व्यंजना

निर्वासितों को निर्वासन


- डॉ. कुसुम खेमानी


‘‘ओरे बाबा मोरी रे’’ कहते हुए चन्दना ने ज़ोर से मेज पर अपना बैग पटका और ऊँची आवाज़ में बोली : ‘‘भाई, ज़ल्दी से पानी दो’’ पानी आते ही उसे एक घूँट में गटक कर, बेंत की कुर्सी पर निढाल होकर उसने सदियों की थकान से चूर स्वर में कहा : ‘‘इम्तियाज़ भाई! सलाम आलेकुम, मेहरबानी करके आप झट से मेरे हाथ में एक बढ़िया-सा दार्जिलिंग चाय का कप पकड़ा दीजिए, और हॉं! मेरा वही रोज़ाना वाला आर्डर, ब्राउन ब्रेड के दो ड्राई टोस्ट| प्लीज़.. अब आप ज़रा जल्दी जाइए और मेरे हुक़्म की तामील कर दीजिए|’’ इम्तियाज़ मुस्कुराता हुआ भाग छूटा ही था कि उसके कानों में पड़ा : ‘‘अरे इम्तियाज़ मियॉं! बड़े लापरवाह हैं आप, हमने न सही, पर आपने तो हमारी फ्रेंड ज़ारा को देख लिया था, उनका आर्डर?’’ इम्तियाज़ बैरे ने गर्दन झुकाकर दूर से ही चन्दना को जवाब दिया: ‘‘मेम साब! हमने एक ग्रीन सलाद और दो टोस्ट पहले ही बढ़ा लिए थे|’’


दरअस्ल चन्दना ने इम्तियाज़ के बेटे को वायस-चांसलर से कहकर अपनी यूनिवर्सिटी में पक्की नौकरी दिलवा दी थी| वो दिन और आज का दिन, इम्तियाज़ उसका ऐसा मुरीद हुआ कि कोई किसी पीर-पैग़म्बर का क्या होगा? वह सोम, बुध और शुक्र को लायब्रेरी के बरामदे में चन्दना की प्रतीक्षा में पलकें बिछाये प्रवेश द्वार पर टकटकी लगाये रहता कि कब मेमसाब आएँ और वह कब उनका हुक़्म बजा लाए| ‘‘वाह! क्या बात है! सच मानिए इम्तियाज़ मियॉं, यदि मेरा बस चले, तो मैं आपको देश का प्राइम मिनिस्टर बना दूँ|’’


बात ख़त्म करते ही जादवपुर युनिवर्सिटी की केमिस्ट्री हेड डॉ. चंदना बैनर्जी ने मेरे क़रीब आकर मुझसे ज़ोरों की गलबहियॉं की और वापस उसी लम्बी-चौड़ी आराम कुर्सी में ढलक कर अधलेटी होकर प्रफुल्लित स्वर में बोली : ‘‘ज़ारा! बता नहीं सकती कि मैं आज कितनी-कितनी खुश हूँ| लगता है मेरी खुशी की तुलना किसी से हो ही नहीं सकती| हॉं! तुम ठहरी साहित्य की प्रोफ़ेसर और कालिदास की शिष्या, अब मेरी इस स्थिति को तुम्हीं कोई सही शब्द दोे|’’


मैंने हिचकिचाते हुए कहा : ‘‘क्या आकाश जितनी?’’ सुनते ही वह शब्दों के खेल पर उतर आई और बोली : ‘‘समुद्र जितनी क्यों नहीं?’’


‘‘मेरी समझ से समुद्र तो फिर भी कई साधनों से आँखों की परिधि में आ जाता है, पर आकाश अनन्त और असीम ही रहता है|’’


‘‘एकदम ठीक! अनन्त और असीम| वाह!’’ कहकर वह आँखें बंद कर अँगुलियों से मेज़ पर ताल देती हुई हमारा प्रिय रवीन्द्र संगीत इस तरह गुनगुनाने लगी, मानो मेरी इस उक्ति को धीरे-धीरे अपने अंदर जज़्ब कर रही हो|


उसके बदहवासेपन, हड़बड़ाएपन और थकान का कारण तो मुझे पता था, पर आज के इस बौराएपन की वजह समझ में नहीं आ रही थी, इसलिए मैंने बात को सिरे से शुरू किया : ‘‘चन्दना! मैं जानती हूँ कि तुम अपने वर्त्तमान निवास से दूर शहर के दूसरे छोर पर एक ख़ूबसूरत-सा घर अपने ‘चार्मिंग प्रिंस पुत्र’ के लिए ‘प्रेम के गारे, स्नेह की ईंटें और बेइन्तिहा मोहब्बत के लेप’ से गढ़ रही हो| इसलिए अब मुझे तुम्हारी थकान, तुम्हारा दुबलापन, तुम्हारे माथे की शिकनें समझ में आने लगी हैं, पर आज नियाग्रा फॉल-सा हरहराकर छलछलाता हुआ तुम्हारा यह आनंदित रूप मेरे लिए नया है, क्या ‘खोकोन’ आ रहा है?’’


