व्यंजना

उष्ण मरुस्थल

- सुरेश बाबू मिश्रा


प्रदीप कुमार अपने परिवार के साथ बाजार से खरीदारी करके घर लौट आये थे। उनकी रिश्तेदारी में एक शादी थी। उसी सिलसिले में सबको कपड़े दिलवाने वे बाजार गये थे।


उनकी पत्नी सीमा ने आठ हजार रुपये की साड़ी पसन्द की, मगर इतनी धनराशि प्रदीप कुमार के बजट से बहुत ज्यादा थी। इसलिए वे सीमा को पांच हजार रुपये की साड़ी ही दिलवा पाये थे। सीमा को यह अपनी बेइज्जती लग रही थी और उनका मुँह फूला हुआ था। वे सीधे अपने कमरे में गईं और भड़ाक से किबाड़ बन्द कर ली।


उनकी बेटी भी अपने कपड़ों से ज्यादा खुश नहीं थी इसलिए वह भी पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गयी। उन्होंने अपने बेटे के लिए अपनी हैसियत के हिसाब से बहुत अच्छे कपड़े दिलवाये थे। मगर उनका बेटा नये स्टाइल के कपड़े चाहता था। जिनकी कीमत बहुत ज्यादा थी। इसलिए उसका मूड उखड़ा हुआ था। वह नाराजगी भरे स्वर में अपने पापा से बोला, ‘‘सब बच्चों के पापा अपने बच्चों के लिए उनकी पसन्द के कपड़े दिलवाते हैं। मगर आपको तो हम लोगों की फीलिंग्स की कोई चिन्ता ही नहीं है पापा।’’


सबके व्यवहार से प्रदीप कुमार बड़े आहत थे। इन सबके चक्कर में वे अपनी माँ के लिए बहुत सस्ती सी साड़ी ही खरीद पाये थे। वे साड़ी लेकर माँ के कमरे की ओर चल दिये। माँ के लिए इतनी सस्ती साड़ी ले जाते हुए उन्हें बड़ी ग्लानि हो रही थी। सकुचाते हुए उन्होंने साड़ी माँ की ओर बढ़ा दी। साड़ी देखकर माँ बोलीं, ‘‘बड़ी सुन्दर साड़ी है बेटा, मगर मेरे लिये नई साड़ी की क्या जरूरत थी, तू अपने लिए कुछ ले आता।’’


माँ के प्यार भरे इन शब्दों को सुनकर प्रदीप कुमार को ऐसा लगा कि मानो रिश्तों के उष्ण मरुस्थल में कहीं से शीतल हवा का झोंका आ गया हो।


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कद

- सुरेश बाबू मिश्रा


कमलनाथ आॅफिस जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपना बैग उठाया और अपनी पत्नी विनीता के कमरे की ओर गए। अपने ममेरे भाई शैलेन्द्र और अपनी पत्नी की हंसी की आवाज को सुनकर उनके कदम ठिठक गए।


तभी शैलेन्द्र की आवाज सुनाई पड़ी, “भाभी! भइया की यह हालत मुझसे देखी नहीं जाती। हमें उन्हें सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए।“


“मुझे सब कुछ अपने आप पता चला जाएगा, तुम्हें बताने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी बच्चू।“ कमलनाथ मन ही मन बुदबुदाए। उनके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कराहट तैर गई।


“विनीता मेरा मोबाइल नहीं मिल रहा है। देखना कहीं तुम्हारे कमरे में तो नहीं हैं? यह कहते हुए कमलनाथ कमरे में पहुंच गए।


विनीता और शैलेन्द्र दोनों बैड पर बैठे हुए थे और आपस में हंस-हंस कर बातें कर रहे थे। विनीता ने मोबाइल ढूंढ़कर कमलनाथ को पकड़ा दिया।


