व्यंजना

बाज़ी उलट गई

- भगवान अटलानी


नाना-नानी इसी शहर में अकेले रहते हैं। अपनी बेटी के घर हमेशा के लिये रहना उन्हें मंज़्ाूर नहीं है और बेटा है नहीं उनका। वैसे अकेला रहने के कारण उनको कोई तकलीफ़ नहीं होती। नाना बड़े पद से रिटायर हुए हैं। भरपूर पेन्शन मिलती है। बैंक से फ़िक्सड डिपाज़िट पर अच्छा-ख़ासा ब्याज मिलता है। कई दुकानें, मकान किराये पर चलते हैं। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर सब कुछ है उनके पास। वैसे बीच-बीच में पापा दोनों को ले आते हैं। जब तक नाना-नानी चाहते हैं या मम्मी-पापा रोक सकते हैं, घर पर साथ रहते हैं। कुछ दिनांे से नाना-नानी हमारे घर पर हैं। सब लोग लंच केे लिये मेज़ पर बैठ चुके हैं। सदा ख़ुश रहने और मुस्कराने वाले नाना ने जेब से निकालकर नानी को गोली दी है, “पानी दूं?”


“नहीं, ले लूंगी।”


“सच बताना नाना, आप यह सब हमें दिखाने के लिये तो नहीं करते हैं?” आगा-पीछा सोचे बिना मैं अचानक नाना से पूछती हूं।


नाना केे चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गई। वे ख़ामोश से मुझे देखते रहे, कुछ बोले नहीं।


बुरा तोे नहीं लगा नाना?”


“हां, बुरा लगा।”


“क्यों? क्या बुरा लगा?”


“इतने सालों से देखते रहने के बाद भी तू हमारे बारे में इस तरह सोचती है?”


शुरू से मुंहफट हूं। इसका नुकसान और फ़ायदा मुझे मिलता रहता है। हूं अभी तेईस की। क्यों है ऐसा? इकलौती संतान होने के कारण? मूल स्वभाव के चलते? कुछ भी हो मगर मनमर्ज़ी करना मेरी आदत बन गई है। मालूम है कि मम्मी-पापा को पसन्द नहीं है। फिर भी कपड़े-लत्ते, खाना-पीना, सैर-सपाटा, सोना-जागना, यारी-दोस्ती, मौज-मस्ती और बिन्दास ज़िन्दगी के मामले में उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करती हूं। मम्मी-पापा ने पहले समझाया, एतराज़ किया, बहस की, नाराज़ हुए। जब लगा कि यह लड़की वही करेगी जो इसे भायेगा तो चुप हो गये। आज भी कई बार हाव-भाव देखकर उनकी कुढन को साफ़ तौर पर महसूस करती हूं। मगर मैं हूं कि न परवाह करती हूं और न चिन्ता। उसी तरह जीती हूं, जैसा मुझे अच्छा लगता है।


“साॅरी नाना, पता नहीं क्यों मुझे नानी के ऊपर छलकता आपका प्यार अजीब लगता है।”


नाना के होंठों पर मुस्कान लौट आई है। आंखों में प्यार उतर आया है। इन्होंने पहले नानी को और फिर मुझे उन प्यार पगी नज़रों से निहारा है। बोले कुछ नहीं हैं।


“चल, नानी-नाना की प्लेट में खाना लगा दे।” यह मम्मी है।


सवाल कीड़ा बनकर मेेरे दिमाग़ में रंेग रहा है। आज भले ही औरत अपने हक़ों की बात करती हो मगर नाना की जवानी में तो बाक़ायदा घंूघट निकालती थीं। नाना पोंगा पंथी नहीं हैं। आज तक मेरे उठने-बैठने या पहनने को लेकर कभी कुछ नहीं कहा है उन्होंने। नानी ज़रूर बीच-बीच में उल्टा-सीधा बोेल देती हैं। मगर जब वे मेरे ऊपर झल्लाती हैं तब भी नाना मुस्कराते रहते हैं। कुछ कहते नहीं हैं। न मुझे और न नानी को। कई बार मेरी बहस से लाजवाब नानी उनकी तरफ़ देखकर कहती भी हैं, “आप इसे समझाते क्यों नहीं हैं?”


