मंतव्य (पत्रिका) विशेष प्रस्तुति-६
अंध-कंध कवि भीम भोई- दिनेश कुमार माली
संपादक- हरे प्रकाश उपाध्याय
संपर्क - महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास, कृष्णा नगर, लखनऊ-२२६०११
मूल्य -100 रुपये
सुपरिचित लेखक दिनेश कुमार माली ने इस कृति में बहुत ही सरल औपन्यासिक संरचना में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी अलहदा चेतना, सोच और सक्रियता से ओड़िशा प्रांत के कुछ हलकों में उथल-पुथल मचा देने वाले संत कवि-समाज सुधारक भीम भोई के जीवन और दर्शन को सामने रखा है। लेखक ने अपने उपन्यास का शिल्प ऐसा चुना है, जिससे संत कवि से जुड़ी सारी जानकारियाँ बहुत विश्वसनीय व रोचक तरीके से पाठकों के सामने आती हैं। इस कृति में लेखक भी एक पात्र बनकर उतरता है, मगर वह अतिरिक्त हस्तक्षेप करने की जगह सारी बातें संत कवि के मुँह से ही कहलवाता है, उसकी भूमिका महज एक संयत सूत्रधार की भूमिका है, जो कथा को बहकने नहीं देती है। इस कृति में संत कवि स्वयं अपनी आत्मकथा सुना रहे हैं। कथा को विश्वसनीय व रोचक बनाने के लिए इससे बेहतर शिल्प भला क्या हो सकता है! हालांकि लेखक ने कथा के लिए जो विषय व प्रसंग चुना है, वह काल्पनिक नहीं है, वह तथ्याधारित है, अत: उपन्यास कला के हिसाब से लेखक के पास अपनी कलात्मकता दिखाने या कल्पना की उड़ान भरने का बहुत ज्यादा स्कोप नहीं था। बावजूद इस सीमा के लेखक ने जितना संभव था, उतनी रोचकता कथा में भर दी है।
जिस शख्सियत के बारे में लेखक ने यह आख्यान रचा है, हालांकि उनका काल बहुत पुराना नहीं है, करीब डेढ़-पौने दो सौ साल पहले की ही बात है, मगर उनके बारे में जानकारियों का नितांत अभाव है। ओड़िशा से बाहर तो शायद बहुत लोग उनके बारे में जानते भी नहीं हैं, ओड़िशा में भी कुछ हलकों में ही उनकी लोकप्रियता है। उनके अनुयायियों के पास भी उनके बारे में विस्तृत जानकारियों का अभाव है। इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि उनके बारे में खास लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। दरअसल इतिहास भी कमजोर सामाजिक तबकों से आकर कठिनतर संघर्ष कर लीक से हटकर चलने, बोलने व सोचने वाले नायकों के प्रति कहाँ न्याय कर पाता है। भीम भोई एक गरीब कंध आदिवासी परिवार में पलते हैं। उनके जन्म के बारे में भी कुछ अता-पता नहीं है। उनके माता-पिता के बारे में कुछ अता-पता नहीं है। जो आदिवासी पालक पिता हैं, उनकी भी जल्दी ही मृत्यु हो जाती है और पालक माँ अपने देवर से दूसरी शादी कर लेती है। इसके बाद माँ का दूसरा पति या चाचा उस बालक को मार-पीट कर घर से निकाल देता है। इतना ही नहीं बल्कि माना यह भी जाता है कि वे जन्मांध थे। सहज कल्पना की जा सकती है कि कैसा रहा होगा उनका बचपन और बाद का जीवन। घोर गरीबी व विस्थापन में जहाँ खाने के लाले पड़े हों, वहाँ शिक्षा या बाकी व्यवस्था की बात सोची भी नहीं जा सकती। पर कुछ व्यक्तित्वों में नैसर्गिक प्रतिभा होती है। जैसे हमारे अनेक संत कवियों में रही है, चाहे कबीर हों, तुलसी, सूर, रैदास वगैरह। कुछ वैसी ही प्रतिभा के धनी रहे होंगे भीम भोई भी। वे अपनी रचनाओं में अपने गुरु का आदर के साथ बखान करते हैं। उन्हें योग्य गुरु मिला, गुरु की कृपा मिली और उन्होंने अपने जीवन का मार्ग हासिल किया। हालांकि अनेक प्रश्नों पर वे अपने गुरु से भी असहमत होते हैं। जैसे स्त्रियों के सवाल पर। वे अपने गुरु की तरह स्त्रियों को नरक का द्वार नहीं समझते बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में चाहे वह अध्यात्म ही क्यों न हो, स्त्रियों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। इस कारण उन्हें अनेकश: फजीहत भी झेलनी पड़ती है पर वे अपने मार्ग व जीवन से स्त्रियों को दूर नहीं करते।