कमलनाथ आफिस के लिए चल दिये। वे बड़े तनाव में थे। शैलेन्द्र उनका ममेरा भाई था। पिछले पांच-छः दिनों से वह उनके यहां ठहरा हुआ था। कमलनाथ की शादी के पाँच-छः वर्ष हो गए थे। शादी के बाद शैलेन्द्र पहली बार उनके घर आया था। शैलेन्द्र ने विनीता को शादी में ही देखा था मगर विगत पाँच-छः दिनों में दोनों इतने घुल-मिल गए थे कि मानो कि एक-दूसरे को वर्षों से जानते हैं। दोनों हर समय साथ-साथ रहते और एक पल के लिए भी एक-दूसरे से अलग नहीं होते। घन्टों बैड पर बैठकर बातें करते, हंसते, खिलखिलाते, टी.वी. पर साथ-साथ पिक्चर और सीरियल देखते। कमलनाथ के मन में दोनों की यह नजदीकी कांटे की तरह चुभती। दोनों के बीच देवर-भाभी का रिश्ता था। इसलिए वे किसी से कुछ कह भी नहीं सकते थे। दोनों के बीच क्या खिचड़ी पक रही है यह जानने के लिए आज उन्होंने अपना मोबाइल रिकार्डिंग पर लगाकर विनीता के बैड पर रख दिया था।


कमलनाथ मोबाइल में रिकार्ड दोनों के बीच हुई बातचीत सुनने के लिए बड़े बेताब थे। उन्होंने घड़ी पर नजर डाली अभी आफिस खुलने में बीस मिनट बाकी थे। एक जगह सड़क पर भीड़-भाड़ कम देखकर मोटरसाइकिल खड़ी की और मोबाइल आॅन कर रिकार्डिंग सुनने लगे। वे जैसे-जैसे मोबाइल में दर्ज बातें सुन रहे वैसे-वैसे उनके चेहरे का रंग बदलता जा रहा था।


विनीता की आवाज थी-“दाम्पत्य जीवन में शान्ति बनाए रखने के लिए पत्नी अपने सीने पर पत्थर की शिला रख लेती है मगर पति अपने सीने पर छोटा सा कंकड़ भी बर्दाश्त नहीं कर पाता है। शादी के बाद वह अपनी लेडीज सहकर्मियों के साथ अक्सर पिक्चर या सैर सपाटे को जाते थे। इन्होंने कभी नहीं सोचा कि ऐसे में मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी। उन्हें यह अहसास कराने के लिए तुम्हारी मदद से हम दोनों के बीच नजदीकी दिखाने का नाटक किया तो जनाब कितने बेचैन हो उठे हैं। इन्हें ना अपने भाई पर विश्वास है और न अपनी पत्नी पर। इन्हें लग रहा है कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई चक्कर चल रहा है।“


कमलनाथ को अपने ऊपर बड़ी ग्लानि हो रही थी। उन्हें अपनी तुलना में विनीता का कद बहुत बड़ा लग रहा था।


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बर्थ डे गिफ्ट

- सुरेश बाबू मिश्रा


बैंक के सामने चाय की दुकान पर बूढ़ा आदमी बैठा हुआ था। वह बार-बार अपनी बैंक पासबुक उलट-पलट कर देख रहा था। वह मन ही मन कुछ बुदबुदा रहा था। उसके झुर्रीदार चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं।


उसी समय दो छात्र रोहित और शेखर वहां से गुजरे। वे दोनों स्कूल से लौट रहे थे। बूढ़े को परेशान देखकर दोनों रुक गए। रोहित ने बूढ़े से पूछा, “बाबा आप बड़े परेशान दिखाई दे रहे हो, क्या बात है ?“


बूढ़े ने एक नजर दोनों पर डाली फिर वह बोला, “बेटा ! मेरी पोती बहुत बीमार है। कल से उसे उल्टी-दस्त हो रहे हैं। आज मैं गांव से उसे यहां शहर में दिखाने लाया था। डाॅक्टर साहब इलाज के लिए दो हजार रुपए मांग रहे हैं। बिना पूरा पैसा जमा किए वे इलाज करने को तैयार नहीं हैं।“ बूढ़ा दयनीय स्वर में बोला।


