व्यंजना

कुनबेवाला

- दीपक शर्मा


“ये दिए गिन तो|” मेरे माथे पर दही-चावल व सिन्दूर का तिलक लगा रही माँ मुस्कुराती है| वह अपनी पुरानी एक चमकीली साड़ी पहने है| उस तपेदिक से अभी मुक्त है जो उस ने तपेदिक-ग्रस्त मेरे पिता की संगति में पाया था| सन् १९४४ में| जिस वर्ष वह स्वर्ग सिधारे थे|


“भाई को गिनती आती है,” साथ में बहन खड़ी है| रिबन बंधी अपनी दो चोटियों व नीली सलवार कमीज़ में| वैधव्य वाली अपनी उस सफ़ेद साड़ी में नहीं, जो सन् १९६० से ले कर सन् २०१० में हुई उस की मृत्यु तक उस के साथ लगी रही थी|


“मुझ से सीखी है| आएगी कैसे नहीं?” कुछ ही दूरी पर बैठे नाना अपनी छड़ी घुमाते हैं| वह उसी स्कूल में अध्यापक थे जहाँ से हम बहन भाई ने मैट्रिक पास की थी| मैं ने, सन् १९४९ में| और बहन ने सन् १९५३ में| पिता के बाद हम नाना ही के घर पर पले-बढ़े थे| माँ की मृत्यु भी वहीं हुई थी| सन् १९५० में|


“चौरासी हैं क्या?” मेरे सामने विशुद्ध बारह पंक्तियों में सात सात दिए जल रहे हैं|


“हैप्पी बर्थडे, सर,” इधर मैं गिनती ख़त्म करता हूँ तो उधर माँ, बहन व नाना के स्थान पर आलोक आन खड़ा हुआ है| मेरे हर जन्मदिन पर मुझे बधाई देने आना उसे ज़रूरी लगता है| उस स्नेह व सत्कार के अन्तर्गत जिसे वह सन् १९७६ से मुझे देता आया है, जिस वर्ष उस की आगे की पढ़ाई का बीड़ा मैं ने ले लिया था| कुल जमा अठारह वर्ष की आयु में वह उस कॉलेज में बतौर लैब असिस्टेन्ट आया था, जिस की अध्यापिकी सैंतीस साल तक मेरी जीविका रही थी- सन् १९५३ से सन् १९९० तक- और आज वह उसी कॉलेज का प्रिंसीपल है|


“गुड मॉर्निंग, सर,” जभी नंदकिशोर आन टपकता है| वह मेरा भांजा है जिसे बहन ने मेरे ही घर पर बड़ा किया है और जिस के बड़े होने पर मैं ने उसे अपने कॉलेज में क्लर्की दिलवायी रही| पढ़ाई में एकदम फिसड्डी जो रहा| साथ ही आलसी व लापरवाह भी|


“तुम ने चौरासी पूजा नहीं रखवायी?” आलोक उसका बॉस तो है ही, उससे सवाल जवाब तो करता ही रहता है, “सर का चौरासीवाँ जन्मदिन है.....”


“रौटी का शौक जो रहा,” प्रणाम की मुद्रा में मालती आन जुड़ती है| नंद किशोर की पत्नी| गंवार व फूहड़| बहन उसे अपनी ससुराल से लायी रही| उधर भी अपना सम्बन्ध बनाए रखने के निमित्त| वहां वाली ज़मीन में बेटे के हिस्से की खातिर|


“रौटी का शौक?” आलोक मेरा मुँह ताकता है|


“रौटी मेरा रौट व्हीलर है जिसे आलोक ही ने मुझे भेंट किया है| बहन की मृत्यु पर खेद प्रकट करने आया तो बोला मेरी रौट व्हीलर ने अभी पिछले ही सप्ताह पांच पप्स जने हैं| उन में से एक पप मैं आपको देना चाहूँगा| शायद वह आप की क्षति पूरी कर दे| उस के प्रस्ताव से मैं चौंका तो था, बहन की खाली जगह वह पप भर सकेगा भला? किन्तु प्रस्ताव आलोक की ओर से रहा होने के कारण मैं ने हामी भर दी थी और यकीन मानिए वह हामी यथासमय मेरे लिए विलक्षण उपहार ही सिद्ध हुई है|


“इस युगल ने उसे मार डाला,” मैं कहता हूँ, “और अब यह मुझे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं| अपने बेटे की दुल्हन के लिए इन्हें मेरा कमरा चाहिए.....”


