व्यंजना

रश्मिरथी मॉं


- डॉ. कुसुम खेमानी


सबीनाऽऽ! ओ सबीनाऽऽ! अरी कमबख़्त! कहॉं है तू? सबीनाऽऽऽ..


बिल्क़ीस आपा करीमगंज वाले पिछड़ा महिला केंद्र में अलमारी में घुसी हुईं, ‘सलमे’, ‘कंदले’ के ढेर में बुलियन का गोला ढूँढ़ रही थीं, जो ढेरों झक मारने के बावजूद उनके हाथ नहीं आ रहा था| उन्होंने सिर ऊपर उठाकर पंखे को घूरा तो लगा वह बेचारा तो अपनी निर्धारित तेजी से ही घूम रहा है, अब इस बला की उमस और गर्मी से आए पसीने की बाढ़ का वह क्या करे? उसी तरह झुके-झुके ही उन्होंने बाईं हथेली से पेशानी के पसीने को पोंछ कर झटका और फिर से बड़-बड़ करती हुई उस निचले ड्रॉवर में सिर घुसा कर ताबड़-तोड़ गोला खोजने लगीं|


‘‘११ बज रहे हैं; लड़कियों का हुजूम आने ही वाला है; यदि आते ही हाथ में काम न पकड़ाया तो सबकी सब; ही-ही ठी-ठी में लग जाएँगी; और फिर गया आधा दिन भांग के भाड़े| .. सिर में लगातार घूमते ऐसे ही विचार उनके प्रेशर को और भी बढ़ा रहे थे और उसी ऱफ़्तार से माथे से टपकती बूँदें भी बढ़ती जा रही थीं कि तभी एक उल्लसित स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘सलाम आलेकुम आपा’’


मनुष्य स्वभाव इतना विचित्र होता है कि वह असंभावित खुशी को न तो सुन पाता है; ना ही देख पाता है, बिल्कीस भी उसके लिए अपना पल मात्र गँवाए बिना उसी लगन से अपने काम में बझी रही; दोनों हाथ, सिर, आँखें, सब कुछ; उसी ड्रावर में घुसाए रही, पर वह ज़िद्दी आवाज़ कुछ और ऊँचे स्वर में फिर से सुनाई पड़ी’’ सलाम आलेकुम आपा.. अपनी अंगुलियों से सूत की लच्छियॉं और डोरे छुड़ाकर उन्हें वापस ड्रावर में पटक कर बिल्कीस ने भी ज़ोरों से जवाब दिया ‘‘वालेकुम अस्सलाम भाई, वालेकुम अस्सलाम सबीना बस्स!! कोई काम न धाम, जब से इस सलाम की ही रट लगा रखी है| गोया सलाम न हुई, काम न करने का बहाना हो गई| मैं जब से आपके नाम के मनके फेर रही हूँ और आप हैं कि?’’


नेपथ्य में ज़ोरों से हँसी की आवाज़ सुन आपा ने घूर कर सलामवाली को देखा तो अचकचा गईं| या ख़ुदा क्या ये हमारी कोई मददगार हैं, जिनसे मैं अनजाने में इस बदतमीज़ी से पेश आई हूँ? हालॉंकि यह सबीना तो नहीं है;.. पर यह शक्ल काफ़ी जानी पहचानी लग भी रही है| क्या इसने किसी साल यहॉं काम किया है?


बिल्क़ीस के असमंजस को भॉंप कर वह नारी-मूर्त्ति आगे बढ़ी और उसने श्रद्धा और अपनेपन से बिल्कीस के गले लगते हुए धीमे से कहा ‘‘आपा! आपकी अपनी रहमान वाली ज़ाहिदा’’ कुछ याद आया! अब बिल्क़ीस उसे एकटक देखे जा रही थी| हालांकि उसकी आँखें ज़ाहिदा के चेहरे पर थीं, पर उन आँखों में सिनेमा की तरह सालों पहले का दृश्य आकर स्थिर हो गया था|


ज़ाहिदा.. ज़ाहिदा..?? याद आया, रहमान और उसकी बीबी ज़ाहिदा; जो अपने सुक्खड़ मरियल से शाहज़ाद, आबिदा, परवेज़ और गुल अर्थात् चार-पांच बच्चों से लँदे-फँदे केन्द्र के सहन में बैठे थे और बिल्कीस को देखते ही सब हरहरा कर खड़े हो गए थे| ज़ाहिदा ने एक बच्चे को कमर पर धर कर कंधा पकड़ाया, दूसरे की अंगुली थामी, तीसरे को रहमान ने कंधे पर बैठा कर अपने बाल थमाए और चौथे को कमर पर बैठाकर बिल्क़ीस की ओर चल पड़े| उनका पूरा परिवेश उनकी दरिद्रता की गाथा कह रहा था, इसलिए देखने-पूछने को ख़ास कुछ था नहीं| बिल्क़ीस ने उन्हें अपने ऑफिस में आने का इशारा किया और आगे बढ़ गई|


ज़ाहिदा-रहमान की पूरी जीवनी का रंग वैसा ही था जो आमतौर पर न्यूनतम साधनवालों का होता है| रहमान के पास न कोई ज़मीन ज़ायदाद थी और न ही गाय-भैंस! कि गॉंव में पेट पाल सकता इसलिए शहर आ गया था पर यहॉं भी वही ढाक के तीन पात, न तो अनपढ़ को नौकरी और न ही रेज़ा-मजूरों की रोज़ाना ज़रूरत; छिटपुट काम से छ: प्राणियों का पेट कैसे भरे? ज़ाहिदा घरों में झाड़ा-पोंछा कर कुछ कमा भी ले तो बच्चों को कहॉं छोड़े? और ऊपर से अल्लाह का कहर कि इन पेटों को ही पानी नहीं है और ऊपर से एक नया बच्चा पेट में आ गया है!