सुनते ही कुर्सी से उछल कर चन्दना बोली : ‘‘अरे नहीं भई! उससे भी बहुत बड़ी बात है| जानती हो ज़ारा! खोक़ोन ने सैन फ्रांसिस्को में ही एक वैज्ञानिक लड़की पसन्द कर ली है|’’


‘‘बंगाली है?’’ प्रश्‍न मेरा|


‘‘अरे बंगाली क्या, वह तो ख़ास हमारी ही जाति की है अर्थात उच्च ब्राह्मिन ख़ानदान की डॉ. सुनन्दा चैटर्जी| और ज़ारा, ऊपर से सुंदर ऐसी कि कैसी बताऊँ? कौन-सी उपमा दूँ? बस अंदाज़ के लिए समझ लो कि जवान सुचित्रा सेन का सुसंस्कृत संस्करण|’’मैं एकटक उस चन्दना को देख रही थी, जिसकी गम्भीरता, सौम्यता और मितभाषिता हमारे पूरे ग्रुप में नहीं, पूरी यूनिवर्सिटी में प्रसिद्ध थी, आज उसी चन्दना का आह्लाद! समुद्र के ज्वार की तरह सारी सीमाओं को तोड़कर अतिरेकपूर्ण भावोद्गारों में व्यक्त हो रहा था| उसकी खुशी उसके अंतर में ही नहीं, उसके शरीर में भी नहीं समा रही थी| ऐसा लग रहा था कि वह अभी उठेगी और नाचना शुरू कर देगी| मेरी चुप्पी उसे मेरी उदासीनता न लगे, इसलिए मैंने कहा : ‘‘वाह चन्दना! तुम्हारे तो मज़े हो गए, एक लम्बे अरसे से तुम जैसी ‘बोउ मॉं’ खोज रही थी, उससे कहीं ज़्यादा गुणवती और रूपवती बहू तुम्हें घर बैठे ही मिल गई, ऊपर से बोनस यह कि उसमें तुम्हारे बेटे की पसन्द भी शामिल है| माशा अल्लाह, इससे ज़्यादा बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता| भगवान दोनों को सदा ख़ुश रखे और उनकी जोड़ी पूरी धरती और दसों दिशाओं को अपने प्रेम से सुरभित करे| पर देवी, आज के इस शुभ अवसर पर सूखे टोस्ट और चाय के पानी से काम नहीं चलेगा, आज तो सबको मिठाई खिलानी पड़ेगी|’’


मेरे कहने के साथ ही कंजूसी की हद तक मितव्ययी चन्दना ने ‘‘ज़रूर! ज़रूर!’’ कहते हुए पर्स से सौ के नोटों की गड्डी निकाल कर, मेरी हथेली पर रख दी| ख़ास बात यह थी कि उसके इस कृत्य में किसी हेकड़ी या दिखावे का ज़रा-सा भी पुट नहीं था, बल्कि उसकी यह अभिव्यक्ति उसके आनन्द की पराकाष्ठा का इज़हार कर रही थी|


घर लौट कर जब मैंने उस पूरे दृश्य का ‘रिप्ले’ किया, तो मेरे मन में एक विचित्र-सा उद्वेलन होने लगा| मैं आदतन किसी भी घटना के सभी पहलुओं को, तर्क की कसौटी पर कसे और आतिशी शीशे से परखे बिना स्वीकार नहीं कर पाती हूँ, इसलिए अपनी अभिन्न मित्र की स्थिति ने मुझे कई शंकालु प्रश्‍नों से घेर दिया| मसलन सात समंदर पार के एकदम भिन्न परिवेश में पली बढ़ी जिस लड़की पर चन्दना बिना देखे-बूझे ही अपनी पूरी आत्मा उड़ेले जा रही है, यदि उस लड़की ने उसका सही प्रत्युत्तर नहीं दिया तो? यदि बेटी की कमी से रिक्त चन्दना के हृदय को वह लड़की अपने प्यार से न भर पाई तो? बावजूद चन्दना की आधुनिकता के, यदि उन दोनों में संस्कारों की टकराहट हुई तो? आदि ढेरों प्रश्‍न लगातार मेरे मानस-पटल पर उभर रहे थे| अंत में मैंने यह सोचकर स्वयं को ज़ब्त किया कि शायद चन्दना के प्रति अति मोह होने के कारण ही ये संदेह मेरे मन में उग रहे हैं| इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष यह भी तो हो सकता है कि सुनन्दा का गृह प्रवेश चन्दना के जीवन को ख़ुशहाली के रंगों से भर दे, फिर कल किसने देखा है? नाहक ही मैं अपने वहमों से, चन्दना की पूर्णिमा के चॉंद सी आलोकित ख़ुशी को ग्रहण क्यों लगाऊँ?


