रात-दिन खाँसते हुए मरीज़ों की आवाज़े नरेंद्र को सोते-जागते सुनाई देती थी। अक्सर ही मरीज़ों की दम भरी हुई साँसे उसकी नींद उचटा देती। शुरू-शुरू में तो नरेन को मरीज़ों की साँसों के साथ अपनी साँस भी मुश्किल से आती-जाती महसूस होती। बाद में समय के साथ धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा।
सरकारी अस्पताल में एक-एक दिन में ढाई सौ से तीन सौ मरीज़ों का आउटडोर होता। हालांकि तीन डॉक्टरों के बीच मरीज़ बँट जाते थे फिर भी श्वास व क्षय रोग के इस विभाग में दमे व श्वास संबंधी बीमारियों से जूझते मरीज़, स्वस्थ इंसान को भी भीतर तक हिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। किसी व्यक्ति को अगर चंद सेकंड को ही सांस लेने में दिक्कत हो जाए तो उसके हालात मरे जैसे हो जाते है। ऐसे में इस विभाग से जुड़े मरीज़ों के दर्द नरेन जैसे संवेदनशील डॉक्टर को बहुत अच्छे से समझ आते थे।
नरेन को अस्पताल में काम करते हुए लगभग तीन बरस हो चुके थे। आज अन्य अस्पतालों से भी उसके काफ़ी कॉल थे। थका माँदा नरेन रात दो बजे के बाद ही सो पाया था। बिस्तर पर लेटते ही नरेन कब सोया उसे नहीं पता। मरीज़ों को ठीक होते देखना और उनकी मदद करना नरेन को सकून देता था। उसे नींद से कभी भी युद्ध नहीं करना पड़ा। अगर उसकी नींद गहरे सोते हुए कभी उचटी होगी तो वज़ह किसी न किसी मरीज़ की बीमारी होगी।
कई बार मरीज़ इलाज़ लेते-लेते डॉक्टर के जीवन में ख़ुद-ब-ख़ुद इतनी खास जगह बना लेते हैं कि डॉक्टर भी उन्हें खुद की सोच से दूर नहीं कर पाते। बहुत मना करने के बाद भी जब गाँव के मरीज़ नरेन के लिए खेत की ताज़ी सब्जियां लेकर आते तो उसका हृदय भावुक हो उठता। नरेन को बीमारी से जूझते हुए मरीज़ों का यह भाव बहुत छूता था। नरेन कभी उनकी लाई हुई सब्जियों के मूल्य देने की कोशिश करता तो मरीज़ बोलते....
“आप भगवान हैं हमारे लिए। हम इतना भी नहीं कर सकते तो ऊपर वाले को क्या जवाब देंगे डॉक्टर साहिब?”
मरीज़ों की कही हुई बातों के आगे नरेंद्र निरुत्तर हो जाता क्योंकि भावों का मोल लगाना इतना आसान नहीं था।
कल रात भी नरेन मुश्किल से चार घंटे ही सो पाया था कि दरवाज़े की घंटी लगातार बजने से उसी नींद खुल गई। बजाने वाला शायद बहुत परेशान था। मन मार कर नरेन को बिस्तर से उठना ही पड़ा। डॉक्टर हो या कोई भी सामान्य व्यक्ति भरी सर्दी में उसका रजाई से निकलने का मोह एकदम नहीं छूटता। दरवाज़ा खोलते ही नरेन ने एक मरीज़ को घर के दरवाजे पर खड़ा पाया। जिसे देखते ही नरेन को उसके बिगड़ते हुए हालातों का अहसास हुआ।
"डॉ. साहिब... मेरा नाम मनोहर है। मेरी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं है। गाँव से सीधा आपके पास आ रहा हूँ। ऐसा लगता है मैं अभी मर जाऊंगा... बचा लीजिए मुझे।"
अपनी बात कहकर वह नरेन के पैरों पर गिर पड़ा... और अटकती साँसों के साथ बोला...