क्या? क्या? कहती हुई बिल्कीस लगभग चीख़ती-सी बोली- ‘‘माथा ख़राब है तुम लोगों का? तुम लोग आदमी हो कि कसाई? कमरे में सन्नाटा छा गया|


रोजमर्रा की ऐसी ही घटनाओं ने बिल्कीस को ग़रीबी का दर्शनशास्त्र पूर्णत: कंठस्थ करा दिया था अत: वह कम समय में ही सारी कहानी समझ गई| उसका पहला प्रश्‍न था ‘‘कितने दिन चढ़े हैं? ‘‘कुछ ख़ास नहीं, बस, कुछ ही दिन ऊपर हुए हैं|’’


ज़ाहिदा का यह जवाब कुछ तसल्ली-बख़्श था; इसलिए बिल्कीस ने आगे की योजना बनानी शुरू की| इस क्रियान्विति के दौरान बिल्कीस का साबिका और कई तथ्यों से पड़ा| उसे पता चला कि रहमान और ज़ाहिदा दो समय की रोटी के लिए निरन्तर अपना ख़ून बेच रहे हैं| फुटपाथ पर सोती हुई सुन्दर बेटियों की पहरेदारी कितनी कठिन है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है, इसलिए रहमान ने किडनी का एक दलाल ढूँढ़ निकाला है, जो उसकी एक किडनी के बदले इतने पैसे दिलवा देगा कि पगड़ी देकर एक कोठरी कम भाड़े में ली जा सके| यह चौंकाने वाली ख़बर सुनकर बिल्कीस ने माथा ठोकते हुए तड़पकर कहा- ‘‘बस! अब बस करो| मैं सारी कहानी समझ गई हूँ| अब मुझे प्लान बनाकर फटाफट काम करने दो| हॉं, मेरी आदत तानाशाही की है| यदि तुम लोगों को मुझ पर पूरा भरोसा है, तो बिना प्रश्‍न पूछे और मीनमेख निकाले; जैसे मैं कहूँ वैसे ही सारे कामों को अंजाम देते जाना, वर्ना इंशा अल्ला! तुम अपने काम लगो, मैं अपने!’’


ज़ाहिदा और रहमान वैसे ही बिल्कीस के पुराने भक्त थे और अब ऐसी घड़ी में जब वे सपरिवार बीच मंझधार में डूब रहे हैं और बिल्क़ीस बेग़म डूबते का तिनका नहीं पूरी की पूरी नौका बनीं हुई हाज़िर हैं तो भला उन्हें क्या उज्र होता? और उनकी एक ज़ोरदार ‘हामी’ के साथ सभा का समापन हो गया|


पता चला, बिल्क़ीस आपा ने आनन-फ़ानन में अपनी डॉक्टरनी भाभी से बात कर, ज़ाहिदा का गर्भपात और रहमान की नसबंदी करवा दी| जब वे दोनों क़ुरान पाक़ के हवाले से इसे नाज़ायज़ बताने चले तो आपा ने ऐसी अकाट्‌य दलीलें दीं कि नामी-गिरामी मौलवी का भी हौसला पस्त हो जाए| उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें पता है ना कि मैंने क़ुरान-पाक़ का तर्ज़ुमा हिन्दी में किया है और उसकी पाबन्द भी हूँ| उसी के हवाले से बता रही हूँ कि हर युग का अपना धर्म होता है| कर्बलायुद्ध में ढेरों जवान मारे गए थे तो पैगम्बर ने प्रति मर्द चार औरतों की रहनुमाई की, क्योंकि जवानों की कमी थी इसलिए गर्भनिरोध की मुमानियत कर दी| हिन्दुओं के श्रीकृष्ण ने जरासंध की हजारों रानियों को अपनी पत्नी घोषित कर उनके लाखों जारज बच्चों को यदुवंशी का ख़िताब इसलिए दिया कि उन स्त्रियों और बच्चों का तारनहार कौन बनता? यह उस समय का तक़ाज़ा था कि उनके पास पिता का नाम होना ज़रूरी था| इसलिए मान कर चलो कि सारे मज़हब समय सापेक्ष हैं और इस दौरान पड़ी रुढ़ियों को हमें पानी में उगी काई की तरह खंगाल कर निकाल देना चाहिए; तभी धर्म या मज़हब ज़िन्दा रहेगा| ठीक!!.. तो अब और भाषण बंद और आगे की योजना सुनो|


यह लो तुम सबकी बम्बई की ट्रेन टिकटें और कपड़े; बम्बई में नरीमन प्वायंट पर मेरी मुँहबोली बेटी शकुन तुम लोगों की गार्जियन बनने को राज़ी हो गई है| रहमान को बिजली का काम आता है, वह उसकी फैक्ट्री में काम करेगा; और तुम उसका घर सम्हालोगी| उसके सर्वेन्ट क्वार्टर में तुमलोगों का रहवास होगा और तुम्हारे बच्चों को शकुन किसी अच्छी नि:शुल्क स्कूल में भर्ती करवा कर, प्रत्येक बच्चे के लिए एक प्रायोजक ढूँढ़ देगी| ख़ुदा के रहम से सब ठीक होना चाहिए और आगे उसकी मर्ज़ी और तुम्हारा नसीब|