चन्दना के बेटे अभिजित के ‘बोउभात’ में जाकर लगा कि चन्दना का कहना सही था और मेरी आशंकाएँ बेमानी| सुनन्दा की बहू सही मायने में लक्ष्मी और सरस्वती दोनों का समन्वित रूप थी|


विवाह के बाद भी चन्दना के पैरों में घुँघरू बँधे ही रहे, क्योंकि उसके पास उसके बेटा-बहू थे, लेकिन जब वे चार दिनों की चॉंदनी की तरह विदेश लौट गए तो मुझे लगा अब चन्दना का स्नेह-ज्वर उतर जाएगा, पर उनके इस वादे से कि वे जल्दी ही वापस आ जाएँगे, चन्दना फिर से जादवपुर और सॉल्ट लेक की दूरियों को मापती हुई, नए घर को सजाने में जुट गई|


इसी आशा में एक साल, दो साल और पॉंच साल तक बीत गए| वैसे चन्दना के बेटा-बहू उसे और उसके पति को आदर से हर साल अपने पास बुलाते थे और वहॉं से लौटकर बेटे-बहू पर रीझी हुई चन्दना महीनों उनका गुणगान करती रहती थी|


लेकिन चन्दना जब भी अपने बेटे-बहू से उनकी वापसी की बात पूछती, तो वे प्यार से उसे समझा कर कहते : ‘‘मॉं! हम ज़रूर आएँगे| बस, अभी अपने परिवार के लिए थोड़ा सा धन जमा कर लें, फिर तो हमेशा के लिए तुम्हारे पास आना ही है|’’


छठे वर्ष चन्दना ने अपने विदेश प्रवास में बेटे से साफ़ साफ़ ही पूछ लिया : ‘‘खोकोन! क्या विचार है? कब आ रहे हो तुम लोग? देखो, मैं कुछ टेपेस्ट्री के नमूने लाई हूँ, इन्हें देखकर फ़ाइनल कर दो, ताकि मैं तुम्हारे आने के पहले ही सब कुछ सजा धजा लूँ|’’


ज़मीन से जुड़े चन्दना के इस प्रश्‍न को बहुत चतुराई से दरकिनार कर अभिजित ने एक बार फिर उसे आकाशी कल्पना से बहला कर कहा : ‘‘ओ मॉं! मैं कितना बेवकूफ़ हूँ, जो तुम्हें इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी देना ही भूल गया| ज़रा ध्यान से सुनन्दा को देखो, कुछ आया समझ में? मॉं! यह जल्दी ही तुम्हें दादी बनानेवाली है|’’


‘ग्रीन कार्ड होल्डर’ अभिजित और सुनन्दा अपने बच्चे को ‘यू.एस. सिटिजन’ बनाने का लोभ छोड़ दें, यह बात भला मिस्टर बैनर्जी जैसे बांगाली भद्रलोक और चन्दना जैसी अभिजात्य बांगाली प्रोफ़ेसर कैसे कह सकते थे?


उन्होंने मात्र, हॉं! हॉं! एकदम ठीक बात है ही नहीं कहा, बल्कि उन्हें सुनन्दा की जच्चगी पर अपनी उपस्थिति का आश्‍वासन भी देते आए|


पहला बच्चा! दूसरी बच्ची! करते हुए दस साल बीत गए| समय बीता जा रहा था, पर चन्दना के बच्चोें का आना नहीं हो रहा था| उम्र में बड़े होने के कारण चन्दना के पति तो पहले ही रिटायर हो चुके थे, अब चन्दना के रिटायरमेंट का समय भी आ गया था| इस मंशा से कि बेटा बात का मर्म समझ जाए, चंदना ने उससे कहा : ‘‘खाकोन! वर्षों की दौड़-भाग से मैं थक चली हूँ और अब यूनिवर्सिटी के मेरे दोनोंे ‘एक्स्टेंशन’ भी ख़त्म हो रहे हैं| बेटा! मेरी हार्दिक इच्छा है कि अब मैं आराम से अपने पोते पोतियों के साथ अपने बचपन को दुबारा जियूँ, इसलिए तुम लोग जल्दी से जल्दी घर आ जाओ|’’


ने सोचा था, चूँकि उसने आज से पहले कभी भी अपने मन की आतुरता को इस खुलेपन से व्यक्त नहीं किया था, इसलिए उसका बेटा उसे जल्दी ही यह ख़बर देगा, कि वे लोग अनय और अपूर्वा के साथ फलॉं तारीख़ को आ रहे हैं|


चन्दना और मि. बैनर्जी को लौटे कई दिन हो गए थे और ऐसा पहली बार हुआ था कि अभिजित और सुनन्दा का राजी-ख़ुशी तक का फ़ोन नहीं आया था, और न ही चन्दना को किसी भी तरह उनकी लाइन मिल रही थी, ऐसे में एक मॉं के दिल में तरह-तरह की दु:शंकाओं का उपजना एकदम स्वाभाविक है| चन्दना की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, पर बूढ़े एवं बीमार पति को लेकर या छोड़कर जाना भी सम्भव नहीं था| विचारों के ‘उलझाड़’ में फँसी वह सोच नहीं पा रही थी कि करे तो क्या करे? चिन्ता के मारे उसका खाना-पीना, नींद आदि भी ग़ायब हो गए थे| जब उसका धीरज एकदम छूट चला, तो लाचार होकर उसने अपनी अमेरिकावासी चचेरी ननद की मिन्नत की कि वह इस ‘वीकेण्ड’ में अभिजित के यहॉं जाकर उसकी खोज़-ख़बर ले, क्योंकि वह ज़रूर ही किसी बड़ी विपदा में फँस गया है|


