व्यंजना

प्रभु जी !

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


बड़े बड़े सब गए काम पर,

घर में केवल सजा रखा है,

टेबिल पर गुलदार,

प्रभु जी !


सुखआसन पर बैठ गए हैं,

जनसत्ता के प्राण,

नहीं रखा है मन में कुछ भी

जनसेवा का त्राण,


टूटी हुई मड़इया जो थी,

भीतर से ही बिलकुल जर्जर,

कहाँ हुआ गुलजार,

प्रभु जी !


सत्ता की छतरी के नीचे

से निकलो तो आप !

जनसेवा का घर से बाहर

निकल करो तो जाप !

आलस छोड़ो, लालच त्यागो,

सेवाभाव जगाओ मन में

और करो उपकार,

प्रभु जी !


जो धागा जुड़ गया अंतत:

कभी न टूटे चैन !

बिछे हुए हैं मानवता की

पगडण्डी पर नैन !

जनसमाज में बन सकते हो,

इन वैषम्यों में तुम फिर से,

एक अदग उपहार,

प्रभु जी !



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नागफनी का नगला

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


घीसू-बुधिया वैसे ही हैं

सीधे-सादे सच्चे |


प्रेमचन्द के पग के जूते

अभी आजतक फटहे,

दरवाजे पर बैठ रहे हैं,

आकर पाले गदहे,

मधुमक्खी-छत्ते पर पत्थर,

मार रहे हैं बच्चे |


साठ साल के ऊपर वाला,

नहीं मिला वह पगला,

लगा बहुत पिछड़ा है, बिछड़ा

नागफनी का नगला,

सड़कें ऊबड़-खाबड़ टेढ़ीं,

सब के सब घर कच्चे |


दाता दीन अभी जीवित है,

भगत नहीं है बदला,

चड्ढा अब भी चड्ढा ही है,

पहने है वह झबला,

पोषाहार नहीं पाते हैं,

बूढ़े जच्चा-बच्चे |



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लटका ताला

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


गरमी तेज,

अँधेरा-अंशुक,

उड़ती धूल |


सूखा दरिया,

खाली नाला,

नदिया के घर

लटका ताला,

उबली धूप,

घटा है गायब,

रेता कूल |


हवा जहर है,

मौसम अंधा,

बहा पसीना,

चौपट धंधा,

तड़पी सड़क,

पियासे पंछी,

झुलसे फूल |


सूरज गुस्सा,

फटहा छाता,

थका बिछौना,

सत्तू खाता,

धधकी धरा,

चढ़ा है पारा,

हाँफा जूल |



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मैं अभी भी गाँव में ही हूँ

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


शहर में तो हूँ,

किंतु मुझमें पूर्वजों की अस्मिता का,

आनुवंशिक गाँव कोई बस रहा है,

मैं अभी भी गाँव में ही हूँ ।


खेतियों की लहलहाहट,

पंछियों का चहचहाना,

क्यारियों में केवड़ों की

मुसकराहट, गहगहाना,

शहर में तो हूँ,

किंतु मुझमें लोककाव्यों की गली के,

बरगदों का ठाँव कोई बस रहा है,

मैं अभी भी गाँव में ही हूँ ।


नदी के तीरे खड़े उन,

कटहलों की राजधानी,

व्यक्तिवाचक संधियों की,

लोकरंजक तिरमुहानी,

शहर में तो हूँ,

किंतु मुझमें आचरित अभिव्यक्तियों का,

आत्म-गौरव पाँव कोई बस रहा है,

मैं अभी भी गाँव में ही हूँ ।


हर शहर की रौशनी ही,

छल रही है आमजन को,

अति अधिक प्यासे रहे उस,

आत्म निर्भर क्लांत मन को,

शहर में तो हूँ,

किंतु मुझमें किस तरह पीछा छुड़ाऊँ,