उन्हें विदा कर बिल्क़ीस फूली नहीं समा रही थीं| उसे जो विपदाएँ पहाड़-सी लग रही थी वे इतनी आसानी से सुलझ जाएँगी, यह उसने भी नहीं सोचा था पर कभी-कभार सारे पासे सीधे पड़ते जाते हैं; और कुछ ऐसा ही ज़ाहिदा की समस्या के साथ भी हुआ था|


‘‘ज़ाहिदा- घटना’’ से कुछ देर के लिए रुका समय फिर चल पड़ा| ‘‘पिछड़ा महिला केन्द्र’’ का काम प्रगति पर था; साथ ही बिल्कीस के काम का बोझ भी| शुरू में कुछ दिनों तक ज़ाहिदा का ज़िक्र होता रहा, फिर ऱफ़्ता-ऱफ़्ता धूमिल पड़ती यादों में ज़ाहिदा भी कहीं बिला गई|


आज यह पहनी ओढ़ी सम्भ्रान्त ख़ानदान की महिला भला वही ज़ाहिदा कैसे हो सकती है? पर! इसका मीठा-सा चेहरा और हँसी के साथ चमकती बत्तीसी तो उसकी सी ही लगी हैं? शरीर का भरापन और रख-रखाव छोड़ दें तो लम्बाई, बाल और खड़े होने की भंगिमा भी ज़ाहिदा सी ही है, फिर भी?’’


उसके मनोभाव निश्‍चित रूप से उसके चेहरे पर आ गए होंगे, कि उसके ऊहापोह की ‘मेंड़’ तोड़ कर उसके अधिकार-क्षेत्र के भीतर घुसती हुई ज़ाहिदा ने कहा- ‘‘आपा! मैं ज़ाहिदा ही हूँ उसका भूत नहीं आपा! मैं वही रहमान की बीवी ज़ाहिदा हूँ|’’


‘‘बकवास कर रही हो तुम! यदि तुम वही रहमान वाली ज़ाहिदा हो, तो फिर तुम्हारा पेट बढ़ा हुआ क्यों है? क्या तुमने रहमान को छोड़ कर दूसरा खाविंद कर लिया है? क्योंकि जहॉं तक मुझे याद है मैंने रहमान की नसबंदी करवा दी थी| ..भई! मेरा तो दिमाग़ ख़राब हो गया है.. वो ना ही तुम पर यक़ीन कर पा रहा है ना ही शक़ो-शुबहा?? समझ नहीं आ रहा कि आख़िर यह माज़रा क्या है?.. आगे का जो क़िस्सा ज़ाहिदा ने बयान किया, वह बेहद विस्मयकारी था|..


ज़ाहिदा ने बात की शुरुआत यों की- ‘‘आपा! सबसे पहले तो यह वादा कीजिए कि आप मेरे फ्लैट में एक कप चाय पीकर मुझे इज्जत और बख़्शेंगी, दूसरे आप मेरा यह राज़ किसी को बताएँगी नहीं; वर्ना मुझे अजाब होगा!’’ मेरी कड़ी दृष्टि ने बिना कुछ कहे ही उसे मेरी मंशा बता दी- जिसमें यह उलहना भी शामिल था कि ‘‘बस! तुमने मुझे इतना ही जाना? ..आँखों ही आँखों में हुए प्रश्‍न प्रतिप्रश्‍न के बाद ज़ाहिदा ने कम से कम घण्टे भर तक अपनी पूरी दास्तान सुनाई| उसने बताया- ‘‘बम्बई में कुछ दिनों तक किसी तरह काम चला, पर न तो रहमान को परमानेन्ट नौकरी मिली और ना ही बम्बई की महँगाई में उन दोनों का कमाया पूरा पड़ा| सोने के घण्टे कम करने के बाद भी वहॉं की ‘गला काट’ भागमभाग में वे कुछ खास काम ढूँढ़ नहीं पाए| हिन्दुस्तान के ढेरों युवा और अधेड़ रोज़ ही पैसे की इस नगरी की ओर आकृष्ट होकर अनगिनत संख्या में बम्बई के विभिन्न प्लेटफार्मों पर उतरते हैं, और कभी वापस नहीं लौटते क्योंकि यह मायापुरी आपको कम से कम भूखा नहीं मरने देती| लेकिन ज़ाहिदा के सामने चार बच्चों का महत्त्वाकांक्षी भविष्य भी झूल रहा था इसलिए उसने इधर-उधर हाथ-पैर मारने शुरू किए| ज़ाहिदा देखने में आकर्षक थी और उसमें एक नफ़ीस सा सलीक़ा भी था| कई तरह के घटिया प्रस्तावों को ठुकराने के बाद उसे बगल के फ्लैट की नौकरानी ने एक प्रस्ताव दिया, जिसे वह तुरन्त ना नहीं कर सकी; लेकिन? हॉं! एक बड़ा-सा लेकिन? उसके सामने अजगर सा मुँह बाए खड़ा था; और वह था मज़हब का| इस्लाम में तो रुपए के ब्याज तक को हराम माना गया है और यहॉं तो पूरा मामला ही टेढ़ा-मेढ़ा था| ज़ाहिदा के निर्णय ने बिल्कीस को अचंभित कर दिया और उसके मुँह से बेहिसाब आशीषें निकलने लगीं| ज़ाहिदा ने एक दुखियारी संतानहीना के बच्चे को अपनी कोख में पाल कर उसे मातृत्व के सुख से नवाज़ा था| उसने बताया कि बम्बई में एक एजेन्सी है जो ज़ाहिदा जैसी मॉंओं की पूरी जॉंच-पड़ताल करके, उन्हें निरोग बनाकर, अपने वातानुकूलित स्वास्थ्य केन्द्र में रखती है| गर्भावस्था में रानी-महारानियों की तरह उसके लिए फूलों को ज़मीन पर बिछा दिया जाता है| उसके घरवालों को भी अनेक सुख-साधन प्रदान किए जाते हैं| गर्भवती कभी भी उस बच्चे के मॉं-बाप से नहीं मिलती है; और बच्चा होते ही उसके मॉं-बाप आते हैं और बच्चे को प्रथम पेय पिलाने के बाद पर्दे की आड़ से उसे ले जाते हैं| दान देने वाली मॉं को वे इतनी सुख-सम्पदा से भर देते हैं कि सिवा शुभकामनाओं और आशीष के उसके मन में कोई विकार नहीं आता| महीने-दो- महीने प्रसूता की देखभाल करके एजेन्सी वाले उसे भी विदा कर देते हैं|.. ज़ाहिदा इस तरह तीन बच्चे दे चुकी है और चौथे की तैयारी में है|.. ज़ाहिदा का चेहरा पूर्ण संतोष के भाव से छलछला रहा था| उसकी उस छवि में कहीं भी किराए की कोख का ग्लानि बोध नहीं; दाता की उदारता का संतुष्टि भाव; परिलक्षित हो रहा था| लेकिन बिल्कीस को जब पैसों का पता चला तो उसने उसे घूर कर देखा और घुटने पर हाथ रख कर उठते हुए पूछा- ‘‘कितना कमा लिया, इस तरह बच्चे देकर? क्या तुम्हारा हाथ क्षणमात्र को भी कलेजे पर नहीं गया? कैसी मॉं हो तुम?..