“धिक! धिक!” आलोक की धिक्कार तो मैं सुन पा रहा हूँ किन्तु उसे देख नहीं पा रहा.....


वह लोप हो चुका है.....


दृष्टिक्षेत्र में आ रहे हैं नंद-किशोर व मालती.....


मेरे कमरे की वही खिड़कियां खोलते हुए, जिन्हें मैं हमेशा बंद रखता रहा हूँ..... मोटे पर्दों के पीछे.....


पर्दों के आगे विशालकाय मेरी टी.वी. जो रहा करती है, जिस का आनन्द लेने की इस युगल व इसके बेटे को सख़्त मनाही रही है.....


मगर टी.वी. अब वहां है ही नहीं.....


न ही मेरी मेज़-कुर्सी जहाँ बैठ कर मैं अपना पढ़ता-लिखता हूँ.....


न ही मेरा पलंग जहाँ मैं सोता हूँ.....


मेरा कमरा मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं रखता.....


मैं वहां कहीं नहीं हूँ.....


कमरा अब मेरा है ही नहीं.....


(२)

दु:स्वप्न के बारे में लोग-बाग सही कहते हैं, दु:स्वप्न निद्रक में केवल त्रास-भाव जगाता है, उसे कार्यान्वित नहीं करता| नो थर्ड एक्ट| तीसरा अंक नहीं रखता|


बल्कि यूनानी देव-कथाएँ तो स्वप्न-दुस्वप्न लाने वाली एक त्रयी की बात भी करती हैं, जो निद्राजनक मिथक हिपनौज़ के पंखधारी त्रिक बेटे हैं : भविष्य-सूचक मौरफ़ियस, दु:स्वप्न-वाहक फ़ौबिटर व कल्पना-धारक फैन्टोसौस – जो विभिन्न छवियाँ ले कर पिता की घुप्प अँधेरी गुफ़ा से चमगादड़ों की भांति निकलते हैं और उन्हें निद्रक पर लाद जाते हैं| कभी सामूहिक रूप से तो कभी पृथक हैसियत से|


परिणाम : स्वप्न-चित्र कब अतीत को आन अंक भर ले, भविष्य – कब वर्तमान को निगल डाले, कोई भरोसा नहीं| दु: स्वप्न कब किसी मीठे सपने को आन दबोचे, कुछ पता नहीं|


(३) मैं जाग गया हूँ| अपने बिस्तर पर हूँ|

कमरे में कहीं भी कुछ यत्र-तत्र नहीं| मेरी पढ़ने वाली मेज़-कुर्सी खड़ी है| यथावत| खिड़कियाँ भी बंद हैं| यथा-नियम| रौटी मेरे पलंग की बगल में बिछे अपने बिस्तर पर ऊंघ रहा है| यथापूर्व|


उसे मैं अपने कमरे ही में सुलाता हूँ| छठे साल में चल रहा रौटी अपना पूरा कद ग्रहण कर चुका है : अढ़ाई फुट| वजन भी : साठ किलो| ठोस व महाकाय उस की उपस्थिति मेरा मनोबल तो बढ़ाती ही है साथ ही मेरे अकेलेपन को भी मुझ से दूर रखती है|