मगर बाबा! आप पोती को अस्पताल में छोड़कर यहां बैंक के सामने क्यों बैठे हैं ?“ रोहित ने हैरानी से पूछा।


“बेटा ! मैंने दो साल पहले इस बैंक में तीन हजार रुपए जमा किए थे। पिछले साल जरूरत पड़ने पर मैंने एक हजार रुपए निकाल लिये थे। आज बाकी दो हजार रुपये निकालने जब मैं बैंक आया तो कैशियर और मैनेजर साहब ने बताया कि तुम्हारे खाते से छः सौ रुपए कट गये हैं। ऐसा कैसे हो सकता है बेटा ?“ बूढ़े ने रेहित की ओर देखते हुए पूछा।


रोहित ने बूढ़े की बैंक पासबुक लेकर उसे ध्यान से देखा। पिछले छः महीने से उसके खाते में न्यूनतम धनराशि से कम जमा होने के कारण उसके खाते से हर महीने सौ रुपए की कटौती की गई थी।


बूढ़ा बोला, “अगर पूरे रुपए जमा नहीं हुए तो मेरी पोती का इलाज कैसे होगा ?“ उसके स्वर से गहरी निराशा टपक रही थी।


रोहित ने मन ही मन कुछ निश्चय कर बूढ़े से उसकी पासबुक ली और यह उससे यह कह कर बाबा आप यही ठहरो, मैं बैंक मैनेजर से बात करके आता हूँ।


थोड़ी देर बाद रोहित वापस आया और बूढ़े से बोला, “बाबा, मैंने आपकी पासबुक ठीक करा दी है। अब आप अपने पूरे रुपए निकाल सकते हो।“


बूढ़े को बड़ा अचरज हुआ। वह रोहित के साथ बैंक में गया और काउन्टर पर कैशियर ने बूढ़े को पूरे दो हजार रुपए दे दिए। बूढ़ा रोहित को ढेरों आशीषें देकर चला गया।


बूढ़े के जाने के बाद शेखर ने रोहित से पूछा, “मगर यह चमत्कार हुआ कैसे ? तुमने उसकी पासबुक की एंट्री कैसे ठीक कराई ?“


रोहित बोला, “आज मेरा बर्थ डे है। आज स्कूल आते समय माँ ने बर्थ डे गिफ्ट लाने के लिए मुझे छः सौ रुपए दिए थे। बूढ़े की परेशानी देखकर मैं अपने को रोक नहीं सका और मैंने माँ के दिए वे रुपए उसके खाते में जमा कर दिए। “क्या ?“ शेखर ने अचरज से रोहित की ओर देखा। रोहित बोला, “एक गरीब बूढ़े आदमी की आशीष से अच्छा बर्थ डे गिफ्ट मेरे लिए क्या हो सकता है ?“


शेखर अब भी हैरानी से रोहित को देख रहा था।


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रिमोट वाली गुड़िया

- सुरेश बाबू मिश्रा


खिलौनों की दुकान पर आज खिलौनों की नई वैरायटी आई थी। दुकान के मालिक ने दुकान पर काम करने वाले नौकर सुरजीत से कहा कि वह नई वैरायटी के खिलौनों को काउन्टरों पर सही तरह से सजा दे। सुरजीत इस काम मंे लग गया। उसकी उम्र लगभग दस साल थी। एक एक्सीडेन्ट मंे पिता के निधन के बाद वह इस दुकान पर काम करने लगा था। माँ कुछ घरों में बर्तन साफ करने का काम करती थी।