चन्दना शत-प्रतिशत आश्‍वस्त थी कि यदि सब ठीक ठाक निकला तो श्रीलेखा अभिजित को बीवी बच्चों समेत यहॉं भेज कर ही मानेंगी| यह कल्पना कर कि विदेश में रहे हुए बेटा बहू और पोता-पोती के लिए इतने आरामदायक सरंजाम किए जाएँ कि वे विदेश लौटना ही भूल जाएँ, उसने अपना जादवपुर वाला फ़्लैट बेच दिया और उन पैसों से साल्ट लेक वाले बँगले में तीन नये कमरे और आद्योपांत नया ‘इंटीरियर’ करवाना शुरू कर दिया|


प्रो. चन्दना रिटायर हो चुकी थी, इसलिए वह अपना अधिक से अधिक समय उस घर को सजाने में लगाने लगी| वह उसमें इस कदर रम गई थी कि उसने अपनी सितार कक्षाएँ भी बंद कर दीं और केवल अपने जिगर के टुकड़ों के आने की प्रतीक्षा में राह तकने लगी| मि. बैनर्जी जब कभी उसे समझाना चाहते, तो वह उन्हें यह कहकर झटक देती: ‘‘आपका दिल ठहरा बाप का सख़्त-दिल जिसमें प्रेम और भावुकता बिलकुल भी नहीं है, पर मैं मॉं हूँ, मॉं! जिसका हृदय ही नहीं, प्रत्येक शिरा और ख़ून का हर क़तरा तक प्रेम से छलक रहा है| मि. बैनर्जी, आप मुझे न ही टोकें तो अच्छा है, क्योंकि मेरा पक्का विश्‍वास है कि अभिजित सपरिवार इस सप्ताहान्त तक आ ही जाएगा|’’


लेकिन शायद व्यावहारिक पिता मि. बैनर्जी सही थे और एक भावुक मॉं ग़लत| क्योंकि एक क्या, कई सप्ताहान्त गुज़र गए पर न श्रीलेखा का कोई जवाब आया और न ही अभिजित से कोई सम्पर्क सध पाया| चन्दना घायल हिरणी सी रात दिन छटपट करती हुई, उस भूत बँगले के चक्कर काटती रहती, पर कौवा उसकी मुँडेर पर नहीं ही बैठा|


बीच मि. बैनर्जी ने, बीमारी और उम्र से छीजे हुए अपने शरीर की सॉंस की डोर को कुछ दिनों तक तो बेटे के लिए खींचे रखा, पर अन्तत: उन्होंने हार मान ली|


अभिजित का फ़ोन न केवल क़रीबियों को, बल्कि दूरदराज़ के रिश्तेदारों तक को भी ‘नो रिप्लाई’ ही मिलता रहा| कई दिनों बाद जब किसी तरह चन्दना के देवर का श्रीलेखा से सम्पर्क हुआ, तो उसने कहा : ‘‘दादा, मैं क्या कर सकती हूँ? मैंने अभिजित को पहले भी बहुत समझाया था और बाद में भी उसे ‘बोड़ दा’ की मृत्यु की ख़बर देते हुए कई तरीक़ों से कहा कि उसे कम से कम एक बार तो घर जाना ही चाहिए| मेरे भी अमेरिकावासी होने के कारण मेरी दलीलों को सिरे से नकार पाना तो उसके वश में नहीं था, इसलिए उसने सीधे ‘ना’ न कह कर अपने नाकारापन का इज़हार इस तरह किया : ‘बुआ, तुम्हीं बताओ, अब जाने से क्या लाभ है? वैसे भी ‘अशौच’ का पालन तो मैं कर नहीं पाऊँगा, क्योंकि मेरी यहॉं पर एक के बाद एक बड़ी ‘कॉन्फ्रेंसें’ हैं| बुआ प्लीज़! आप मॉं को मीठेे शब्दों में समझा दीजिए ना कि वहॉं जाने से अभिजित का भविष्य पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा| क्या वे चाहेंगी कि मैं यहॉं का वैभव और ऐशो-आराम ठुकराकर कंगाल बन जाऊँ? बुआ, आप मॉं को यह भी समझाइए कि अब वे यहॉं आ जाएँ, ताकि उनकी पढ़ाई लिखाई का कुछ लाभ उनके पोता पोती को भी मिले और हमारा किचन भी उनके बनाए पकवानों से महके’|’’


अभिजित की कटूक्तियों को बहुत घुमा फिराकर कहने के बावज़ूद देवर का कहा चन्दना के मर्मस्थल के बीचों बीच तीर सा जा चुभा और वह पत्थर होकर एकटक शून्य में देखने लगी| उसकी आँखें बिना पलक झपकाए पूरी तरह स्थिर थीं और उसे अनायास देखने पर लगता था जैसे वहॉं चन्दना नहीं ‘मैडम टूसाड’ का बना कोई मोम का पुतला रखा हुआ है|


