व्यंजना

उपन्यास अंश

कही-अनकही

- डॉ. प्रतिभा सिंह


आसमान में घुमड़ते काले-भूरे बादलों का झुण्ड मनमोहक लग रहा था।आषाढ़-सावन तो सूखे ही बीत बीते,ख़ैर ....!उतरते भादों में ही सही बेदर्दी बादल बरसे तो।ठंडी हवा के झोके बता रहे थे कि कहीं आस- पास खूब बारिश हुई है।महीनों की प्रतीक्षा के बाद आज बरसात की ठंडी बूंदों को छूकर गुजरने वाली हवा का स्पर्श सुखद था।इतने सुहावने मौसम में मैं अपनी तन्हाई के साथ सड़क की धूलभरी भीड़ में खड़ी थी पर खुद में ही मगन।बारिश से पहले की तेज आंधी अपने साथ धूल- गर्द तो उड़ा ही रही थी पर मेरा मन भी तेज हवा के झोंके पर सवार हो हिचकोले खा रहा था।श्यामल सांझ की उजास मेरे मन में समाकर मुझे तरंगित कर रही थी।मेरी फेवरेट रेड कलर की लांग स्कर्ट और व्हाइट टॉप जिसे मैंने आज फर्स्ट टाइम ही पहना था अब धूल धूसरित हो गई थी।फिर भी मैं बेफिक्र मन के उजास में विचरती -विचारती चहलकदमी कर रही थी।हाँ..... कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि मेरे खुले बाल तेज हवा से बेतरतीब हो गए हैं।उफ.....!मैंने पर्स से स्टॉल निकालकर चेहरा ढंक लिया।अब मेरी नज़र सफेद जूतों पर गयी।वे धूल-मिट्टी में नहाकर अपना मूल रंग खो चुके थे।पर जो भी हो... आज मौसम इतना सुहावना हुआ था कि मन आनंद सागर में हिलोरें ले रहा था।


मैंने तिराहे पर आकर एक ई रिक्शे वाले को रुकने का इशारा किया।वह मेरे ठीक सामने आकर रुका-


भैया देवकाली चलोगे?


हाँ चलिबैं मैडम जी।पर आप अकेले सवारी हौ तो पचास रुपिया देबै का परी।


अरे!लूट रहे हो।हरदम चौक से देवकाली का बीस रुपये तो देती हूँ।


"मैडम जी ! राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाये त आपसे पचास रुपिया ना लेइत।पर आपका अकेलै ही ले जाये का परी।


क्यों ?तुम बैठा लेना किसी और को भी।"और इतना कहते हुए मैं बैठ गई।


"मैडम जी अगर राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाय तौ आप बीस ही देना।ओइसे संझा का बेला है अउर मौसम भी खराब होय रहा।अब आप ही सोचौ अइसन मा घर कौन छोड़ै।"


मैं रिक्शे वाले से कहना चाहती हूँ कि कोई घर छोड़ेगा नहीं पर जिसने छोड़ दिया है वह घर जाएगा तो है न।पर मन नहीं है उससे और बोलने का।इस सुहावने मौसम में मूड खराब नहीं करना चाहती थी।मूड खराब से ध्यान आया.. इसने कहा कि मौसम खराब हो रहा है।एक बात मेरी समझ में नहीं आती जब मौसम असल में सुहावना होता है तो लोग यह क्यों कहते हैं कि खराब हो रहा है।चाहे सूखा पड़े,धरतीं बंजर हो जाये,नदी नाले सूखने लगे या प्यास से पशु-पक्षी मरने लगे, चाहे लंबे अकाल के बाद ही बारिश क्यों न हो, लोग यही कहेंगे मौसम खराब है।अजीब है मनुष्य मन भी..हर घड़ी उसपर नकारात्मकता ही हावी रहती।ख़ैर मैंने उसे चलने के लिए कहा।उसने ऑटो स्टार्ट किया और साथ में तेज अवाज में गाने भी।कोई फिल्मी गाना बज रहा था पर गाने पर मेरा ध्यान नहीं था।


