जब उसका दर्द मुझसे न देखा गया तो मैं उठकर चला गया उसके बेड के पास, जो न्यूरो सर्जरी वॉर्ड का बेड नंबर चार था। जिस पर वह छः फ़ीट से भी ज़्यादा लंबा और मज़बूत जिस्म का जवान सुबह ही भर्ती हुआ था। आने के बाद से ही वह रह-रह कर दर्द से बिलबिला पड़ता था। उसकी गर्दन में, उसकी गर्दन से भी बड़ा हॉर्ड कॉलर लगा हुआ था। जो पीछे आधे सिर से लेकर कन्धे से नीचे तक था और आगे ठुड्डी से लेकर नीचे सीने तक। मैंने उसे अपना परिचय देकर पूछा – "बेटा तुम्हें क्या हो गया है? तकलीफ़ बहुत ज़्यादा हो रही है क्या?"उसने धीरे से आँखें खोलीं रत्तीभर गर्दन मेरी तरफ किए बिना ही नज़रें तिरछी कर मुझे देखा, फिर मुस्कुराने की असफल कोशिश करते हुए बोला-
"हाँ अंकल जी, दर्द बहुत ज़्यादा है।"
अंकल शब्द ने मुझे उससे एकदम से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया। दिमाग में अचानक से यह बात कौंध गई कि हमारी नई पीढ़ी हमारे सनातन संस्कारों से अभी एकदम से रिक्त नहीं है। पूरा न सही अंकल-आँटी, डैड-मॉम के सहारे ही सही अभी भी सनातन संस्कार प्रवाहमान है। मैंने बड़ी आत्मीयता से उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बात आगे बढ़ाई और पूछा – "तुम्हारे गले में क्या हुआ है?" तो उसने बीच-बीच में उठती दर्द की लहरों को सहन करते हुए बताया कि वह एक फौजी है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर तैनात है। एक दिन घुसपैठिये आतंकवादियों से मुठभेड़ हो गई। उन्हें दबोचने की कोशिश की गई तो पाकिस्तानी फौजियों ने उनके लिए कवर फायरिंग शुरू कर दी। उसकी टीम ने हमले के बावजूद चार आतंकियों को मार गिराया। दो पाकिस्तानी फौजी भी मारे गये। जब कि इधर वह स्वयं और उसके तीन साथी गोलियों से बुरी तरह जख्मी हो गए। दुर्भाग्य से यह भी हुआ कि जिस वाहन से सभी घायल लाए जा रहे थे वह बेहद ख़राब रास्ते के कारण एक जगह पलट गया। जिससे सभी को और चोटें आईं। मगर भगवान की इतनी कृपा रही कि ऑर्मी हॉस्पिटल में सभी डेढ़ महीने में ही चंगे हो गए। वह भी हो गया लेकिन साथ ही डॉक्टर ने यह भी कहा कि दो महीने बाद ही ड्यूटी पर जाने के लिए फिट हो पाएगा। डॉक्टर की सलाह पर ही उसे दो महीने की मेडिकल लीव मिल गई और वह घर आ गया। घर आने के कुछ दिन बाद ही उसकी गर्दन और एक हाथ-पैर में दर्द और अकड़न शुरू हुई। जो तेज़ी से बढ़ती गई।
बस्ती जैसे छोटे शहर के डॉक्टरों ने कहा इसका इलाज यहाँ नहीं हो पाएगा। लखनऊ जाइए। यहाँ आर्मी हॉस्पिटल में दिखाना चाह रहा था लेकिन साथ आए एक रिश्तेदार के कहने पर बलरामपुर हॉस्पिटल चला गया। वहाँ डॉक्टर ने जो बताया उससे सब घबरा गए। फिर डॉक्टर की सलाह पर यहाँ पी.जी.आई. आए। यहाँ बता रहे हैं कि स्थिति बड़ी गंभीर है और गले का बड़ा ऑपरेशन होगा। टाइटेनियम की प्लेट लगानी पड़ेगी, ऑपरेशन के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं कि हाथ पैर जो कुछ ही दिनों में बेहद कमज़ोर हो गए हैं वह ठीक हो ही जाएँगे। संभावना तो यह भी है कि हालात और बिगड़ जाएँ। शरीर अपंग हो जाए। ऑपरेशन में जान जाने का भी ख़तरा ज़्यादा है। घर का इकलौता वही कमाऊ पूत है। पिता किसानी से थोड़ा बहुत कर लेते हैं। एक बहन की शादी पिछले वर्ष की। उसका काफी कर्ज़ सिर पर अभी है। दो छोटी बहनें अभी शादी को बची हैं। पिछले कुछ ही दिनों में ही अच्छी ख़ासी रकम खर्च हो चुकी है। आगे न जाने कितना खर्च आए। इन सभी बातों ने दर्द मानो और बढ़ा दिया है।
उसकी बातों ने मुझे द्रवित कर दिया। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा परेशान मत हो बेटा तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। मरीज को ऑपरेशन के रिस्क के बारे में बताना डॉक्टर्स का कर्तव्य होता है। वैसा ही हो यह ज़रूरी नहीं। यह बहुत बड़ा और अच्छा हॉस्पिटल है, एक से बढ़कर एक काबिल डॉक्टर और बड़ी-बड़ी मशीनें हैं। बहुत गंभीर रोगी भी यहाँ आसानी से ठीक होते देखे हैं हमने। मेरी इस बात पर वह इतने दर्द के बावजूद हल्के से मुस्कुरा उठा।
मैंने पूछा, "क्या हुआ बेटा?"