सुरजीत दुकान में बड़ी लगन और मेहनत से काम करता था इसलिए मालिक उससे बड़े खुश रहते थे। वह नए खिलौनों को काउन्टरों पर लगाने के काम में मगन था। अचानक डिब्बे में एक गुड़िया देखकर वह उछल पड़ा। वह लगातार उस गुड़िया को देख रहा था। कल सुबह की घटना उसकी आँखों के सामने ताजा हो उठी। उसकी छोटी बहिन रज्जो ने कल पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली को ऐसी ही गुड़िया से खेलते देखा। घर जाकर रज्जो माँ से अपनी सहेली जैसी गुड़िया दिलाने की जिद करने लगी।


माँ ने बहलाकर, पुचकार कर काफी देर तक उसे समझाने की कोशिश की। मगर रज्जो गुड़िया दिलाने की रट लगाए रही। माँ को काम पर जाने के लिए देर हो रही थी, इसलिए उन्हें गुस्सा आ गया। गुस्से में उन्होंने रज्जों के गाल पर चार-पाँच तमाचे जड़ दिए। रज्जो फफक-फफक कर रो पड़ी। वह चिल्ला रही थी-“पापा आप कहाँ चले गए ?“ जल्दी वापस आ जाओ। माँ मुझे गुड़िया नहीं दिला रही है।“ रज्जो को इस तरह रोता-बिलखता देख सुरजीत का कलेजा मुंह को आ रहा था।


तभी मालिक की आवाज सुनकर सुरजीत की तन्द्रा भंग हुई और वह फिर से अपने काम में लग गया। तभी मालिक उसके पास आए और उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले, “क्या बात है सुरजीत ? यह गुड़िया देखकर तुम किस सोच में पड़ गए ?“


सुरजीत ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने मालिक से पूछा, “सर! यह गुड़िया कितने रुपए की है ?“ मालिक ने बताया। “मगर तुम यह क्यों पूछ रहे हो।“


“सर! मैं अपनी छोटी बहिन के लिए यह गुड़िया लेना चाहता हूँ।“ सुरजीत ने दबी जुवान से कहा।


मालिक सोच में पड़ गए। फिर वे बोले, “तुम यह गुड़िया ले जा सकते हो मगर इसके एवज में तुम्हें एक महीने तक रोज दो घन्टे ओवर टाइम करना पड़ेगा। “सर! मैं इसके लिए तैयार हूँ।“ सुरजीत खुश होते हुए बोला।


शाम को जब सुरजीत रिमोट वाली गुड़िया लेकर घर पहुंचा और उसने गुड़िया रज्जो को दी तो वह खुशी से उछल पड़ी। वह सुरजीत की गर्दन से लिपट गई। रज्जो को लग रहा था। मानो उसे दुनिया भर की दौलत मिल गई हो।


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कढ़ा हुआ रूमाल

- सुरेश बाबू मिश्रा


तिनसुखिया मेल के ए.सी. कोच में बैठे प्रोफेसर गुप्ता कोई पुस्तक पढ़ने में मशगूल थे। वे एक सेमीनार में भाग लेने गौहाटी जा रहे थे।


सामने की सीट पर बैठी एक प्रौढ़ महिला बार-बार प्रोफेसर गुप्ता की ओर देख रही थी। वह शायद उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही थी। जब वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई तो वह उठकर प्रोफेसर गुप्ता की सीट के पास गई और उनसे शिष्टता पूर्वक पूछा-“सर! क्या आप प्रोफेसर गुप्ता हैं ?“


यह अप्रत्याशित सा प्रश्न सुनकर प्रोफेसर गुप्ता असमंजस में पड़ गए। उन्होंने महिला की ओर देखते हुए कहा-“मैंने आपको पहचाना नहीं मैडम।“


“मेरा नाम माधवी है और मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हूँ। मेरी एक सहेली थी प्रोफेसर शिवानी।“ वह महिला बोली।


“थी से आपका क्या मतलब है ?“ प्रोफेसर गुप्ता ने उनकी ओर देखते हुए पूछा। वह अब इस दुनिया में नहीं है। उसने किसी को अपनी किडनी डोनेट की थी। उसी दौरान शरीर में सेप्टिक फैल जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी।