मैं ऑटो की खिड़की पर बैठी बाहर देख रही रही थी।सामान्य दिनों में फैजाबाद की मार्किट में शाम को ही रंगीनियत रहती है। जैसा की हर शहर में होता है।पर उसदिन मौसम का मिजाज कुछ और ही था।रोड पर ठेले खोमचे लेकर खड़े रहने वाले जल्दी- जल्दी घर की ओर भाग रहे थे।छोटी दुकानों के शटर बंद हो रहे थे।जबकि बड़ी दुकानों में अभी वैसी ही रौनक थी।आजकल मैं जब भी घर से निकलती हूँ न जाने क्यों मेरा मन अजीब सी उदासी से भर जाता है।जब दो साल पहले मैं फैजाबाद आयी थी तो यह बिल्कुल ऐसा नहीं था।सड़कों के दोनों किनारों पर खूब छायादार ऊँचे -ऊँचे वृक्ष हुआ करते थे।पर अब जबसे राम मंदिर मामले का निस्तारण हुआ है पूरे अयोध्या जनपद में निर्माण कार्य तेज हो गया है।सड़के सिक्स और फोर लेन की जा रही हैं।फाइव और सेवन स्टार हॉटेल बनाये जा रहे हैं।सरकार के इस फैसले से यहाँ के अधिकतर लोग खुश हैं।किन्तु जिनकी बहुमूल्य जमीनों का अधिग्रहण औने- पौने दाम में किया जा रहा है वह दुःखी हैं और वर्तमान सरकार को कोस रहे हैं।पर बहुसंख्यक अयोध्यावासी सरकार की इस ऐतिहासिक जीत को धर्म की जीत बता रहे हैं और प्रसन्न हैं।वे अब पारस्परिक अभिवादन में नमस्ते न कहकर जय श्री राम कहने लगे है,उनके शहर का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर चर्चा का केंद्र होने से वे उत्साहित हैं।वैसे मैं चाहती हूँ कि जब भी लोग राम का नाम लें सीता का नाम भी जरूर लें।उनके नाम का भी जयकारा लगाएं।मेरे विचार से उनका त्याग राम से अधिक ही था।पर मेरे चाहने से क्या होता है।अयोध्या तो राम की ही है।


खैर...ऑटो चल रही थी और मैं मनमोहक शाम की रंगीनियत में डूबती -उतराती ,विचारों में मग्न।ठंडी हवा से तन में सिहरन होने लगी थी।जैसे -जैसे शाम गहरा रही थी मन और चंचल हुआ जा रहा था।अबतक तो हल्की बारिश शुरू हो गयी थी ।मैं हाथ को ऑटो से थोड़ा बाहर निकालकर पानी की बूंदे उछालने लगी थी। कुछ देर में बारिश और तेज हो गयी।मैं खिड़की से ही बाहर देख रही थी,जिसे जहाँ जगह मिल रही थी वह उधर ही भाग रहा।लोगों को भागते -दौड़ते देखकर मैं सोच रही कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है जो इतनी अफरा-तफरी मची है।इंसान ही तो हैं सभी कागज तो नहीं कि गल जाएंगे।भला इतनी प्रतीक्षा के बाद बारिश हुई है तो लोग आनंद क्यों नहीं मना रहे।लोग भाग रहे थे जबकि मैं ठहरना चाहती थी।वैसे सच कहूँ तो मैं सड़क पर खड़े होकर भींगना चाहती थी,इन नन्ही -नन्ही बारिश की बूंदों से खेलना चाहती थी।पर ऐसा तो बस फिल्मों में ही होता है।अभी मैं फैजाबाद की सड़क पर उतरकर ऐसा करूँ तो लोग साइको समझ लेंगे।तभी मुझे बचपन की स्मृतियाँ घेरने लगीं।जब कभी स्कूल से छुट्टी हुई और रास्ते में बारिश होने लगे तो क्या ही आनंद आ जाता।फिर कहाँ खयाल की किताब-कॉपी भी भींग रही है।कभी-कभी तो इस कदर भीगकर घर आती की माँ से खूब मार पड़ जाती।यह सब याद करते मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी।पर अभी मेरी बगल से एक प्रेमी जोड़ा बाइक पर सवार हो भीगते हुए गुजर रहा था।वह खूब खुश लग रहे थे।लड़की अपने दोनों हाथ खोलकर बारिश की बूंदों को हथेली पर रोक रही थी, इतरा रही थी।लड़का फिदा हो रहा था उसके इस मासूम बचपने पर।मैं तो आज तक इस रहस्य को नहीं समझ पायी की प्रेम करने वाले बच्चे क्यों बन जाते हैं।काश की दुनिया का हर व्यक्ति बस प्रेम ही कर सकता।काश ऐसा होता की घृणा हमारे भावकोश में ही न होती।


