व्यंजना

यह तुम्हारे नयन हैं, या नयनाभिराम कोई भवन

- दयानंद पांडेय


पचास पार की तुम

और जाने कितने समंदर सोखे

तुम्हारी यह आंखें


जैसे बिजली का एक नंगा तार हैं

कि तुम्हारी आंखें हैं

इस उम्र में भी

आग बन जाती हैं

तुम्हारी आंखें


यह समंदर, यह आग

यह बिजली का नंगा तार

यह तुम्हारे नयन हैं

या नयनाभिराम कोई भवन


तुम्हारी इन भोली , मासूम

और बेचैन आंखों की तपन भी

महसूस करना

खुद की आग में दहकना है


आख़िर यह कौन सा सूर्य है

जो तुम्हारी आंखों को

इतना दहकाता है

कि तुम्हारी आंखें

बिजली का नंगा तार बन जाती हैं

और तुम मृत्यु मांगने लगती हो

मृत्यु मुक्ति का आख़िरी रास्ता है


तो तुम मुक्ति चाहती हो

खुद से कि

अपनी आंखों से

आंखों के अंगार से

या कुछ और है


मृत्यु तो अस्सी पार मेरी मां भी मांगती है

कहती है कि बहुत जी चुकी

सारे अरमान पूरे हो गए

सारे सुख पा लिए

पर अब क्यों जी रही हूं

वह खुद से सवाल करती है

और जवाब तलाशती कहती जाती है

भगवान न जाने कितनी उम्र दे दिए हैं मुझे !


लेकिन जीवन से भरी तुम्हारी आंखों में

ममत्व का जो एक कटोरा है न

वह बहुत हुलसाता है

ऐसे गोया यह आंखें न हों तुम्हारी

एक शिशु हों

सुबह-सुबह दूध भात का कटोरा गोद में लिए


समुद्र सी शांत आंखों में दूध का कटोरा जैसे उफना जाता है

और मन होता है कि

गौरैया बन जाऊं

गौरैया बन कर तुम्हारी आंखों में ही

एक घोसला बनाऊं

घोसला बना कर उस में बस जाऊं

शिशु बन जाऊं

दूध भात खाऊं

खिला दो न


तुम्हारी आंखों को

तकलीफ तो नहीं होगी


चोंच भर दाना

बूंद भर पानी

और यह मेरा पंख फैलाना


कितनों को टीस देता है


आकाश को तो टीस नहीं होती

मेरा उड़ना उसे सुहाता है

लेकिन बिजली के

खुले इन नंगे तारों को

नहीं सुहाता


इसी लिए मैं तुम्हारी आंखों में

एक घोसला बनाना चाहता हूं


लेकिन तुम्हारी आंखें भी तो बिजली का नंगा तार हैं

और बिजली का नंगा तार

दोस्ती में छुएं या दुश्मनी में

जल जाना ही है ,मर जाना ही है


अपनी इन भोली , मासूम

और बेचैन आंखों की तपन में

जलते आकाश के इस सूर्य को

थोड़ी छांह दो न

थोड़ा विश्राम दो ना !


