'ग्रेड' निर्धारित किया जाए। इसी तरह अनुवाद के लिए एक प्राधिकरण का गठित होना न्यायोचित होगा। साहित्य का सबसे बड़ा प्रदेय होगा-समकालीन समस्याओं के निराकरण हेतु संवेदनात्मक धरातल की सृष्टि करना। यह रचनाकार के सघन भावनात्मक लगाव द्वारा ही सम्भव होगा। यही उसके मूल्यांकन का सबसे विश्वसनीय निकष होना चाहिए। प्रयास यह करना है कि साहित्य की स्वायत्तता बनी रहे और सार्थकता भी। न वह कला कौतुक की प्रदर्शनी बने, न प्रचार का भोंपू, बल्कि सही अर्थों में वह मानव संवेदन तथा विश्व ज्ञान से युक्त एक समेकित 'विद्या' का रूप ग्रहण कर ले।
इसके लिए बिखरी हुई इकाइयों का एकीकरण करना होगा। पहले पत्रकार, मंचीय कवि, हिन्दी प्रचारक और शिक्षक भी साहित्यकार वर्ग में गण्यमान थे। पिछले दशकों में कुछ मदान्ध रचनाकारों ने शिक्षकों को अलग कर दिया, उन्हें 'एकेडमिक, "विश्वविद्यालयीय एवं प्राध्यायकीय समीक्षक' नाम देकर। रचनाकार स्वयं समीक्षक बन बैठे। फलतः समीक्षा आत्म-विज्ञापन बन गयी और खेमों में बँट गयी। समीक्षा से 'टेक्स्ट' गायब हो गया, इसीलिए उसकी विश्वसनीयता कम हो गयी है। 'सर्जनात्मक समीक्षा के नाम पर वह मुहावरेदार लफ्फाजी में परिणत हो गयी। स्वाध्याय संपदा एवं शोधवृत्ति के अभाव के कारण वह केवल समकालीन पत्रिकाओं के फसली नारों में उलझकर रह गयी है। उसका स्थायित्व एवं मानकीकृत आकलन प्रायः समाप्त हो गया है। दुर्भाग्यवश पत्रकारों / संपादकों ने सत्ता-सुख के प्रलोभनवश राजनेताओं को वरण किया और साहित्यकारों को प्रायः छोड़ दिया। मदांध साहित्यकारों ने उनकी अवमानना भी की। फर्ज अदायगी के रूप में कुछ साप्ताहिक स्तंभ और 'फीडर' के रूप में छपने वाली कुछ कविताओं या विवादी लेखन से जुड़े लेखों के अतिरिक्त स्थायी महत्व वाली रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं से लगभग लुप्त हो गयीं। लघु पत्रिकाएँ प्रायः आत्म प्रचार के लिए छपती रहीं, पर उनकी पाठक संख्या बहुत सीमित रही और वे प्रायः दलीय दलदल में लथपथ रहे। सोवियतसंघ के विघटन से उनका वित पोषण बहुत कुप्रभावित हुआ है। वे मात्र विज्ञापन के सहारे चलते रहे इसीलिए सत्ता तथा पूँजीवादी व्यवस्था का छद्म पोषण करने के लिए अभिशप्त रहे। इसीलिए अब उनका कोई जनाधार नहीं रहा। इस भौतिक प्रपंच में पठनीयता दिनचर्या में नहीं रह गयी अतः ग्राहक पाठक बहुत कम हो गए है।
उक्त अवधि में अच्छी कविता मंच से उखड़ गयी। पहले निराला, दिनकर, बच्चन आदि कवियों की धूम मंचों पर भी रहती थी। प्रयोगवादी दौर में बुद्धिवादी कवियों ने मंच की उपेक्षा की। उन्होंने वाचन कला, संप्रेषणीयता और प्रासंगिकता की उपेक्षा की, प्रबुद्ध श्रोताओं की उपेक्षा की और छंद की उपेक्षा करते हुए दलीय विचारधारा तथा आयातित कला-करतब या गद्यात्मक वक्तव्यों को प्रश्रय दिया। उन्होंने कविता को अकविता, कहानी को अकहानी और नाटक को अनाटक (एब्सर्ड नाटक) बना दिया, जिससे श्रोता, दर्शक, पाठक भी अपाठक बन गये। अज्ञेय तक ने घोषित कर दिया था कि संप्रेषण की हम चिन्ता नहीं करते, यानी जिसकी गर्ज हो वह पढ़े। इस बीच जनता को एक बेहतर विकल्प (दृश्य माध्यम) मिल गया, जिससे मंचीय कविता की अनिवार्यता समाप्त हो गयी। दूसरी ओर मंचों पर चुटकुलेबाज विदूषक भर गए। उन्होंने समकालीन राजनीतिक विडम्बनाओं पर हास्य विनोदपूर्ण लतीफों की नाटकीय प्रस्तुति करके सतही श्रोताओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। कविता केवल दिखावटी किताबों तक सीमित