"कुछ नहीं अंकल जी, ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी सभी बातें सही निकलें। यहाँ भर्ती होने के लिए, हमें इतने पापड़ बेलने पड़े कि आज़िज होकर सोचा कि चला चलूँ वापस, जो होगा देखा जाएगा। मेरे बूढ़े पिता की टाँगें दौड़ते-दौड़ते, डॉक्टरों की मिन्नतें करते-करते थक गई थीं। काँप रही थीं। उनकी और बहनों की आँसू भरी आँखें देख-देखकर मन में आता कि इससे अच्छा तो आतंकियों से लड़ते-लड़ते देश के लिए शहीद हो जाना अच्छा था। कम से कम मेरे घर वालों को यह जलालत तो नहीं झेलनी पड़ती। मेरे बड़े अधिकारी ने जब दो सीनियर्स को भेजा, यहाँ के आला अधिकारियों को फ़ोन किया तब मुझे दो दिन बाद भर्ती किया गया। यह दो दिन बाहर इस कैंपस में मैंने, मेरे परिवार ने गंदगी, मच्छरों और बंदरों के साए में कैसे काटे यह बता नहीं सकता। एमरजेंसी में कोई देखने को तैयार नहीं था। अगले दिन आइए। ओ.पी.डी. में आइए, न जाने कहाँ-कहाँ आइए। यह सब देख-देख के बस एक आवाज़ मन में आती वाह रे व्यवस्था, वाह रे मेरा देश। जब फौजियों की यह हालत है तो बाकी जनता किस पीड़ा से गुज़रती होगी। सुबह से दर्द के बारे में न जाने कितनी बार कहा लेकिन कोई नहीं सुनता। हाँ ठीक हो जाएगा, टाइम लगेगा। क्यों परेशान कर रहे हो। एक तुम्हीं नहीं हो और भी पेशेंट हैं वार्ड में। बस डाँट कर चल देते हैं। डॉक्टर्स हों या नर्स। राहत वाली बात है तो सिर्फ़ इतनी कि कुछ डॉक्टर्स और नर्स बहुत ही अच्छे से पेश आते हैं। यह सब कुछ देख के ही मुझे यह यकीन हो गया है कि यह इतना बड़ा हॉस्पिटल इन कुछ अच्छे लोगों के कारण ही चल रहा है। जैसे यह दुनिया।"
"बेटा इन बातों को इतनी गंभीरता से मत लो। सभी इन हालात का सामना करते ही हैं। इतनी टेंशन तुम्हारी सेहत के लिए भी अच्छी नहीं है।" फिर और कई बातें करके मैं अपने बेड की ओर बढ़ना चाह रहा था। क्योंकि मेरी बूढ़ी टाँगें जो बीमारी के कारण और कमज़ोर हो रही थीं, जवाब देने लगी थीं। इसी बीच आधे घंटे का विज़िटिंग हॉवर शुरू होते ही उसके पिता और दोनों बहनें आ गईं। वह सब आपस में ठीक से बात कर सकें इस गरज से मैंने उनसे सिर्फ़ परिचय लेने-देने तक ही बातचीत की और अपने बेड पर आ गया। मेरी आँखें भी इंतज़ार करने लगीं कि तीन बेटों, बहुओं, दो बेटी दामादों में से शायद कोई मिलने आएगा। पाँच दिन से कोई नहीं आया था। जबकि दो बेटे और एक बेटी इसी शहर में रहते हैं। ग़नीमत थी तो सिर्फ़ यह कि दिन भर में किसी न किसी एक का फ़ोन ज़रूर आ जाता था और इतना कह कर कट भी जाता था कि आप ठीक हैं न, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं। उनसे क्या कहता कि बच्चो बुढ़ापे में जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उस बारे में तुम लोग सोच ही नहीं रहे हो। पाँच-पाँच बच्चों का पिता होकर भी लावारिस सा यहाँ पड़ा हूँ। कोई पुरसाहाल नहीं है। काट खाने को दौड़ते इस अकेलेपन का भी कोई ईलाज है क्या इस पी.जी.आई में? मेरी आँखें भर आयीं। रुक्मिणी का चेहरा आँखों के सामने था। मन में हूक सी उठी कि अच्छा हुआ जो तुम यह सब देखने से पहले चली गई। अब मुझे भी बुला लो अपने पास। अब काटे नहीं कटता ये जीवन।
मेरे विचारों की शृंखला सिस्टर की तीखी आवाज़ ने भंग कर दी। कर्कश स्वर में चिल्ला रही थी "चलिए, बाहर चलिए मिलने का टाइम ख़त्म हो गया। जब तक पाँच बार चिल्लाओ नहीं तब तक जाने का नाम ही नहीं लेते।" उसकी कर्कश आवाज़ ने असर दिखाया और देखते-देखते सारे विज़िटर्स वार्ड से बाहर हो गए। अब बाकी पेशेंट्स भी बेड पर मेरी तरह अकेले रह गये थे। मगर मेरे और उन सब के अकेलेपन में ज़मीन आसमान का फ़र्क था। वह सब बेड पर अकेले थे लेकिन बाहर उनके घर वाले उनकी तीमारदारी के लिए बराबर बने हुए थे। इसीलिए बीमारी की लाख तकलीफ़ों के बावज़ूद सभी के चेहरों पर एक ख़ास तरह की चमक थी। मुसीबत में अपनों के साथ होने की चमक। वह फौजी भी तमाम तकलीफ़ों के बावजूद अपने चेहरे पर राहत की लकीरें लिए हुए था। कुछ मिनटों के लिए उसका अधिकारी मिलने आया था। उसके साथ और कई फौजी जवान थे। अधिकारी ने जाते समय बड़ी आत्मीयता से उस बहादुर फौजी के सिर पर हाथ रखा था।
उस रात मैं बड़ी गहरी नींद सोया था। इसलिए नहीं कि मुझे सुकून का कोई कतरा मिल गया था। सोया तो इसलिए था क्योंकि नर्स ने मुझे गलती से नींद की दवा की डबल डोज़ दे दी थी। जिसकी ख़ुमारी अगले दिन भी महसूस कर रहा था। हाँ अगले दिन शाम को तब मैंने बड़ा सुकून महसूस किया जब यह पता चला कि उस बहादुर फौजी का दो दिन बाद ऑपरेशन होगा। यह जानकर मैंने ईश्वर को हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया कि चलो दो दिन बाद देश का होनहार बहादुर फौजी अपनी तकलीफ़ों से काफी हद तक मुक्ति पा लेगा। फिर जल्दी ही स्वस्थ होकर पुनः वतन की रक्षा में लग जाएगा। फिर से अपने माँ-बाप के बुढ़ापे का सहारा बनेगा। अपनी बहनों की, अपनी शादी कर सकेगा। एक खुशहाल जीवन जिएगा।
उस दिन उससे मैंने टुकड़ों- टुकड़ों में कई बार-बातें की। उसकी बातें बड़ी दिलचस्प थीं। अपने सपनों के बारे में बताते-बताते उसने हँसते हुए यह भी बताया की वह छः बच्चे पैदा करेगा और सभी को फौज में भेजेगा। मैंने कहा अगर लड़कियाँ हुईं तो? तब उसने कहा उनको भी फौजी बनाऊँगा। अब तो लड़कियाँ भी फौज में आ रही हैं। मैंने कहा देश की जनसंख्या के बारे में नहीं सोचोगे। तब वह हँस कर बोला, "अंकल बड़ी जनसंख्या-मतलब बड़ी ताकत। कम जनसंख्या का सिद्धांत फेल हो रहा है। चीन ने भी केवल एक बच्चे के नियमों में ढील देकर दो बच्चे पैदा करने की इज़ाज़त दे दी है।"
