गिलहरी उदास थी
- डॉ. मनोज तिवारी
अशोक - पेड़ से
उतरती गिलहरी उदास थी
मैंने उसे हथेलियों पर उठा लिया
वहाँ से बादल का टुकड़ा
जल्दीबाजी में उड़ा जा रहा था
उसे देख
गिलहरी ज़िद कर बैठी
कि मुझे बादलों की पीठ पर बिठा दो
प्यास की नदी में डूब रही हूँ
मैं दौड़ कर सामने हैंडपम्प पर गया
घंटों हैंडपम्प को चलाता रहा
पानी का एक कतरा भी
नहीं उतरा नल से
फिर अशोक - पेड़ से
थोड़ी- सी छाया मांगी
उसकी व्यथा देख
मनझमान था वह आज
वर्षों से जो गिलहरी
खेलती थी उसके
पेट-पीठ-माथे पर चढ़कर
वही भटक रही थी
थोड़ी-सी छाया के लिए
गिलहरी रुआंसा होकर बोली
मुझे चम्मच भर पानी
और पत्ते भर छाया की दरकार है
क्या दे सकते हो मानव!
यह सुन मैं
मौन हो गया
मेरे पास न शब्द थे और
न ही उसके प्रश्न के उत्तर ।
और एक दिन ......
विद्यालय गया
एक दिन मैं
वहाँ विद्यालय नहीं था
रिसेप्शन था
सजी-धजी कतार में
मुख पर मुस्कान चिपकाए महिलाएँ थीं
पर वे रिसेप्शनिस्ट नहीं थीं
प्रिंसिपल से बात हुई
पर वह प्रिंसिपल नहीं थी
अध्यापक के पास खड़ा घंटों
पर वह अध्यापक नहीं था
जिम्नेजियम जिम्नेजियम नहीं था
क्लासरूम, क्लासरूम नहीं था
गार्ड थे, पिअन थे, माली थे..... ड्राइवर थे
पर विद्यालय, विद्यालय नहीं था ।
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मेरे गाँव का स्कूल उदास है
मेरे गाँव में
नीम की फुनगी पर बैठ
निहारता है
रोज़ ही
मेरे स्कूल को
पीला चाँद |
ढहे - ढनमनाए
छतों - दीवारों से
हर एक कक्षा का
मुआयना करता है वह
खुरदरे व सफेद
ब्लैकबोर्ड पर
खड़िया से
लिखे हर्फ़ -हर्फ़ को
पढने की कोशिश में
कई बार अपनी
आँखें मींचता है
और पढ पाने में
विफल रहने पर
लंबे डग से
कक्षा को लांघता हुआ
बढ जाता है आगे ।
मेरे गाँव का स्कूल
उदास है आज
तार - तार हो आए
चट पर
चाँद को कैसे व कहाँ बिठाए
सोचता है वह
यहाँ तो पारस है
छू जाती है
जब - जब इसकी मिट्टी
जिस किसी को
वह सोना हो जाता है
आखिर पारस भी तो
पत्थर ही है न !
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कविता में पिता का गमछा
मेरी कविता के बंद कपाट के भीतर
बगैर किसी आहट के
चला आता है अन्दर
पिता का लाल गमछा
इन दिनों........|
‘मनोहर पोथी’ के अक्षरज्ञान – सा
पिता आते हैं
खूंटी पर टांग देते हैं
पसीना सना अपना कुरता
जनेऊ को दोनों हाथों से पकड़ पीठ पर रगड़ते
कंधे पर रख लेते हैं अपना लाल गमछा
और...... सिरहाने बैठ मेरे
गमछे से पोंछते हैं
माथे पर उभर आए पसीने को
चौंक उठता हूँ मैं
अलगनी पर टंगा पिता का गमछा
चुपचाप कंधे पर डाल
कविता से बाहर निकल आता हूँ ।
इन दिनों........|
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जंगल
वसुधा की छाती पर
उग आए हैं लोगों का जंगल
इसमें छिपे हैं
न जाने कितने सियार,
शेर, भेड़िये और बिलौटे
गिनती व पहचान मुश्किल है
सभी चेहरों पर
आदमी के हैं कई - कई मुखौटे
ओट में छिपे रक्त पिपासु
विवश नारकीय जीवन जी रहे
धरा के बसु |
लाशों के ढेर पर मांगते मनौती
मंगल ध्वनि उचारते
युद्धोन्मत्त हो मुट्ठियाँ लहराते
हर्षातिरेक हो गाते विजयी गीत
बसुधा की छाती
और लोगों का जंगल |
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|| डॉ. मनोज तिवारी ||
कवि परिचय –
नाम : डॉ. मनोज तिवारी ( कवि व समीक्षक )
जन्म तिथि : 13 अप्रैल
शिक्षा : एम् . ए.(हिंदी ) जामिया मिल्लिया इस्लामिया , नई दिल्ली
पी. एच. डी. विश्व भारती ,शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल
प्रकाशन :
मुश्किल है मुट्ठीभर सुख पाना; बतियाती औरतें और अन्य कविताएँ (काव्य संग्रह ), ‘सौ कदम’ और ‘पंचपल्लव’, कारवां और कविता अविराम – 4 (साझा काव्य संग्रह), ‘यथार्थ सृजन’ (साझा लघुकथा संग्रह ),
संपादन : ‘कहानी की मौत’- सुरेन्द्रनाथ मल्होत्रा कहानी संग्रह ,सुरेन्द्रनाथ मल्होत्रा की प्रतिनिधि कहानियाँ, सर्वभाषा (त्रैमासिक पत्रिका ) सह संपादक
शमशेर की कविता (आलोचनात्मक पुस्तक )
‘हिन्दी साहित्य में बिहार का योगदान’ में सह लेखक, संपादक – प्रोफ़ेसर लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा
संप्रति : अध्यापन
संपर्क : सी-287 केन्द्रीय विहार , सेक्टर 56
गुड़गाँव- 122011 [हरियाणा ]
मोबाइल नं – 9811285244
ई- मेल: hindi.manoj13@gmail.com
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