तुम्हारी इन समुद्र सी गहरी आंखों की सिलवट

देख कर पूर्णिमा की चांदनी मन में उतर जाती है

कहीं बहुत गहरे

तुम्हारी शांत आंखों में बारूद भरी बेचैनी देख कर

जैसे शरद भीतर उतर आता है

मन रजाई बन जाता है


मन में ढेर सारे चित्र बनने लग जाते हैं

जैसे चांद पर वह एक चरखा कातती औरत

या कि उस का भरम

कि कुछ भी नहीं है

न औरत , न चरखा , न कातना, न कोई चित्र


तुम्हारी समंदर सी गहरी इन आंखों के भीतर

हलचल बहुत है

उथल-पुथल बहुत है

शांत दिखने वाले इस समंदर में

बाकी सब है

एक शांति नहीं है


गौरैया का घोसला

हिल रहा है

तेज़-तेज़

तो क्या घोसला

बनने और बसने से पहले ही

उजड़ रहा है


तुम्हारी आंखों में बसा

यह कौन सा समंदर है

यह कौन सी टीस है

कि एक घोसला बन रहा है , उजड़ रहा है

निर्माण और ध्वंस

साथ-साथ

कहीं ऐसे भी कोई नीड़ बनता है

किसी आंख से कोई ऐसे भी उजड़ता है


यह मेरा

चोंच भर दाना

बूंद भर पानी

और यह मेरा पंख फैलाना

तुम्हारी आंख में बसे समंदर को भी

क्यों खल रहा है


क्यों खल रहा है

तुम्हारी आंखों में

मेरा बसना

और मेरा जीना


क्या तुम नहीं जानती

कि तुम्हारे यह नयन हमारा भवन हैं

नयनाभिराम

अपलक खड़ा मैं इस में जीता हूं

और तुम मुझे देवता बना देती हो

अपनी आंखों को

अपलक निहारने

के जुर्म में


सुनो

मुझे देवता मत बनाओ


गौरैया की ही तरह

उड़ने और बसने दो

अपने इन निर्दोष नयनों में


शायद भीतर-भीतर

बहुत कुछ घट रहा है

तुम्हारी आंखों के पार

समंदर सा सवाल लिए

आकाश सा फैलाव लिए


जो भी हो

इस घोसले को बचा लो न


मुझे उड़ने मत दो न

मन की रजाई ओढ़ लेने दो

थक बहुत गया हूं

ओढ़ कर सो लेने दो !


.....................................


स्त्री की बगावत का एक दिया

- दयानंद पांडेय


स्त्रियां जन्मजात बागी होती हैं

अपनी मां से वह इसे विरासत में पा लेती हैं

चुपचाप


पिता , भाई , प्रेमी , पति और पुत्र

निरंतर उस के बागी होने को


खाद देते ही रहते हैं

यह समूचा पुरुष समाज देता रहता है खाद

स्त्री की बगावत का पौधा बढ़ता रहता है

यह पौधा कब वृक्ष बन जाता है

और यह वृक्ष बढ़ते-बढ़ते कब वन बन जाता है

स्त्री जान नहीं पाती


और जब इस वन में बगावत की आग सुलगती है

तो यह सारे पुरुष

पिता , भाई , प्रेमी , पति और पुत्र

उस के बागी होने की आग को

घी देते हैं निरंतर


और जब इस वन में

आग लगती है

बगावत की इबारत और तल्ख, और तेज़ होती है

तो पुरुष सत्ता और उस की तानाशाही की एक दमकल

आ खड़ी होती है

स्त्री के इस वन के बगावत की आग को

बुझाने के लिए


आग बुझ जाती है

लेकिन

स्त्री की बगावत का एक दिया जलता रहता है

चुपचाप


स्त्री के बागी होने के सारे इंतज़ाम

सदियों से पैबस्त हैं


पर यह बगावत

इक्का दुक्का ही सही

कभी - कभी शोला बन जाती है


याद रहे

स्त्री जब फूलन बन जाती है

तो पुरुषों की सारी ठकुराई भुलवा देती है


लेकिन सभी स्त्रियां फूलन नहीं बन पातीं

सो स्त्रियों की यह बगावत

प्राय: शोला नहीं बन पाती


क्यों कि यह स्त्री

एक मां है

स्त्री का यह मां होना


उसे ताकत भी देता है

और कमज़ोर भी

बना देता है


स्त्री का यह मां होना

उसे फुल टाइमर बागी होने से

रोक लेता है


सोचिए कि कहीं फूलन भी अगर मां होती

तो क्या समय की दीवार पर

उस की बगावत के यही सुर

और यही इबारत दर्ज हुई होती भला


मज़ाक में ही सही

एक मुहावरा चलता है कि

शादी की शुरुआत में स्त्री चंद्रमुखी होती है

फिर सूर्यमुखी होती है

और अंतत: ज्वालामुखी !