इसके बावजूद नाना की चुप्पी और मुस्कान की जुगलबंदी टूटती नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा, स्नेह भरी आवाज़ में मुझे कहते हैं, “क्यों तंग कर रही है नानी को? आ, मेरे पास आ। तेरी कनपटियां सहला दूं।”


जवानी में नाना ने नानी को अपने ढंग से ज़रूर चलाना चाहा होगा। नाना-नानी में झगडे़ भी हुए होंगे। उस समय के अनुसार जीत नाना की ही हुई होगी। न मैंने कभी पूछा है और न मम्मी ने या नानी ने कभी बताया है। गुज़रे ज़माने का ज़िक्र उनकी बातों में आती हैं तो ऐसा लगता है, नाना-नानी की ज़िन्दगी फूलों की सेज रही है हमेशा। भले ही अभी छोटी हूं मगर मुझे अच्छी तरह मालूम है कि दुख-दर्द, उतार-चढाव हरएक ने अपनी ज़िन्दगी में देखे होते हैं। नाना-नानी के दिन सदा सुख भरे रहे होंगे, कैसे मान लूं?


मां-बाप, रिश्तेदार दोनों के होंगे। मर्दों की दादागिरी और औरतों की मजबूरी ख़ूब देखी होगी दोनों ने। लड़कों को लड़कियों से पहले हर सहूलियत देने के उस दौर में नाना ने भी मज़े किये होंगे। दिमाग़ इसी तरह सोचने लगा होगा। कुछ ठोक-पीटकर, कुछ सिखा-पढाकर बचपन से जवान होने तक नानी को संाचे में ढालने के लिये क्या नहीं हुआ होगा? नानी के ऊपर असर तो ज़रूर हुआ होगा मगर नाना कैसे बच गये? वातावरण ने अछूता कैसे छोड़ दिया उन्हें? जितना ध्यान वे नानी का रखते हैं उसे देखकर बिल्कुल नहीं लगता है कि काजल की कोठरी में रहते हुए भी नाना के कपड़ों पर कोई दाग़ लगा है।


मम्मी बताती हैं कि पापा से उनकी शादी का फ़ैसला अकेले नाना ने लिया था। नानी समेत सब लोग ख़िलाफ़ थे। हों भी क्यों नहीं? पापा की लम्बाई है पांच फुट दस इंच। मम्मी की लम्बाई है पांच फुट। देखकर जमती ही नहीं है जोड़ी। मगर नाना थे कि सुनी ही नहीं किसी की। पापा को देखा, परखा, पसन्द किया, मम्मी-पापा की मुलाक़ात कराई। फिर सीधा पापा से पूछा, “क्या विचार है?”


“मुझे सब कुछ ठीक लगता है।”


“लम्बाई देखी है?”


“मेरे विचार से, बाहर से देखने पर कौन कैसा लगता है इससे ज़्यादा ज़रूरी यह देखना है कि अन्दर से कौन कैसा है?”


“देख लिया?”


“जी।”


बस, फैसला कर लिया नाना ने। अकेली बेटी की शादी एकतरफ़ा तरीक़े से करने का फ़ैसला आसान नहीं रहा होगा नाना के लिये। मगर यह मुश्किल काम उन्होंने किया। अब अगर नानी की ज़रूरतों की इतनी चिन्ता नाना करतेे हैं तो कोई बात होगी, ज़रूर होगी। जो नाना, नानी सहित किसी की परवाह किये बिना बेटी की शादी करने का फ़ैसला करते हैं, वे बेशक अन्दर से मज़बूत हैं। मज़बूत नहीं, बहुत मज़बूत हैं। उम्र के आख़िरी पड़ाव पर खड़े नाना का, नानी के लिये खुले आम बिछ जाना कुछ कहता है। क्या कहता है? चुप नहीं बैठूंगी। पता लगा कर रहूंगी।