"डॉक्टर साहिब, बचा लो... साँस नहीं ली जा रही है। दम घुट रहा है मेरा... कल से मुझे उल्टियाँ ही उल्टियाँ हो रही हैं.... मुझे बचा लीजिए।"
लगातार खाँसने से मरीज़ की तेज उतरती-चढ़ती दम भरी हुई साँसों ने उसकी आँखों को पनीला कर रखा था... और मुश्किल से ली जा रही साँसे, बीमारी से हड्डियों का ढाँचा बने शरीर से दिख रही थी। उसका शरीर काफ़ी शिथिल व दुर्बल दिख रहा था। मरीज़ को देखकर नरेन को लगा कि शायद इसको कभी आउटडोर में देखा है और दवाइयाँ भी लिखी है। फिर यह घर क्यों दिखाने आया है?....जैसे ही यह प्रश्न डॉ. नरेन के दिमाग़ में घूमना शुरू हुआ, फिलहाल उसने दिमाग से बाहर निकाल फैंका। डॉक्टरों की यही जगत समस्या होती है.....हर मिलने वाला उन्हे अपना मरीज़ ही लगता है।
नरेन को अस्पताल में ही मरीज़ देखना पसंद था। एक तो सरकारी अस्पताल में काफ़ी दवाइयाँ मरीज़ को मुफ़्त में मिल जाती हैं.. दूसरा ग़रीब मरीज़ों को इससे काफ़ी राहत रहती है। सिलिकोसिस जैसी कई बीमारियों के लिए सरकार की मदद मरीज़ के लिए जीवनदायनी है। ऐसे में अलसुबह ही मरीज़ का घर आना नरेन को बहुत परेशान कर गया पर नरेन के पास अब उसे देखने के अलावा कोई चारा न था।
"अच्छा मनोहर..आप उठो तो.. मेरे पैरों में मत पड़ो। सब ठीक हो जाएगा, निश्चिंत रहो।... मेरे क्लिनिक में चलो... वहाँ अच्छे से देखकर, दवाइयाँ देता हूं। जल्दी ही आराम आ जाएगा।"
नरेन ने मनोहर को दिलासा दी। नरेंद्र को यह बात अच्छे से समझ आती थी कि मरीज़ को दी हुई तसल्ली उसकी जीवनी बन जाती है। जब मन और शरीर बीमारी से साथ-साथ लड़ते हैं, स्वास्थ्य लाभ जल्दी होता है।
नरेन ने रात-बेरात आए हुए मरीज़ों को देखने के लिए घर में ही एक छोटा-सा क्लिनिक बनाया हुआ था ताकि मरीज़ों को अगर एमर्जेंसी में घर पर देखना पड़े तो असुविधा न हो। उसने तुरंत जाकर क्लीनिक का ताला खोला और मरीज़ को कहा...