मेरी माँ और बहन के अतिरिक्त यदि किसी तीसरे ने मुझे सम्पूरित प्रेम दिया है तो इसी रौटी ने| विवाह मेरा हो नहीं पाया था| विवाह-सम्बन्धी अनुकूल अनेक वर्ष नाना के इलाज व सेवा- सुश्रुषा ने ले लिए थे जिन्हें कैन्सर ने आन दबोचा था| सन् १९५८ में| जिस वर्ष बहन की शादी की गयी थी| हमारी माँ नाना की इकलौती सन्तान थीं और ऐसे में मुझे छोड़ कर नाना की देखभाल करने वाला कोई दूसरा न था| और सन् १९६२ में जब तक वह मृत्यु को प्राप्त हुए, मेरे लिए उपयुक्त वधू पाने की न तो अधिक सम्भावना ही रही थी और न ही किसी की पहल-कदमी| बहन पति-शोक में डूबी थी और मैं अपने शोध-कार्य को आगे बढ़ाने हेतु अपने लिए ‘गाइड’ खोजने में लग गया था|


अपने बिस्तर से मैं उठ बैठा हूँ| मेरी आहट पाते ही रौटी मेरी ओर लपक आया है| मेरा काला पहाड़!

चित्तीदार अपनी थूथनी मेरी ओर बढ़ाए|


गहरे लाल-भूरे रंग के एकल बिन्दु जब जब मैं उसकी प्रत्येक आँख, प्रत्येक भौंह व प्रत्येक गाल के ऊपर देखता हूँ तो उन बिन्दुओं का युक्तियुक्त व सानुपात यह स्थापन मुझे हर बार विस्मय से भर दिया करता है, मानो दक्ष किसी शिल्पकार ने उस के चेहरे में ये बिन्दु गूंथ दिए हों|


मेरे पास पहुँचते ही रौटी स्याह काली अपनी नाक से मेरी गाल सहलाता है और मेरी गोदी में अपना सिर धर देता है|


अजनबियों से मिलते समय वह अपना सिर जरूर अपनी पीठ की सीध में रखे रहता है लेकिन मेरे पास जब भी आता है अपना सिर ऊपर तो ज़रूर रखता है मगर अपनी गरदन और कंधे झुका लिया करता है| दासोचित| “लाड़ो-पला मेरा लाड़-लड़ैतो!” नीचे गिरे गरदन पर बैठे उसके कान सहलाते हुए मैं उसका माथा चूम लेता हूँ|


अपने अगले पैर मेरे पैरों पर टिका कर वह मेरा लाड़ स्वीकारता है|


मैं सुजान वाली घंटी बजा देता हूँ| घर में मैं किसी को आवाज़ नहीं देता| घंटी से काम चलाता हूँ| नंदकिशोर अथवा उस के परिवार से अव्वल तो मुझे विशेष कुछ कहना ही नहीं होता और यदि कहना ज़रूरी पड़ जाए तो मैं बाहर के बरामदे वाली घंटी दबा कर उन्हें अपनी बात बोल देता हूँ|


सुजान रौटी का टहलुवा है| २२ वर्षीया जिसे आलोक ने रौटी ही के साथ मेरे पास भेज दिया था| रौटी की विशिष्ट सम्भाल व देखरेख के लिए|


“प्रणाम, सर,” सुजान तत्काल चला आया है|


“रौटी फ़्रैश हो जाए तो उस की गेंद और मेरी साइकल देख लेना.....”


मेरी दिनचर्या अपने आवास क्षेत्र के पार्क से शुरू होती है| जो मेरे घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है|


वहां पहुँचने के लिए मैं अपनी साइकल प्रयोग में लाता हूँ| जिस की टोकरी में रौटी की गेंद रहती है| उसे उछालने-बझाने हेतु|


रौटी वहां सुजान की संगति में पहुँचता है| पैदल| मेरे सख़्त आदेश के साथ रौटी सड़क पर दौड़ेगा नहीं, चलेगा| भले ही मुझ तक पहुँचने में उसे पन्द्रह मिनट ज़्यादा लग जाएँ|


(४)

पार्क मुझे खाली मिलता है|


इधर आने में शायद मैं ने जल्दी की है|


मध्य नवम्बर की सुबह का अँधेरा व कोहरा पूरी तरह छंटना अभी बाकी है|


अपनी साइकल टिका कर मैं अपनी टहल शुरू करता हूँ|


मगर जल्दी ही पाता हूँ मेरा खाली कमरा मेरे आगे चल रहा है|


उसी गुंजार के साथ जो अतिशय हो जाने पर मेरा उच्च रक्तचाप मेरे कानों में रचने लगता है और मुझे अपनी निर्धारित दवा तत्क्षण लेनी पड़ती है|


मगर दवा मैं साथ नहीं लाया हूँ और मुझे यह भी लग रहा है अपनी सुबह वाली दवा भी मुझ से चूक गयी है|


भीषण एक संत्रास ने मुझे अपनी मूठ में ले लिया है..... मेरा कदम टूट रहा है..... मुझ से मेरा संतुलन छूट रहा है..... अगला डग मुझ से भरे नहीं भरा जा रहा.....