रात को नानी को आसानी से नींद नहीं आती है। गोली लेकर सोती हैं तो अगले दिन बेचैनी होती है। इसलिये घूमती रहेंगी, करवटें बदलेंगी, ख़ुद को कोसेंगी। मगर नींद की गोली नहीं लेंगी। तीन-चार-पांच जितने बजे भी नींद आयेगी, आयेगी। ग्यारह-बारह जितने बजे भी नींद खुले, उठेंगी तभी जब उठने की तबीयत होगी। नाना उन्हें उठाते नहीं हैं। मम्मी-पापा ने कहा भी, “मम्मी, कुछ दिन ज़िद करके जल्दी उठो। देखो, रात को कैसे जल्दी नींद आती है?” नानी ने अनिच्छा से दो-एक दिन उनकी बात मानी। फिर हाथ डाल दिये। ऊपर से नाना की शह, “सोने दो। नौकर हैं न? काम तो हो ही जाते हैं घर के।”


इस तरह नानी जागती रहती हैं और मज़े की बात यह है कि नाना हमेशा चैन की नींद सोते हैं। ऐसे सोते हैं कि घोड़े बेचकर सोने वाली वह कहावत याद आती है जो मुझे कई बार सुना कर मम्मी टोकती हैं।


नाना के सोने के बाद मैंने नानी को पकड़ा। अपने साथ ले आई। नानी ख़ुश कि रात गुज़ारने के लिए मुर्ग़ी फंसी। मैं ख़ुश कि आज फ़़ुर्सत से नानी के अन्दर घुसूंगी।


यों तो नानी और मम्मी को पता है। मम्मी ने पापा को बताया हुआ है। फिर भी मैंने जान-बूझकर अपने प्रेम प्रसंग को छेड़ दिया। हमेशा की तरह नानी ने बुरा-भला कहा। मैं न बिदकी, न भड़की। धीरज से सुनती रही। नानी बोल चुकीं तो मैंने कहा, “नानी, शादी तो मैं उसी से करूंगी। आप लोग नहीं मानेंगे तो कोर्ट में करूंगी। मैं फैशन डिज़ाइनर हूं। दो बार लंदन फैशन वीक स्काउट में शामिल होने के लिये इंगलैंड जा कर आई हूं। निखिल बी.टेक. कर चुका है। एम.बी.ए. कर रहा है। करले। फिर जाॅब और इसके बाद शादी। जहां जाॅब, वहां हम। आप बता सकती हो तो सुखी जीवन कैसे गुज़ारा जा सकता है, यह बताओ।”


“जा मर! मुझसे बात मत कर। मैं जा रही हूं।” नानी ने उठने की एक्ंिटग की है।


“आप जाओगी तो तब न, जब मैं जाने दूंगी। बताइये, शादी के बाद आपके साथ नाना का व्यवहार कैसा था?”


“अरी छोड़! हमारे ज़माने कुछ और थे।”


“फिर भी नानी, बताओ न?” मैं नानी को लिटाकर उनसे लिपट जाती हूं, “बताओ, नानी।”


नानी पिघल चुकी हैं। उनके चेहरे पर परछाइयां ही परछाइयां हैं।


“कभी खाना-वाना खिलाने नाना बाहर ले जाते थे या नहीं?”


“हां, ले जाते थे।”


“पिक्चर दिखाते थे?”


नानी को याद आ जाता है जैसे, “शादी के बाद पहली बार सिनेमा ले गये। लौटे तो वहीं पास के एक रेस्टारेन्ट में काॅफ़ी पीने चले गये। तेरे नाना ने काॅफ़ी के साथ आमलेट मंगाया। मैं शाकाहारी थी। इसलिये उन्हें बताया कि अंडा नहीं खाऊंगी। कुछ और मंगायें।”


“नाना को मालंूम नहीं था क्या कि आप शाकाहारी हैं?”


“नहीं।”


“फिर, क्या मंगाया उन्होंने? जो आपने कहा या अपनी मर्ज़ी चलाई?”


“अरी , सुन तो! पूछा, क्यों? अंडा क्यों नहीं खायेंगी आप?”


“फिर?”


“मैंने दोबारा बताया तो कहने लगे, आये दिन पार्टियों में जाना पड़ता है। डिनर के इन्वीटेशन होते हैं। वहां डिंŞक्स और नानवेज होता है। कई लेडीज़ ड्रिंक्स नहीं लेतीं। आप भी न लें तो चलेगा। मगर नानवेज सोशल ऐटीकेट का हिस्सा है।”


“आप मान गईं, नानी?”


“मैंने मना किया तो पूछने लगे, कभी तो खाया होगा? मैंने फिर मना किया तो हंसकर बोले, आज अंडे से शुरू करिये। धीरे-धीरे नानवेज पर आ जाइयेगा।”


“अच्छा बताओ नानी, क्या तब भी नाना आपको ‘आप’ कहते थे?”


”हां बेटा, यह उनके स्वभाव में है। घर के नौकर-नौकरानी को भी तेरे नाना ‘आप’ कहकर बुलाते हैं।”


“मगर नानी, मुझे तो ‘आप’ कहकर नहीं बुलाते हैं नाना?”


“अब तुझे भी ‘आप’ कहें नाना?”


मैं खिलखिलाकर हंसी, “क्या बात कही है नानी।”


“आगे क्या हुआ?”


“हुआ क्या? मैं नहीं मानी तो वे नाराज़ हो गये और कुछ खाये-पीये बिना मुझेे वहीं छोड़कर रवाना हो गये।”


“रवाना ही हो गये, आपको छोड़कर?”


“अब तेरे नाना आगे और मैं दौड़ती-दौड़ती पीछे। क्या बताऊं, किस तरह कार में बैठी?”


“अच्छा?”


“कई दिनों तक तेरे नाना ने मुझसे बात नहीं की। समझौता तब हुआ जब मैंने नानवेज खाने के लिये ‘हां’ कहा।”


“बडे़ ज़ालिम हैं नाना, लगते तो नहीं हैं ऐसे!”


“पूछ मत, अच्छे हैं तो अच्छे हैं। ग़ुस्सा आता है तो किसी की नहीं सुनते।”


“आपकी भी नहीं?”


“मैं तो क्या हूं री, भगवान की भी नहीं सुनते।”


“मगर अब तो आपकी हर बात मानते हैं। आपका इतना ध्यान रखते हैं।”


“हां, ध्यान रखते हैं। मगर शादी के बाद शुरू के सालों में बात-बात पर नाराज़ हो जाते थे।”


“ऐसा ही कोई दूसरा क़िस्सा बताओ न नानी!”


नानी चुप हो गई हैं और जैसे यादों के तूफान से घिर गई हैं। मैं ही टोकती हूं, “बताओ न, नानी?”

“पहली बार खाने पर गये तो मेरे मायके में सब्ज़ी में मिर्च ज़्यादा थी। इसमें गलती उन लोगों की नहीं थी,

क्योंकि वहां मिर्च बहुत तेज़ खाते हैं। तेरे नाना ने एक ग्रास लिया और उठ गये। मेरे भाई ने पूछा तो गु़स्से में जवाब दिया, आप लोग खाना खिलाना ही नहीं चाहते।”


“छोड़ दिया खाना?”


कारण पता लगा तो मेरे भाई ने माहौल हल्का करने के लिये कह दिया, “मिर्च के बहाने हम लोग आपके मिज़ाज की तल्ख़ी नापना चाहते थे।”


“अच्छा, यह कह दिया आपके भाई ने?”


“उस बेचारे ने तोे मज़ाक में कहा था मगर ये आग-बबूला हो गये। मुझसे कहने लगे, “मैं जा रहा हंू। आप चलेंगी या यहीं रहेंगी?”


“आपने क्या कहा?”


“मैं तुरन्त खड़ी हो गई और तेरे नाना के साथ चल दी।”


“नाना ठंडे हुए?”


“रास्ते में मुझसे बोले कि आगे से मैं आपके मायके नहीं जाऊंगा। मैंने कहा, आप नहीं जायेंगे तो मैं भी नहीं जाऊंगी।”


“फिर नहीं गईं आप मायके, नानी?”


“पूरे दो साल नहीं गई। जब मेरे भाई ने मेरे पापा के साथ मेरे ससुराल आकर इनसे सबके सामने माफ़ी मांगी तो तरे नाना मेरे मायके गये।”


“इसके बाद प्यार से जाते हैं वहां?”


“नहीं, बेमन से जाते हैं।”


“क्यों?”


“शायद मेरा दिल दुखाना नहीं चाहते हैं।”


“पसन्द नहीं है तो न जायें!”


नानी मुस्कराती हैं। उनकेे चेहरे पर शर्मीलापन है। “यह सवाल कभी अपने नाना से पूछना।”


रात के दो बज गये हैं। नानी उठकर अपने कमरेे में चली गई हैं। नींद आई है या नहीं, मुझे नहीं मालूम।


यों तो मैं सुबह जब मन करता है, उठती हूं। कभी छह बजे, तो कभी बारह बजे। पहले सात-साढे सात बजे मम्मी उठाने आ जाती थीं। मेरे तौर-तरीक़े और तेवर देखकर अब वे नहीं आती हैं। मेरे मज़े हैं। जब चाहती हूं, उठती हूं। कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं। मगर आज जल्दी उठ गई हूं। नाना पांच बजे उठकर हल्का व्यायाम करते हैं और सैर केे लिए निकल जाते हैं। मैं भी तैयार होकर नाना के साथ सैर के बहाने नानी की बताई बात को पूरा करनेे की टोह में बाहर लाॅन में कुर्सी पर बैठ गई हूं। जैसे ही नाना आयेंगे, साथ हो लूंगी।


मुझे कुर्सी पर बैठा देख नाना, चैंक गये हैं, “तू?”


“हां नाना, मैं। मैं भी चलूंगी आपके साथ सैर करने।”


नाना खुश हो जाते हैं, “चल।”


रास्ते चलते पहले मैं नाना को कुछ जोक्स सुनाती हूं। मुझे सुबह-सुबह अपने साथ देखकर ख़ुश नाना जोक्स सुनने के बाद और ज़्यादा ख़ुश हैं। उन्होंने भी एक रिटर्न जोक मारा है। जितना ज़ोर से मेरा सुनाया जोक सुनकर नाना हंसे थे, उससे बहुत ज़्यादा ज़ोर से बाक़ायदा कई ठहाके लगाकर मैं हंस रही हूं। मेरी आवाज़ और अंदाज़ दूसरों को घूर कर देखने के लिये उकसा रहा है। मगर मैं बेपरवाह हूं। हमेशा की तरह बेफ़िक्र।


“मेरी सैर हो गई। लौटें?”


“नाना, कुछ मज़ा नहीं आया। आओ, थोड़ी देर कहीं बैठकर बातें करते हैं।”


“घर चल। वहीं बातें करना।”


“नहीं नाना, यहीं बैठेंगे।”


हम बैंच पर बैठ गये हैं।


मैं ज़मीन तैयार करती हूं, “आप इतने बड़े पद से रिटायर हुए हैं। रिश्वत-विश्वत तो ख़ूब ली होगी।” “नहीं मैंने कभी रिश्वत नहीं ली।” नाना मुस्करा रहे हैं।


“लोगों के काम करते होंगे तो कोई गिफ़्ट, दूसरे तरह का कोई फ़ेवर तो ज़रूर लेते होंगे।” मैं फिर कुरेदती हूं।


“समाज में उठते-बैठते हैं। यह सब तो चलता है।”


“नानी बताती हैं, आपको गु़स्सा बहुत आता है। ग़ुस्सा करते हैं तो रिश्ते बिगड़ते नहीं हैं?” मैं मुद्दे पर आ गई हूं।


नाना हंसे, “पहले बहुत आता था। अब कम आता है।”


“रिश्तों पर बुरा असर पड़ता था, इसलिये अब ग़ुस्सा कम करते हैं?”


“सचमुच ऐसा नहीं है। मेरा ग़़ुस्सा तेरी नानी ने कम किया है।”


“हो ही नहीं सकता नाना, आप झूठ बोलते हैं।”


“कभी अपनी नानी से पूछकर देखना। शादी के बाद कितना ग़ुस्सा करता था मैं तेरी नानी और उसके मायकेे वालों पर?”


“मगर अब आप नानी का कितना ध्यान रखते हैं, नाना!”


“रखता हूं। लेकिन यह सब तेरी नानी के कारण है।”


“कैसे? नानी के कारण कैसे, नाना?”


“मुझ जैसे गु़स्सैल और तुनकमिज़ाज के साथ निभाना हर औरत के बूते की बात नहीं है।”


“नानी ने क्या किया ऐसा?”


“इस बात को छोड़। सच यह है कि मैं तेरी नानी का क़र्ज़दार हूं। बस, क़र्ज़ उतारने की कोशिश कर रहा हूं।”


“बताओ न नाना?” मैंने मचलकर नाना की बांह पकड़ ली है।


“तालमेल! एडजस्टमेंट! तेरी नानी ने अपने आप को एक तरह से सपर्पित कर दिया था, ठान लिया था कि एक दिन लोहेे को ठंडा करके ही मानेेगी।”


“और कर दिया ठंडा! थ्री चीयर्स टु नानी!!” मैंने हाथ ऊंचे करके हुंकार भरी है।


पहले सोचती थी, निखिल को नाना से मिलाऊंगी। कहूंगी कि बीवी का ध्यान कैसे रखना चाहिये, नाना से सीख। अब सोचती हूं, सीखना निखिल को नाना से नहीं है। सीखना मुझे नानी से है।


.....................................







Prabhakar_Shukla

|| भगवान अटलानी ||


भगवान अटलानी

डी-183, मालवीय नगर, जयपुर-302017

फोनः 01412549828, 9828400325

ई-मेल: bhagwanatlani@rediffmail.com

बी.एससी.

पूर्व अधिकारी, भारतीय स्टेट बैंक

वर्तमान में स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता

वेबसाइट : http://www.Vasudha1.webs.com

दूरभाष 416-291-9534


हिन्दी में 14, सिन्धी में 11, अनुवाद 11 कुल 36 पुस्तकें। इनमें से 9 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, 4 नाटक, 4 एकांकी संग्रह, 3 निबन्ध संग्रह, नवसाक्षरों के लिये एक कहानी पुस्तिका, दो शोध आलेखों के संग्रह और एक प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन। 1400 से अधिक रचनायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 300 से अधिक कार्यक्रम आकाशवाणी/दूरदर्शन से प्रसारित। अनेक नाटक मंचित। 29 से अधिक संकलनों में रचनायें सम्मिलित। राजस्थान सरकार द्वारा अधिस्वीकृत पत्रकार। राजस्थान पत्रिका, जयपुर में नाट्य समीक्षा का दो वर्षों तक स्तम्भ लेखन। सिन्धी साप्ताहिक महराण, उल्हासनगर के पूर्व स्तम्भकार। पाक्षिक पत्र गरीबों का सेतु के पूर्व सलाहकार। हिन्दी द्विमासिक पत्र सेतु के संस्थापक सम्पादक, सिन्धी वार्षिक पत्रिका रिहाण व

त्रैमासिक पत्रिका सिन्धुदूत के छह/तीन वर्षों तक सम्पादक/प्रधान सम्पादक।


भाषा विभाग हरियाणा से पांच बार, राजस्थान सिन्धी अकादमी से छह बार, मुक्ता, आशीर्वाद, इन्द्रधनुष, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर तथा यूनिवर्सल सावक, आदि की ओर से एक-एक बार कहानियां, एकांकियां, नाटक, उपन्यास पुरस्कृत। कुल 35 पुरस्कार प्राप्त। राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से 1995-96 में सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार तथा राजस्थान सिन्धी अकादमी की ओर से 2003-2004 में सर्वोच्च सम्मान सामी पुरस्कार से सम्मानित। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा एक लाख एक हज़ार रुपये का सौहार्द सम्मान 2005 और आकाशवाणी वार्षिक पुरस्कार प्रतियोगिता 2005 में फीचर लेखन के लिये मेरिट अवार्ड प्राप्त। राष्ट्रीय सिन्धी भाषा विकास परिषद, नई दिल्ली द्वारा पांच लाख रुपये का साहित्यकार सम्मान पुरस्कार 2017-18 प्राप्त।


राजस्थान सिन्धी अकादमी की साधारण सभा के नौ वर्ष और कार्यकारिणी के तीन वर्ष सदस्य। राजस्थान सिंधी अकादमी के अध्यक्ष (1997-2000)। अनेक बार केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा देय सिन्धी के अकादमी पुरस्कार के लिए जूरी की सदस्यता। भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद के सदस्य (1997-2001 तथा 2014-2017)। ज्ञानपीठ पुरस्कार की सिन्धी सलाहकार समिति के चार वर्षों तक सदस्य रहने के बाद संयोजक (2002-2006)। वात्सल्य पुरस्कार की सिन्धी सलाहकार समिति के संयोजक (2007 से अद्यतन)। केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सिन्धी सलाहकार बोर्ड के सदस्य (2013-2017)।


.....................................