“क्या ?“ प्रोफेसर गुप्ता का मुँह आश्चर्य से खुले का खुला रह गया था।


“जी सर! उसे शायद अपनी मृत्यु का अहसास पहले ही हो गया था। मरने से दो दिन पहले उसने मुझे यह रूमाल और एक पत्र आपको देने के लिए कहा था। उसके द्वारा दिए हुए पते पर मैं आपसे मिलने दिल्ली कई बार गई मगर आप शायद वहां से कहीं और शिफ्ट हो गये थे।“ यह कहकर उन्होंने वह रूमाल और पत्र प्रोफेसर गुप्ता को दे दिया।


वह महिला जाकर अपनी सीट पर बैठ गई। प्रोफेसर गुप्ता बुत बने अपनी सीट पर बैठे थे।


तिनसुखिया मेल अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और उससे भी तेज रफ्तार से अतीत की स्मृतियां प्रोफेसर गुप्ता के मानस पटल पर दौड़ रही थीं।


आज से पच्चीस वर्ष पूर्व उनकी तैनाती एक कस्बे के डिग्री कालेज में प्रोफेसर के रूप में हुई थी। कालेज कस्बे से दो-ढाई किलोमीटर दूर था। कालेज में छात्र-छात्राएं दोनों पढ़ते थे। कालेज का अधिकांश स्टाफ कस्बे में ही रहता था।


प्रोफेसर गुप्ता का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था और उनके पढ़ाने का ढंग बहुत प्रभावी। इसलिए छात्र-छात्राएं उनका बड़ा सम्मान करते थे। वे बड़े मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के थे इसलिए स्टाफ में भी उनके सबसे बड़े मधुर सम्बन्ध थे।


एक दिन वे क्लास में पढ़ा रहे थे, तभी चपरासी उनके पास आया और बोला-“सर! प्रिंसिपल सर आपको अपने आफिस में बुला रहे हैं।“


प्रोफेसर गुप्ता सोच में पड़ गये। फिर वे प्रिंसिपल रूम की ओर चल दिए।


उन्हें देखकर प्रिंसिपल साहब बोले-“प्रोफेसर गुप्ता, बी.ए. सेकेण्ड ईयर की छात्रा शिवानी अचानक क्लास मंे बेहोश हो गई है। उसे किसी तरह होश तो आ गया है, मगर अभी उसकी तबियत पूरी तरह ठीक नहीं है। आप ऐसा करिए उसे अपने स्कूटर से उसके घर छोड़ आइए।“


उस समय स्टाफ के दो-तीन लोगों के पास ही स्कूटर था। शायद इसी कारण प्राचार्य जी ने मुझे यह कार्य सौंपा था।


मैं शिवानी को स्कूटर पर बैठा कर कस्बे की ओर चल दिया। हम लोग कस्बे पहुँचने ही वाले थे कि सड़क के किनारे खड़े बरगद के पेड़ के पास शिवानी ने कहा-“सर स्कूटर रोक दीजिए।“


मैंने स्कूटर रोक दिया और शिवानी से पूछा-“क्या बात है शिवानी क्या तुम्हें फिर चक्कर आ रहा है ?“


“मुझे कुछ नहीं हुआ सर, मैं तो आपसे एकान्त में बात करना चाहती थी, इसलिए मैंने कालेज में बेहोश होने का नाटक किया था।“ उसने बड़े भोलेपन से कहा।


“क्या ?“ मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा। फिर मैंने उससे पूछा-“आखिर तुमने ऐसा क्यों किया ? और तुम मुझसे क्या बात करना चाहती हो ?“ सर! मैं आपसे प्यार करती हूँ, और आपको यही बात बताने के लिए मैंने यह नाटक किया था।“ वह मेरी ओर देखकर मुस्करा रही थी।


मैं हतप्रभ खड़ा था। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या कहूँ।


काफी देर तक मैं चुपचाप खड़ा रहा। फिर मैंने उससे कहा-“यह तुम्हारी पढ़ने की उम्र है, प्यार करने की नहीं। अभी तो तुम प्यार का मतलब भी नहीं जानतीं।“