यह मज़ाक नहीं है

सच है

स्त्री की बगावत की शिनाख्त है

यह मज़ाक भरा मुहावरा


सवाल यह है कि

यह चंद्रमुखी

सूर्यमुखी या

ज्वालामुखी में

स्त्री तब्दील होती कैसे है

करता कौन है


मैं ने पाया है

कि प्रेमिकाएं भी बागी हुआ करती हैं

और पत्नी तो पैदाइशी

लेकिन चुपचाप


आप देखिए कि

ज़्यादातर घरों में

साठ सत्तर पार की स्त्रियां

कभी-कभी हिटलर को भी मात करती

कैसे तो घर भर पर हुकुम चलाती मिलती हैं

और पति को ज़ुबानी हंटर मारती मिलती हैं निरंतर

वह ऐसे उछलती और बिछलती मिलती हैं

गोया किसी सोफे का स्प्रिंग सदियों से दबा पड़ा रहा हो

और अब वह मुक्त हो कर उछाल पा गया हो

आकाश भर उछल जाना चाहती हैं यह स्त्रियां


आप गौर से देखिए

इस परिघटना को

यह भी स्त्री की बगावत की एक इबारत है

पुरानी इबारत


स्त्रियों का पिटना आम बात है

लेकिन आप ने कभी किसी सत्तर - अस्सी पार की

स्त्री को भी पति से पिटते देखा है

ज़रूर देखा होगा


विद्या सिनहा को जानते हैं आप

हिंदी फिल्मों की एक समय की मशहूर अभिनेत्री

सत्तर के दशक में

जिन पर एक पीढ़ी फ़िदा थी

कई बार यूं ही देखा है

ये जो मन की सीमा रेखा है

रजनीगंधा फिल्म के इस गीत को जो अर्थ उन्हों ने दिया

आप भूले नहीं होंगे


लेकिन देखिए कि

आप यह बिलकुल भूल गए हैं कि

यही विद्या सिनहा कुछ समय पहले

मुंबई के एक थाने में अपने सत्तर वर्षीय पति के खिलाफ

अपनी पिटाई की रिपोर्ट लिखवा आई थीं

त्याग पत्र फिल्म की विपदा जैसे

उन के जीवन में उत्तर आई थी

अब उन के जीवन में बस गई है फिर-फिर

और यह विपदा किस-किस स्त्री के जीवन की विपदा नहीं है


राजेश खन्ना के खिलाफ

डिंपल कपाड़िया का विद्रोह और उन की लड़ाई

बहुत पुरानी नहीं है


और अभी-अभी

एक प्रेमिका

प्रीती जिंटा

जो लड़ी नेस वाडिया से

कि उन का सारा कारपोरेट भहरा गया

ज़मीन पर आ गई

सारी कारपोरेटी अकड़

उत्तर गई सारी लीपा-पोती


स्त्रियां इसी लिए पैदाइशी बागी होती हैं


कभी बुरका ओढ़े फोटो खिंचवाती स्त्रियों को देखा है

इस बुरके के भीतर से टुकुर-टुकुर झांकती आंखों को देखा है

उन की इस यातंना को बांचा है

मुंह ढक कर भी फोटो खिंचवाया जाता है भला

इस नेट और जेट के युग में भी

बुरका पहन कर भी कैसे स्कूटर या कार चला लेती हैं यह लोग


अब ऐसे में भी स्त्री बागी नहीं होगी

तो क्या होगी


बागी तो हमारे मंदिरों की देवियां भी होती हैं


दुर्गा को देखिए

शक्ति का स्वरूप क्या मुफ्त में बन गईं

काली को देखिए

दुष्टों के दमन में , पुरुषों के खिलाफ विद्रोह में

वह देवाधिदेव कैलाशपति शंकर को भी नहीं बख्शतीं

जीभ भले बाहर निकाल दें


पर शिव शंभू को भी अपने पांव तले कुचल देती हैं

शंकर पर ही चढ़ जाती हैं


पार्वती का सती होना

पिता से अपमानित हो कर

पिता के खिलाफ बगावत नहीं थी

तो क्या थी


अच्छा लव कुश ने

पिता राम के

अश्वमेध के घोड़े

क्या बिना मां सीता की मर्जी के रोक लिए थे

खेल-खेल में

क्या यह सीता की बगावत नहीं थी

राम के खिलाफ

बिन बोले


स्त्रियों की बगावत

कई बार ऐसे ही होती है