बहुत दिन से दाँव कोई बस रहा है,

मैं अभी भी गाँव में ही हूँ ।



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नवगीत हूँ मैं

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


विकल आँसू की तरह

बहती नदी

का गीत हूँ,

नवगीत हूँ मैं |

भावनाओं की सुवासित

मोम की मरियम,

साधना की अभिक्रियाओं

का नया अधिगम,

अंतरों की लघुकथा

अगली सदी

का गीत हूँ,

नवगीत हूँ मैं |

छंद का ऋजुकोण, लय की

नर्मदा अविरल,

सर्जना का गम्य गुंबद,

सर्वदा अविचल,

वास्तविकता का उदय

युग-त्रासदी

का गीत हूँ,

नवगीत हूँ मैं |

राम की अतुलित अयोध्या

और वन के दिन,

सूर्य की उगती किरण के

उन्नयन अनगिन,

धर्म की सीता, समय की

द्रौपदी

का गीत हूँ,

नवगीत हूँ मैं |


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कवि देवता का आगमन

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


सुन रहे हैं,

हो रहा है आज घर,

कवि देवता का आगमन |

हैं न आस्तिक. हैं न नास्तिक,

फूल हैं,

हैं सड़क का, हवा-पानी,

धूल हैं,

हम न कहते

यह कहानी, कह रहा,

पिंजरे का लालमन |

विषय-चर्चा, भूमिका हैं,

उक्ति हैं,

कुछ-न-कुछ उस साधना की,

युक्ति हैं,

व्यंजना, हैं

लक्षणा, हैं कल्पना,

अर्चना का आचमन |

वास्तविकता की धरोहर,

मान हैं,

मानुषिकता, साम्यता की,

आन हैं,

अभी कल का,

कवि हुआ है, नवयुवक,

कह रहा है बालमन |


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कट गए बरगद

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


कट गए बरगद

हुईं पगडंडियाँ,

छाया रहित |

सभ्यताओं का जहाँ

दौड़ा हिरन,

अनकही अब हो गई

उन्मन किरन,

आज फसलें हो

गई हैं खेत की,

काया रहित |

सत्य की संकल्पना

बदली हुई,

नाच-गाने की कला

पगली हुई,

हो गई है

चारपाई कृत्य की,

पाया रहित |

अब नहीं पुरबी हवा

चलती यहाँ,

आधुनिक पछिमी बला

छलती यहाँ,

छतरियाँ भी

हो गईं हैं आजकल,

साया रहित |

जब जिन्हें मौके मिले

हैं, छल किए,

जिस तरह उन राक्षसों ने

कल किए,

नहीं मायामृग

हुआ है स्वर्ण का,

माया रहित |


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सोचिएगा

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


इस नए बदले समय में,

आततायी हो गया है,

आज खंजर,

सोचिएगा |

कहीं बादल बरसता है,

शहर डूबा,

कहीं सूखा, मुँहफटा तट,

तंग सूबा,

बिना बोले फटा बादल,

कब हँसेगी गाँव वाली,

भूमि बंजर,

सोचिएगा |

चंद्रमा पर खोजता जल,

आदमी जब,

भूख को भोजन मिलेगा,

तब कहें कब,

इस सहज परिवेश में भी,

जीवनक यायावरी का,

बना कंजर,

सोचिएगा |

खेत को अट्टालिका का,

कल बुलावा,

योजना करती रही है,

छल भुलावा,

इस विकट पर्यावरण में,

क्या हँसेगा फुनगियों पर,

मौन मंजर,

सोचिएगा |


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एक पीपल का फिर कल निधन हो गया