"आप यहाँ बैठो मनोहर! मैं पाँच-सात मिनट में हाथ मुंह धोकर आता हूं।” नरेन के यह बोलते ही.. मरीज़ बुरी तरह हाफंता हुआ नरेन के पैरों को हाथ लगाकर बोला-
"मत जाओ डॉक्टर साहिब यहाँ से... पहले मुझे देख लो..... नहीं तो मैं मर जाऊंगा।" और उसने अपनी ज़ेब से पाँच सौ रुपये के दो नोट निकालकर नरेन की मेज़ पर रख दिए।
"अरे! भई मनोहर इतनी तो मेरी फ़ीस भी नहीं है। रुपया अपनी ज़ेब में रखो। जब ठीक हो जाओगे; तब फ़ीस लूँगा।"
मरीज़ से ऐसे हालात में पहले रुपया लेना नरेन के संस्कारों में नहीं था। क्लीनिक मात्र सौ मीटर की दूरी पर थी पर मरीज़ बुरी तरह हांफता हुआ मुश्किल से वहाँ तक पहुंचा। लगातार खाँसने से मरीज़ में काफ़ी कमजोरी आ गई थी। हर दो-तीन कदम चलने के बाद वो रुकता….फिर आगे चलता। नरेन को समझ आ गया था कि किन परेशानियों से जूझकर मरीज़ उसके घर तक पहुंचा होगा।
अब सभी नित्य कर्मों को भूलकर नरेन ने मरीज का परीक्षण अपने स्थेटिस्कोप से किया। उसके फेफड़ों में पानी भरा हुआ था। जिसकी वज़ह से न सिर्फ़ साँस लेने बल्कि चलने में भी उसे काफ़ी तक़लीफ़ हो रही थी। खाने-पीने में कोई संक्रमण आ जाने से उसे उल्टियाँ शुरू हो गई थी जिसकी वज़ह से उसे कुछ ज़्यादा ही कमज़ोरी आ गई थी।
डॉ.नरेन ने कुछ ज़रूरी दवाइयां और इंजेक्शन उसी समय देकर उसकी तकलीफ़ को कम करने की कोशिश की। उसे लेटे रहने को कहा। अब नरेन वहीं बैठ कर उसके आराम आने का इंतज़ार करने लगा। मरीज़ को थोड़ा-सा आराम आते ही उसने पूछा...
"घर आकर दिखाने के लिए आपको किसने कहा मनोहर?...अस्पताल आ जाते, तो वहीँ देखकर दवाईयां लिख देता। साथ ही आपको भर्ती भी करवा देता..नाहक ही इतना दूर परेशान हुए। कहाँ रहते हैं आप?" नरेन के पूछने पर मनोहर ने धीरे-धीरे टूटे हुए वाक्यों में कुछ हाँफते हुए ज़वाब दिया-
"पास ही के गाँव से आया हूं डॉक्टर साहिब... महीना भर पहले आप को दिखाया था। बहुत मरीज़ थे पर आपने मुझे बहुत अच्छे से देखा था। भर्ती होने का भी बोला था...पर मैं उस समय भर्ती नहीं हो सकता था। गाँव जाना ज़रूरी था। घर में माँ बहुत बीमार थी। बच्चे भी नहीं है मेरे। किस को अपने साथ आने को बोलता? टी.बी.की बीमारी भी ऐसी है डॉक्टर साहिब कि सब दूर ही रहते हैं। आपका पता और नंबर मैंने अस्पताल के एक कर्मचारी से लिया था।”
“वहाँ किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया?” नरेंद्र ने उसकी बातों सुनकर एकाएक पूछ लिया।
“गाँव में ही डॉक्टर को दिखाया था। उनकी लिखी दवाइयाँ भी खाई थी पर कोई आराम नहीं आया।" मनोहर अब सुबकने लगा था। बीमारी ने उसे बहुत हताश कर दिया था।
“गाँव में दिखाया था?...कहाँ है उन डॉक्टर साहिब की पर्ची... दिखाइए?”
मनोहर ने अपने सिरहाने पर रखे थैले से डॉक्टर की पर्ची निकालकर दिखाई। नरेन ने पर्ची देखते ही पहचान लिया कि मनोहर को किसी झोलाछाप डॉक्टर ने धोखा दे दिया है। पर्ची पर न तो डॉक्टर की डिग्री सही तरीक़े से लिखी हुई थी... और न ही उसका कोई रजिस्ट्रेशन नंबर लिखित में था। यही वज़ह थी कि मनोहर की तबियत में कोई सुधार नही आया बल्कि बीमारी और बढ़ गई।
"बेटा या बेटी कोई भी नहीं है आपके?"