उसकी शारीरिक स्थिति देखते हुए मैंने उससे और बहस करना उचित नहीं समझा। उसके सिर पर प्यार से हाथ रखकर कहा बेटा भगवान से प्रार्थना है कि वह तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे। अब तुम आराम करो। मैं अपने बेड पर चलूँ नहीं तो सिस्टर फिर चिल्लाएगी कि बुढ़ऊ को एक जगह चैन नहीं मिलता।
मुँह से निकले इस वाक्य ने अचानक ही मन ख़राब कर दिया। नर्स की बात सही ही तो है। पिछले कई बरस से चैन मिला ही कहाँ। लोग कहते हैं सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा गया हूँ। अब चैन की बंसी बजाता हूँ। पर मैं तो उन किस्मत के मारों में से हूँ जो सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बाद लड़के-बच्चों की खींचतान, उपेक्षा, दुर्व्यवहार से रहा-सहा चैन भी खोकर घुटते-घुटते जीते हैं। चैन की साँस उन्हें मयस्सर ही नहीं होती। यहाँ भी तो दामादों की आए दिन की डिमाँड और बहुओं के तानों ने सारा सुख चैन कब का छीन रखा है। उस दिन भी तो रुक्मिणी ने सिर्फ़ इतना ही तो कहा था कि पर्दे, सोफे के कवर सब गंदे हो गए हैं इन्हें बदल दो। तो बहुओं ने जान-बूझ कर सुना कर कहा था कि बूढ़ा-बुढ़ऊ को चैन नहीं पड़ता। जब देखो एफ.एम. रेडियो की तरह बजते ही रहते हैं। चैन से बैठने नहीं देते, ये कर दो, वो कर दो दिमाग खराब किए रहते हैं। रुक्मिणी और मैं हक्का-बक्का रह गये थे। रुक्मिणी ने जब टोका था तो कैसा कोहराम मचाया था बहुओं ने। लड़कों ने भी उन्हीं का पक्ष लिया था। इसी के बाद रुक्मिणी जो बीमार पड़ी तो सुधर न सकी। दुनिया के सारे चकल्लसों को अलविदा कह कर देखते-देखते छः महीने में ही छोड़कर चल दी।
मैं राह में पड़े रोड़े की तरह जिस-तिस की ठोकरें खा रहा हूँ। डेढ़ महीने से जिसकी- तिसकी बातें सुन रहा हूँ। लड़के शासन में बैठे हैं ज़रा सा कोशिश करते तो मेरा भी कब का आपरेशन हो चुका होता। बढ़ते ब्रेन ट्यूमर की तकलीफ़, यहाँ की जलालत से फुर्सत तो पा जाता। पर नहीं सही तो यह होगा कि अब इस जीवन से ही फुर्सत पा लूँ। क्योंकि डॉक्टर कह रहे थे कि ऑपरेशन के बाद शरीर का कोई हिस्सा बेकार हो सकता है, अपाहिज भी हो सकता हूँ। ऐसे में कौन देखेगा मुझे। बच्चे तो बेड पर ही सड़ा मारेंगे। कीड़े-पड़ेंगे, बेड-सोर होगा "नहीं-नहीं -नहीं कराऊँगा" ऑपरेशन। बहुत होगा जो कल मरना है वह आज मर जाऊँगा। वैसे भी अब जीने का कोई कारण भी नहीं बचा है। अब किस लिए जीना-किसके लिए जीना। कल ही रिलीव करवाकर चलता हूँ। लेकिन, तब फौजी बेटे के बारे में कैसे पता चलेगा। चलो जैसे इतने दिन काटे वैसे कुछ दिन और सही। ऑपरेशन के बाद वार्ड में उसके आने तक तो रुकूँगा ही या फिर जिस दिन बोलने चालने लगेगा उसी दिन चल दूँगा यहाँ से। मन में उठी इस उथल-पुथल ने मुझे चैन से बैठने न दिया। वार्ड में भटकता रहा इधर-उधर तो एक नर्स फिर चिल्ला उठी। आप एक जगह शांति से बैठ नहीं पाते क्या? उसकी चीख ने मुझे यंत्र सा बैठा दिया बेड पर। लेकिन मन की उथल-पुथल जस की तस रही।
ऑपरेशन वाले दिन सुबह आठ बजे ही ट्रान्सपोर्ट विभाग का एक कर्मचारी काफी ऊँची पहियों वाली स्ट्रेचर लेकर आ गया। उससे पहले ही फौजी बेटे के पिता, तीनों बहनें भी आ गई थीं। उस दिन पहली बार मैंने उसके बहनोई को भी देखा। सभी की आँखें उस समय भरी-भरी थीं। चेहरे पर उदासी की अनगिनत रेखाएँ साफ नज़र आ रही थीं। लेकिन सब के सब फौजी को सामान्य रखने की गरज से सामान्य व सहज नज़र आने की कोशिश कर रहे थे। स्ट्रेचर को चलाने वाला बड़ी जल्दी में दिख रहा था। वॉर्ड में आते ही बोला, "जल्दी करिए इतना टाइम मेरे पास नहीं है और भी जगह जाना है।" उसकी बातें सुनकर सभी हड़बड़ाहट में आ गए। बहनोई और कर्मचारी ने मिलकर उसे स्ट्रेचर पर लिटाया। जल्दबाज़ी में कर्मचारी ने कुछ ज़्यादा ही झटके से उठाया जिससे फौजी बेटा गर्दन में तेज़ दर्द के कारण कराह उठा। उसकी आँखें व जबड़े कस कर भिंच गए थे। उसको लिटाने में बहनों ने भी सहयोग किया था। मैं अपने को रोक नहीं सका था इसलिए मैं भी वहीं खड़ा था। जाते वक्त उसने हल्के से हाथ उठाने की कोशिश की जो करीब-करीब निष्क्रिय हो चुका था। मैंने तुरंत उसे पल भर को अपने हाथ में लेकर कहा – "जा बेटा जल्दी से ठीक होके आ। मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।" उसने हल्के से आँखें झपकाईं। मैंने उन आँखों को साफ देखा कि वह डबडबाई हुई थीं। मेरे कुछ बोलने से पहले ही स्ट्रेचर आगे बढ़ चुका था। उसका कर्मचारी बहुत ही जल्दी में था। मैं यह नहीं जान सका कि उसकी आँखें लापरवाही से उठाए जाने के कारण हुए दर्द से भर आईं थीं या फिर शरीर के अपंग हो जाने के कारण दुखी होने से। उन सब को ओझल हो जाने तक मैं देखता रहा। उसके पिता के पैरों में कपकपाहट को भी मैंने साफ देखा था। जिनके कंधे पर जाते वक्त मैंने हौले से हाथ रखा था कि धीरज रखें।
ऑपरेशन के लिए उसके जाने के बाद मैं न तो ठीक से नाश्ता कर सका और न ही दोपहर का भोजन। मन को कहीं भी लगाने की सारी कोशिश बेकार होती रही। वह फिर-फिर फौजी बेटे के पास पहुँच ही जाता। देखते-देखते चार बज गए लेकिन कोई सूचना नहीं मिली। आखिर कोई सूचना देता भी क्यों। मैं उसका था कौन। जो उसके अपने थे वह तो उसके साथ थे। मगर हालात जानने के लिए मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। स्वीपर से लेकर वॉर्ड ब्वॉय तक से चिरौरी की मगर कोई फायदा नहीं हुआ। सब यह कह कर आगे बढ़ जाते अरे आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं, जो होगा शाम तक तो पता चल ही जाएगा। लेकिन बेचैनी बढ़ती गई तो एक स्वीपर को पचास रुपये देकर कहा बेटा जा सही-सही बात पता करके मुझे बता दे। लेकिन वह गया तो लौटा ही नहीं। उसके घर वालों को इस स्थिति में फ़ोन करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। अंततः छः बजते-बजते मैं स्टॉफ की नज़र बचा कर वॉर्ड से बाहर निकल गया। हाथ में एक पर्चा थामें रहा कि रास्ते में जो स्टॉफ मिले वह गफ़लत में रहे कि मैं किसी चेकअप वगैरह के लिए निकला हूँ। हॉस्पिटल की यूनीफॉर्म पहने होने के कारण मैं वहाँ किसी से छिप नहीं सकता था।