“आप ठीक कह रहे हैं सर। मगर मैं अपने इस दिल का क्या करूं, यह तो आपसे प्यार कर बैठा है।“ वह मेरी ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोली।


“तुम्हें मालूम भी है कि मैं शादी शुदा हूँ और मेरे दो बच्चे हैं। और मेरी तथा तुम्हारी उम्र में कम से कम बीस साल का अन्तर है।“ मैंने उसे समझाते हुए कहा।


“मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है सर। मैं तो केवल एक ही बात जानती हूँ कि मैं आपसे प्यार करती हूँ, बेपनाह प्यार।“ वह दार्शनिक अंदाज में बोली।


मैंने उसे समझाने का हर सम्भव प्रयास किया मगर उस पर मेरी दलीलों का कोई असर नहीं हुआ।


मैंने उससे यह कहकर कि अब तुम ठीक हो इसलिए यहां से अपने घर पैदल चली जाना मैं कालेज लौट गया।


मैंने इसे उसका बचपना समझा और इस बात को गम्भीरता से नहीं लिया। शिवानी किसी न किसी बहाने से मेरे निकट आने और मुझसे बात करने का प्रयास करती रहती, परन्तु वह मुझसे जितना निकट आने का प्रयास करती मैं उतना ही उससे दूर भागता। मैं नहीं चाहता था कि कालेज में यह बात चर्चा का विषय बने।


कस्बे में छोटे बच्चों का कोई कान्वेंट स्कूल नहीं था इसलिए मैं यहां अकेला ही किराए पर रहता था। मेरी पत्नी और बच्चे मेरे घर मम्मी-पापा के साथ रहते थे।


एक दिन शाम का समय था। मैं कमरे पर अकेला बैठा कोई किताब पढ़ रहा था। तभी दरवाजे पर खटखट हुई मैंने उठकर दरवाजा खोला सामने शिवानी खड़ी थी। उसे इस प्रकार अकेले अपने कमरे पर देख मैं गहरे असमंजस में पड़ गया।


इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह कमरे में आकर एक कुर्सी पर बैठ गई। आज पहली बार मैंने उसे ध्यान से देखा। बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र, लम्बा-छरहरा बदन, गोरा चिट्टा रंग और आकर्षक नयन-नक्श। उसके लम्बे घने बाल उसकी कमर को छू रहे थे। सादे कपड़ों में भी वह बेहद सुन्दर लग रही थी।


कमरे के एकान्त में एक बेहद सुन्दर नवयुवती मेरे सामने बैठी है और वह मुझसे प्यार करती है यह सोचकर मेरे मन में गुदगुदी सी होने लगी। मैंने अपने मन को संयत करने का बहुत प्रयास किया मगर मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने में असफल रहा। मन में तरह-तरह की हसीन कल्पनाएं उठने लगीं। मेरे चेहरे का रंग पल-पल बदलने लगा।


इस सबसे बेखबर शिवानी कुर्सी पर शान्त और निश्चल बैठी थी। उसके एक हाथ में सफेद रंग का एक रूमाल था। मैं उठकर उसके पास गया और उसके गालों को थपथपाते हुए उससे पूछा-“शिवानी तुम यहां अकेले क्या करने आई हो ?“


उसने मेरी आँखों में झांककर देखा पता नहीं उसे मेरी आँखों में क्या दिखाई दिया। वह झटके के साथ कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई। उसके चेहरे के भाव एकाएक बदल गये थे। मेरे हाथों को अपने गालों से झटके के साथ हटाते हुए वह बोली-“प्लीज डोन्ट टच मी। आई डोन्ट लाइक दिस।“


मेरे ऊपर पड़ा बुद्धिजीवी का लवादा फटकर तार-तार हो चुका था। शिवानी का यह व्यवहार मेरे लिए अप्रत्याशित था। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या कहूँ ?“