ज़ाहिदा ने पहले चौंक कर; और फिर ऐसी दया-दृष्टि से बिल्कीस को देखा, मानों वह पूरी ‘जड़भरत’ है; फिर उसने एक छोटा-सा लेक्चर बिल्कीस को दिया, जिसे सुनकर बिल्कीस का सिर चकरघन्नी सा घूमने लगा, उसे लगा; वह वाकई महामूर्ख है|


ज़ाहिदा ने कहा-‘‘आपा! मैंने सोचा न था कि आपके विचार इतने संकीर्ण होंगे| आपने हमें सदा सच्चाई और आत्म स्वाभिमान के साथ जीवन जीना सिखाया है| ऐसा जीवन जीने के लिए हम ग़रीबों को क्या कुछ नहीं करना पड़ता? पर उसके बावजूद हासिल क्या होता है? तन पर पूरे कपड़े नहीं! इलाज़ और पढ़ाई के पैसे नहीं! सिर पर छत नहीं! रात-दिन खट कर भी, घिघियाने पर जो पैसे मिलते हैं, उनसे खाना ही पूरा नहीं पड़ता; तो फिर आख़िर करें क्या? चोरी-छिपे जिस्म बेचें? चोरी-चकारी करें? छिनताई करें? आख़िर इस पेट की खोह को किस चीज़ से भरें? अच्छा आपा! रोज़ सरेआम ख़ून बेचना; किडनी बेचना; ईमान बेचना; चलता-रहता है; पर मैं; जो; यों भी हर साल इस धरती पर एक बच्चे की आमद कर देती थी! वही ज़ाहिदा! यदि अपनी उसी कोख़ से किसी वंचिता मॉं की कोख भर कर उसके घर में उजाला भर देती है तो पाप करती है?.. और मेरी इस मेहनत के एवज में यदि हमारी माली हालत कुछ सुधरकर बच्चों को रहना, खाना, पीना और पढ़ना मुहैय्या! करवा देती हैं; तो यह अन्याय है?.. अचानक ही मैं मॉं से डायन बन जाती हूँ? हॉं! यदि यही काम मैं मु़फ़्त में करती तो दयावान कहलाती; आप भी मेरी प्रशंसा के पुल बॉंधते न थकतीं? क्यों? ..ठीक कह रही हूँ ना मैं?


आपा! यह कैसा न्याय है आपका? जिसने आज भी अपनी आँखों पर पट्टी बॉंध रखी है| क्या आप नहीं चाहतीं कि मेरे बच्चे अच्छे नागरिक बनें? क्या आप नहीं चाहतीं कि हमारा परिवार कम से कम छोटी-मोटी खुशी का अनुभव कर पाए?..


आपा! दरअस्ल, आपलोग ख़ुद नहीं जानते कि आपलोग चाहते क्या हैं? एक ओर तो जब कोई धनाड्‌य महिला आपके केन्द्र को दान देती है तो आप उसे सिर आँखों पर बिठा लेती हैं पर यदि एक स्त्री किसी और को खुशियॉं देकर उसके घर को आनंद के प्रकाश से भरकर अपने लिए भी रोशनी के कुछ कण ले आती हैं तो आप उसे धिक्कारती हैं!.. क्या यह विचारों का दोगलापन नहीं है? आपा! आपके इस छोटे से वाक्य ने मेरे मर्म पर ऐसी चोट की है कि आप उसका अंदाज़ नहीं लगा सकतीं| मैंने सोचा था, आप जैसी खुले दिमाग की समझदार औरत मेरी पीठ थपथपाएगी? पर आपने तो मुझे रसातल में पहुँचा दिया? आपा! मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी!!.. कहती हुई ज़ाहिदा धीरे से उठी और भारी कदमों से वहॉं से चली गई|


बिल्कीस को पता नहीं कि वह कब तक यूँ ही सामने शून्य को देखती बैठी रही| जब किसी ने आकर कमरे में बत्ती जलाई, तो वह चौंक कर झटके से उठी, और मन को बहलाने के लिए अपनी प्राणसखा आरती के घर चली गई|