बचते-बचते ओ.टी. से पहले गैलरी में खड़े उसके बहनोई से मिलने में सफल हो गया। परिवार के बाकी लोग बाहर थे। उसके बहनोई से सिर्फ़ इतना पता-चला कि सुबह से ऑपरेशन चल ही रहा है। इसके अलावा कुछ नहीं बताया गया। इस बीच एक गॉर्ड ने आकर मुझसे पूछताछ शुरू कर दी। यहाँ कैसे? मैंने उसकी बातों पर ध्यान देने से पहले ही फौजी बेटे के बहनोई से उसका सेल नं. लिया और गॉर्ड से क्षमा माँगते हुए वापिस अपने बेड पर आ गया। बुरी तरह थक जाने के कारण कुछ बिस्कुट खाकर पानी पिया और लेट गया। सिर बहुत भारी होता जा रहा था। बदन में अजीब सी सनसनाहट भी महसूस कर रहा था। अंदर ही अंदर मैं डरा कि कहीं तबियत ज़्यादा न खराब हो जाए। इसी कशमकश और उधेड़बुन के बीच मन में आया कि बीमार होने के बाद साल भर से हालत यह है कि मैं सौ-पचास मीटर भी चलने में पस्त हो जाता हूँ। लगता है बस गिर ही जाऊँगा। मगर आज ऐसी कौन सी ताकत आ गयी कि मैं करीब पौने दो किलोमीटर चला वो भी इतनी जल्दी-जल्दी। इतना ही नहीं जीवन के आखिरी पड़ाव के एकदम आखिर में पहुँच कर वह काम किया जो पहले कभी नहीं किया। एक बिगड़ैल छात्र की तरह स्कूल कट कर भागने जैसी हरकत की। या फिर चोर की माफ़िक निकल भागा सारे नियम कानून को धता बताते हुए। यह भी न सोचा कि यदि कहीं गिर गया तो क्या होगा?इस पर यदि ड्यूटी पर तैनात हॉस्पिटल के किसी कर्मचारी के खिलाफ़ कोई कार्यवाही की जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता। बड़ी सिस्टर ठीक ही तो चिल्ला रही थी। तू तो मर के ऊपर चला जाएगा। यहाँ तो कई की नौकरी चले जाने का है। साउथ इंडियन उस नर्स ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में और न जाने क्या-क्या कह डाला था। पंद्रह मिनट तक पूरे वॉर्ड को सिर पर उठा लिया था। मेरे पास उससे दो-तीन बार क्षमा माँगने के अलावा और कोई चारा न था। नर्स के शांत होते ही मेरे दिमाग में यह प्रश्न कौंध गया कि इस फौजी बेटे में ऐसा क्या है कि मैं चंद दिन की मुलाकात में ऐसा मोहग्रस्त हो गया हूँ मानो यह अपना ही खून हो। खाना और दवा खाने के बाद सोने तक मैं इसी प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने में लगा रहा।
सुबह साढ़े पाँच बजे ही जाग गया। नर्स पूरे वॉर्ड के मरीजों का शुगर, बी.पी. चेक करने आ गयी थी। मेरे असाधारण रूप से बढ़े बी.पी. और शुगर को देखकर नर्स ने ताना मारा अरे बाबा किसी बेटी की शादी करनी है क्या?जो रात भर में बी.पी., शुगर इतना ज़्यादा बढ़ा लिया। मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया। मेरा मन बस यह जानने को बेचैन था कि क्या हुआ फौजी बेटे का? मैंने समय का ध्यान न देते हुए नर्स के जाते ही उसके बहनोई को फ़ोन मिला दिया। बेहद उनींदी आवाज़ में वह बोला ऑपरेशन चौदह घंटे चला था। हालत गंभीर है इसलिए वह वेंटीलेटर पर रखा गया है। मेरी घबराहट और बढ़ गयी। मैंने अपने अंदर हताशा सी महसूस की। बढ़ती तकलीफ़ नर्स को बताने के बजाय मैं आँख बंद कर लेट गया। दवा वगैरह दिन भर चढ़ने के बाद मेरी हालत कुछ कंट्रोल में आ गई। अगले कई दिन मैंने अपनी मोहग्रस्तता का कारण ढूढने और उसके सेहतमंद हो जाने के लिए प्रार्थना करने में बिता दिए। दो दिन वेंटीलेटर, फिर आठ दिन आई.सी.यू. में रहकर फौजी बेटे ने ज़िंदगी की जंग जीत ली और वॉर्ड में आ गया।
मुझे ऐसी खुशी मिली मानो खोया खज़ाना मिल गया हो। मगर इस बीच में मेरा शुगर और बी.पी. असाधारण रूप से फ्लक्चुएट करते रहे और साथ ही ऑपरेशन को लेकर भी कोई पुरसाहाल नहीं था। घर से अब फ़ोन आने भी करीब-करीब बंद ही थे। इन सब से आहत हो मैं भीतर ही भीतर टूटता जा रहा था। दूसरी तरफ फौजी बेटे के प्रति मेरा मोह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था तो तीसरी तरफ परिवार और अपने जीवन से मोह करीब-करीब भंग हो चुका था। जीने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। रुक्मिणी का चेहरा अब पहले से ज़्यादा सामने आकर रुलाने लगा था, और फौजी बेटे का मोह हॉस्पिटल से जाने देने के लिए तैयार नहीं होने दे रहा था। रह-रहकर उसकी बातें दिमाग में कौंध जातीं। बहनों की शादी, अपनी शादी, ढेरों बच्चे, माँ-बाप को तीर्थ पर ले जाना और ऐसी ही तमाम बातें। उसके घर की हालत और अब उसके शरीर की हालत देखकर मैं सहम गया था। फौजी बेटा अब शरीर से फौज की नौकरी के लायक नहीं रह गया था। बल्कि अगले कई साल तक किसी भी नौकरी के लायक नहीं रह गया था। ऐसे में उसकी इच्छाएँ तो पूरी होने की बात बहुत दूर की कौड़ी है। खाना खर्च और बहनों की शादी ही किसी तरह हो जाए यही बहुत बड़ी बात होगी। इन सबसे बड़ी बात तो यह कि अब उसके घर का लंबा-चौड़ा खर्च कैसे चलेगा। इस उधेड़बुन में अचानक ही दिमाग में यह बात घुस आई कि मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ। यह तो हम देशवासियों के लिए जान दाँव पर लगा आया। इसका उत्तर ढूँढने के लिए मैंने पूरा ज़ोर लगा दिया।