उस असीम शून्यता के कुछ क्षणों के बाद जिस चन्दना ने पति की मृत्यु पर, साहस, धीरज और सौम्यता का उदाहरणीय उदाहरण पेश किया था, वही प्रो.चन्दना! ज़मीन पर सिर पटक कर ऐसा क्रन्दन करने लगी कि वहॉं की दीवारें क्या, हवा तक थरथराने लगी| रिश्तेदारों की पकड़ से पागलों की तरह ख़ुद को छुड़ाकर वह कभी लॉन, कभी बरामदे और कभी छत पर जाती हुई नज़र आती और उसके आस पास खड़ा उसका सारा कुनबा इस चिंता में सहमा रहता कि कहीं वह छत से छलॉंग न लगा दे|


अंत में, चन्दना के पड़ोसी डॉक्टर गांगुली ने बड़ी मुश्किल से उसे ‘कॉम्पोज़’ का एक इंजेक्शन लगाया और सब ने राहत की सॉंस लेकर, उसे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया|


चन्दना के अत्यधिक भले स्वभाव के कारण घर बाहर के सभी लोग उस पर जान छिड़कते थे, इसलिए उसकी ड्यूटी के लिए ढेरों लोग लाइन लगाए खड़े थे| दो दिन तक एक एक कर सबलोग चौबीसों घंटे उसके सिरहाने बैठे ख़ुदा के शुक्र से जब तीसरे दिन उसने आँखें खोली, तो वह पूर्णत: शांत थी| उसकी स्थिर गंभीरता को देखकर हमें विश्‍वास हो गया था कि हमारी पुरानी सखा चन्दना लौट आई है|


समय पानी की तरह बहने लगा और चन्दना वापस हमारी महफ़िलों की शान बनी हमारी शामों को महकाने लगी| हॉं! इन दिनों उसकी परिचय लिस्ट में एक नाम डॉ. मुजीब का भी जुड़ गया था, जो हमारी ही यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर पद से रिटायर हुए थे| यदि मुझसे यह प्रश्‍न पूछा जाता कि तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे शरीफ़ इन्सान कौन है? तो मैं तत्क्षण उत्तर देती : डॉ. मुजीब, और मेरा ख़्याल है कि कमोबेश यही उत्तर मेरी सभी सहकर्मी बंधुओं का भी होता| उनकी शराफ़त की इन्तिहा यह थी कि हमें हर वक़्त ऐसा लगता रहता कि बस अभी ही उनकी नाक की अनी से उनकी शराफ़त चू पड़ेगी| अरबी बाप और इतालवी मॉं के मिश्रण से बना उनका रूप ऐसा था कि सौ-सौ युसूफ़ों, डेविडों और कामदेवों को उस उन पर वारा जा सकता था| कहना नहीं होगा कि यूनिवर्सिटी की सारी स्त्रियॉं उनसे बेहिसाब मोहब्बत करती थीं और सारे पुरुष एहसासे-कमतरी के मारे बेहद नफ़रत|


इन दिनों जब इस शख़्सियत का नाम चन्दना की ज़ुबॉं से अक़्सर निकलने लगा, तो हम लोगों ने उसे अपने प्रश्‍नों से बींधने की कोशिश की| उत्तर में चन्दना ने हमारा मज़ा लेते हुए हँस कर कहा : ‘‘यारों जलो मत! हमारी कोई ख़ास रब्तो-ज़ब्त नहीं है| हॉं, चूँकि मुकुल (डॉ. मुजीब का पुकार नाम) मेरी ही तरह एकाकी और अपनी विदेश प्रवासी संतानों के दिए ग़मों के कारण एक दु:खी आत्मा होने के साथ ही मेरा निकटतम पड़ोसी भी है, इसलिए हमारे बीच एक दोस्ताना समझ भी विकसित हो गई है| एक ही जगह रहने के कारण हम दोनों सुबह की सैर भी एक साथ कर लेते हैं और शाम को इकट्ठे ही क्लब आना भी|’’ उसने यह बात इतनी सहजता से कही कि न तो हमारा ध्यान इस ओर गया कि चंदना अब डॉ. मुजीब को मुकुल कहकर संबोधित करती है और न ही इस ओर कि अब वह उन्हें आत्मीयता से तुम कहने लगी है| क्रमश: डॉ. मुजीब की बात हमारे ज़ेहन से ही निकल गई|


बीतते वक़्त के साथ उम्र! अपनी थकान से हमें थका रही थी| पहले जो काम हम चुटकियों में कर लेते थे, वही हमसे घंटों में भी पूरा नहीं पड़ता था| हालॉंकि हम सभी! सुबह घंटा भर तेज टहलते थे और शाम को एक घंटा तैरते भी थे, पर उम्र अपना दॉंव खेल रही थी| दौड़ कर सीढ़ी चढ़ती चन्दना भी अब घुटनों पर हाथ रखे धीरे-धीरे सीढ़ियॉं चढ़ती दिखती थी|


एक दिन अपने रोज़मर्रा के रूटीन के तहत लायब्रेरी से क़िताबें लेने के बाद, मैं और चन्दना आराम से बैठे चाय पी रहे थे कि चन्दना ने मुझसे सलाह के स्वर में कहा : ‘‘ज़ारा! सोचती हूँ कि क्यों न मैं अपना बँगला बेच कर, उन रुपयों की एफ.डी. करवा लूँ और ख़ुद मुकुल के बँगले में शिफ़्ट कर जाऊँ?