आरती और बिल्कीस दो ज़िस्म और एक जान हैं| बिल्कीस आरती के भाइयों को राखी बांधती है, तो आरती उसके भाई-बहनों को ‘ईदी’ देती है| उन दोनों के सारे सम्बन्ध जुड़वा बहनों की तरह ही हंैं| दोनों के; मॉं-बाप एक; मामा-मामी एक; बच्चे एक; भाई-बहन एक; बस!.. जुदा हैं तो पति; जिनके लिए सब उन्हें छेड़ते रहते हैं| कुछ दिन पहले ही बिल्कीस बम्बई में आरती की मामीसास के यहॉं पन्द्रह दिन रह कर आई थी| आरती की मॉं की तरह ही उसकी मामीसास भी उन दोनों के सारे लाड़चाव; तीज-त्यौहारों के नेग; उपहार आदि एक से ही करती हैं| पूरी दुनिया इस बात से हैरतअंगेज है कि एक मुसलमाननी और एक मारवाड़न कैसे तीसियों वर्षों से एक दूसरे पर जान झिड़क रही हैं? उन्हें तोड़ने की बहुतेरी तिकड़में भी खेलीं गईं पर सब बेकार!.. वे दोनों वैसी ही रहीं|..


बिल्कीस जब डुप्लिकेट चाबी से फ्लैट खोलकर आरती के घर में घुसी तो फ़ोन घनघना रहा था|.. बिल्कीस ने तपाक से फ़ोन उठा लिया, और हैलो कहते ही उस पार से आवाज़ आई; ‘‘ऐ! बींदनी (बहू) सुण! एक भोत चोखी खबर देणी है तन्नैं!!’’ ‘‘मामी जी! मामीजी! मैं बिल्कीस!’’ ‘‘अरे बिल्कीस बेटा! आरती नै भी बोल कि दूसरो फ़ोन उठावैगी| ..चोखो (अच्छा) होयो तू अठै (यहीं) ई है, नई तो तन्ने भी फ़ोन करती| ..फ़ोन की घंटी सुनकर आरती पहले ही दूसरा फ़ोन उठा चुकी थी| उसने लाड़ में कहा ‘‘प्रणाम मामी जी! सुणावो के बढ़िया ख़बर है? मैं ‘झोली मॉंड’ (फैला) चुकी हूँ|’’


‘‘बींदणी! अदिति और निकुंज के आज ख़ूब सोणो (सुन्दर) बेटो होयो है|’’


‘‘मामीजी! ग़ज़ब.. भोत बधाई!! -कि १८ बरस बाद यो दिन आयो| इत्ता सुन्दर मॉं-बाप! इत्तो धन!.. मामीजी बहुत ही बढ़िया ख़बर सुणाई!.. थे तो डॉ. पारेख सै इलाज़ करायो थो के?.. या ये लोग बिलायत गया था?.. किसैस फ़ायदो होयो?


‘‘ऐ बाई न तो पारेख; न तेरी निर्मला; ना ई बिलायत; कोई सै ही फायदो कोनी होयो!! आपॉं तो मुन्ने नै ‘सरोगेट’ करवायो है|’’


‘‘मामीजी! सरोगेट बच्चो नईं मॉं होवै है!!’’


‘‘ऐ बाई! इत्तो तो मन्ने बेरो कोनी? पण एकई बात है| बच्चो ‘सरोगेट’ होवे चाये मॉं आपणै लिए तो एकी बात है|’’


मामीजी को समझाने का कोई अर्थ नहीं है वे अपने ढंग से ही अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करती हैं| कुछ दिनों पहले उन्होंने आरती के समधी के लिए कहा- ‘‘मैं तो बिन्ना कै लव मै फॉल करगी|’’ उनके निश्छल प्रेम और उनकी सहज अभिव्यक्ति ने उन्हें बम्बई शहर की सबसे लोकप्रिय आत्मीया बना रखा है| ८२ वर्षीया मामीजी के निकट मित्रों में आठ वर्षीया नन्ही ईशा, साठ वर्षीया सुमन, और ८० वर्षीया कई महिलाएँ हैं| कई बार तो लगता है उस शहर की हर महिला उनकी ‘भायली‘ (मित्र) है| उन्हें आज तक किसी की बुराई करते सुनना तो दूर; कई बार योजना बनाकर जब भी उन्हें भड़काने की कोशिश की गई तो सबने मुँह की खाई| अविश्‍वसनीय चरित्र है उनका; दूसरे के दु:ख से भयंकर दु:खी और दूसरे के सुख से अत्यधिक आनंदित|


इन्हीं मामीजी ने अपने खुशी से सराबोर शब्दों में अदिति की मॉं बनने की पूरी कहानी यह कहने के बावजूद भी सुनाई कि ‘मामीजी बोला (बहुत) पिस्सा (पैसा) लागेगा, एस.टी.डी. है|’’


आश्‍चर्यजनक ढंग से छोटे-छोटे एकाध अपवादों के सिवाय यह कहानी काफी कुछ ज़ाहिदा की कहानी से मिलती थी| वही कोई बाहरवाली एजेंसी;.. वही मॉं का चुनाव;.. वही घरवालों की भी देख-रेख; आदि-आदि सारी बातें यकसॉं सी थीं| उन्होंने यह भी बताया कि खर्च तो बहुत हुआ, पर इस तरह का ख़र्च तो वे सारी दुनियॉं में डॉक्टरों को दिखा-दिखा कर कई बार कर चुके थे; और साथ ही समय और अर्थ दोनों की हानि भुगत चुके थे| इतने सुन्दर नतीजे के सामने उनके लिए रुपया क्या चीज़ है? अन्तिम वाक्य का अर्थ था ‘‘हम सब तो दिन-रात उस औरत को ‘असीसते’ रहते हैं जिसने इस घर को इकलौता चिराग़ देकर निराशा के अंधकार की जगह उजाला ही उजाला भर दिया है|’’


