व्यंजना

त्याग

- डॉ. आरती सिंह


करना चाहती हूं

त्याग

तुम्हारा...

या मेरा?

त्याग तो होगा

भावनाओं के

जाल में फंसे

अवसादों का

रीती भावनाओं का

जो न चाहते हुए भी

मुझे जकड़े रखते हैं

त्यागना तो होगा...

उन शीत अश्रुओं को

जो मेरी यादों को

मेरे उन जज़्बातों

को मिटाने बह चलते हैं

जिन्हें पोस पोस कर

जिन्दा रख रही हूं

जहां स्नेह, ममत्व, प्रेम

के उपसर्ग समाहित हैं

त्यागना चाहती हूं

उस घुटन को

उन उखड़ी सांसों को

जो मुझे निरीह बना देती हैं

पर डरती हूं

जब त्याग करुंगी

इन्हें...

तुम्हें...

तब मैं तुम न बन जाऊं...

और तुम मैं न बन जाओ...

क्योंकि तब परिवर्तन की

सम्भावना हो सकती है

पर शायद वक्त

निकल चुका हो

इसलिए सिर्फ सोच कर

रह जाती हूं

करना चाहती हूं

त्याग

तुम्हारा......

या

खुद का.....?

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वात्सल्य के हरसिंगार

- डॉ. आरती सिंह


हतप्रभ थी मां यशोदा

शंकाओं-कुशंकाओं के

डोर से बंधती और छूटती

जा रही थी...

बाहर और भीतर

मन में तड़कती बिजली . ..

एहसासों को बिखेर रही थी...

इधर नन्हें शिशु की

क्षुधा तृप्ति की रुदन से..

उसकी आत्मा थी व्याकुल...

कान्हा के प्रश्न वाचक

लोर भरे नैन....

टुकुर -टुकुर ताक

रहे थे मां को....

नन्हें-नन्हें हाथ

मां के वक्ष पर मारते

कर रहे थे मनुहार

चाह थी समेट लो

आंचल में मुझे मां...

शंकाएं तोड़

ममत्व ने की

परिधि की

पराकाष्ठा पार

शिशु को

छट सीने से लगाया...

स्तन पर

नन्हें होठों के

प्रथम स्पर्श

से ही बदल गयी

सारी संवेदनाएं

और झरने लगे थे

*वात्सल्य के*

*हरसिंगार....*

और तब न रह गया

यशोदा मैया का

कोई सवाल.... ।

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अहिल्या

- डॉ. आरती सिंह


अबोधपन में लीन

गर कभी अपने

आराध्य को मनन करते

भूल गयी अपनी मर्यादाएं

और जाने-अनजाने

छल की गयी अन्य पौरुष से ....

तब तुमने मुझे कुल्टा,

बदचलन समझ

स्वयं अर्थ बना लिया?

हम दोनों हैं तपस्या रत

चातक सा साध

बैठे हैं वानप्रस्थ...

मैंने कभी तुम्हारी

साधना में न डाला ख़लल

न ही किया बाध्य

न दिया दख़ल...

किंतु तुमने मेरी भक्ति

मेरी करुणा मेरे समर्पण को..

तत्क्षण बदल दिया

अपने पौरुष के अंहकार से

अवचेतन विचारों के तले

काले पाषाण में???

कौन सा तप करते हो?

जो विचारों की धारा

शीघ्रातिशीघ्र

दुर्बल हो जाती है?

आशंकाओं का कुहासा

घेर लेता है तुम्हें....

मैं अब भी खुश हूं

सान्द्र प्रेम में लीन

तटस्थ, एकमेव

करती रहूंगी अपने

आराध्य का मनन...

इंतज़ार रहेगा

इस अरण्य में

चरणों की धूल पाने

नील माधव का......।

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पुरुष

- डॉ. आरती सिंह


तुम इतने सरल

कैसे हो सकते हो?

मैंने तो हमेशा से तुम्हें

वहशी, दरिंदा , भूखा समझा.....?

नहीं .....!

तुम तो उस तटस्थ पर्वत जैसे हो

या....ये कहूं तो अतिश्योक्ति न होगी

कि तुम बरगद या चीड़ के उस

वृक्ष की तरह हो...

जो सूरज का उजाला

पहले खुद आत्मसात

करने के लिए ऊंचाइयों पर

तैनात रहता है...

ताकि उस उजाले को

अपने अंदर भर

ऊर्जावान बन...

दिन भर अपनी

पनाह में बैठने वालों को

चैतन्य से ऊर्जावान कर सके....

या उस विशाल पर्वत की तरह

जो पंचतत्व का अप्रतिम माध्यम बन

उसकी क्रियाओं को कम या ज्यादा कर

जीवन को संतुलित करता है ....?

कोई उसे समझ न पाया

या समझना नहीं चाहता

अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में भी वह

छाती फाड़ अपना दर्द नहीं कह पाता....

और न खुशियों को

प्रतिकृत कर पाता है.…

यह एक ऐसा व्यक्तित्व है

जो एक हद तक

कठोर है,सत्य है

और

खूबसूरत भी....

सदैव निश्छल

और स्वार्थ से दूर भी.....!!

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अलौकिक रहस्य प्रेम का

- डॉ. आरती सिंह


इन नैनों को

सागर प्रिय है

और यह उतना ही

विशाल है

जितना कि आसमां....

क्षितिज पर यह आसमां

नैनों के कोर जैसा

खूबसूरत प्रतीत होता

मानो काजल की

महीन लकीर सा....

और तब नैन भी

बन जाते हैं

इनके प्रेम में विशाल...

सागर और

आसमां को अपने

अंदर समेट लेने की

होती है चाहत

कितना खूबसूरत एवं

अलौकिक

संबंध है नैनों से इनका

भाव ही नहीं झलकते इनसे...

बल्कि हृदय की अभिव्यंजनाओं को

दर्शाते भी तो हैं ...

व्यथित होने पर

जल चक्र की प्रक्रिया

प्रारम्भ हो जाती है

और यह सागर जल

बह कर...

उसे शीतल नोन से सेतने

का करते हैं प्रयास...

हर्षित होने पर

दूधिया से नैन

अबोध हंस

की तरह

ललक उठते ..

इसलिए उसे सागर...

आसमां एवं नैनों का

अंतरंग संबंध पसंद हैं...

और हां! संग चांदनी का भी...

वह भी तो अभिव्यंजनाओं में

रची-बसी है

इन भावों की तरह ही

घटती-बढ़ती है....

सागर की तरह

उठती-बहती है....

सागर...

आसमां....

चांदनी का...

नैनों से

सबका अलौकिक रहस्य

प्रेम ही तो है.......।






Arti ArtiSingh

|| डॉ. आरती सिंह ||


परिचय :

डॉ. आरती सिंह एकता

नागपुर

अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी है

1- बारिश में भीगती नदी मध्यप्रदेश लेखिका संघ द्वारा पुरस्कृत

2- सलिलम्-सलिलम्

अनेक राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मान प्राप्त।

अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है।

मोबाइल : 9823223380

singhartiekta@gmail.com


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