व्यंजना

सहजयोग से आत्मबोध

- माधवी पाण्डेय


" अरे, अनु! सुनो बेटा, चार दिन के टूर के बाद तुम्हारे पापा अभी लौटे है, और तुम बाहर चली। कम से कम आज तो बाहर मत जाओ।"


पैरों में सेन्डल पहनते हुए, अनु बोली,"माँ मेरा दोस्तों के साथ मूवी जाने का प्लान है। वो इंतजार कर रहे हैं। वैसे भी अगले तीन दिन पापा का कोई टूर नहीं है। तो हम साथ ही तो रहेंगे ।"


कहते हुए अनु बाहर निकल गई। उसके जाते ही सुधीर बड़बड़ाते हुए कमरे में आए, "कहाँ गई है अनु, कब आएगी पूछा तुमने? तीन तीन लड़कों के साथ ,कैसे कपड़े पहन कर गई है। थोड़ा ध्यान रखा करो। बेटी को संस्कार देना, और,ऊँच नीच सीखना तुम्हारा कर्तव्य है तुम माँ हो समझी। अगर बेटी की जगह बेटा होता तो मैं दो थप्पड़ जड़ कर सीधा कर देता।"


राधिका धीमे स्वर में बोली,"दोस्तों के साथ मूवी गई है जिन्हें हम बचपन से जानते हैं। आठ बजे तक लौट आएगी। वैसे भी इस उम्र में ज्यादा रोक टोक करने से बच्चे विद्रोही हो जाते हैं।" माँ बाप को हमेशा मित्रवत व्यवहार करना चाहिए ।


यह जवाब सुन सुधीर भड़क गए"हाँ, हम तो इस उम्र से कभी गुज़रे ही नहीं। कितना कठोर अनुशासन था। क्या तुम्हारी माताजी होती तो क्या तुम्हे जाने की इजाजत देतीं?"


राधिका बहस में पड़, घर का माहौल खराब नहीं करना चाहती थी इसलिए बिना जवाब दिए, आक्रोश दबाती खाना बनाने लगी।


अनु के लौटने पर राधिका उसे बड़े प्यार से समय पर आने के लिए और डिसेंट कपड़े पहनने के लिए समझाने लगी तो सोलह साल की अनु भड़क गई और अपने अधिकारों की दुहाई दे बोली,"माँ कौन से ज़माने की बात कर रही हो, और क्या बुराई है इन कपड़ों में फिर अभी आठ ही तो बजे है। मुझे संस्कारों की बेढियों में न बाँधो।" वैसे भी मै कोई ऎसा काम नही कर रही जिससे आप का अपमान हो। पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गई।


राधिका निरुत्तर अपने कमरे में लौट आई। सोचने लगी विपिन जब भी घर में रहते हैं, घर का माहौल बोझिल और क्लेशपूर्ण रहता है। छोटी छोटी गल्तियों पर आगबगुला होते है और सुनाने लगते है कि घर पर रहती हो, कुछ तो ध्यान रखा करो। ऐसा नहीं है कि राधिका स्वेच्छा से वर्क फ्रॉम होम कर रही है। दोनो पति पत्नी अगर टूरिंग जॉब करेंगे तो घर और बच्ची का ख्याल कौन रखेगा सोच राधिका ने मार्केटिंग जॉब छोड़ कर टेक्निकल प्लेसमेंट ली जबकि मार्केटिंग में इंसेंटिव और प्रोमोशन बेहतर है। दिन भर घर में रहते हुए उसे लगने लगा है कि उसका सामाजिक और सोच का दायरा संकीर्ण होता जा रहा है। जीवन भी नीरस सा लगने लगा है। उस पर विपिन को लगता है कि राधिका आरामदायक जीवन जी रही है और वो शहर शहर खटता है। बाप बेटी के जनरेशन गैप के बीच वह पंचिंग बैग बन गई है। और ये अनिद्रा की नई बीमारी लग गई है, जिस नींद में जा कर सारी परेशानी ओझल हो जाती थी वह भी अब गायब हो गई है।


यह सोचते सोचते सुबह हो गयी । राधिका चाय बना कर अखबार उठाने लगी तभी हाथ में एक लीफलेट आई, सोसायटी प्रांगण में प्रातः कालीन बीस दिन का ध्यान शिविर जिससे अनिद्रा जैसे रोग से निजात मिलेगी।


राधिका ने तुरन्त शिविर में रजिस्ट्रेशन कराया। हर सुबह नितांत निजी, अपने तन,मन और अंतर्मन के साथ वह आध्यात्मिक माहौल में रमने करने लगी।वाह,अद्भुत! सहजयोग से आत्मबोध होने लगा और उसका तीसरा नेत्र खुलने लगा, जिसके खुलने का सोच से पहले वह डरती थी, उसे लगता था कि उसके खुलने से प्रलय आ जाएगा। वह भी विपुल और अनु को उनके ही लहज़े में जवाब देने लगेगी ।पर ये क्या , उसे तो आत्म बोध होने लगा ,उसका खोया हुआ आत्म विश्वास वापस आने लगा। उसे आभास हुआ कि विपिन और अनु उसके जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से है, पर संपूर्ण जीवन नहीं। उसके जीवन की संपूर्णता तो स्वयँ से है। स्व इच्छा को परिपूर्ण कर उसे आत्म उन्नति का प्रयास करना है, जीवन को संपूर्णता से जीना है । इस आत्म चेतना और विश्वास से भरी राधिका दिन प्रतिदिन नए कीर्तिमान गढ़ रही थी। जिसे देखना विपिन और अनु के लिए भी सुखद आश्चर्य है। अनु और विपिन भी सहजयोग से आत्मबोध को प्राप्त कर सहजता पूर्वक जीवन जीने को प्रेरित हुए ।


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Madhvi

|| माधवी पाण्डेय ||


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