आरती हुँ, हॉं- करती जा रही थी और दूसरा फ़ोन पकड़े बिल्कीस क्रमश: बर्फ़ की तरह गलती हुई.. पानी पानी होती जा रही थी| उसकी आँखों पर से एकांगी ज्ञान के अहंकार का पर्दा हट रहा था.. और उसका स्थान स्वयं की लानतमलामत ले रहा था|


क्या नहीं कह दिया मैंने बेचारी उस गरीबनी को?.. उसको गिरेबान में भी तो झँकवाने से पहले मुझे पहले अपने ग़िरेबान में झॉंक कर देखना चाहिए था जिसके अन्दर ढेरों बेईमानियॉं भरी पड़ी हैं| वो तो ठहरी दीन-हीन| दाने-दाने को मोहताज़| पर हम सरीखे ‘खाए-अघाए’ लोग(?) क्या कमाई का कोई भी ज़रिया हाथ से जाने देते हैं? सिवाय दो-चार भयंकर तरीक़ों के?..


बिल्कीस को अपने किए पर गहरा पछतावा हो रहा था| रह-रह कर उसकी आँखों के सामने ज़ाहिदा का वह अविश्‍वास से भरा सहमा-सा चेहरा घूम रहा था| ..पैर के अँगूठे से उसका ज़मीन को कुरेदते हुए ज़मीन को पकड़ने की चेष्टा करना; आँखों के कोरों तक आए ‘टल टल’ आँसुओं को थामने की विफल चेष्टा करना; आदि दृश्य उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे| वह मारे ग्लानिबोध के जड़ होती जा रही थी कि फ़ोन पर मामीजी की चहकती हुई आवाज़ कान में पड़ी’’ देख आरती! ध्यान राखिए! तनै और बिल्कीस वोनुंआनै आणो है| ई तो सदा को ‘ओलमो (उलाहना) रै जासी| थे लोग ई रविवार नै सबेरे ई आ जावो! आपॉं बोला मज्जा (बहुत मज़े) करश्यॉं| आणै की टाईम बता दिए तो थानै लेण बन्दना चली जासी| अच्छा, अब छोड़ री हूँ- जल्दी से जल्दीं आणै की ख़बर दिए; राजी खुसी सै रहिए, सै नै राम-राम बोलिए..’’


आरती और बिल्कीस दोनों ही फ़ोनों को हाथ में थामे, किसी भावलोक में खोई हुईं थीं; कि उस तन्द्रा को चीरती बिल्कीस की आवाज़ गूँजी, ‘‘आरती चल उठ| तुरन्त ज़ाहिदा के घर जाना है| उसका घर तेरे आसपास ही है; विद्यासागर सेतु के नीचे ही कहीं!.. ठहर उसने पता दिया था!.. कहते हुए उसने अपने पर्स से पता लिखी एक छोटी-सी चिरकुट निकाली|


आपस में बिना कोई बात किए दोनों उठीं और चल पड़ीं| आरती ने रास्ते में बच्चों के लिए चॉकलेट और मिठाई का एक बड़ा डिब्बा ख़रीद लिया..|


नई बस्ती में बने एक चारमंजिले छोटे मकान में तीसरे तल्ले पर दो बेडरूम के फ्लैट की घण्टी बजाते ही सामने एक प्यारी से नवयुवती आ खड़ी हुई| पहले उसने आदाब बजाया और फिर नमस्ते करते हुए कहा, ‘‘आंटी, भीतर आइए! मॉं अभी आ रही है|’’ फ्लैट की सज्जा; अति साधारण; अति सुघड़; न बहुतायत; न अभाव; का परिचय दे रही थी|


इतने में साफ-सुथरे कपड़ों में सिर पर हैलमेट लगाए, हाथ में एक ब्राउन ब्रीफ केस लिए रहमान मुस्कुराता हुआ सामने आ खड़ा हुआ| वो बिल्कीस और आरती की उपस्थिति से इतना गद्गद् था कि उसका प्रेम उसे बौराए दे रहा था| उसकी भंगिमा ऐसी थी मानों उसके वर्षों से साधे हुए भगवान अकस्मात् उसके यहॉं आ गए हों| कुछ स्थिर होकर उसने बताया कि यह फ्लैट बनने से पहले ही बुक कर लिया गया था इसलिए ठीक-ठाक दाम में मिल गया; अब तो इसके दाम भी आकाश छू रहे हैं|


बिल्कीस के दिमाग़ में फिर ज़ाहिदा को कहे हुए अपशब्द गूँजने लगे| लेडी मैकबेथ के तरह ही उसके हाथों से भी चिपका हुआ ख़ून छुटाए नहीं छूट रहा था; कि तभी चाय की ट्रे लिए ज़ाहिदा आ गई|


उसके कमरे में घुसते ही बिल्कीस को लगा मानों वह पूरा कमरा एक पवित्र उजास से भर गया है| ज़ाहिदा उसे मॉं धरती के मानिंद लगी जो सबका कष्ट झेलकर भी सबके जीवन को खुशहाल करती है|