बिन बोले

चुपचाप


और वह कैकेयी

क्या वह बारंबार दशरथ से

विद्रोह नहीं करती थी

तो करती क्या थी


दुलरुवा बेटे को वनवास दिलवा देना भी

विद्रोह ही था

बगावत ही थी


धृतराष्ट्र से विवाह के बाद

गांधारी का अपनी आंख पर

पट्टी बांध लेना भी क्या विद्रोह नहीं था

खामोश विद्रोह


और पैदा होते ही

कुंती द्वारा कर्ण का त्याग

क्या सिर्फ़ लोक लाज का भय भर था

सूर्य से विद्रोह नहीं


कि जाओ

मैं अगर मां नहीं

तो तुम भी पिता नहीं


लेकिन क्या माता - पिता भी

छुप पाते हैं

जानते-जानते

सब जान जाते हैं


होने को तो

कुंती का कोई भी पुत्र

जायज नहीं था

लेकिन तजा

उस ने सिर्फ़

कर्ण को ही क्यों


और वह पांचाली

स्त्री विद्रोह की उस से बड़ी मिसाल भी

कोई और है क्या

एक समूचे राजवंश और राज्य का नाश

किसी और के खाते में है क्या


किस्से बहुतेरे हैं

पौराणिक भी , ऐतिहासिक भी और आज के भी

पद्मावती , लक्ष्मीबाई से लगायत इंदिरा गांधी तक के

सिलसिला निरंतर जारी है

तालिबानों से निहत्थी लड़ने वाली

यह मलाला यूसुफ़ जई क्या है

यह मेधा पाटेकर , यह तस्लीमा नसरीन , यह अरुंधती रॉय क्या हैं

यह विद्रोही और बगावती औरतें ही हैं


यह अनायास नहीं है कि

आज के युवा पुरुष

विवाह के लिए

भरपूर दहेज, अच्छे कैरियर वाली लड़की आदि के साथ ही

मोम की गुड़िया खोजते हैं

सब को ऐश्वर्या राय चाहिए होती है


लेकिन वह यह नहीं जानते कि

ऐश्वर्या राय भी कभी विद्या सिनहा में तब्दील हो सकती है

डिंपल कपाड़िया भी हो सकती है

और प्रीती जिंटा भी


यह दहेज आदि का सबब भी क्या कम होता है

किसी स्त्री को बागी बनाने के लिए


बस इस दबे हुए स्प्रिंग को

बस खुले होने और खुल जाने का समय चाहिए

वह मलाला बन जाएगी

जो उसे ऐसे ही दबाते रहे लोग


आज़ादी में इतनी ताकत होती है कि

उसे गोलियों का डर नहीं होता


यह अनायास नहीं है कि

तमाम पुरुषों को अपरिचित स्त्री

सुंदर दिखती है

सौंदर्य की साम्राज्ञी

भले ही क्यों न कुरूप भी हो

सुंदर दिखेगी


लेकिन परिचित औरत

ज़रा सा भी अनबन

हो जाने पर

जहरीली लगती है

लाख सुंदर हो

पर सर्पिणी से भी ज़्यादा विषैली दिखती है


तो क्या कुछ पुरुष भी बगावत पर आमादा हैं

ताकि स्त्रियों की बगावत पर लगाम लगा सकें

प्रति बगावत क्या इसी को कहते हैं


पर अब सभ्य लोग

स्त्री के साथ खड़े हैं

लोग जान गए हैं

कि स्त्री की अस्मिता के साथ

खड़ा होना ही

सभ्य होना है


आइए

इस कतार में

आप भी

अपने को खड़ा कीजिए

चुपचाप


स्त्रियों को बगावत के लिए

मत उकसाइए

मत दीजिए उन के बगावती पौधे को खाद

न ही उन के बगावती आग में घी डालिए


नहीं अभी स्त्री सिर्फ़ बोल रही है

कुछ दिन बाद

यह स्त्री का बोलना

बारूद बन जाएगा


बचिए इस बारूद से

स्त्री

और उस की अस्मिता के साथ

खड़े होजाइए

चुपचाप


यह गीली लकड़ी

बहुत सुलग चुकी है

उस में दियासलाई मत लगाइए

उसे अब

और बागी मत बनाइए

अपने घर और समाज को सुंदर और स्वस्थ बनाइए


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मेरी बेटी, मेरी जान !