अगली सुबह होते-होते मुझे उत्तर कुछ-कुछ सुझाई भी देने लगा। सोचा अब मेरी ज़िन्दगी बची ही कितनी है। बैंक में कुल जमा-पूँजी सात लाख से ऊपर ही होगी। जो रुक्मिणी और कई मित्रों की सलाह के चलते पिछले आठ-नौ साल में जमा कर ली है। इसमें बड़ा योगदान दिया छठे वेतन आयोग और फिर एरियर और बोनस आदि ने। मियाँ-बीवी के खर्चे बड़े सीमित रहे जिससे पेंशन भी काफी बचती रही। एक मामले में तो सौभाग्यशाली हूँ कि लड़के सब अच्छी स्थिति में हैं। भले ही हमें न पूछें कभी लेकिन सेल्फ डिपेंड होने के बाद कभी कुछ माँगा भी नहीं। हाँ बहुएँ ज़रूर फिराक में रहती हैं। रुक्मिणी के गहनों को लेकर आज भी सब दबी जुबान कहती ही रहती हैं। रुक्मिणी ने अपने जीते जी किसी को अपने गहने नहीं दिए थे। उसे जान से प्यारे थे गहने, यही कारण था कि उसके पास ढेरों गहने इकट्ठा थे। जो अब बैंक लॉकर की शोभा बने हुए हैं। क्यों न यह सब गहने और रुपये फौजी बेटे को दे दूँ। इससे उसकी बहनों की शादी में बड़ी मदद मिल जाएगी। बेटों के लिए तीन खंड का इतना बड़ा मकान बनवा ही दिया है। ये अलग बात है कि इस चक्कर में अपने हिस्से के सारे खेत बेच दिए। जिससे घर के लोगों ने संबंध ख़त्म कर दिए। नहीं तो आज की स्थिति में अपनी जड़ अपनी मातृ भूमि में कितनी शीतल छाया मिलती। ज़रूरत ही न थी किसी की। लेकिन मैं तो कटी पतंग हूँ। मेरे बाकी जीवन के लिए पेंशन बहुत है। ऐसा करके चल चलता हूँ किसी मन्दिर किसी बाबा के आश्रम में। वहीं ईश्वर अराधना करूँगा। पेंशन दे दूँगा आश्रम को तो कोई भी आश्रम लेने से मना नहीं करेगा।
अंततः मैंने बड़ी उधेड़बुन के बाद यह फैसला कर लिया कि अगले एक सप्ताह में यह सब करके निकल लूँ अपनी नई यात्रा पर। जहाँ जी का जंजाल सताएगा नहीं। इस फैसले के बाद मैंने बड़ी राहत महसूस की। लगा कि सिर से कोई बोझ उतर गया। बेचैनी जैसी चीज़ जाने कहाँ चली गयी। हॉस्पिटल में उस रात मैं सबसे अच्छी नींद सोया था।
अगली सुबह मेरे जीवन की दूसरी सबसे काली सुबह थी। पहली वह जिस दिन रुक्मिणी छोड़कर चली गयी थी और आज फौजी बेटा छोड़कर चला गया था। उसके परिवार का करुण क्रंदन हर किसी को भीतर तक हिला दे रहा था। मैं हक्का-बक्का हतप्रभ था। जैसे रुक्मिणी के जाने के वक्त था। पल में जैसे मेरी दुनिया ही छिन गई थी। कुछ घंटों में काग़जी कार्यवाही के बाद रोता बिलखता फौजी बेटे का परिवार उसके पार्थिव शरीर को लेकर चला गया। आर्मी के कुछ लोग थे। अपने तरीके से मैंने भी अपने फौजी बेटे को सलामी दी थी। जो चंद दिनों में ही मेरे जीवन में आया भी और चला भी गया किसी छलावे की तरह। बहुत कोशिश की थी कि फौजी को सलामी देते वक्त आँखों में आँसू न आए लेकिन आँसू थे कि वह बह ही चले मानों पीछे-पीछे उन्हें भी वहाँ तक जाना ही है।
दोपहर होते-होते खून खौला देने वाली एक बात सामने आई कि रात को ढाई बजे उसकी तबियत बिगड़ी थी। पड़ोसी मरीज ने उसकी तेज़ी से बिगड़ती हालत देखकर स्टाफ रूम में जाकर नर्स को बताया था। क्योंकि परिवार का कोई व्यक्ति वॉर्ड में रह नहीं सकता था। इसलिए पड़ोसी मरीज जो उस वक़्त जाग रहा था, वह नर्स को बताने गया था। मगर नर्स ने उसे झिड़क कर भगा दिया। घंटा बीतते-बीतते उसका साँस लेना मुश्किल हुआ तो वह पेशेंट अँधेरे में डूबे स्टाफ रूम में सोई पड़ी नर्सों के पास फिर गया तो उसे बुरी तरह डाँट कर फिर भगा दिया। इससे वह पेशेन्ट विवश हो चुप हो गया। फिर करीब आधे घंटे बाद नर्स ने आकर उसे ऑक्सीजन दी थी। मगर माहौल में बात यह थी कि फौजी बेटा इससे पहले ही यह दुनिया छोड़ चुका था।
स्टाफ की अटूट एकता कायम थी सारी बातें दबा दी गईं। मैं क्रोध के कारण अंदर ही अंदर जल रहा था। दिलो दिमाग में तूफान सा चल रहा था कि काश मेरे पास दोषी को सख्त सज़ा देने की ताक़त होती, अधिकार होता। एक व्यक्ति की ड्यूटी के प्रति लापरवाही ने मेरे फौजी बेटे की जान ले ली थी। उन देवता स्वरूप महान डॉक्टरों की मेहनत पर पानी फेर दिया था जिन्होंने चौदह घंटे लगातार ऑपरेशन कर, गले सिर में टाइटेनियम जैसी निर्जीव धातु की प्लेटें लगाकर मेरे फौजी बेटे को फिर जीवन दे दिया था। एक की लापरवाही ने न सिर्फ एक व्यक्ति को असमय मार दिया बल्कि इतने बड़े संस्थान को बदनाम भी किया। मगर मैं यह सब सिर्फ सोच ही सकता था, मेरे वश में कुछ नहीं था। कुछ करने की कोई क्षमता नहीं थी।
इसके बाद हर तरह से पस्त मैंने भी चार बजते-बजते हॉस्पिटल से विदाई ली। स्टॉफ की मुझे रोकने की कोशिशें मेरी ज़िद के आगे बौनी साबित हुईं। उन्होंने कहा अपने बेटों को बुलाइए। मैंने कहा मैंने परिवार से सारे संबंध ख़त्म कर लिए हैं। आप लोग देखते नहीं मेरे पास कोई नहीं आता। एक आदमी हमेशा यहाँ रहे हॉस्पिटल के इस नियम के बावजूद यहाँ कोई आज तक नहीं रुका।
मैं हारा जुआरी सा घर पहुँचा। अपने कमरे में बेड पर पसर गया आँखें बंद कर लीं। या यह कहें कि थकान, भूख के कारण खुद ही बंद हो गई थीं। कुछ देर बाद बड़ी बहू आई, "अरे! आप का ऑपरेशन हो गया? ऐसे कैसे आ गए आप?"
जिस पोते ने दरवाज़ा खोला था वह भी खड़ा था। उसने भी सुर मिलाया हाँ आपको बताना चाहिए था। ऑपरेशन नहीं कराऊँगा यह जानकर सब विफर रहे थे। बाकी बहुएँ और पोते-पोती भी आ गईं थीं। सभी अपने-अपने हिस्से का गुस्सा उतारकर चल दिए। किसी ने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा।
बूढ़ी आँतें भूख से ऐंठने लगी, जब सहन शक्ति जवाब दे गई और उठने की भी शक्ति न रही तब बेशर्मों की तरह बड़ी बहू को आवाज़ दी। कई बार आवाज़ देने पर झनकती - पटकती आकर पूछा, "क्या है?"
मैंने बताया सुबह से कुछ नहीं खाया बहुत भूख लगी है, खाना दो। इस पर वह भुनभुनाती हुई बोली – "अब इस समय खाना कहाँ है, देखती हूँ कुछ है क्या?"