मॉं!! को भगवान के समकक्ष माना गया है, पर ज़ाहिदा तो मांओं की मॉं हैं| उन सब दुखियारी स्त्रियों की मॉं हैं, जिनकी जिंदगी को उसने अपने वरद-हस्त से औढ़रदानी शिव की तरह संतान का दान देकर तृप्त किया है| यदि यही भ्रष्ट होना है, तो एक कानून बनाना चाहिए कि इन भ्रष्ट महिलाओं को समाज में अभिनन्दित किया जाए| इन्हें बड़ी उपाधियों से नवाज़ा जाए; आखिर ये वह काम कर रही हैं जिसे करने में स्वयं भगवान भी असफल रहे हैं|


ये देवी हैं प्रकाश की| ‘क़िराए की कोख’ जैसे घटिया शब्द का प्रयोग कर आप अच्छाई की परिभाषा को मत बदलिए! ..ये प्रतीक हैं श्रद्धा की! ममता की! ये जननी हैं! ये मॉं हैं! सार्वभौम मॉं!! समुद्र के आकाश में/ हाथों के डैनों से डूबती-उतराती/ मेरी वनलता ने/अपनी पीठ से झॉंप लिया है गुलाबी सूर्य लिए मॉं धरती सी उसकी काया / सूर्य को पृष्ठभूमि में आश्‍वासित करती है/ अपने अमृत-पुत्रों को/नहीं है मृत्यु!/ नहीं है जरा!/ नहीं है कोई भय!!


सत्य है सिर्फ अभयी का अमरत्व पान!!..



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Kusum_Khemani

|| डॉ. कुसुम खेमानी ||




डॉ. कुसुम खेमानी

जन्म: सितम्बर, 1944

शिक्षा: एम.ए. (फ़र्स्ट क्लास), पीएच.डी. कलकत्ता विश्वविद्याल


सचित्र हिन्दी बालकोश, हिन्दी–अँग्रेज़ी बालकोश, हिन्दी नाटक के पाँच दशक, सच कहती कहानियाँ (कहानी संग्रह), एक अचम्भा प्रेम (कहानी संग्रह), अनुगूँज ज़िन्दगी की (कहानी संग्रह), एक शख़्स कहानी-सा (जीवनी), कहानियाँ सुनाती यात्राएँ (यात्रा-वृत्तान्त), कुछ रेत.. कुछ सीपियाँ.. विचारों की (ललित निबन्ध), लावण्यदेवी (उपन्यास), जड़ियाबाई (उपन्यास), कुसुम खेमानी की लोकप्रिय कहानियाँ (कहानी-संग्रह, प्रभात प्रकाशन दिल्ली), चुनिन्दा कहानियाँ (कहानी-संग्रह, साहित्य भंडार, इलाहाबाद), चुनी हुई कहानियाँ (कहानी-संग्रह, अमन प्रकाशन, कानपुर), कुसुम खेमानी की प्रिय कहानियाँ (कहानी-संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली), गाथा रामभतेरी (उपन्यास), लालबत्ती की अमृतकन्याएँ (उपन्यास), (लावण्यदेवी (उपन्यास) बांग्ला भाषा में बंगलादेश से प्रकाशित एवं जन अरण्य (अमन प्रकाशन) प्रकाशनार्थ।


>>>अनुवाद एवं संपादन:

जन–अरण्य (उपन्यास, शंकर), चश्मा बदल जाता है (उपन्यास, आशापूर्ण देवी) एवं ज्योतिर्मयी देवी के कहानी-संग्रह का अनुवाद एवं संपादन।


>>>कृतियों का अनुवाद शोध एवं सेमिनार:

लावण्यदेवी उपन्यास का अँग्रेज़ी, बाँग्ला, नेपाली, तमिल, मलयालम, ओड़िया, राजस्थानी एवं मराठी में अनुवाद। ‘कहानियाँ सुनाती यात्राएँ’ बांग्ला, राजस्थानी एवं मलयालम में प्रकाशित। लावण्यदेवी उपन्यास में डॉ. एन. जयश्री द्वारा एवं तेलुगु में लावण्य नारला, मराठी में भारती गोरे एवं राजस्थानी भाषा में ज़ेबा रशीद द्वाआ शोध एवं अनुवाद।”सच कहती कहानियाँ’ की कथा-भाषा पर डॉ. सुहासिनी (तमिल), करमजीत कौर (पंजाबी), विनीता सिंह (हिन्दी) एवं अंजना कुकरैती (कन्नड़) द्वारा शोध।


‘रश्मिरथी माँ’ कहानी पर उर्मिला देवी मूवी टोन द्वारा बांग्ला में टेलीफ़िल्म का निर्माण।


डॉ. खेमानी की कहानियों पर सुप्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘लिटल थेस्पियन’ एवं ‘मुद्रा आर्ट्स’ द्वारा नाट्य मंचन।


>>>साहित्यिक भागीदारी:

वर्ष 1996 में मॉरिशस में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें ‘कबीर: एक सतर्क चौकीदार’ आलेख-पाठ को विशेष प्रशंसा प्राप्त; 1998 में बर्लिन (जर्मनी) में ‘फ़ंडामेंटलिज़्म वर्सेस टॉलरेन्स’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में आलेख प्रस्तुति पर दलाई लामा द्वारा विशेष सराहना; 2001 में डरबन (दक्षिण अफ़्रीका) में ‘धर्म: ए वे ऑफ़ लाइफ’ की प्रेस और मीडिया में विशेष चर्चा, नेल्सन मंडेला द्वारा व्यक्तिगत साधुवाद; 2003 में त्रिनीदाद (टोबैगो) में आयोजित हिन्दी सम्मेलन में ’हिन्दी की साहित्यिक विरासत और आधुनिक जगत्‌ में उसकी समीचीनता’ विषय पर आलेख प्रस्तुति; 2006 में न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में ‘सिनेमा: भाषा का सर्वश्रेष्ठ संवाहक’ विषय पर आपकी वक्तृता की मुक्तकंठ से प्रशंसा।