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


अब कहाँ घंट टाँगेंगी,

अगली सदी,

एक पीपल का फिर कल निधन हो गया |

ये बदलेगा मौसम,

पता है किसे,

वह न आया, बुलाया

गया है जिसे,

किन्तु की दुश्मनी ने

गजब दलबदल,

साँप का नेवलों से मिलन हो गया |

क्या घटे, कब घटे, दुख

रहा यह सता,

रोज अपना बदलती,

वसन जब लता,

सूक्ष्म कपड़ों का ऐसा

हुआ है चलन,

अब दुकानों से गायब चिकन हो गया |

अग्निबाणों से कब यह,

डरा है गगन,

बम गिरा, पर कहाँ यह,

मरा है यतन,

लौट आया उपग्रह

गया चाँद तक,

इस तरह से सफल है मिशन हो गया |


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अजी ! चुपचाप रहिए

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


लिख रही है आज कविता,

चिति,

अजी ! चुपचाप रहिए |

छंद के उजले शहर में

भाव आते हैं,

सो रही अनुभूतियों को

आ जगाते हैं,

सज रहा है अक्षरों का,

दिति,

अजी ! चुपचाप रहिए |

वर्ण के संसाधनों से

शब्द छंदित हैं,

वास्तविकता के अलंकृत

अब्द रंजित हैं,

बढ़ रही है व्यंजना की,

मिति,

अजी ! चुपचाप रहिए |

गुनगुनाहट की गली से

लय निकलती है,

साँझ-वन से साधना की

जय निकलती है,

क्षितिज पर लेटी हुई है,

क्षिति,

अजी ! चुपचाप रहिए |

अभी उपसंहार के हर

भूमिका के पल,

ढूँढ़ते हैं समस्या का

सर्वसम्मत हल,

बंद अंतिम रच रही है,

इति,

अजी ! चुपचाप रहिए |


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मौसम खराब है

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


मौसम खराब है |

धुंध की किताबों में,

कुहरे का लेख है,

बदली के पल्ले में,

काँपता विलेख है,

धूल के गिलासों में,

वोडका शराब है |

रातभर बस्ती की,

लगी नहीं आँख है,

संकट में ठोर-ठोर,

सहमी-सी पाँख है,

गलियों की प्लेट में

अँधेरा कबाब है |

सुबह के टहलने पर,

डाक्टर की रोक है,

होंठ-होंठ सिहरन है,

ठंडक का कोप है,

नाक हुई साँस-घर,

नज़ला नवाब है |

सड़क-सड़क गोबर है,

ज़िंदगी मुहाल है,

पी.एम. का पालना,

साँस की उछाल है,

किसी भी शिकायत का

'ठीक है' जवाब है |


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न समाज से मैं डर रहा हूँ

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


किसी हस्ती, माफिया,

न समाज से मैं डर रहा हूँ,

भूख को बाहर अभी,

इस गाँव से मैं कर रहा हूँ |

साथ मेरे चल रही है,

जिन्न बनकर,

रोटियाँ ये चाँद जैसी,

भिन्न बनकर,

गलत राहों पर चलाती,

चिता बनकर है जलाती,

कई सदियों से इसी,

बस सोच में मैं मर रहा हूँ |

पत्थरों की वादियों में

बढ़े, भटके,

ज़्यादती के पेड़ पर भी

चढ़े, लटके,

कई जन्मों की कथा है,

यथादर्शन है, यथा है,

कर्ज जो इसने किए,

वह आजतक मैं भर रहा हूँ |

हाथ में अपने रखी है,

राज-सत्ता,

बिना अनुमति हिल न पाया,

एक पत्ता,

जो कमाया, है थमाया,

एक धेला रख न पाया,

जमा-पूँजी कुछ नहीं,

क्या? बैंक में मैं धर रहा हूँ |


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अब नया कुछ हो

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


बहुत विपदा सुन चुके,

पिछले कबीरों की,

अब नया कुछ हो |

है खुले मैदान में,

हर पल उतरना,

आग की लपटें मिलें,

तो भी गुजरना,

बहुत गाथा सुन चुके,

पिछले फकीरों की,

अब नया कुछ हो |

कल्पनाओं का शहर,

अब मत बसाना,

वास्तविकता से सजी,

तुरही बजाना,

बहुत सुविधा सुन चुके,

पिछले अमीरों की,

अब नया कुछ हो |

लोकमत ने आजतक,

छ्ल-कपट झेले,

वर्जनाओं के लगे,

हर जगह ठेले,

बहुत महिमा सुन चुके,

पिछले वज़ीरो की,

अब नया कुछ हो |


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अपनत्वों के चने-मुरमुरे

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


कर देते हैं किसी समस्या

का मिनटों में हल,

अपनत्वों के चने-मुरमुरे,

बातचीत के फल |

शहदमयी अक्षर की भाषा,

वाक्यों की पंखुड़ियाँ,

थिरक रही हैं बिंबों के सँग,

रचनाओं की गुड़ियाँ ,

भाव-जगत के शब्द-कुरकुरे,

अमृत गंगाजल |

एक फगुनहट का परिचय है,

अलंकार का मेला,

अनुभव की अनुभूति, लयों का

बना यथोचित रेला,

पीड़ाओं के जलद-भुरभुरे,

विमलाओं के दल |

समालोचना का आलिंगन,

विविधाओं का स्वागत,

आकांक्षाओं की कुमारिका,

पिंगल नवल तथागत,

अभिधाओं के अर्थ-खुरखुरे,

नई धुनों के पल |


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बाँह आधी का हुआ कुरता

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'


अब सिमटते वनों के

भागे हुए साँभर

शहर में प्राय: कुलाँचे,

भर रहे हैं |

शून्य का आभास होने

लग गया है,

जानते हैं,

जीव गायब हो रहे हैं

जंगलों से,

मानते हैं,

झोंपड़ी के हट गए हैं

बाँस के चाँचर

लोग सहमे हैं घरों में

डर रहे हैं |

पर्वतों पर जो अघोषित

युद्ध-प्रकरण

चल रहा है,

यह भयानक है, शहर यह

बिन जलाए

जल रहा है,

कट रहे पर्यावरण के

वृक्ष के जाँगर

और साँसों के हिरन भी

मर रहे हैं |

जी रहे हैं कष्ट में अब

ज़िंदगी के

बहुवचन सब,

रास्ता निकले कहाँ से

और कितनी

दूर से, कब,

बाँह आधी का हुआ कुरता

सगा पाँजर

सभ्यता हम बंडलों में

धर रहे हैं |






Shivanand Singh

|| शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' ||


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संपर्क- 9412212255

अणु पता shivanandsahayogi@gmail.com


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