थोड़ी देर में एक प्लेट में दो पराठा और करेला की भुजिया सब्जी नाममात्र को रख गई। एक गिलास पानी भी। फिर इस तेज़ी से निकल गई कि कुछ और न कह दूँ। मैं बैठे-बैठे देखने लगा खाना। सुबह का खाना। मेरे बूढ़े जबड़ों, अवशेष दाँतों के लिए पराठा सब्जी दोनों ही बेहद सख्त थे। मन में एक हूक सी उठी रुक्मिणी होती तो क्या ऐसे देती। बेसाख़्ता ही मुँह से निकल आया "रुक्मिणी" आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़े। कितना अकेला हूँ दुनिया में। कहने को नाती-पोते, बहू-बेटे, दामाद-बेटी मिलाकर उन्नीस जन हैं इस एक खून से। वाह री दुनिया मैं यहाँ सबके रहते रो रहा हूँ, अकेला हूँ। वहाँ फौजी का बाप बेटे के न रहने पर अकेला है, रो रहा है। हों तो रोना, ना हों तो रोना। अरे विधाता तेरा कैसा है यह खेला। आँखों में अश्रु लिए मैं भूख से भी हारा। किसी तरह खा गया वह दो पराठे। ज़रूरत तो कई और पराठों की थी लेकिन वह मयस्सर नहीं थे।
अपमान से भरा वह भोजन कर शरीर में कुछ जान आई तो कमरे में नज़र दौड़ाई धूल-धक्कड़, कूड़ा-करकट साफ बता रहे थे कि जब से गया हूँ तब से सफाई हुई ही नहीं। अपने बिस्तर का चादर झाड़ने की भी मुझ में हिम्मत नहीं रह गयी थी। इसलिए सो गया उस धूल से भरे बिस्तर पर। कई दिन से थकी आँखें न जाने कब लग गईं पता ही नहीं चला। मगर दो पराठों से भी पेट की आग पूरी तरह शान्त नहीं हुई थी तो कुछ ही घंटों में आँखें खुल गईं। शाम सात बजते-बजते सारे बेटे आ गये। सब आराम से चाय नाश्ता करने के बाद बारी-बारी से आए और झाड़ पिला गए कि आखिर मैं बिना बताए क्यों आ गया। कहीं तबियत खराब हो गई तो कौन देखेगा यहाँ। किसके पास टाइम है। पूरे घर को आपने टेंशन में डाल दिया। अपने टेंशन कम हैं क्या? अपने सारे बेटों की ऐसी तीखी और बेगानों सी बातें शूल सी चुभी दिल में। इन शूलों ने अपनी संतानों के प्रति रहा-सहा मोह भी भंग कर दिया और फिर मैंने हमेशा के लिए घर परिवार सब को त्यागने का निर्णय ले लिया। कहाँ जाएँ, यह तय नहीं किया था। लेकिन मन में कहीं किसी आश्रम में चले जाने की तस्वीर रह-रह कर उभर रही थी।
अगले चार दिन मैंने आराम करने और बैंक में कुल जमा पूँजी जो कि आठ लाख थी, का ड्राफ्ट बनवाने और रुक्मिणी के सारे गहने एक जगह समेट कर रखने में लगा दिए। फिर पाँचवें दिन चल दिया बिना किसी को कुछ बताए फौजी बेटे के घर। चलते समय ए.टी.एम. कार्ड, पेंशन बुक भी ले ली।
शाम चार बजते-बजते फौजी बेटे के घर पहुँच गया। उसके बहनोई का नंबर होने के कारण घर तक पहुँचने में खास दिक्कत नहीं हुई। चलते समय जब फ़ोन किया तो वह कुछ आश्चर्य में पड़ा। फिर बड़ी शालीनता से कहा था, "बाबू जी बस स्टेशन पहुँचने पर फ़ोन करिएगा, मैं आपको लेने आ जाऊँगा।" मैं जब पहुँचा तो वह पहले से ही मोटर साईकिल लिए खड़ा था। घर पहुँचने तक छुट-पुट बातों के बीच उसने शालीनता से सिर्फ़ इतना कहा, "बाबूजी बीमारी की हालत में आपको इतनी दूर अकेले नहीं आना चाहिए था। आपने जब फोन किया तो मैं यही समझ रहा था कि आप अपने किसी बेटे के साथ आ रहे होंगे।"
घर के सामने पहुँचा तो फौजी के पिता अपने घर के सामने तखत पर बैठे मिले सफेद धोती-कुर्ता पहने। उनकी जर्जर काया पहले से आधी रह गई थी। चेहरे से ऐसा लग रहा था मानो जवान फौजी बेटे की चिता की अग्नि से वह तप गए हों। मुझे देखते ही लड़खड़ाते हुए दोनों हाथ फैला कर यूँ आगे बढ़े मानो जवान बेटे की अर्थी के महाबोझ ने उनके पैर, कंधों, हाथों सहित सारे शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया हो। मैंने भी उन्हें जल्दी से बाहों में भर लिया। वह फफक कर रो पड़े। मैं भी अपने को रोक न पाया। कुछ देर बाद दामाद ने आकर हम दोनों को शांत कराते हुए बैठाया। वहाँ पड़े दो तख्तों पर कई रिश्तेदार और पड़ोसी बैठे थे। उन्होंने सबसे मेरा परिचय कराया कि यह मेरे बेटे के साथ ही एडमिट थे। अपना ईलाज अधूरा ही छोड़कर चले आए। कई लोगों के चेहरे पर मैंने आश्चर्य की लकीरें देखीं। पत्नी से परिचय कराया तो उनका पहले से चल रहा करूण क्रंदन और तेज़ हो गया। मैंने चुप कराने की कोशिश की लेकिन मेरे भी आँसू टपकने लगे।
कुछ देर बाद वहाँ सन्नाटा पसर गया। जल्दी ही मेरे लिए पानी और कुछ खाने पीने की चीज़ें लाई गयीं। लेकिन वहाँ के ग़मगीन माहौल के चलते मैं लाख-थकान और भूख के बावजूद एक बालूशाही और एक गिलास पानी के सिवा कुछ न ले सका। यह भी तब हो पाया जब पिता, दामाद ने कई बार आग्रह किया। इस बीच मेरे लिए एक खटिया लाकर डाली गयी। उस पर दरी और चादर भी बिछा दी गई। मकान के ठीक सामने नीम और कनेर के फूल और अमरूद का एक छोटा सा पेड़ था। जिनकी छाया अच्छी शीतलता दे रहे थे। मकान काफी हद तक बड़ा था। उसकी छाया बड़ी होने लगी थी। घर की, लोगों की हालत साफ बता रहे थे कि एक परंपरावादी ठीक-ठाक खाता-पीता किसान परिवार है। जिसका क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रभाव है। हर कुछ देर के अंतर पर कोई न कोई साईकिल या दुपहिया वाहन से आ रहा था और पिता हर किसी से मेरा परिचय पहले वाली बात कह कर ही कराते रहे। आने वाले अधिकांश लोग उन्हें चाचा या भइया ही बोल रहे थे। इस बीच दामाद की सक्रियता ने यह साफ कर दिया कि इस समय पूरा घर वही संभाले हुए है।
देखते-देखते कब शाम हुई पता ही नहीं चला। ध्यान तब गया जब कई लालटेनें जल गईं। नेचुरल काल पर जब मुझे अंदर ले जाया गया था तो अंदर लगे पंखों बल्बों से यह साफ था कि घर में बिजली है। मगर गर्मी के बावजूद उन सबका बंद पड़ा रहना साफ कह रहे थे कि बिजली के मामले में इस गाँव की कहानी भी अन्य गाँवों जैसी ही है। कुछ ही देर में मच्छरों का भी प्रकोप बढ़ा तो घर के दोनों कोनों पर कंडों में नीम की पत्तियाँ डालकर सुलगा दिया गया। उससे मच्छरों से तो राहत मिली लेकिन उसके कसैले धुएँ से मुझे बेहद तकलीफ़ होने लगी। सात बजते-बजते अँधेरे की चादर आमसान में तन गई। साथ ही कई और खटिया भी बिछा दी गईं। जिससे तय था कि आज मर्दों का बाहर ही सोना है। अंदर जगह की ज़्यादा मेहमानों के कारण कमी है। मैंने आस-पास के घरों पर नज़र दौड़ाई तो किसी घर के बाहर कोई चारपाई नज़र नहीं आई। गाँवों में भी बाहर सोना समाप्त हो चुका है जो सुनता था वह चरितार्थ देख रहा था। मुझे आए हुए तीन घंटे बीत रहे थे और साथ रखे बैग में ढेर सारे रुक्मिणी के गहने और बैंक ड्राफ्ट मुझे अंदर-अंदर बेचैन किए जा रहे थे। बढ़ते अँधेरे के साथ घर भी बेचैन करने लगा जिसे मैं आजिज आकर हमेशा के लिए त्याग आया था। इस बीच एक किशोर ने आकर कहा-अंकल जी कपड़े चेंज कर लें तो आपका बैग अंदर रख दूँ। यह सुनकर मैं एकदम से और ज़्यादा परेशान हो गया।