मैं बैठना चाहता हूँ.....


तत्क्षण..... सिर मेरा घूम रहा है.....


किन्तु खाली ज़मीन के सिवा वहां कुछ नहीं.....


“भौं,” जभी रौटी मेरी ओर सरपट दौड़ लिया है और अपना धड़ मेरे घुटनों से आन जोड़ता है|


लुढ़कने जा रही मेरी देह को अपनी टेक उपलब्ध कराने हेतु|


उस की पीठ मज़बूत है, पूरी बहार पर है, लम्बी-तगड़ी है,चौड़ाव लिए है और मैं उस पर जा पसरता हूँ| अपने पेट के बल| अपनी बाहें उस की लम्बान के डिल्ले पर टिकाते हुए और अपनी टाँगें उस के पुट्ठे के दाँए-बाँए, दोनों ओर| मानो वह कोई घोड़ा हो, और मैं चोट खाया हुआ एक घुड़सवार|


"भौं,” वह मेरी अभिरक्षा लेने का मुझे विश्वास दिलाता है और चल पड़ता है| सम्भल कर|


“घर चलना है,” मैं उस का सिर थपथपाता हूँ| उस के आश्वासन की स्वीकृति में|


“सर,” सुजान भी हम तक आन पहुँचा है| अपनी बाहें मेरी ओर बढ़ाता हुआ, “आदेश?”


“भौं, भौं,.....” रौटी को उस की सहायता स्वीकार नहीं|


“मैं यहाँ ठीक हूँ| तुम साइकल लाओ.....”


“अपना मोबाइल ही साथ लाए होते,” सुजान मेरे संग सहानुभूति प्रकट करता है, स्थायी मेरे आदेशानुसार उसे भी मेरी तरह पार्क आते समय अपना मोबाइल घर पर छोड़ना होता है|


रौटी आगे बढ़ रहा है| पार्क के गेट की दिशा में|


जब तक रौटी मुझे सड़क पर पहुँचाता है, राह चलते लोग रुक लिए हैं| कुछ अपने मोबाइल में रौटी को और मुझे कैद भी कर रहे हैं|


“रोको इन्हें, सुजान,” साइकल लिए लिए हमारे साथ चल रहे सुजान से मैं कहता हूँ| अपनी छवि सार्वजनिक करना मुझे पसन्द नहीं| और इस समय वाली स्थिति में तो कतई नहीं| यदि वायरल हो गया तो?


रौटी मेरे स्वर की टान पहचानता है| उस के कान खड़े हो लिए हैं| गरदन अकड़ ली है| बयालीस के बयालीस अपने दाँत बाहर निकाल कर वह गुर्राता है| और वे तितर-बितर हो लेते हैं|


(५)

पूरी सतर्कता व ज़िम्मेवारी से रौटी घर तक का डेढ़ किलोमीटर मुझे पार करवा लाया है|


अपनी पीठ पर|

घर के गेट के बाहर आलोक की गाड़ी खड़ी है| निजी| जिसे वह स्वयं चलाता है, कॉलेज का ड्राइवर नहीं|


इस बार भी उसे मेरा जन्मदिन याद रहा है!


सुजान की कालबेल से पहले रौटी की भौंक अन्दर पहुँचती है|


गेट युगल का बेटा, कुन्दन, खोलता है और हमें देखते ही दहाड़ें मार कर रोने लगता है, “बाबा..... बा..... बा.....”