यह प्रश्न नरेन ने जानबूझकर पूछा था क्योंकि गाँव में बेटियों की गिनती बच्चों में नहीं होती। बेटे ही बच्चों की गिनती में आते हैं।
"डॉक्टर साहिब! सत्रह-अठारह साल की बेटी है मेरी। हमारे यहाँ पढ़ाई-लिखाई न होने से,वह शहर की बातों को समझ नहीं पाती है। इसलिए नहीं लाया। मेरे ऊपर बहुत कर्जा है। बारिश कम होने से मेरा छोटा-सा खेत भी सूख गया है। खेत में अपना कुआँ भी नहीं है...सब ऊपर वाले के भरोसे चलता है।”
थोड़ा-सा ही बोलकर मनोहर फिर खाँसते हुए हाँफ़ने लगा, तो नरेन ने उसे शांत ही लेटे रहने को कहा।
"मनोहर! समय पर आ जाते तो तुम्हारी इतनी तबीयत नहीं बिगड़ती और जल्दी ही ठीक भी हो जाते।” नरेन ने प्यार से मनोहर को समझाने के कोशिश की।
"हमारे सोचें से कुछ भी कहाँ होता है डॉ.साहिब? मैं अस्पताल में भर्ती होने से पहले घरवालों के लिए खाने-पीने का जुगाड़ व इंतज़ाम करने गया था ताकि मेरी गैरहाज़री में उन्हें कोई तकलीफ़ न हो पर शायद देरी हो गई इलाज़ में... आप बचा लो मुझे अब।" और वह फिर से सुबकने लगा।
"मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला कोई नहीं है।"...मनोहर की आँखों से बीच-बीच में टपकते आँसू उसकी बेबसी बयाँ कर रहे थे।
मनोहर को अपनी बीमारी से ज़्यादा अपने परिवार की चिंता थी। ऐसे में वह अपना कितना ख़याल रख पाया होगा...उसकी बयानी कंकाल बना हुआ शरीर कर रहा था। उसका बात-बात में सुबकना नरेन को आहत कर रहा था।
नरेन मरीज़ों को हमेशा अस्पताल में आने को कहता था ताकि उनके आने-जाने के खर्च और फीस बच सके। मरीज़ के फटेहाल बटुए में रखे हुए गिनती के रुपये, अक्सर नरेन की आत्मा को झँझोड़ देते थे। उसे लगता अगर फीस ले ली तो मरीज़ क्या खाएगा?... और गाँव वापस कैसे जाएगा?
नियमित मासिक आय व खर्चों में नरेन का काम चल जाता था। रूपये की आप न करना, उसे विरासत में मिला था।
अब मनोहर की दूसरी जांचें होना भी बहुत जरूरी था ताकि शीघ्र ही पूरा इलाज़ शुरू हो सके। मनोहर की स्थिति में सुधार आते ही, उसने अस्पताल के रिसेप्शन पर फ़ोन लगाकर स्टाफ़ गोपी से बात की।
"गोपी जी! मनोहर नाम के एक मरीज़ को भेज रहा हूं। उसे दो नंबर वार्ड में भर्ती करना है। इसमें कोई कोताही मत बरतना। नौ बजे तक अस्पताल पहुंचूंगा। तब बताता हूं कि क्या करना है।"
मरीज़ों की तादाद सरकारी अस्पतालों में इतनी अधिक होती है कि डॉक्टर और मरीज़ों के अनुपात के हिसाब से अक्सर व्यवस्था चरमरा जाती है। तभी तो अस्पतालों में मरीज़ बिस्तरों के अलावा नीचे चादर बिछाकर लेटे हुए देखे जा सकते है।
सरकारी कर्मचारियों का सैकड़ों मरीज़ों से दिन-रात का वास्ता पड़ता है। इसलिए वे भी मरीज़ों को बहुत तवज़्ज़ों नहीं देते हैं। आख़िरकार कर्मचारी भी तो साहिबों के साहिब होते हैं। सिर्फ़ यही नहीं सरकार द्वारा मरीज़ों को मुहिया करवाई गई सुविधाओं का, कुछ मरीज़ बहुत दुरूपयोग करते है। यह भी अस्पताल में नज़र आ जाता है।
नौ बजे डॉक्टरों के राउंड का समय होता था। हमेशा की तरह आज भी वही नज़ारा था। फिनाइल का झाड़ू या पोंछा, जो सवेरे-सवेरे आठ बजे तक खत्म हो जाना चाहिए,वह नौ बजे शुरू हुआ था। इस विभाग में काफ़ी संक्रमण होने के कारण जितनी बार सफाई होनी चाहिए, शायद ही कभी होती हो।