भीम भोई अपने चिंतन व जीवन में काफी क्रांतिकारी हैं, वे ईश्वर, राजा, ब्राह्मण, वैश्य और संस्कृत सब पर सवाल उठाते हैं। ये उस समय की वर्चस्वशाली सत्ताएं थीं, जिनसे भीम जूझ रहे थे। समाज में जो पद दलित हैं, वंचित हैं, प्रताड़ित हैं, उनकी तरफ से वे लगातार बोलते हैं। यही कारण होता है कि समाज के प्रभु वर्ग की आँखों में वे लगातार खटकते हैं, उनके बारे में अफवाहें फैलाई जाती है, उन्हें बदनाम करने की कोशिशें होती हैं, उन पर तरह-तरह से हमले होते हैं, उन्हें जान से मार देने तक की कोशिशें होती हैं, उनके आश्रम को जला दिया जाता है। उन्हें भागने पर मज़बूर किया गया पर वे झुके नहीं। सच की आवाज़ को उन्होंने निरंतर बुलंद किया। उनके ज़ज़्बे और चिंतन से लोग प्रभावित भी हुए, कुछेक ज़मींदारों ने उन्हें संरक्षण व मदद भी दिया। कहा जाता है कि उनके काव्य को लिपिबद्ध करने का काम भी चार ब्राह्मणों ने ही मिलकर किया। ऐसा नहीं है कि सच्ची व खरी बात को हमेशा विरोध ही झेलना पड़ता है, उसे समझने व बचाने वाले लोग भी मिलते हैं। भले इतिहास ऐसी प्रतिभाओं को नज़रअंदाज करने की कोशिश करे मगर लोक ऐसे लोगों के बारे में चमत्कारिक कहानियाँ गढ़ कर उनकी जड़ों को इतने गहरे तक फैला देता है कि उन्हें उखाड़ना, हटाना या भूल जाना मुश्किल होता है। भीम भोई के बारे में भी लोक ने दंत कथाएं और किंवदंतियाँ गढ़ कर उन्हें अवतार बना दिया है। हालांकि इसमें दिक्कत यह होती है कि वस्तुगत यथार्थ काफी नीचे चला जाता है और सच-झूठ का ऐसा घालमेल सतह पर होता है कि सच का अन्वेषण करने वाले शोधार्थियों के लिए जटिल चुनौती पेश आती है।
हालांकि उनके द्वारा चलाए गए महिमा धर्म का जो स्वरूप है, उसमें आज भी मूर्ति-पूजा व कर्मकांड की कोई जगह नहीं है। सामाजिक भेदों का स्पेस नहीं है। उनके उपलब्ध गीतों व प्रार्थनाओं का जो चिंतन है, वह काफी क्रांतिकारी है। हालांकि हर पंथ या धर्म में समय के साथ बुराइयाँ शामिल होती चली जाती हैं और महिमा धर्म भी इससे अछूता नहीं कहा जा सकता। ऐसे में ज़रूरत है कि भीम भोई के वास्तविक चिंतन को तलाशा जाए, उसे व्याख्यायित किया जाए और समकालीन रूप में जनता के सामने लाया जाए। किसी भी रचनाकार पर अपने समय का काफी दबाव होता है, भीम भोई पर भी रहा होगा पर बहुत कुछ ऐसा उनके चिंतन में आज भी होगा, जो हमें दिशा दे सकता है, हमारा भला कर सकता है।
दिनेश कुमार माली जी को धन्यवाद देना होगा कि उन्होंने इस दिशा में प्रयास किया है। मगर ज़रूरत है कि जिस संत के चिंतन को तत्कालीन प्रभु वर्ग और मौजूदा इतिहास ने दबाने-छुपाने की कोशिश की, उसे और सचेत ढंग से सामने लाया जाए। उन पर बात हो। ‘मंतव्य’ की यह विशेष प्रस्तुति उसी दिशा में एक कोशिश मानी जा सकती है।
हरे प्रकाश उपाध्याय
मो.08756219902