‘‘डॉ. मुजीब के पास? क्या उनसे पूछ लिया है?’’


‘‘अरे बेवक़ूफ! यह मेरा नहीं, उसी का प्रस्ताव है|’’


‘‘लेकिन चन्दना, तुम्हारे परिवार वाले ठहरे कट्टर सनातनी, क्या वे तुम्हें ऐसा करने देंगे? ऊपर से डॉ. मुजीब विधुर भी हैं, ऐसे में शायद तुम दोनों का साथ रहना शायद तुम्हारे बच्चों को भी अच्छा न लगे|’’


मेरी बात सुनते ही चन्दना ने व्यंग्य से कहा : ‘‘ज़ारा! कौन-सा परिवार? किसके बच्चे? ज़रा सोच कर बताओ कि मि. बैनर्जी के गुज़र जाने के बाद के इन सात सालों में कब! किसने! मेरे लिए घड़ी भर भी सोचा है? उस भुतहा घर में अकेली सड़ती हुई यदि मैं भी अपने लोगों की प्राचार्या मिसेज परेरा की तरह पॉंच दिनों तक चूहों से खाई गई एक बदबूदार लाश बन कर पड़ी भी रही, तो भी क्या किसी को मेरी सुध आएगी? रही बात हिन्दू-मुसलमान और स्त्री-पुरुष की! तो ज़ारा, लानत है हमारी पढ़ाई-लिखाई पर, जो उम्र के इस पायदान पर खड़े हम ऐसे व्यर्थ के सोच को पनाह दे रहे हैं| ज़ारा, सच मानो, तुम्हारे मन में ऐसे विचारों का आना ही मेरे लिए कल्पनातीत है|’’


चन्दना और डॉ. मुजीब को अच्छे दोस्तों की तरह, साथ रहते हुए कुछ ही अरसा बीता था कि दोनों की ‘वे संतानें’ जो अपनी मॉं के इंतकाल और पिता की मृत्यु पर भी नहीं आई थीं, बावेला मचाते हुए आ धमकी और लगीं चन्दना और डॉ. मुजीब को बेइन्तिहा कोसने| उन लोगों ने उच्छृंखल! व्यभिचारी! आदि से शुरू कर क्या-क्या लांछन, अपने मॉं-बाप पर नहीं लगाए? पर आश्‍चर्यजनक ढंग से वे दोनों शांत भाव से उनकी गालियों के भंडार के चुकने का इंतज़ार करते रहे|


अनाप-शनाप बकझक करने के बाद, जब वे लोग सॉंस लेने के लिए थोड़ा रुके, तो चन्दना और मुकुल दोनों अहिस्ता से उठकर भीतर गए और उन्होंने अपना ‘मैरिज सर्टिफिकेट’ लाकर उनके सामने रख दिया|


आज चन्दना ने मन ही मन मुकुल की दूरदर्शिता को धन्यवाद दिया कि उसने ज़िद करके इस दोस्ती को एक क़ानूनी शक्ल दे दी थी| पहले तो वे सब स्तब्ध होकर आँखें फाड़े! उस काग़ज़ को उलटते-पलटते रहे, फिर दोनों तरफ़ से एक ही जुमला उछला : ‘‘तो क्या मॉं आपने! क्या पापा आपने! अपनी सारी ज़ायदाद और रुपया-पैसा एक-दूसरे के नाम कर दिया है?’’


सारे प्रश्‍नकर्ताओं को इस प्रश्‍न का जो उत्तर मिला, वह यों था : ‘‘हमें किसी के नाम कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है| हमारी ज़रूरियात इतनी कम हैं कि हम अपनी मोटी पेन्शन से मज़े में अपनी गुज़र कर लेते हैं|’’


यह सुनते ही दोनों परिवारों के चेहरे फूल-से खिल गए और सम्मिलित स्वर में उन लोगों ने पूछा : ‘‘तो आपलोगों ने क्या वसीयत बनाई?’’


उनके अधूरे वाक्य में ही उत्तर डॉ. मुजीब का : ‘‘वह भी बना दी है| चन्दना, ज़रा इन्हें वसीयत पढ़कर सुना दो|’’


दोनों परिवार एकटक, ‘उस मॉं’ और ‘उस बाप’ की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहे थे, जो हक़ीक़त में उनके लिए ‘मर’ चुके थे|


वसीयत : ‘‘मैं मुजीब! मैं चन्दना! उस अल्लाहताला, भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान कर यह घोषित करते हैं कि हम में से किसी एक के न रहने पर दूसरा उसकी सारी सम्पत्ति का मालिक होगा, और यदि इत्तफ़ाक़ से हम दोनों एक साथ मर जाएँ, तो हमारी पूँजी में से दस-दस लाख रुपए रामतनु और हाराधन को मिलेंगे, जो कि वर्षों से हमारी सेवा कर रहे हैं| हमारी बाक़ी की सारी चल-अचल सम्पत्ति ‘वरिष्ठ नागरिक केन्द्र’ के ‘श्रद्धालयों’ के निर्माण में चली जाएगी| हम आशा करते हैं हमारे बच्चों को हमारे ये निर्णय उचित लगेंगे, क्योंकि उन ‘निर्वासितों’ ने ही हमें अपने जीवन से ‘निर्वासित कर’, हमारे ज्ञान-चक्षु खोले हैं|’’