विभागाध्यक्ष और दूसरे डॉक्टरों के लाख बार कहने और डाँटने पर भी चतुर्थ श्रेणी के यह साहिब अपनी सुविधाओं के अनुसार ही सेवाएं देते हैं। उन्हें भी पता है...आधा पौना घंटा काम इधर से उधर हो जाने से कुछ नहीं होता। यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। हफ्ते दो हफ्ते के लिए उन्हें निलंबित तो किया जा सकता है...पर उन्हें हटाना मुमकिन नहीं। फिर इनका एका भी इन्हें बहुत दुस्साहसी बना देता है।
नरेन अस्पताल में राउन्ड लेते हुए मनोहर के बेड पर पहुंचा। सबसे पहले मनोहर के फेफड़ों से पानी निकालने के लिए उसने स्टाफ़ से नीडल व दूसरा सामान मंगवाया। ड्रिप की व्यवस्था की ताकि उसके शरीर में थोड़ी जान आ जाए। जैसे ही उसके फेफड़ों में से पानी निकला, छाती हल्की हो जाने से मनोहर को साँस लेने में आराम आने लगा। उसकी दवाइयाँ व ड्रिप शुरू करके उसने कुछ और जाँचे करवाने के लिए स्टाफ़ को निर्देश दिए और मनोहर से कहा...
“अस्पताल से जो भी खाना मिले उसे अच्छे से खाना मनोहर ताकि तुम्हारे शरीर को थोड़ी ताक़त आए।".. मनोहर ने भी सहमति में सिर हिलाया।
ग़रीबी और इलाज़ की कोताही ने उसको टी.वी. की एडवांस स्टेज पर पहुंचा दिया था। जब नरेन ने उसकी पुरानी पर्चियाँ देखी तो पता लगा कि मनोहर को दिल की बीमारी भी है। अब तो मनोहर की बाकी जांचें करवाना भी बहुत ज़रूरी हो गया था।
जैसे ही नरेन जाने के लिए मुड़ा, मनोहर ने वापस पुकारकर काँपते हाथों से एक पुरानी-सी पर्ची उसके हाथ में थमा दी और कहा-
"डॉक्टर साहिब! अगर मैं अस्पताल में मर जाऊं तो मेरे गाँव में इत्तला भिजवा देंगे? ताकि घरवाले मेरे इंतज़ार में बैठे न रहे। पर्ची पर मेरा पता लिखा है। ख़बर भिजवा देंगे न आप?"v
आज न जाने क्यों मनोहर की पर्ची अपने हाथों से थामते ही, नरेन के हाथों में भी एक कम्पन-सा दौड़ गया। मानो मनोहर की मौंत का अंदेशा उसे कहीं भीतर तक झँझोड़ गया हो। आज बेबसी का चरम नरेन को बहुत क़रीब से महसूस हो रहा था।
नरेन के सहमति से सिर हिलाते ही उसने फ़िर से सुबकना शुरु कर दिया और वह निश्चिन्त होकर आँखें बंद करके लेट गया। नरेन ने उसे सांत्वना दी...
“ठीक हो जाओगे मनोहर... निश्चिन्त रहो। ” बहुत बार नरेन और उनके डॉक्टर मित्रों को लगता था कि अगर मरीज़ समय पर आ जाए तो उसे बचाया जा सकता है। बहुदा मरीज़ भी अपनी अनभिज्ञता या परिस्थितियों की वज़ह से बीमारी की गंभीरता को नहीं सोच पाते और कोताही बरत देते हैं। फिर उम्मीद करते हैं कि सब जल्दी ही ठीक हो जाए। पर ऐसा होता कहाँ है? डॉक्टर भी इंसान हैं....भगवान नहीं।
उसी दिन की ही बात है। दोपहर का एक बजा था। नरेन के एक मित्र डॉ. विजय जोकि हृदय रोग विशेषज्ञ थे, कॉल पर अपना मरीज़ देखने नरेन के विभाग में आए।
अक्सर ही सरकारी डॉक्टरों को एक दूसरे के अस्पताल में अपने-अपने संबंधित विभाग से जुड़े हुए मरीज़ों को देखने के लिए जाना होता था। डॉ.विजय की नज़र जैसे ही नरेन पड़ी उसने कहा...