हो गयी। यह विचारणीय है कि कविता मूलतः 'श्रुतिकाव्य' है। किताबी कविता उतना संप्रेषण नहीं कर पाती। अच्छी कविता मानुष भाव का प्रबोधन देती है, भाँति-भाँति की जानकारी देती है, संवेदना जाग्रत करती है, स्वस्थ मनोरंजन करती है और जीविकोपार्जन के श्रेयस्कर साधन सुलभ कराती है। बहुत सोच समझकर, सैकड़ों वर्ष पूर्व आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रयोजनों में "यशसे अर्थकृते व्यवहार विदे'' अर्थात् कीर्ति, अर्थ लाभ और दुनियादारी को स्थान दिया था, जिसे बुद्धिवादी रचनाकारों ने आत्मविज्ञप्ति, कलाबाजी तथा विदेशी फैशन में ढालकर लगभग नष्ट कर डाला।
आज आवश्यकता है कि कविता में उर्दू की रवानगी भरी जाए, लोकधुनों को स्थान दिया जाए, अच्छे फिल्मी गीतों को भी अपनाया जाए, जनपदीय भाषाओं की कविता को भरसक उठाया जाए, भाषा विघटन को रोका जाए और काव्य-पाठ का रियाज कराया जाए। अपनी समसामयिक समस्याओं, जैसे-बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, शोषण, राष्ट्रैक्य, पर्यावरण-प्रदूषण, जनसंख्या-नियंत्रण, साम्प्रदायिकता, अलगाववाद आदि पर लिखना अब अधिकाधिक श्रेयस्कर होगा। कविता का मूल हेतु है- सात्विक और करुणा। यदि अपनी रचनाओं द्वारा जिम्मेदार सत्ता व्यवस्था के प्रति हमारे रचनाकार जन-जीवन में अमर्ष भाव पैदा कर सकें और भारतीय समाज की जो दुर्दशा हुई है, उसके प्रति सहृदय समाज में करुणा का उद्रेक कर सकें तो उन रचनाओं की उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाएगी। मीडिया ने आज इसी शैली के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। इसी पद्धति पर चलकर साहित्य सच्चे अर्थों में जन जन का साहित्य बन सकता है।
साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए अब मीडिया प्रबन्धन भी आवश्यक है। मंचीय आयोजन के लिए 'इवेन्ट मैनेजमेण्ट' आवश्यक है और मंचीयता भी। सही मानदेय का निर्धारण आवश्यक है और, व्यावसायिक शुचिता भी। हमें पाठकों-श्रोताओं की माँग को ध्यान में रखकर, उनका अनुकूलन करके, साथ ही युक्तिपूर्वक उनका स्तरोन्नयन करते हुए साहित्य-सृजन करना होगा। केवल 'स्वान्तः सुखाय' की गयी रचना का प्रकाशन अनिवार्य नहीं होता। रचना का वाचन करने के पूर्व उसे आत्मसात करना आवश्यक होता है। डायरी से पढ़ी गयी कविता पूर्णतः संप्रेषित नहीं हो पाती। सही संप्रेषण हेतु अनुभावों की भाषा की महती भूमिका होती है।
हिन्दी को बचाने और बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि उसे गरिमा मण्डित किया जाए, यानी भाषा को लोक मान्यता दिलायी जाए। सही अर्थों में राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा रूप में उसे प्रतिष्ठित किया जाए। पारिभाषिक शब्दों को सुपाच्य बनाया जाए। 'विश्व हिन्दी' एवं प्रवासी लेखन, बल्कि 'डायस्पोरा' को बढ़ावा दिया जाए। हिन्दी को भारतीय साहित्य की ध्रुवक या केन्द्रवर्ती भाषा बनाया जाए और भाषा-व्याकरण, वर्तनी, लिपि तथा उच्चारण का मानकीकरण किया जाए। वर्तमान साहित्य सृजन में शाश्वत तत्वों एवं प्रासंगिक तथ्यों का संतुलन अत्यावश्यक है। अब दैवी सिद्धांत का तर्क त्यागकर सृजन प्रौद्योगिकी का विकास करना और लेखन-वाचन कला, कमेण्ट्री, कंपेयरिंग, उद्घोषणा कला अर्थात् आर्ट आफ स्पीच को सीखना सिखाना होगा। हिन्दी के साथ व्यावसायिक कलाएँ, जैसे-पटकथा लेखन, संवाद लेखन, रेडियो वार्ता, फीचर, रंगालेख, प्रचार साहित्य लेखन, डाक्यूमेंट्री, रिपोर्ताज़ आदि विधाओं का सन्निवेश कर लिया जाए तो साहित्य रोजगार से जुड़ जाएगा और तब यह हिन्दी नयी पीढ़ी से भी जुड़ जाएगी।