वसीयत का पढ़ना ख़त्म हुए देर हो चली थी, पर अभी भी वहॉं गहरा सन्नाटा छाया हुआ था|... बाहर से आई वे सारी मूर्त्तियॉं ऐसी अचल थीं, मानों ‘पोम्पई’ के लावे ने यहॉं तक आकर रवॉं-दवॉं में ही उन सबको पथराए हुए मुजस्मों में बदल दिया हो!... *



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Kusum_Khemani

|| डॉ. कुसुम खेमानी ||




डॉ. कुसुम खेमानी

जन्म: सितम्बर, 1944

शिक्षा: एम.ए. (फ़र्स्ट क्लास), पीएच.डी. कलकत्ता विश्वविद्याल


सचित्र हिन्दी बालकोश, हिन्दी–अँग्रेज़ी बालकोश, हिन्दी नाटक के पाँच दशक, सच कहती कहानियाँ (कहानी संग्रह), एक अचम्भा प्रेम (कहानी संग्रह), अनुगूँज ज़िन्दगी की (कहानी संग्रह), एक शख़्स कहानी-सा (जीवनी), कहानियाँ सुनाती यात्राएँ (यात्रा-वृत्तान्त), कुछ रेत.. कुछ सीपियाँ.. विचारों की (ललित निबन्ध), लावण्यदेवी (उपन्यास), जड़ियाबाई (उपन्यास), कुसुम खेमानी की लोकप्रिय कहानियाँ (कहानी-संग्रह, प्रभात प्रकाशन दिल्ली), चुनिन्दा कहानियाँ (कहानी-संग्रह, साहित्य भंडार, इलाहाबाद), चुनी हुई कहानियाँ (कहानी-संग्रह, अमन प्रकाशन, कानपुर), कुसुम खेमानी की प्रिय कहानियाँ (कहानी-संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली), गाथा रामभतेरी (उपन्यास), लालबत्ती की अमृतकन्याएँ (उपन्यास), (लावण्यदेवी (उपन्यास) बांग्ला भाषा में बंगलादेश से प्रकाशित एवं जन अरण्य (अमन प्रकाशन) प्रकाशनार्थ।


>>>अनुवाद एवं संपादन:

जन–अरण्य (उपन्यास, शंकर), चश्मा बदल जाता है (उपन्यास, आशापूर्ण देवी) एवं ज्योतिर्मयी देवी के कहानी-संग्रह का अनुवाद एवं संपादन।


>>>कृतियों का अनुवाद शोध एवं सेमिनार:

लावण्यदेवी उपन्यास का अँग्रेज़ी, बाँग्ला, नेपाली, तमिल, मलयालम, ओड़िया, राजस्थानी एवं मराठी में अनुवाद। ‘कहानियाँ सुनाती यात्राएँ’ बांग्ला, राजस्थानी एवं मलयालम में प्रकाशित। लावण्यदेवी उपन्यास में डॉ. एन. जयश्री द्वारा एवं तेलुगु में लावण्य नारला, मराठी में भारती गोरे एवं राजस्थानी भाषा में ज़ेबा रशीद द्वाआ शोध एवं अनुवाद।”सच कहती कहानियाँ’ की कथा-भाषा पर डॉ. सुहासिनी (तमिल), करमजीत कौर (पंजाबी), विनीता सिंह (हिन्दी) एवं अंजना कुकरैती (कन्नड़) द्वारा शोध।


‘रश्मिरथी माँ’ कहानी पर उर्मिला देवी मूवी टोन द्वारा बांग्ला में टेलीफ़िल्म का निर्माण।


डॉ. खेमानी की कहानियों पर सुप्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘लिटल थेस्पियन’ एवं ‘मुद्रा आर्ट्स’ द्वारा नाट्य मंचन।


>>>साहित्यिक भागीदारी:

वर्ष 1996 में मॉरिशस में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें ‘कबीर: एक सतर्क चौकीदार’ आलेख-पाठ को विशेष प्रशंसा प्राप्त; 1998 में बर्लिन (जर्मनी) में ‘फ़ंडामेंटलिज़्म वर्सेस टॉलरेन्स’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में आलेख प्रस्तुति पर दलाई लामा द्वारा विशेष सराहना; 2001 में डरबन (दक्षिण अफ़्रीका) में ‘धर्म: ए वे ऑफ़ लाइफ’ की प्रेस और मीडिया में विशेष चर्चा, नेल्सन मंडेला द्वारा व्यक्तिगत साधुवाद; 2003 में त्रिनीदाद (टोबैगो) में आयोजित हिन्दी सम्मेलन में ’हिन्दी की साहित्यिक विरासत और आधुनिक जगत्‌ में उसकी समीचीनता’ विषय पर आलेख प्रस्तुति; 2006 में न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में ‘सिनेमा: भाषा का सर्वश्रेष्ठ संवाहक’ विषय पर आपकी वक्तृता की मुक्तकंठ से प्रशंसा।