अपनी प्रतिक्रिया दिखाने की उसे जल्दी रहती है| स्थिति समझने की नहीं| अट्ठाइस पार कर चुका है मगर परिपक्वता नाम मात्र भी नहीं| अपने जिस इक्कीसवें वर्ष में मैं ने अपनी अध्यापिकी शुरू की थी, वह नित्य नए शौक पालता रहा था| एक साल तैराकी में लगाया तो अगला साल हॉकी में| बचपन का उसका अड़ियलपन उसकी किशोरावस्था के आते आते उदण्डता छूने लगा था| अपने माता-पिता व दादी के संग तो रोज़ उपद्रव करता ही, नित्य नयी माँगें ले कर मेरे सामने भी आन खड़ा होता| आज उसे खेल का सामान चाहिए होता तो कल नए कपड़े लत्ते और परसों नया मोबाइल| तिस पर बी.ए. में फ़ेल हुआ तो पढ़ाई छोड़ कर एक मॉल बाज़ार में दुकान खरीदने की ज़िद ले बैठा| पीछा छुड़ाने के लिए मुझे फिर कृपा करनी पड़ी| अब परचूनिया जब बन भी बैठा है तो भी हर दूसरे तीसरे सप्ताह मुझ से एक चेक खींच ले जाता है| मैं जानता हूँ हमारे बीच ज़ीरो-सम-गेम चल रही है और वह मुझ से ठीक ठीक उतना ही जीतने वाला है जितना मैं गँवाने वाला हूँ|


“सर.....” “मामाजी.....”

कुन्दन की दहाड़ आलोक व नंदकिशोर को एक साथ मेरे पास लिवा लायी है|


रौटी की सवारी छोड़ते समय मुझे उन दोनों की सहायता लेनी पड़ी है|


मुझे बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही है|


मेरे कदम अभी भी अस्थिर हैं.....


लड़खड़ा रहे हैं.....

“मुझे अस्पताल ले जाना होगा,” मैं फुसफुसाता हूँ, “मेरा बी.पी.....”


जानता हूँ अनियन्त्रित हो चुके मेरे रक्तचाप को इस समय संवेगीय व सम्यक जांच व उपचार की आवश्यकता है| केवल टिकिया के सेवन से काम नहीं चलने वाला|


सरकारी उस अस्पताल के हृदय-रोग विभाग में मेरा आना-जाना लगा रहता है| वहां के डॉक्टर मेरे उच्च रक्तचाप का स्वभाव जानते हैं| बल्कि वहां के विभिन्न कई डॉक्टर व डॉक्टर इन्चार्ज मेरे पुराने विद्यार्थी रह चुके हैं और अनियन्त्रित हो रहे मेरे उच्च रक्तचाप को वश में करने में सदैव सफल रहते हैं| बेशक उस में तीन घंटे लगे या फिर छः|

इस बार डॉक्टर इन्चार्ज मेरा रक्तचाप सामान्य हो जाने के बाद भी मुझे अस्पताल में रोक लेते हैं| एन्जियोग्राफ़ी द्वारा वह पता लगाना चाहते हैं मेरे दिल की किसी धमनी में लहू का बहाव रुक तो नहीं रहा ताकि किसी अवरोध की स्थिति में स्टेन्टस के सहारे लहू अबाध बहने लगे| उस प्रक्रिया से पहले कुछ टेस्ट्स भी लिए जाने अनिवार्य हैं| जिन्हें अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया गया है| कारण, प्रत्येक क्रियाविधि जभी कार्यान्वित की जाती है जब अस्पताल की कार्य-प्रणाली के अनुसार अग्रिम रकम जमा की जाए|


अपने क्रेडिट कार्ड वाला बटुआ मैं आलोक के सुपुर्द करता हूँ, नंदकिशोर के नहीं| हालाँकि उस के साथ वह भी बराबर मेरे पास बना हुआ है| किन्तु उस पर तनिक भरोसा नहीं|


मेरी एन्जियोग्राफ़ी तीसरे दिन की जाती है|


ग्राफ़ में मेरी दायीं धमनी में जो ‘बंडल ब्लॉक’ उद्घाटित भी हुआ है, सो वह विकट नहीं है और मुझे एन्जियोप्लास्टी की ज़रुरत नहीं पड़ी है|