सर्जनात्मक लेखन के साथ-साथ हिन्दी में ज्ञान-विज्ञान पूर्ण वैचारिक लेखन की बड़ी आवश्यकता है। इन दिनों शब्दकोशों, विश्वकोशों और सन्दर्भ ग्रन्थों की बड़ी आवश्यकता है। हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ संकलनों उच्चस्तरीय शोध-समीक्षा ग्रन्थों और श्रेष्ठ सस्ते प्रकाशनों के बिना इस भाषा का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। हमें साहित्येतिहास का पुनर्लेखन करना होगा, हिन्दी का निजी साहित्यशास्त्र निर्मित करना होगा राजकीय संस्थाओं की गतिविधि को पारदर्शी बनाना होगा और लेखन प्रकाशन, की सहकारी व्यवस्था करनी होगी, ताकि लेखकों को समुचित पारिश्रमिक मिले और वे सम्मानपूर्वक जीवन-यापन कर सकें। तब उनका शोषण भी न किया जा सकेगा। हिन्दी के बृहत्तर हित में अनुवादों की बड़ी आवश्यकता है। उसके नियमन के लिए एक 'राष्ट्रीय प्राधिकरण' तथा प्रशिक्षण का प्रबन्धन करना बेहतर होगा।
सर्वाधिक दुर्दशा इधर शोधकार्य की हुई है। प्रायः समकालीन साधारण रचनाकारों पर 'रिसर्च टॉपिक दिए जा रहे हैं, मैत्री निभाने, उनसे प्रतिलाभ लेने और अपनी नवीनतम जानकारी का दिखावा करने के लिए। प्राचीन काव्य, भाषाशास्त्र, काव्यशास्त्र, पाठालोचन प्रमाद एन और सर्वेक्षणपरक खोज प्रायः बन्द हो गयी है। शोधार्थियों का प्रमाद एवं शोषण बढ़ता जा रहा है। निर्देशन परीक्षण के नाम पर क्रूर मजाक, बल्कि जघन्य अपराध किया जा रहा है। थीसिसों के सरकारी प्रकाशन, पुरस्कार, खरीद आदि पर रोक लगी हुई है। शोधपत्र के नाम पर उस बीच नकली 'रिसर्च जनरल्स ' का धन्धा चल पड़ा था, बिना जाने कि रिसर्च पेपर होता कैसा है? कुल मिलाकर आज की हिन्दी को उपयोगिता से जोड़ना जरूरी है। यदि कविता में पाठकीयता-श्रवणीयता नहीं होगी, कथा-कृतियों में यदि किस्सागोई (कथारस) तथा आदर्श यथार्थ पूर्ण रचनात्मक समाधान नहीं होंगे, यदि नाटक द्वारा जनसंवाद नहीं होगा, समीक्षा में यदि न्याय-निष्ठा नहीं होगी, यदि नयी-नयी गद्य विधाओं का नवोन्मेष नहीं होगा और भूले-बिसरे रचनाकारों के विलुप्तप्राय हस्तलेखों का यदि सम्पादन नहीं होगा तो साहित्य की उपादेयता पूरी तरह सिद्ध नहीं हो पाएगी। हिन्दी के परिविस्तार के लिए हमें सीमान्त प्रदेशों की जन जातियों की बोलियों के साथ जुड़ाव स्थापित करना होगा। कई पूर्वोत्तर प्रदेशों में छोटी छोटी दर्जनों बोलियाँ हैं। मिशनरी प्रचारक वहाँ अंग्रेजी का जाल फैला रहे हैं। जनजीवन में वहाँ, हिन्दी प्रचलित है, किंतु नागालैण्ड और मिजोरम में अंग्रेजी को राजभाषा बना दिया गया है। यदि सुनियोजित रूप से प्रयास किया जाए तो अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम आदि राज्यों में हिन्दी को राजभाषा बनाया जा सकता है। हमें आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जाकर उनके बीच हिन्दी को स्थापित करना होगा। साथ ही समस्त भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा परस्पर भावैक्य बढ़ाना होगा। समकालीन भाषा-साहित्य तथा संस्कृति की इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक मिशन/आपरेशन की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस दिशा में उठाया गया एक सही कदम है। इसके सहारे एक राष्ट्रीय नीति निर्मित हो सकती है।
हार्दिक शुभकामनाएं
प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित