व्यंजना

दर्द को रह जाने दो

- अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी


कभी उजड़े नहीं तो क्या आबाद हो?

कभी कैद में ना तो क्या आज़ाद हो?

यह दर्द है तो तुम हो

गर यह नहीं तो क्या जिंदा हो?


कभी अफसोस की टीस बन

कभी बेबसी की ख़ीज़

कभी आकस्मिक हंसी बन

कभी अबाध आंसू


सहसा ही दिख जाने दो

रोकना मत इसे, ना टोकना ही

उफन के बह जाने दो

इस दर्द को रह जाने दो


दोस्तों संग संलाप में

या एकाकी सन्ताप में

इसकी बातें उठ जाने दो

बहलाना मत इसे, न मनाना ही


अपनी मर्ज़ी की कर जाने दो

यह घाव बिलखने दो

अंगार बन इसे सुलगने दो

सहलाना मत इसे, न उकसाना ही


इसे फुर्सत से भर जाने दो

इस दर्द को रह जाने दो

यादों में बसने दो इसे

सांप बन कभी डसने दो


ख़्वाबों से गुज़रने दो इसे

पन्नों पर उतर आने दो

बिसराना मत इसे, ना खोजना ही

कुतरे हुए नाखूनों से झाँकती


आदत सी बन जाने दो

खुशी संग दरवाजे पर दिखायी दे कभी

इसे भी अंदर आने दो

दुतकारना मत इसे, न दुलारना ही


चुप चाप बैठे तो ठीक

वरना कुछ क्षण इसे भी ढोल बजाने दो

क्योकि कभी उजड़े नहीं तो क्या आबाद हो?

कभी कैद में ना तो क्या आज़ाद हो?


यह दर्द है तो तुम हो

गर यह नहीं तो क्या जिंदा हो?

.....................................





Antareepa

अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी


अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी, अकादमी साउथ एशियन डान्स यू.के की हेड ओफ़ मार्केटिंग और रॉयल सोसायटी ऑफ़ आर्ट्स की फ़ेलो, की रूचि स्कूल और कॉलेज की पत्रिकाओं में हिंदी खंड का सम्पादन करते हुए कथा एवं कविता लिखने में बढ़ी। ब्रिटिश काउन्सिल दिल्ली में कार्यरत रहते हुए उन्होंने टीवी चैनल ऐक्टिव इंग्लिश पर आने वाले कार्यक्रमों के हिंदी अनुवाद में भी योगदान दिया। उन्हें हिंदी साहित्य के दिग्गज मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद का लेखन प्रेरणादायक लगता है। बहुभाषीय अंतरीपा अस्समिया तथा बंगाली में भी कुशल हैं। वे असम साहित्य सभा से जुड़ी हैं और लंदन में बंगाली नाटक दल, ड्रैमटिस्ट, की सदस्य भी हैं| वातायन यू.के के सौजन्य से वह मातृभाषा से जुड़ी रहना चाहती हैं।


.....................................