मैं काफी देर से इस सोच में लगा था कि कैसे फौजी बेटे के पिता को ड्राफ्ट, गहने सबसे अलग कर सौंप दूँ कि वह उसे सुरक्षित रख लें। देहात का मामला है किसी को कानों कान खबर न लगे। मैं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मगर अब वक़्त नहीं रह गया है सोच कर मैंने पिता से सबकी नज़रें बचाकर दो मिनट अलग बात करने का निवेदन किया। उन्होंने एक प्रश्नकारी दृष्टि मुझ पर डाली फिर मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा बताओ भइया ऐसी क्या बात है? मैंने उनसे फिर स्नेहपूर्वक आग्रह किया कोई गंभीर बात नहीं है। बस ऐसे ही जिसे आप पति-पत्नी तक ही सीमित रहना बेहद ज़रूरी है। इस पर वह धीरे-धीरे मेरे साथ घर के एक छोर पर आकर खड़े हो गये। तब मैंने उनसे कहा, "बाबूजी यह वक्त तो नहीं है ऐसी बात करने का लेकिन क्योंकि मेरे पास कोई और रास्ता नहीं है, वक्त भी नहीं है, इसलिए विवश होकर अभी कह रहा हूँ।" फिर संक्षेप में मैंने सारी बातें बताई तो वह हतप्रभ रह गए। मैंने प्यार से उनके हाथ को पकड़ते हुए कहा – "भाई साहब इसे मेरी अंतिम इच्छा समझ कर स्वीकारिए यह कोई एहसान या मदद नहीं है। वह आपका पुत्र होने के साथ देश का एक सच्चा सपूत भी था और ऐसे सच्चे सपूत के प्रति बस अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। कृपया इससे मुझे वंचित न करिए। मेरी अंतिम इच्छा का ख्याल कीजिए।"
वह आँसू भरी आँखों से मुझे देखते हुए बोले, "आप क्या हैं ?क्या कहूँ आपको समझ नहीं पा रहा हूँ। यकीन ही नहीं हो रहा है। आपने अपनी बातों से बाँध सा दिया है।" इस पर मैंने उन्हें और ज़्यादा प्यार से थाम लिया। उस अँधेरे में बमुश्किल हम दोनों वृद्ध चश्मों के पीछे से देख पा रहे थे। दूर रखी कई लालटेनों का क्षीण प्रकाश कुछ हद तक मददगार हो रहा था। कुछ क्षण शांत रहने के बाद वह मेरा हाथ पकड़े वापस आये और खटिया पर मुझे बैठाकर पत्नी को लेकर अंदर गए।
मेरी घबराहट अंदर ही अंदर बढ़ती जा रही थी कि पता नहीं पत्नी स्वीकार करे या नहीं। पंद्रह मिनट तक प्रतीक्षा करना मुझे घंटों प्रतीक्षा करने जैसा लगा। जब वह अकेले मेरे पास आए तो उनके चेहरे के भाव पढ़ना मेरे लिए मुश्किल था। फिर उनके कहने पर मैं बैग लेकर उनके साथ घर के एक दम भीतरी हिस्से में बने कमरे में गया। जहाँ एक तखत, एक ड्रम, कुछ बक्से रखे थे। तखत पर रखी लालटेन के पास ही उनकी पत्नी बैठी थीं जो हमारे पहुँचने पर खड़ी हो गईं। मैंने तखत पर बैग रख कर उसमें से कपड़ों के नीचे रखे जेवरों का बक्सा निकाल कर उनके सामने रख दिया। सारे जेवर मैं जूते के एक डिब्बे में रखकर लाया था। उसी में वह ड्रॉफ्ट भी रखा था । मैंने डिब्बा उन दोनों के सामने कर हाथ जोड़ लिए। उन दोनों ने निर्विकार भाव से एक नज़र डिब्बे पर डाली फिर एक दूसरे को देखने लगे। उन्हें शांत देखकर मैं तुरंत ही बोल पड़ा भाई साहब इन्हें जल्दी से रख दीजिए। कहीं कोई आ सकता है। मेरी बात से जैसे उनकी तंद्रा भंग हुई और पत्नी ने डिब्बे के जेवर एक बड़ी बक्स में सामानों में सबसे नीचे रखकर ताला लगा दिया। फिर उस पर कपड़े की गठरी, झोले आदि ऐसे रख दिए मानो वह कूड़ा घर हो।
हम जल्दी ही वापस बाहर आकर अपनी खटिया पर बैठ गए। पिता भी मेरे साथ बैठे थे हम दोनों बिल्कुल शांत थे। खाना-पीना सब ख़त्म होने के बाद बाहर पड़े बिस्तरों पर सब लेट गए। मेरा बिस्तर पिता के बगल में ही था। धुएँ से मच्छरों का प्रकोप कम हो गया था। मगर जो थे वह परेशान करने के लिए काफी थे। एक छोड़कर बाकी सारी लालटेनें बुझा दी गयीं थी। काली चादर हर तरफ गहरी हो चुकी थी।
आसमान में चमकते तारे न जाने क्यों अचानक ही बचपन की ओर खींच ले गए। गाँव में ऐसी ही एक रात पिता, चाचा, चचेरे भाइयों के साथ सोया हुआ था कि खेतों में नील गायों के हमले का पता चला और फिर देखते-देखते पूरा गाँव लालटेनें, टॉर्चें, लाठी-भाला लिए उस झुंड को खदेड़ने चल दिया था। मैं भी एक लाठी लिए चाचा के साथ हो लिया था। मगर कुछ दूर जाकर एक कीचड़ भरे गढ्ढे में गिर गया था। मेरी चीख पुकार लोगों के शोर में गुम हो गई थी। झुंड चला गया तो भगाने वाले भी चले गये। मगर किसी ने मेरी आवाज़ नहीं सुनी। मैं रात भर कीचड़ में पड़ा रोता, तड़पता रहा, आसमान के तारे देखता रहा। दूर कहीं भौंकते कुत्तों या किसी जानवर की आवाज सुन-सुनकर सिहर उठता। फिर कब मैं बेहोश हो गया पता नहीं चला।
जब आँखें खुलीं तो जिला अस्पताल के बेड पर था और सिर पर पिता जी का हाथ। मगर आज के इस गाँव में सिर्फ़ इस घर के आगे ही दर्जन भर लोग लेटे हैं। बाकी सारे घरों के बंद दरवाजों के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। कुत्तों के भौंकने की आवाजें कभी-कभी सुनाई दे जातीं। मुझे लगा शायद कुत्ते भौंकना भी भूल गए। मेरा मन अब कुछ ज़्यादा भटक रहा था। लौट-लौट कर फिर घर पहुँच जा रहा था। शाम को बड़े लड़के की कई कॉलें आई थीं। लेकिन मैंने नहीं उठाया था, तो एक एस.एम.एस. आया गुस्से से भरा कि फ़ोन उठाते क्यों नहीं? पढ़कर मेरा पारा और चढ़ गया और एस.एम.एस. से ही जवाब दिया। मैं तीर्थ यात्रा पर निकल चुका हूँ, परेशान होने की ज़रूरत नहीं। उसको एस.एम.एस. करने के बाद दिमाग में चल रहे तमाम विचारों के बीच यह बात भी आई कि सच तो है सच्चे सपूतों के कुछ काम आ सकना किसी तीर्थ से कम है क्या? करवट बदलते उधेड़बुन में उलझे मुझे बहुत देर रात नींद आई।