मेरी नजर सड़क के किनारे लगे गुलाब के पेड़ों पर जाती है।फूलों से लदी गुलाब की डाली मनमोहक लग रही थी।ठीक इसी समय मुझे एक घटना याद आ रही थी।वह दिसम्बर की कोहरे भरी शाम थी।मैं गोमती नगर के एक साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित थी।कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं जब मंच से उतरकर दस कदम आगे गेट की तरफ बढ़ी तो एक लड़का गुलाब का फूल लिए मेरे सामने खड़ा हो गया।मैं कुछ समझ पाती की उसने कहा सॉरी मैम।पर आप ड्रीम गर्ल हो।मैं यकीन से कह सकता हूँ की दुनिया का मेरे जैसा हर लड़का आप जैसी लड़कीं के ही ख्वाब देखता होगा।उसके इतना कहते- कहते मैंने उसे नज़र भर ध्यान से देखा था।वह छः फुट का गोरा और हैंसम नौजवान था।मैंने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से फूल ले लिया था और आगे बढ़कर पास में खड़े अपने पति की शर्ट में लगा भी दिया।वह लड़का प्रश्निल दृष्टि से मेरी ओर देखने लगा था।तब मैंने बताया.. ही इज माय हसबेंड।मुझे आश्चर्य हुआ था उसका कॉन्फिडेंस देखकर।उसने असहज होने या झेंपने के बजाय खुद ही आगे बढ़कर मेरे हसबेंड से हाथ मिलाते हुए कहा-यू आर वेरी लकी सर।रियली योर वाइफ इज सो ब्रिलियंट और ब्यूटीफुल।बदले में वह बस मुस्कुरा रहे थे।उसने सी यू कहते -कहते मेरी ओर देखा और गेट से बाहर निकल गया।मैंने महीने भर बाद न्यूजपेपर में उस लड़के की फोटो देखी थी।उसने आई .ए .एस. में ग्यारहवीं रैंक हासिल की थी।उसदिन मैं फिर उस दिन की घटना को याद करके खूब हंसी थी।पर सचमुच यह पढ़कर मुझे बेहद खुशी हुई थी।


अचानक ही मेरे ध्यान को भंग करती हुई एक तेज आवाज कानों में गयी।वह मेरी ही बगल में बैठी क़रीब30-35 साल की औरत थी,साथ में दो बेटियाँ भी।बड़ी की उम्र शायद सात-आठ साल की रही हो और छोटी की चार से पांच।वह कब मेरी ऑटो में बैठी मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं।मैं तो अबतक अपनी ही विचार यात्रा में थी।पर वह औरत कुछ ज्यादा ही कर्कशा लग रही थी।मैं मामला समझने के लिए उसे ध्यान से सुनने लगी।वह अपनी बेटियों का किराया नहीं देना चाहती थी जबकि ड्राइवर सबका बीस-बीस ₹ मांग रहा था।उसे भी देवकाली ही जाना था।बस मैं चाहती थी कि वह चुप रहे किसी भी तरह।मैंने ड्राइवर को डांट लगाई और उसे याद दिलाया की उसने पचास रुपये में देवकाली छोड़ देने की बात कहीं थी।और अब मैं उसे उतना ही दूँगी।वह चाहे कितने भी पैसेंजर बैठा ले उनसे उसे एक रुपये न लेने दूँगी।अब वह शांत होकर ऑटो चलाने लगा।ऑटो वाले को बोलते -बोलते मैंने एक नज़र उस औरत की ओर देख लिया ,वह मुझे कृतज्ञता के भाव से देख रही थी।शायद मुझसे कुछ और भी कहना चाहती है।किन्तु संकोच या भय से चुप थी।


मैं देख रही थी कि उस औरत की छोटी बेटी समोसे खाने की जिद कर रही थी।और वह उसे जब तब एक दो चपत लगा कर चुप करा दे रही थी। बड़ी तो यूँ भी शांत बैठी थी।तीनों के कपड़े बहुत ही साधारण या कहूँ की इतने घिस चुके थे कि रंग का पता ही नहीं चला रहा था।