घर मैं चौथे दिन लौटता हूँ| रौटी मुझे देखते ही उछल पड़ा है| अपना उल्लास उस से सम्भाले नहीं सम्भल रहा| इस पल अपनी दुम हिलाता है तो उस पल मेरे पैर चाटता है|


“सर,” सुजान भाग कर उसके बिस्किट का पैकेट मेरे हाथ में ला थमाता है, “इसे कुछ खिलाइए, सर| उधर आप अस्पताल के लिए निकले तो इधर यह अपनी भूख-प्यास भुला बैठा| घर में सब सभी कुछ खाए-पिए, हम भी सभी कुछ खाए-पिए मगर यह धुन का ऐसा पक्का निकला जो अपने मुँह में न तो इस ने एक्को ग्रास ही मुझे धरने दिया और न ही दूध की एक्को बूँद| पानी तक को मना करता रहा.....”


“ऐसा क्यों किया, रौटी?” मेरी आँखें भीग आयी हैं|


अपना मुँह मेरे पास ला कर वह अपनी दोनों बड़ी बड़ी आँखें मेरी आँखों पर ला टिकाता है|


मुझे बता रहा है, उस की दुनिया मुझी से शुरू होती है और मुझी पर ख़त्म|


मैं भी उसे बताना चाहता हूँ उस का समर्पण मेरा महाबल है, वही मुझे खड़ा रखे है, वही मुझे उस के पास लौटा लाया है|






|| दीपक शर्मा ||


परिचय : दीपक शर्मा

जन्म : 30 नवम्बर, 1946 (लाहौर, अविभाजित भारत)

संप्रतिःलखनऊ क्रिश्चियन कालेज के स्नातकोत्तर अंग्रेज़ी विभाग से अध्यक्षा, रीडर के पद से सेवानिवृत्त।

पहली कहानी ‘अचतनचेती परौहना’ जून 1970 की प्रीतलड़ी (पंजाबी मासिक) में दीपक भुल्लर के नाम से छपी। हिन्दी में पहली कहानी धर्मयुग के दिसम्बर, 1979 अंक में ‘कोलम्बस अलविदा’ विवाहित नाम दीपक शर्मा से छपी।


प्रकाशन : इक्कीस कथा-संग्रह :

1. हिंसाभास (1993) किताबघर, दिल्ली

2. दुर्ग-भेद (1994) किताबघर, दिल्ली

3. रण-मार्ग (1996) किताबघर, दिल्ली

4. आपद-धर्म (2001) किताबघर, दिल्ली

5. रथ-क्षोभ (2006) किताबघर, दिल्ली

6. तल-घर (2011) किताबघर, दिल्ली

7. परख-काल (1994) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली

8. उत्तर-जीवी (1997) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली

9. घोड़ा एक पैर (2009) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली

10. बवंडर (1995) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद

11. दूसरे दौर में (2008) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद

12. लचीले फ़ीते (2010) शिल्पायन, दिल्ली

13. आतिशी शीशा (2000) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली

14. चाबुकसवार (2003) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली

15. अनचीता (2012) मेधा बुक्स, दिल्ली

16. ऊँची बोली (2015) साहित्य भंडार, इलाहाबाद

17. बाँकी (2017) साहित्य भारती, इलाहाबाद

18. स्पर्श रेखाएं (2017) अमन प्रकाशन, कानपुर

19. उपच्छाया (2019) अमन प्रकाशन, कानपुर

20. दम-ब-दम (2020) वनिका प्रकाशन, दिल्ली

21. पिछली घास (2021) रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

22 .नीली गिटार (2022) संभावना प्रकाशन

सम्मानः साहित्य भूषण सम्मान-2019 (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)


संपर्कः बी-35, सेक्टर-सी, निकट अलीगंज पोस्ट ऑफिस, अलीगंज, लखनऊ-226024 (उ.प्र)


मोबाइलः 09839170890


ईमेलः dpksh691946@gmail.com


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