‘साहित्य के उच्च मूल्यों की स्थापना’ (संदर्भ: लावण्यदेवी उपन्यास) विषय पर औरंगाबाद यूनिवर्सिटी द्वारा संगोष्ठी। ‘लावण्यादेवी में दर्शना एवं नारी सशक्तिकरण की मूल्यों द्वारा स्थापना’ विषय पर कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा बड़ी संगोष्ठी आयोजित।


हैदराबाद यूनिवर्सिटी, चेन्नई यूनिवर्सिटी, एस ऐन डी टी वाई यूनिवर्सिटी, यादवपुर यूनिवर्सिटी, साहित्य अकादमी आदि में आयोजित साहित्यिक सेमीनार में निरन्तर भागीदारी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वार आहूत सेमीनार में ‘सामाजिक उत्कार्ष एक पहलू’ विषय पर डॉ. खेमानी द्वारा प्रस्तुत आलेख पाठ श्रोतओं एवं विद्वानों द्वारा अति प्रशंसित।


दूरदर्शन व ऑल इण्डिया रेडियो के कार्यक्रमों में लगातार सहभागिता। डॉ. खेमानी के जीवनवृत्त पर ’समावर्तन’ विशेषांक के रूप में प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। लोकप्रिय समाचार पत्र ’सन्मार्ग’ में पिछले तीन वर्षों से रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।


सचित्र हिन्दी-अँग्रेज़ी बाल कोश की 60 हज़ार प्रतियों का विद्यार्थियों में मुफ़्त वितरण।


डॉ. खेमानी विगत 45 वर्षों से सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यों में तन-मन-धन से समर्पित हैं। साहित्य व कला-संस्कृति से सम्बद्ध सरकारी और ग़ैर-सरकारी अनेकानेक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर रहते हुए सक्रिय भागीदारी। मुस्लिम मदरसा एवं मुस्लिम सेवा केन्द्र में हिन्दी-पाठन, एवं हिन्दी के प्रसार में योगदान। कई सामाजिक संस्थाओं की संरक्षिका हैं एवं ज़मीन से जुड़कर काम करती हैं। राजापुर वृद्धाश्रम एवं परित्यक्त लड़कियों के आश्रम का संचालन, करीमगंज में मुस्लिम महिलाओं के लिए उत्थानमूलक कार्यों का निष्पादन उल्लेखनीय है। पौड़ी गढ़वाल में अनुपम मिश्र, सदानन्द भारती आदि के साथ पर्यावरणमूलक कार्यों में आपका अप्रतिम योगदान है। आप श्री शिक्षायतन, कला निलय आदि अनेक शिक्षण संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं। इसके साथ ही मारवाड़ी बालिका विद्यालय तथा मंडावा युवक सभा की अध्यक्षा एवं मंडावाअ कम्प्यूटर केंद्र की संचालिका भी हैं।


डॉ. खेमानी भारतीय भाषा परिषद में विगत 38 वर्षों तक मंत्री पद का दायित्व निष्ठा के साथ निर्वहन करने के पश्चात्‌ संप्रति परिषद की अध्यक्षा हैं। लगभग दो दशकों से परिषद की मासिक साहित्यिक पत्रिका ’वागर्थ’ के संचालन एवं संपादन का उत्तरदायित्व सँभाल रही हैं। इसके साथ ही दस खण्डों में प्रकाशित हो रहे ’हिंदी साहित्य ज्ञानकोश’ की संयोजिका हैं।


>>>सम्मान:

’कुसुमांजलि साहित्य सम्मान’ (दिल्ली), ‘साहित्य भूषण सम्मान’-(उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), ‘हरियाणा गौरव सम्मान’–(हरियाणा साहित्य अकादमी), ‘रत्नदेवी गोइन्का वाग्देवी पुरस्कार’ (मुम्बई), ‘भारत निर्माण सम्मान’, ‘पश्चिमी बंग प्रांतीय मारवाड़ी सम्मेलन पुरस्कार’, ‘कौमी एकता पुरस्कार’, ‘भारत गौरव सम्मन’, (भारतीय वाङ्मयपीठ), ‘समाज बन्धु पुरस्कार’ (मारवाड़ी युवा मंच), ‘अंबिका प्रसाद दिव्य साहित्यिक पुरस्कार’ (भोपाल), ‘लल्लेश्वरी शारदा साहित्य सम्मान (हिन्दी कश्मीरी संगम), उपचार ट्रस्ट पुरस्कार (कोलकाता), मीरा स्मृति पुरस्कार (इलाहाबाद), लल्लेश्वरी पुरस्कार व आचार्य आनंदवर्धन मनीषी साहित्य सम्मान (हिन्दी कश्मीरी संगम, श्रीनगर), ‘देवी अवार्ड’ साहित्य टाइम्स, कोलकता एवं अन्तर्राष्ट्रीय विरांगना पुरस्कार, कोलकाता एवं ’लावण्यादेवी’ उपन्यास के अँग्रेज़ी अनुवाद को पेन अमेरीका लिटाररी अवार्ड का विशेष ग्रांट एवं पं. माधवराव सप्रे छ्त्तीसगढ़-मित्र साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2021


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