मैं कुछ देर बाद देवकाली बाई पास पर उतर गयी।किन्तु अब बारिश और तेज हो गयी थी।शाम की खूबसूरती में लिपटे फैजाबाद का दिलकश बाजार घोर सन्नाटे में तब्दील हो चुका था।मुझे अंदाजा था कि शाम ढल गयी होगी शायद,बादल से समय का कुछ पता नहीं चल रहा था।मैंने कलाई घड़ी पर नज़र डाली.....शाम के छः बज रहे थे।यहाँ से उतरकर करीब पाँच सौ मीटर की दूरी पर मेरे घर पहुँचते -पहुँचते तो मैं पूरी तरह भीग जाती।इसलिए मैंने कुछ देर पनाह लेने की गरज से आस-पास नज़र दौड़ाई।पास ही एक रेस्टोरेंट दिखा ,भूख तो खूब लगी थी ।चलकर चाय पी जाए यही सोचकर उधर लगभग दौड़ते हुए पहुँची।


इस मूसलाधार बरसात में गरमा गरम चाय के साथ समोसे। वाह ! मजा ही आ जाये।मैं अपना ऑर्डर देकर नज़र भर टेस्टोरेंट का जायजा लेने लगी।मेरे सामने वाली टेबल से एक सीट आगे वही युवा जोड़ा बैठा था जिन्हें मैंने अभी कुछ देर पहले बारिश में सड़क पर सरपट बाइक दौड़ाते हुए देखा था।।मैंने जैसे ही उनकी ओर देखा ठीक उसी समय लड़की ने भी मेरी ओर देख लिया।उसने मुझसे नज़र फेरते हुए लड़के के कान में कुछ कहा तो लड़के ने भी मेरी ओर देखा।शायद मेरा यूँ देखना उन्हें बुरा लग रहा था।पर उन्हें मैं नहीं बता सकती कि यह इत्तेफ़ाक से हुआ है।उन्हें मुझसे असहज होने या डरने की कोई जरूरत नहीं।पर मुझे यकीन हो गया कि वो प्रेमी जोड़े ही थे।।वैसे सच कहूँ तो प्रेम ही वह अहसास है जो बताता है कि आप जिन्दा हैं।


कुछ देर बाद मेरा ऑर्डर आ गया।इस भीगी शाम में चाय और समोसे की तलब ऐसी थी कि अब बस..... कब मुँह में जाये।किन्तु मैंने जैसे ही समोसे का पहला निवाला मुँह में डालने के लिए हाथ बढ़ाया मुझे उन माँ -बेटी का ध्यान हो आया।वह छोटी बच्ची समोसे की जिद किये जा रही थी और जब-तब माँ पीट दे रही थी।मैं लगभग दौड़ते हुए रेस्टोरेंट से बाहर निकली।अनायास ही मेरी नज़र उन माँ- बेटी को ढूंढने लगी।वह कहीं नहीं दिख रही थीं ।मैं निराश हो गयी।अभी कुछ देर पहले भूख से जान निकल रही थी परन्तु अब अचानक ही मुझे खुद पर झल्लाहट होने लगी थी।मैं भला उस छोटी बच्ची का एक समोसे के लिए रोता हुआ मासूम चेहरा और उसकी माँ की बेबसी कैसे भूल गयी ।


मैं पाँच मिनट बाहर ही निस्पृह खड़े रहने के बाद जैसे ही रेस्टोरेंट के गेट की ओर मुड़ी कि मेरी नज़र ब्रिज के नीचे पड़ी।वहाँ बहुत सारे फल के ठेलों के बीच वह माँ- बेटी भी खड़ी थीं। छोटी लड़कीं मेरी ओर ही देख रही थी।मैं बता नहीं सकती कि उन्हें देखकर मुझे कितनी खुशी हुई।मैं उन्हें थोड़ा सा कुछ खिलाकर शायद आत्मग्लानि से मुक्त होना चाहती थी।मैंने उस लड़की को अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।किन्तु उसने अपनी माँ का मटमैला पल्लू और जोर से पकड़ लिया। मैंने पुनः उसे अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।लड़की अपनी माँ से शायद बता रही थी।अब उसकी मां और बड़ी बहन भी मेरी ओर देख रही थीं। मैंने उन दोनों को भी हाथ से इशारा कर अपनी ओर बुलाया।बारिश अब कुछ कम हो गयी थी।वह औरत शायद समझ गयी और अपनी बेटियों का हाथ पकड़कर मेरी ओर आने लगी।उनके आते ही मैंने उन्हें रेस्टोरेंट के अंदर चलने को कहा।यह सुनकर दोनों लड़कियाँ खुश हो गयीं लेकिन वह औरत सकुचा रही थी।मैंने लगभग डांटते हुए उस औरत को अंदर चलने के लिए कहा।वह तीनो घबराकर धीरे -धीरे कदमों से अंदर गयीं।