- दयानंद पांडेय


तुम सर्दी में इतनी सुंदर क्यों हो जाती हो मेरी बेटी

गोल-मटोल स्कार्फ बांध कर

नन्हीलाल चुन्नी जैसी नटखट क्यों बन जाती हो मेरी बेटी


मेरी बेटी , मेरी जान , मेरी भगवान ,

मेरी परी , मेरी आन , मेरा मान

मेरी ज़िंदगी का मेरा सब से बड़ा अरमान

लगता है जैसे मैं तुम्हें खुश रखने

और देखने के लिए ही पैदा हुआ हूं

तुम से पहले


काश कि मैं तुम्हारी मां भी होता

तो और कितना खुश होता

यह दोहरी ख़ुशी मैं कैसे समेट पाता

मेरी परी , मेरी जान , मेरी बेटी


मन करता है कि तुम्हें कंधे पर बिठाऊं

गांव ले जाऊं और गांव के पास लगने वाला मेला


तुम्हें घूम-घूम कर घुमाऊं

खिलौने दिलाऊं और तुम्हारे साथ खुद खेलूं

कभी हाथी बन जाऊं, कभी घोड़ा , कभी ऊंट

तुम्हें अपनी पीठ पर बिठा कर

दुनिया जहान दिखाऊं

तुम्हें गुदगुदाऊं, तुम खिलखिलाओ

और मैं खेत में खड़ी किसी फसल सा जी भर मुस्कराऊं


खेत-खेत तुम्हें घुमाऊं

उन खेतों में जहां ओस में भींगा

चने का साग

अभी तुम्हारी ही तरह

कोमल और मुलायम है, मासूम है

दुनिया की ठोकरों से महरुम है


गेहूं का पौधा अभी तुम्हारी तरह ही बचपन देख रहा है

विभोर है अपने बचपन पर

बथुआ उस का साथी

अपने पत्ते छितरा कर खिलखिला रहा है


मन करता है

तुम्हारे बचपन के बहाने

अपने बचपन में लौट जाऊं

जैसे गेहूं और बथुआ आपस में खेल रहे हैं

मैं भी तुम्हारे साथ खेलूं


तुम्हें किस्से सुनाऊं

हाथी , जंगल और शेर के

राजा , रानी , राजकुमार और परी के

तुम को घेर-घेर के

उन सुनहरे किस्सों में लौट जाऊं

जिन में चांद पर एक बुढ़िया रहती थी


आओ न मेरी बेटी, मेरी जान

मेरा सब से बड़ा अरमान

तुम्हारी चोटी कर दूं

तुम्हारी आंख में ज़रा काजल लगा दूं

दुनिया के सारे दुख और झंझट से दूर

तुम्हें अपनी गोद के पालने में झूला झुला दूं

दुनिया के सारे खिलौने , सारे सुख

तुम्हें दे कर ख़ुद सुख से भर जाऊं


इस दुनिया से लड़ने के लिए

इस दुनिया में जीने के लिए


तुम्हारे हाथ में एक कॉपी , एक कलम , एक किताब

एक लैपटाप, एक इंटरनेट थमा दूं

मेरी बेटी तुम्हारे हाथ में तुम्हारी दुनिया थमा दूं

तुम्हारा मस्तकबिल थमा दूं

ताकि तुम्हारी ही नहीं , हमारी दुनिया भी सुंदर हो जाए

मेरी बेटी , मेरी जान

मेरी ज़िंदगी का मेरा सब से बड़ा अरमान,


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मैं जेहादी, मैं मासूम

- दयानंद पांडेय


मैं जेहादी , मैं मासूम

लेकिन लोग मुझे आतंकवादी कहते हैं

कोई तालिबानी , कोई अलक़ायदा ,

कोई आई एस आई एस,

कोई इंडियन मुजाहिदीन, कोई सिमी

कोई कुछ , कोई कुछ

बहुत सारे संबोधन हैं मेरे लिए


कुछ मैं ने खुद तय किए हैं

कुछ नासमझ लोगों ने


लोग नासमझ हैं , मैं मासूम


लेकिन मुझे दूसरे मासूम , दूसरे मज़हब

बिलकुल पसंद नहीं


तुम सब को याद होगा

अफगानिस्तान का बामियान

जहां मैं ने बुद्ध की विशाल प्रतिमा तोड़ी थी लगातार

कई दिनों तक अनवरत


पूरी दुनिया दांत चियारती रही

मनुहार करती रही

महाशक्तियां गुहार लगाती रहीं

कि मत तोड़ो, मत तोड़ो

लेकिन यह सब मेरे ठेंगे पर रहा

ढहा दी बुद्ध की रिकार्ड ऊंचाई वाली मूर्ति

कोई मेरा बाल-बांका नहीं बिगाड़ सका


बुद्ध


और बुद्ध की प्रतिमा !