अगले दिन जब मैं खाने-पीने के बाद वहाँ से चलने को हुआ तो सबने समझा मैं वापस घर जा रहा हूँ। तो पिता-दामाद बोले हम आपको अपने घर का हिस्सा मान चुके हैं। यदि घर पर कोई काम न रुक रहा हो तो कुछ दिन और रुक जाइए। मैंने मन ही मन कहा कि मेरे बिना कहाँ कुछ रुकने वाला है और फिर मैं तो घर हमेशा के लिए त्याग आया हूँ। मेरी चुप्पी पर दामाद फिर बोला बाबू जी किसी काम का हर्ज न हो रहा हो तो तेरहवीं तक रुक जाइए। मुझे भी लखनऊ चलना है। आपको साथ ले चलूँगा। ऐसे आप अकेले कहाँ परेशान होंगे। उन दोनों के आग्रह मैं टाल न सका और रुक गया।
तेरहवीं के अगले दिन चलने की मैंने तैयारी की। उससे दो दिन पहले से दिमाग में यह चल रहा था कि दामाद साथ चलने को कह रहा है। इससे कैसे अपने को अलग करूँ। मगर सौभाग्य से मेरी यह समस्या अपने आप ही समाप्त हो गई। दामाद के छोटे बेटे की तबियत खराब हो गई। डायरिया से पस्त हो चुके अपने दो साल के बेटे को वह छोड़कर जाने को तैयार न हुआ। मैंने भी उससे कहा बेटा बच्चे की तबियत ठीक नहीं है। तुम अभी रुक जाओ। इस पर उसने प्रश्न भरी नज़र से देखा मुझे, तो मैंने कहा परेशान मत हो मैं चला जाऊँगा। फ़ोन पर हाल-चाल लेता रहूँगा। वह जैसे इसी बात का इंतज़ार कर रहा था। तुरंत मान गया। फिर मैंने जल्दी से विदाई ली और चल दिया। वहाँ से आते वक़्त परिवार के कई सदस्य भावुक हो गए। पिता गले से लगकर फफक पड़े थे। बोले भइया मुझसे अभागा कोई नहीं होगा। अपने इन्हीं हाथों से बेटे को अग्नि दी। बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत करा पाया था।
बस स्टेशन तक मुझे मोटरसाईकिल से पड़ोस के एक लड़के से पहुँचवा दिया गया। स्टेशन पर मैं अजीब असमंजस में पड़ गया कि कहाँ जाऊँ? घर तो त्याग दिया है। मन के कोने में कहीं दबी आश्रम की बात एक दम उभर आई। मगर किसी आश्रम के विषय में मुझे पता ही नहीं था। सोचते-विचारते स्टेशन की बेंच पर बैठे-बैठे मुझे आधा घंटा हो गया। इस बीच कई बसें आईं। कुछ मुसाफिर उतरे कुछ चढ़े। बसों के आते ही फेरी वालों की सक्रियता में एकदम आने वाले उफान को देखकर अचानक ही मन में आया कि आखिर ऐसी कोई व्यवस्था सरकार क्यों नहीं बनाती कि यह बेचारे भी शांति से अपना व्यवसाय कर सकें। इस बीच एक बस में अयोध्या की लगी नेम प्लेट देख एकदम से वहीं चलने की बात मन में उमड़ पड़ी। सोचा वहाँ अनगिनत साधू-महात्मा हैं। उनके आश्रम हैं वहीं किसी के पास चलता हूँ। संतों की सेवा करूँगा। आश्रम या मंदिर के किसी कोने में पड़ा रहूँगा और महाप्रभु राम के जन्म-स्थल पर उनकी आराधना में जीवन बिता दूँगा। वैसे भी जीवन भर कभी प्रभु का ठीक से सुमिरन नहीं किया। शायद प्रभु उसी की सज़ा दे रहा है।
मन में बीसों साल पहले अयोध्या के दृश्य आने लगे। जब रुक्मिणी के साथ गया था वहाँ। प्रभु राम की जन्म भूमि के दर्शन के साथ-साथ दिन भर और बहुत से मंदिरों को देखा था। जगह-जगह पूजा-अर्चना की थी। पवित्र सरयू नदी के तट पर भी जाकर पूजा-अर्चना की थी। वहाँ हफ्ते भर एक धर्मशाला में रहकर पूरी अयोध्या को आँखों में बसा लेने की कोशिश की थी। फिर हनुमानगढ़ी भी गया था। इन दृश्यों को, रुक्मिणी को याद करते-करते तय किया चलो वहीं पहले किसी धर्मशाला में ठहरते हैं। फिर देखभाल के किसी अच्छे संत महात्मा की शरण में हो लेते हैं। इस निर्णय के साथ ही मैं बैग लेकर उठा। अयोध्या जाने वाली किसी बस के बारे में पता करने पूछताछ कार्यालय पहुँचा तो वह खाली मिला। पूछने पर पता चला किसी काम से गए हैं। थोड़ी देर में आएँगे। मैं फिर बैठ गया आकर अपनी जगह। इस बीच मैंने महसूस किया कि मन में यह मंथन भी चल रहा है कि क्या करूँ क्या न करूँ? और पहले से कहीं ज़्यादा गति से। और अब यह भी महसूस कर रहा था कि तन-मन बीच-बीच में घर की ओर भी खिंचा जा रहा है। पर वहाँ का अपमान, दुत्कार याद आते ही ठिठक भी जाता है। संत-महात्माओं के बीच कैसे बीतेगा जीवन, वहाँ ठहर भी पाऊँगा कि नहीं, यह संशय आते ही ठिठकना ख़त्म हो जाता है। अंततः ठिठकना एकदम ख़त्म हुआ। क़दम मन में एक बड़ी योजना लिए बढ़ गए घर की ओर कि भागना तो कायरता है। ईश्वर वंदना घर पर भी हो सकती है। वहाँ अपनी व्यवस्था अलग कर रह सकूँ इतनी पेंशन तो मिलती ही है। सारे बच्चों से अलग हो जाऊँगा। जिससे वे किसी तरह का बोझ न महसूस करें। फिर रुक्मिणी के नाम एक ऐसा पुरस्कार शुरू करूँगा जो हर साल उस व्यक्ति को दिया जाएगा जो अपनी सारी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए अपने माँ-बाप की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करता हो। न कि उन्हें बोझ मानता हो। पहला पुरस्कार फौजी बेटे को दूँगा मरणोंपरान्त। सबने गाँव में बताया था कि वह अपने माँ-बाप का श्रवण कुमार था। बस तेज़ी से लखनऊ की ओर चल रही थी। मैं स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था। जबकि सिर का दर्द बढ़ रहा था। मैंने खिड़की थोड़ी सी खोल ली थी कि बाहर की हवा कुछ आराम देगी।
प्रदीप श्रीवास्तव
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२०, उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान २०२२
सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com
जन्म : लखनऊ में जुलाई, 1970
>> प्रकाशन :
>> उपन्यास–
मन्नू की वह एक रात , बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब, वह अब भी वहीं है, अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं
>> कहानी संग्रह–
मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा , औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाजा, मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबू जी
>>>कथा संचयन-
मेरी कहानियाँ-खंड एक जून २०२२ में प्रकाशित
नाटक– खंडित संवाद के बाद
कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
संपादन :"हर रोज़ सुबह होती है" (काव्य संग्रह) एवं "वर्ण व्यवस्था" पुस्तक का संपादन
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२०, उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान २०२२
संप्रति : लखनऊ में ही लेखन, संपादन कार्य में संलग्न