मैंने अपने टेबल पर बैठते हुए उन माँ बेटियों को पास की खाली कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।छोटी बच्ची के सूखे होंठ बता रहे थे कि वह काफी देर से भूखी और प्यासी है।मैंने अपना प्लेट उसकी तरफ बढ़ाते हुए उसे खाने के लिए कहा और खुद चाय पीने लगी।वेटर को बुलाकर कुछ स्नैक्स और तीन कप चाय का ऑर्डर दे दिया।


"मुझे लग रहा है आप काफी परेशान हैं।" मैंने उस औरत की तरफ देखते हुए कहा


"जी मैडम जी हूँ तो"


"आप चाहें तो मुझे अपनी समस्या बता सकती हैं मैं शायद कुछ मदद कर सकूँ।"


"तकदीर की मारी हूँ मैम जी।आपको क्या परेशान करूँ।"


"ठीक है अगर आप मुझसे कुछ नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं।पर यह रखिये मेरा मोबाइल नम्बर।आपको कोई समस्या हो तो मुझसे कह सकती हैं।" मैंने अपना मोबाइल नम्बर एक कागज के टुकड़े पर लिखकर उसे देते हुए कहा।


उसने वह टुकड़ा लेकर अपने साड़ी के पल्लू में ऐसे बांधा जैसे कोई खजाना मिल गया हो।


इस बीच मैं ध्यान दे रही थी कि रेस्टोरेंट में बैठे लगभग हर व्यक्ति की निगाह मेरे ही टेबल पर थी।यहाँ तक की वह प्रेमी जोड़ा भी मुझे ही घूर रहा था।जाहिर है वहाँ कोई प्रेम या सम्मान से नहीं अपितु घृणा बोध और आश्चर्य से ही मुझे देख रहा था।उन सबकी नज़र में या तो मैं मन्द बुद्धि थी अथवा कोई रसूखजादी ,जिसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके आस -पास क्या हो रहा।मैंने देखा वह वेटर जो मेरा ऑर्डर लेकर गया है रेस्टोरेंट के मालिक से कुछ कह रहा है और अब उसका मालिक मेरे पास आकर खड़ा हो गया -


"एक्सक्यूज मी मैम!"


"जी कहें।"


"आप ऐसा नहीं कर सकती।"


"क्या नहीं कर सकती?"


"यही की इस रेस्टोरेंट में बेगर्स का आना मना है।आप प्लीज इन्हें बाहर कीजिये।"


"पर आपको बता दूँ कि ये बेगर्स नहीं हैं, और जब मैं आपको इनके खाने का पे कर रही हूँ तो आपको कोई हक नहीं कि इन्हें अपमानित कर बाहर करें।"


"Sorry ma'am it's restaurant rules.अगर हम ऐसे ही बेगर्स को आने की परमिशन देते रहेंगे तो हमारे सारे कस्टमर्स भाग जाएंगे।फिर बिजनेस तो गया।"


मैं चुपचाप अपमान के घूंट पिये उन्हें देख रही थी।वह महिला अबतक अपनी दोनों बच्चियों को लेकर बाहर निकल गयी थी। मैं उनका बिल पे करके जल्दी से बाहर निकली,किन्तु तबतक वह औरत अपनी बेटियों के साथ रात के अंधेरे में गुम हो चुकी थी।


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PratibhaSingh

|| डॉ. प्रतिभा सिंह ||


परिचय :

नाम -डॉ०प्रतिभा सिंह

जन्मस्थान--ग्राम+पोस्ट-मनिहारी,

जनपद-गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)

स्थायी पता-ग्राम+पोस्ट-किशुनपुर जनपद आजमगढ़ उत्तर प्रदेश

शिक्षा- एम०ए०(इतिहास,शिक्षाशास्त्र),बी०एड०,पी-एच०डी० ( इतिहास)

व्यवसाय -अध्यापन (अयोध्या जनपद-उत्तर प्रदेश)

विधा--कविता,कहानी,उपन्यास

प्रकाशित पुस्तकें-


जाऊँ कहाँ?(कहानी संग्रह),


मन धुआँ-धुआँ सा है(कविता संग्रह),


अस्सी घाट पर प्रेम समीक्षा (उपन्यास),


शिक्षाप्रद बाल कहानियां (बाल कहानी संग्रह)


पंचकन्या-पांच लम्बी कविताओं का संग्रह



मोबाइल नम्बर - 8795218771

ई मेल-prtibhagargisingh@gmail.com



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