“हेलो नरेन! एक गंभीर मरीज़ है... उसे देखकर तेरे से मिलता हूं। रुकूँगा नहीं... जल्दी ही वापस अस्पताल भी पहुंचना है। बॉस के साथ कुछ जरूरी ऑपरेशन लगे हुए हैं। तेरे से मिलकर जाऊंगा।”.. बोल कर वह जब जाने लगा तो नरेन ने कहा ..
"हाँ मिलते हैं ज़रूर।" और वह मरीज़ों को देखने लग गया।
करीब आधा घंटा ही निकला होगा कि दो नम्बर वार्ड से खूब जोर-जोर से चीखने-रोने की आवाज़े सुनाई दी शायद किसी मरीज़ की मौत हो गई थी।
तभी न जाने क्यों डॉ.नरेन को लगा कुछ सामान्य नहीं है। लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। नरेन अपनी टेबल से उठकर बढ़ती हुई आवाज़ों की ओर गया। पता चला आवाज़ें दो नंबर वार्ड से ही आ रही थी।
पहले तो धीरे-धीरे मरीज़ के रिश्तेदार बढ़ते हुए नज़र आये फिर कुछ प्रेस वाले रिपोर्टर भी न जाने कहाँ से इक्कठा हो गए। यह रिपोर्टर भी सरकारी अस्पतालों पर गिद्ध-दृष्टि रखते हैं। इनको न सिर्फ़ ख़बरें वहाँ से मिलती हैं बल्कि ख़बरों को चटपटा बनाने के लिए सामग्री भी मिल जाती है।
तभी नरेन की नज़र उत्तेजित हुई भीड़ पर गई। जिसने नरेन के मित्र डॉ. विजय के साथ हाथापाई शुरू कर दी थी। वे लोग लगातार चिल्ला रहे थे...
“हमारा रिश्तेदार आपके देर से आने से मरा है। आप जिम्मेदार हैं उसकी मौत के।”....विजय कुछ बोलने-समझाने की कोशिश करता मगर मरीज़ के रिश्तेदार लगातार उसे मार रहे थे। जिसकी वज़ह से उसकी आवाज़ बार-बार दब रही थी। नरेन ने वहाँ पहुंच कर बीच-बचाव करने की कोशिश की मगर उसे भी भीड़ की हाथापाई का सामना करना पड़ा।
नरेन को इतनी चीख़-चिल्लाहट के बीच समझ नहीं आया कि भीड़ को कैसे समझाये। डॉक्टरों को शांत मन से मरीज़ों को देखना तो सिखाया जाता है पर मरीज़ों की तरह चिल्लाना नहीं सिखाया जाता।
अस्पताल का सिक्योरिटी स्टाफ़ लगातार मरीज़ों के रिश्तेदारों को समझाने की कोशिश कर रहा था।
“आप मरीज़ को गंभीर हालातों में ही रात को लाए थे... बहुत कोशिशे की गई पर मरीज़ को नहीं बचा पाए।”…. पर वहाँ कोई भी किसी को नहीं सुन रहा था।
बाद में इस बुजुर्ग मरीज़ की फाइल देखने पर पता चला कि सत्तर साल के यह मरीज़ एम.डी.आर. व हृदय रोग से ग्रसित थे। साथ ही धूम्रपान व शराब के आदी भी थे। जिसकी वज़ह से बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था। बढ़ती उम्र में बुरी आदतें दवाइयों के असर भी कम कर देती हैं। बाजदफ़ा मरीज़ के रिश्तेदारों को अपने मरीज़ की हालात का बहुत अच्छे से पता होता है पर वे खानापूर्ति के लिए अस्पताल लेकर आते हैं। दंगा फ़साद करना उनकी फ़ितरत में होता है।
नरेन का मित्र विजय ऐसे ही गंभीर मरीज़ को देखने आया था। मरीज़ की मौत जांच करते समय ही हो गई थी। तब रिश्तेदारों ने उग्र होकर उसको मारना शुरू कर दिया।
नरेन का मरीज़ मनोहर भी पास के ही बिस्तर पर ही था। जब उसने नरेन पर हाथापाई होते देखी तो वह जोर-जोर से टूटती आवाज़ों से चिल्लाने व रोने लगा...