अरे मनुष्यता और उस की सभ्यता

मेरे ठेंगे पर , मेरे जूते की नोक पर

यह बुद्ध क्या चीज़ है


बुद्ध सिखाएगा अहिंसा

और मैं उस की प्रतिमा को रहने दूंगा

यह कैसे सोच लिया काफ़िरों


मैं हिंसा की जमात का हूं

हिंसा परमोधर्म !

हिंसा ही मेरा धर्म है

मेरा ओढ़ना , मेरा बिछौना


आप को यह नापसंद है

तो रहा करे

हमें क्या

मैं जेहादी , मैं मासूम


मेरे लिए क्या बुद्ध , क्या बच्चे

क्या दोषी , क्या निर्दोष

क्या मासूम , क्या ख़ामोश


क्या कहा स्त्रियां

स्त्रियां तो हमारी खेती हैं

हैवानियत हमारी बपौती है


यह अमरीका , यह भारत

यह ये , यह वे

सब के सब लाचार हैं

हमारी मज़हबी एकता इन्हें नपुंसक बना देती है

कायर और बेबस बना देती है


मैं आग मूतूं या मिसाइल

अमरीका में 9/11करुं या मुंबई में 26/11

या फिर पेशावर का 16 /12 करुं

अमरीका का टावर गिराऊं या

मुंबई के स्टेशन और होटल में लोगों को मारुं

पेशावर के सैनिक स्कूल में मासूम बच्चों को मारुं

मैं अपनी बेशर्मी के बुरक़े में हमेशा महफ़ूज़ रहता हूं

इस लिए भी कि

मैं जेहादी , मैं मासूम


मुझे जस्टीफाई करने के लिए

हमारी कौम तो हमारे साथ है ही


सेक्यूलरवाद के मारे लोग भी हमारे साथ होते हैं

इन की दुकान , इन की लफ्फाज़ी

हमारे ही रहमोकरम पर है

यह कभी भूल कर भी हमारी मज़म्मत नहीं करते

करेंगे तो कम्यूनल नाम का एक भूत ,

एक प्रेत इन को पकड़ लेता है, डस लेता है

यह डर जाते हैं


मैं कभी कश्मीर दहला देता हूं

मैं कभी न्यूयार्क दहला देता हूं

मैं लंदन , सिडनी , मुंबई , दिल्ली समेत

इरान , ईराक , इस्राईल और पाकिस्तान भी

दहला देता हूं

गरज यह कि सारी दुनिया हिला देता हूं

कोई क्या कर लेता है हमारा


मनुष्यता , सभ्यता , उदारता

इन और ऐसे शब्दों से मुझे

बेहद चिढ़ है , सर्वदा रहेगी


मैं ही बिन लादेन हूं, अल जवाहिरी

और बगदादी भी


कसाब , दाऊद , मोहिसिन भी

अफजल , यासीन मालिक , लोन , हाफ़िज़ सईद भी

बहुत सारे चेहरे हैं हमारे , देश और प्रदेश भी

पर काम और लक्ष्य बस एक ही है

जेहाद और इस्लामिक वर्चस्व का डंका बजाना और बजवाना


मुझ को छोड़ कर बाक़ी दुनिया काफ़िर है

इन काफ़िरों से दुनिया को बचना है , मुक्त करवाना है

कुछ काफिर हमारी जमात में भी हैं

यह कुछ पढ़े-लिखे लोग हैं

कायर और नपुंसक हैं लेकिन यह सब के सब

हमारा विरोध करने की हैसियत नहीं है इन की

इन के पास आवाज़ नहीं है, निःशब्द हैं यह सब के सब

विलायत में वायसलेस कहते हैं लोग इन्हें

इस्लाम का चेहरा इन सब को डरा देता है

दुनिया की सब से बड़ी आबादी हैं हम आख़िर

हमें दुनिया में जेहाद का बिगुल बजाना है

इस्लाम का झंडा सब से ऊपर रखना है