‘साहित्य के उच्च मूल्यों की स्थापना’ (संदर्भ: लावण्यदेवी उपन्यास) विषय पर औरंगाबाद यूनिवर्सिटी द्वारा संगोष्ठी। ‘लावण्यादेवी में दर्शना एवं नारी सशक्तिकरण की मूल्यों द्वारा स्थापना’ विषय पर कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा बड़ी संगोष्ठी आयोजित।


हैदराबाद यूनिवर्सिटी, चेन्नई यूनिवर्सिटी, एस ऐन डी टी वाई यूनिवर्सिटी, यादवपुर यूनिवर्सिटी, साहित्य अकादमी आदि में आयोजित साहित्यिक सेमीनार में निरन्तर भागीदारी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वार आहूत सेमीनार में ‘सामाजिक उत्कार्ष एक पहलू’ विषय पर डॉ. खेमानी द्वारा प्रस्तुत आलेख पाठ श्रोतओं एवं विद्वानों द्वारा अति प्रशंसित।


दूरदर्शन व ऑल इण्डिया रेडियो के कार्यक्रमों में लगातार सहभागिता। डॉ. खेमानी के जीवनवृत्त पर ’समावर्तन’ विशेषांक के रूप में प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। लोकप्रिय समाचार पत्र ’सन्मार्ग’ में पिछले तीन वर्षों से रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।


सचित्र हिन्दी-अँग्रेज़ी बाल कोश की 60 हज़ार प्रतियों का विद्यार्थियों में मुफ़्त वितरण।


डॉ. खेमानी विगत 45 वर्षों से सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यों में तन-मन-धन से समर्पित हैं। साहित्य व कला-संस्कृति से सम्बद्ध सरकारी और ग़ैर-सरकारी अनेकानेक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर रहते हुए सक्रिय भागीदारी। मुस्लिम मदरसा एवं मुस्लिम सेवा केन्द्र में हिन्दी-पाठन, एवं हिन्दी के प्रसार में योगदान। कई सामाजिक संस्थाओं की संरक्षिका हैं एवं ज़मीन से जुड़कर काम करती हैं। राजापुर वृद्धाश्रम एवं परित्यक्त लड़कियों के आश्रम का संचालन, करीमगंज में मुस्लिम महिलाओं के लिए उत्थानमूलक कार्यों का निष्पादन उल्लेखनीय है। पौड़ी गढ़वाल में अनुपम मिश्र, सदानन्द भारती आदि के साथ पर्यावरणमूलक कार्यों में आपका अप्रतिम योगदान है। आप श्री शिक्षायतन, कला निलय आदि अनेक शिक्षण संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं। इसके साथ ही मारवाड़ी बालिका विद्यालय तथा मंडावा युवक सभा की अध्यक्षा एवं मंडावाअ कम्प्यूटर केंद्र की संचालिका भी हैं।


डॉ. खेमानी भारतीय भाषा परिषद में विगत 38 वर्षों तक मंत्री पद का दायित्व निष्ठा के साथ निर्वहन करने के पश्चात्‌ संप्रति परिषद की अध्यक्षा हैं। लगभग दो दशकों से परिषद की मासिक साहित्यिक पत्रिका ’वागर्थ’ के संचालन एवं संपादन का उत्तरदायित्व सँभाल रही हैं। इसके साथ ही दस खण्डों में प्रकाशित हो रहे ’हिंदी साहित्य ज्ञानकोश’ की संयोजिका हैं।


>>>सम्मान:

’कुसुमांजलि साहित्य सम्मान’ (दिल्ली), ‘साहित्य भूषण सम्मान’-(उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), ‘हरियाणा गौरव सम्मान’–(हरियाणा साहित्य अकादमी), ‘रत्नदेवी गोइन्का वाग्देवी पुरस्कार’ (मुम्बई), ‘भारत निर्माण सम्मान’, ‘पश्चिमी बंग प्रांतीय मारवाड़ी सम्मेलन पुरस्कार’, ‘कौमी एकता पुरस्कार’, ‘भारत गौरव सम्मन’, (भारतीय वाङ्मयपीठ), ‘समाज बन्धु पुरस्कार’ (मारवाड़ी युवा मंच), ‘अंबिका प्रसाद दिव्य साहित्यिक पुरस्कार’ (भोपाल), ‘लल्लेश्वरी शारदा साहित्य सम्मान (हिन्दी कश्मीरी संगम), उपचार ट्रस्ट पुरस्कार (कोलकाता), मीरा स्मृति पुरस्कार (इलाहाबाद), लल्लेश्वरी पुरस्कार व आचार्य आनंदवर्धन मनीषी साहित्य सम्मान (हिन्दी कश्मीरी संगम, श्रीनगर), ‘देवी अवार्ड’ साहित्य टाइम्स, कोलकता एवं अन्तर्राष्ट्रीय विरांगना पुरस्कार, कोलकाता एवं ’लावण्यादेवी’ उपन्यास के अँग्रेज़ी अनुवाद को पेन अमेरीका लिटाररी अवार्ड का विशेष ग्रांट एवं पं. माधवराव सप्रे छ्त्तीसगढ़-मित्र साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2021


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