“मत मारो मेरे डॉक्टर साहिब को... मत मारो मेरे डॉक्टर साहिब को... अच्छे इंसान हैं यह... इन्हें मत मारो... मत मारो।" पर भीड़ में उसकी हाँफती हुई आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं था।
वहाँ मौजूद प्रेस के लोग अपने-अपने माइक लिए हुए अपनी कमाई जुटा रहे थे। वे कभी रिश्तेदारों से तो कभी आसपास के बेड के मरीज़ों से ख़बरें इकट्ठी करने में ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त थे।
रिश्तेदारों और प्रेस के लोगों की चीख़-पुकार और हाथापाई से दूसरे मरीज़ों को क्या पीड़ा हो रही होगी कोई सोचने वाला नहीं था। ऐसा लग रहा था कि यह सामाजिक जिम्मेदारी सिर्फ़ डॉक्टर्स और नर्सिंग स्टाफ़ की ही है।
जब पुलिस उन लोगों को उठा कर बाहर ले गई तब डॉ. नरेन की नज़र मनोहर पर पड़ी जोकि चीखते-चीखते निढाल हो चुका था। शायद अत्याधिक चिल्लाने से उसकी साँसों ने दिल का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। तभी नरेन ने मनोहर को आवाज दी-
“मनोहर! ठीक हो तुम... मनोहर...मनोहर। " पर उसने कोई आवाज़ पलटकर नहीं दी। तब नरेन को उसकी छूटती साँसों के साथ अपनी भी कुछ धड़कनों के टूटने का अहसास हुआ। नरेन को कहीं आस थी कि वह मनोहर को स्वस्थ कर पायेगा।
नरेन ने उसकी जान बचाने के लिए हर संभव कोशिश की। अंतिम साँस लेते वक़्त जब उसने नरेन की ओर आँख उठाकर देखा, तो उसे लगा कि वह भीड़ से बुदबुदाकर बोल रहा है...
“मेरे डॉक्टर साहब को छोड़ दो... वह बहुत अच्छे हैं।" उखड़ती साँसों के साथ-साथ मनोहर की आँखों ने अचानक ही नरेन का हाथ उसकी दी हुई पर्ची पर लिखे पते पर पहुंचा दिया।
आज न जाने क्यों जैसे ही नरेन का हाथ पर्ची पर पड़ा.... उसकी भी आँखे नम हो गई। मनोहर की मृत्यु के संदेसे में उसके घरवालों की निर्भरता को पीड़ित होना था।
अब डॉ.नरेन को आने-जाने का किराया किसी स्टाफ़ को देकर, मनोहर के घरवालों तक उसके चले जाने का सन्देश पहुंचाना था ताकि उसके लौटने की आस लिए वे सब बैठे न रहे। .....और शीघ्र ही मनोहर की देह को गाँव ले जा सके।
तभी स्टाफ़ ने मनोहर की रिपोर्ट्स लाकर दी। उससे पता चला मनोहर को न सिर्फ़ टी.बी. एडवांस स्टेज में पहुँच गई थी बल्कि उसको गंभीर हृदय रोग भी था। पूरा इलाज़ न होने की वज़ह से उसका दिल बहुत कम काम कर रहा था...और अत्याधिक चिल्लाने से वह बच नहीं पाया।
अब डॉ.नरेन को मरीज़ के उन रिश्तेदारों पर बहुत क्रोध आया,जिन्होंने अस्पताल में कोहराम मचा दिया था। नरेन को लगा वह मनोहर को कुछ समय और ज़िन्दा रख सकता था। उसके अत्याधिक चिल्लाने और रोने से घुटती सांसों ने उसका साथ छोड़ दिया। अपनी इस पीड़ा को नरेन किससे कहता।
हाथ में मनोहर के पते की पर्ची लिए वह मन ही मन बहुत देर तक बड़बड़ाता रहा ....
