व्यंजना

आत्मकथा अंश

पके फलों का बाग

- प्रबोध कुमार गोविल


कहानीकार- उपन्यासकार प्रबोध कुमार गोविल की आत्मकथा के तीन खंड - इज्तिरार, लेडी ऑन द मून और तेरे शहर के मेरे लोग प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चित हो चुके हैं। उनकी आत्मकथा के चौथे (अंतिम) खंड का एक अप्रकाशित भाग पाठकों के लिए प्रस्तुत है


लगभग सात दशक के अपने जीवन में जिस बात ने मुझे सबसे ज़्यादा हताश किया, वो ये थी कि भारत में हमारा समाज आज तक उन लोगों के पक्ष में नहीं खड़ा हो पाया जो ख़ुद इसी समाज के बनाए नियमों के लिए प्रतिबद्ध हों। बात कड़वी है मगर सच है कि अगर आप अनुशासित हैं, नियम कानून से चलने वाले हैं तो आप किसी गिनती में नहीं हैं।


आपकी शोहरत इस बात में है कि विरोध करें, प्रतिरोध करें, जो कुछ तय किया गया हो उससे छिटक कर बात करें और नकारात्मक शक्ति प्रदर्शन करें।


यूं हमारे पास दीवारों पर टांगने के लिए "सत्यमेव जयते" की तख्तियां हैं, लोगों को सिखाने के लिए "सदा सत्य बोलो" जैसे जुमले हैं और "सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला" जैसे नारे हैं। किन्तु सच ये है कि हम में से अधिकांश लोग कहने को कुछ और तथा करने को कुछ और पर विश्वास रखते हैं।


ख़ैर, ज़िन्दगी में नकारात्मकता को कम से कम मैंने इतनी अहमियत कभी नहीं दी, कि उस पर इससे ज़्यादा बात करूं।


हां, अगर मैं ठीक नहीं कह रहा तो बताइए। अपनी बात सिद्ध करने के लिए मैं वचनबद्ध हूं।


वैसे भी मुझे वैचारिक बातें करने से स्थूल भौतिक बातें करना ज़्यादा अच्छा लगता है। थोड़े में बतादूं कि मेरा मतलब क्या है।


मुझे लगता है कि वैचारिक बातें उम्र सापेक्ष हैं, उम्र मतलब आपकी आयु नहीं।


अरे, उम्र मतलब आयु नहीं तो फ़िर और क्या? यही सोच रहे हैं न आप?


मेरा मतलब है कि विचार तो वो कांटा है जिससे हम मछली पकड़ते हैं। और मछली कब पकड़नी है, क्यों पकड़नी है, कितनी पकड़नी है, ये सब उम्र पर निर्भर है।


एक उम्र होती है जब आपको मछली परोसी जाती है, एक उम्र होती है जब आप पकड़ते हैं, एक उम्र होती है जब आप पकड़ नहीं पाते...मतलब विचार उम्र सापेक्ष है।


जब आप पैंसठ साल से ज़्यादा के हो जाते हैं और आपका जीवनसाथी नहीं रहा तो आपका जीवन उस पेड़ की तरह हो जाता है जिसमें कोई खाद- पानी देने वाला न हो। जिसके पात झर जाएं, जिससे अपनी ख़ुद की हवा भी न मिले।


अब ऐसे में कोई क्या करे?


ये पेड़ ऐसा भी तो नहीं होता कि खाद- पानी न मिलने से एक दिन में सूख जाए और भरभरा कर गिर पड़े। ये तो आहिस्ता - आहिस्ता ही बीतता है। तब तक आपको रहना ही होता है।


लेकिन मैंने देखा कि दुनिया में ऐसा कोई सवाल नहीं है जिसका जवाब न हो।


अगर आप अपनी सूखी शाखाओं पर परिंदों को नीड़ बनाने दें तो उनकी चहल - पहल आपमें रस भर देती है। उनकी क्रीड़ा आपके अंग खिला देती है।


उनकी चेष्टाएं आपका जीवन सहलाने लगती हैं बशर्ते आप एक मूक दर्शक की तरह उनका आनंद लें। हां, अगर आपने उनके जीवन में दाख़िल होने की चेष्टा की तो बात बिगड़ सकती है। क्योंकि उनके माध्यम से आपको दोबारा ज़िन्दगी नहीं मिली, बल्कि स्मृतियों का एक झरोखा मिला है जिससे आप अपने अतीत में झांक सकें।


एक बार एक परिचित लड़का मेरे पास आकर बोला- सर, यदि आप बुरा न मानें तो आपसे एक निवेदन था। क्या मैं एक दिन के लिए मेरी गर्लफ्रेंड को यहां ला सकता हूं? - क्यों?


लड़का शरमा गया। फ़िर कुछ संयत होकर बोला - सर, हम दो साल से एक दूसरे को जानते हैं। कॉलेज में, फ़िल्म हॉल में, पार्क में मिलते भी रहे हैं।


लेकिन जब तुम उससे मिलते ही रहते हो तो उसे यहां क्यों लाना चाहते हो? ये प्रश्न मेरे दिमाग में तो आया पर मैंने किसी गिरते असबाब की तरह झपट कर उसे ज़ुबान से फिसलने से रोक लिया।


मैंने सोचा - लड़का क्या सोचेगा, मुझमें इतना भी कॉमन सेंस नहीं है?


मैंने घर में अकेले बैठे हुए कई बार देखा था कि कोई खिड़की ज़रा सी खुली रह जाने पर बाहर से कबूतरों का कोई जोड़ा ललक से भीतर झांकता है। मानो अन्दर आ जाने देने की अनुनय कर रहा हो।


कबूतरों का किस्सा अलग है।


इस बात में तो न मेरी दिलचस्पी है और न आपकी होगी कि मैंने उस लड़के को उसकी गर्लफ्रेंड लेकर आने दिया या नहीं, क्योंकि जब वो दोनों एक दूसरे के मित्र हैं ही तो कहीं भी जाकर कुछ भी करें, हमें क्या? लेकिन इस बात से मेरे दिमाग़ की डायरी में एक नया पृष्ठ ज़रूर खुल गया। आइए, कुछ देर उसी की बात कर लें।


मैं अपनी एक निजी और गोपनीय आदत के बारे में आपको बताता हूं। मैं जब किसी को भी देखता हूं तो उसके शरीर के विभिन्न हिस्सों को ध्यान से देख कर ये सोचने लग जाता हूं कि समय के साथ साथ इनमें क्या बदलाव आएगा। वैसे अकारण किसी को गौर से देखना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। अजनबियों के मामले में तो ये अशिष्टता ही मानी जायेगी। लेकिन हकीकत ये है कि इस बात पर पाबंदी कैसे लगे? अब अगर कोई किसी को देख रहा है तो देख रहा है। हां, अगर कोई दबंग औरत या आदमी हो तो वो अपने को घूरने वाले को और भी कड़ी नजरों से देख कर उसकी नज़र फेर सकता है। साधारण व्यक्ति तो इस पर ध्यान भी नहीं देता।






prabodh

|| प्रबोध कुमार गोविल ||


प्रबोध कुमार गोविल

बी 301, मंगलम जाग्रति रेजीडेंसी, 447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर - 302004 (राजस्थान)

प्मो. 9414028939

ईमेल: prabodhgovil@gmail.com


.....................................