ज़रूरी है यह सब मेरे लिए


आज पेशावर में कुछ काफ़िर बच्चे मैं ने मारे हैं

तो दुनिया के कैमरे में हम आ गए हैं

यह तो बहुत अच्छा है

दुनिया हम से डरे यह संदेश तो जाना बहुत ज़रूरी था

पाकिस्तान हमारा बड़ा साथी है

पर मलाला को ले कर खुश बहुत था

नोबेल क्या मिला मलाला को

मलाला की खातिरदारी में

हम को भूल गया

कि हम और हमारा मकसद क्या है

यह याद दिलाना बहुत ज़रूरी था


पेशावर की यह तारीख़

दुनिया दर्ज कर ले

कि मैं काफ़िरों पर ऐसे ही

कहर बन कर टूटूंगा

हम से डर कर रहे दुनिया


इस लिए भी कि

मैं जेहादी , मैं मासूम


मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि बच्चे पढ़ें

बच्चे पढ़ेंगे तो मलाला बनेंगे

हमारे लिए चुनौती बनेंगे


मुझे मलाला नहीं , हाफ़िज़ सईद चाहिए

इमरान खान , परवेज़ मुशर्रफ , नवाज़ शरीफ भी

मलाला इस्लाम के लिए , जेहाद के लिए ख़तरा है

हाफ़िज़ सईद आदि इस्लाम की हिफाज़त के लिए अनिवार्य

पेशावर इस का ज़रुरी सबक़ है

दुनिया इसे याद कर ले

और जान ले कि

मैं जेहादी , मैं मासूम


नामानिगारों की यह अटकल भी जायज़ है

कि अगला नंबर हिंदुस्तान को सबक़ का है

यह लोग सब जानते हैं , जानकार लोग हैं

कुत्ते यह सब बहुत जल्दी सूंघ लेते हैं

कुत्ते सब जानते हैं

जानते यह भी हैं कि

मैं जेहादी , मैं मासूम

यह बात वह सब को बताते भी बहुत हैं


कुछ लोग हैं जो मुझे कठमुल्ला भी कहते हैं

मेरा कठमुल्लापन भी दफ़ा करने की


मासूम हसरत पालते हैं

मनुष्यता , सभ्यता और जाने क्या-क्या

उच्चारते फिरते हैं

और ख़ुद-ब -ख़ुद दफ़ा हो जाते हैं


क्यों कि

मैं जेहादी , मैं मासूम


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और स्त्री फ़ोटो खिंचवा रही है

- दयानंद पांडेय


पर्वत है , वन है, वन की हरियाली है

और स्त्री फ़ोटो खिंचवा रही है

और वृक्षों के बीच खुद को देखना चाहती है


लगभग ज़िद की हद तक

कि जैसे वृक्ष हरे भरे हैं

उन के बीच वह भी हरी भरी दिखे


वह नहीं जानती कि प्रकृति ने

वृक्षों , वनस्पतियों और नदियों के साथ

स्त्री को भी

हरी भरी होने की शक्ति पहले ही से दे रखी है

तब तक जब तक उसे काट न दिया जाए


वृक्ष हो , वनस्पति हो , नदी हो या स्त्री

लोग उसे काटते और बांटते बहुत हैं

पर इस बात से बाख़बर

वह वृक्षों के बीच खुद को देखना चाहती है

बज़िद


लेकिन कैमरे में उस की यह ज़िद

समा नहीं पा रही


जाने फ़ोटो खींचने वाले की यह मुश्किल है

नासमझी है या

कैमरे की कोई सीमा है

या स्त्री के भीतर की हरियाली कम पड़ रही है

कि वृक्षों की हरियाली फ़ोटो में ज़्यादा दिख रही है

वृक्ष ज़्यादा, स्त्री कम !