“कहाँ गलत हूँ मैं? कहाँ गलत था मेरा मित्र? पहले जीवन के तीस साल पढ़ाई को दिए। फिर गुज़रे सालों में सवेरे से रात तक मरीज़ों का ही सोचते-सोचते समय निकल गया। परिवार का समय काटकर, अपना समय मरीज़ों को दिया किसलिए? आज के दिन के लिए?.....शायद मुझे डॉक्टर नहीं बनना चाहिए था या फ़िर इतना संवेदनशील नहीं होना चाहिए था।”
प्रैक्टिस में आने के बाद उसका यह पहला अनुभव था। रह-रहकर मरीज़ के रिश्तेदारों के द्वारा हाथापाई करना उसे तोड़ रहा था। कितनी प्रताड़ना थी....इस हाथापाई में जो नरेन की आँखों को बार-बार नम कर रही थी। नरेन सोच रहा था विजय की अनुपस्थिति में उसके अस्पताल में कोई और हादसा न हो गया हो।
डॉ.विजय चोटिल होने की वज़ह से अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच में संघर्षरत था। ...और नरेन दोस्त के साथ न जाकर, चेंबर में अपनी चोटों पर दवाई लगवा रहा था....क्योंकि अस्पताल में मनोहर जैसे कई मरीज़ों को उसकी बहुत ज़रूरत थी।
हाथापाई से आहत हुआ उसका ध्येय चोटिल होकर बिखरने लगा था। आज बहुत कुछ टूटा था। डॉक्टर को भगवान बनाकर बगैर गलती के धरातल पर पटक देना, डॉक्टरी की इतनी लंबी पढ़ाई पर, बार-बार प्रश्नचिन्ह लगा रहा था। यही वजह थी कि नरेन फिलहाल चाहकर भी अपनी कुर्सी से उठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
मैं गत पच्चीस-छब्बीस वर्षों से सोशल-मेडिकल पैशन्ट काउन्स्लर हूँ। गद्य और पद्य विधाओं में देश-विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं हंस, आजकल, गगनांचल(विदेश मंत्रालय),नई धारा,मधुमती,साहित्य भारती(उत्तर प्रदेश अकादमी),राजभाषा विस्तारिका(कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय),साहित्य अमृत,कथा-बिम्ब,कथा-क्रम,लमही, साहित्य-परिक्रमा,राग-भोपाली,अक्षरा,समावर्तन,हिन्दुस्तानी जुबान,किस्सा,सरस्वती सुमन,अमर उजाला,राजस्थान पत्रिका,दैनिक जागरण,नई दुनियां... जैसी दर्जनों पत्रिकाओं में सृजन का निरंतर प्रकाशन। आकाशवाणी से नियमित प्रसारण। गत तीन वर्षों से दैनिक ट्रिब्यून(पंजाब) समाचार पत्र के लिए समीक्षक की भूमिका का निर्वहन।
दस पुस्तकें प्रकाशित। लगभग सभी पुस्तकों को किसी न किसी रूप में पुरस्कार या सम्मान। कहानियों पर छात्र-छात्राओं द्वारा शोध। कई कहानियाँ,लघु उपन्यास व लेख पुरस्कृत।