जाने यह पहाड़ पर घूमने की उछाह है

व्यस्तता है

या कुछ और

पर स्त्री अस्त व्यस्त भी बहुत दिख रही है


ऐसे जैसे उस के अंग भी

उस के स्त्री चिन्ह भी

उस से बग़ावत कर रहे हैं

अपनी जगह व्यवस्थित नहीं हैं

इधर उधर हो गए लगते हैं


कोई ऊपर , कोई नीचे

उस के वक्ष जैसे हिल से गए हैं


ऐसे जैसे इस हरियाली के बीच

पर्वत डग-मग हो गए हों

जैसे नदी में नाव हिल गई हो


उस के केश भी उस का साथ नहीं दे रहे

बिखर जा रहे हैं

उस के बिखरे जीवन की तरह


पर्वतीय हवाओं के झोंके में

उस के केश भी पत्तों की तरह

हिल डुल रहे हैं , उड़-उड़ जा रहे हैं


स्त्री को इस तरह खुले बाल रखने की आदत नहीं है

लेकिन यहां पर्वतों पर वह विचरने आई है

सो जैसे वह घर से निकल कर खुल गई है

ऐसे जैसे कोई गाय खूंटे से खुल गई है

तो बाल भी खुल गए हैं

वर्जनाएं टूट गई हैं


स्त्री का आंचल भी ढलक गया है

ढलक गया है कि बगावत कर गया है

यह वह क्या कोई भी नहीं जानता

यह पर्वत , यह वन और वृक्ष भी नहीं


तो क्या स्त्री यह फ़ोटो

अपनी बग़ावत की शिनाख्त ख़ातिर

खिंचवा रही है

फ़ोटो के बहाने

वन में बसे वृक्षों से बतिया रही है


अपने साथ ही वह इन हरे भरे वृक्षों को भी

उकसा रही है

कि आओ मेरे साथ तुम भी बग़ावत करो !


लोग तुम्हें काट दें

तुम्हें बेच कर

पैसे बांट लें

इस के पहले ही बग़ावत कर दो


मैं भले घूमने आई हूं पर्वत और वन

पर यह तो बहाना है

मैं तुम्हें बग़ावत के लिए

उकसाने आई हूं


क्यों कि

तुम बचे रहोगे

तो मैं भी बचूंगी


कुछ लोगों के लिए

बग़ावत भी दुकानदारी है

लेकिन मेरी नहीं


मैं संकेत दे रही हूं

क्यों कि

मेरी बग़ावत खुली नहीं हो सकती है

मेरा घर है , बच्चे हैं

कट कर भी उन से

जुड़े रहना मेरी लाचारी है


वैसे भी

कोई स्त्री, नदी , वन या कोई वनस्पति

या प्रकृति

कभी खुल कर बग़ावत करती भी नहीं


वह सहती रहती है

सहती रहती है

और एक दिन अचानक

फूट पड़ती है

ज्वालामुखी बन कर

कोई प्राकृतिक आपदा बन कर


तुम ने कभी बाढ़ नहीं देखी

कि भूकंप नहीं देखा

कभी सुनामी नहीं देखी

या फिर अपने ही जंगल की आग नहीं देखी


स्त्री में भी ऐसे ही बाढ़ आती है

भूकंप , सुनामी भी और आग भी

भीतर-भीतर

जैसे धरती खदबदाती है

और अचानक बदल जाती है


मेरे यह इधर उधर हो गए वक्ष ,

मेरे बल खाते बिखरे यह केश ,

मेरा यह ढलका आंचल

क्या तुम्हें कुछ नहीं बताते


हां, मेरे चेहरे पर बसी बनावटी हंसी

मेरे होठों पर लगी यह शोख़ लिपिस्टिक

तुम्हें विस्मित करती होगी

लेकिन मेरी आंखों में बसा वनवास

और यह वनवासी हंसी भी

तुम से कुछ छल करती है क्या


मैं तो उजाड़ हो गई हूं

तुम से


तुम्हारी हरियाली

पीने आई हूं

अपने भीतर का ख़ालीपन भरने आई हूं

और तुम मुझ से

कुछ भी नहीं चाहते


हे वृक्ष

इतने सहनशील मत बनो

एक स्त्री मत बनो

मेरी तरह यह फ़ोटो मत बनो


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Drug_Dayanand_Lekh

|| दयानंद पांडेय ||


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