“तुम तो कहती हो कि तुम मुझसे बहुत प्यार करती हो।“ मैंने उसकी ओर देखते हुए कहा।


“हाँ, सर मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ। मगर मेरा प्यार गंगाजल की तरह पवित्र और कंचन की तरह खरा है। उसने दृढ़ स्वर में कहा।


“यह सब फिल्मी डायलाॅग है।“ मैंने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा।


“सर जरूरत पड़ने पर मैं यह साबित कर दूंगी कि आपके प्रति मेरा प्यार कितना गहरा है।“ यह कहकर वह कमरे से चली गयी थी। काफी देर तक मैं अवाक खड़ा रहा था फिर अपने काम में लग गया था।


इसके बाद शिवानी ने मुझसे बात करने या मिलने का प्रयास नहीं किया। मैं भी धीरे-धीरे उसे भूल गया। कुछ समय बाद मेरा उस कालेज से स्थानान्तरण हो गया। सरकारी सेवा होने के कारण कई जगह स्थानान्तरण हुए और अन्त में मैं दिल्ली में सेटल्ड हो गया।


दो साल पहले मुझे किडनी प्रॉब्लम हो गई। कई महीने तक तो डायलिसिस पर रहा फिर डॉक्टरों ने कहा कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के अलावा और कोई चारा नहीं है। मैंने अपने परिवार में इस सम्बन्ध में सबसे बातचीत की। मेरी पत्नी दोनों बेटों और बेटी ने राय दी कि पहले हमें किडनी के लिए विज्ञापन देना चाहिए, हो सकता है कि कोई जरूरतमंद पैसे के लिए अपनी किडनी डोनेट करने के लिए तैयार हो जाये। अगर दो-तीन बार विज्ञापन देने के बाद भी काई डोनर नहीं मिलता है तो हम लोग फिर इस बारे में बातचीत करेंगे।


बेटे ने राजधानी के सभी अखबारों में किडनी डोनेट करने वाले को बीस लाख रुपये देने का विज्ञापन छपवाया। विज्ञापन में मेरा नाम पूरा पता भी दिया गया। विज्ञापन दिये एक महीना हो गया था। जिस अस्पताल मंे मेरा इलाज चल रहा था। एक दिन वहां से फोन आया-“सर आपके लिए गुड न्यूज है, आपको किडनी देने के लिए एक डोनर मिल गई है। उसकी उम्र पैंतालीस साल के करीब है और वह आपको किडनी डोनेट करने के लिए तैयार है, मगर उसकी एक शर्त है कि किडनी ट्रांसप्लांट होने से पहले उसका नाम पता किसी को नहीं बताया जाये।


मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि डोनर अपना नाम पता क्यों नहीं बताना चाहती है। फिर हम सबने सोचा कि शायद उसकी कोई मजबूरी होगी।


ट्रांसप्लांट की सारी फार्मल्टीज पूरी कर ली गईं और नियत तारीख पर मेरी किडनी का ट्रान्सप्लांटेशन हो गया जो पूरी तरह से सफल रहा।


इसके कई दिन बाद जब मैं अपने को काफी सहज अनुभव करने लगा तो मैंने एक दिन डॉक्टर साहब से पूछा-“डाक्टर साहब वह लेडी कैसी है जिन्होंने मुझे अपनी किडनी डोनेट की थी।“


कुछ देर तक डाक्टर साहब खामोश रहे फिर वे बोले-“वह लेडी तो परसों बिना किसी को कुछ बताये अस्पताल से चली गई। हैरानी की बात यह है सर कि वह अपनी डोनेशन फीस भी नहीं ले गई।


“क्या ?“ मेरा मुँह विस्मय से खुले का खुला रह गया था। जब मैंने यह बात अपने परिवार के लोगों को बताई तो उन सबको बड़ी हैरानी हुई। हम लोगों को यह बात समझ मंे ही नहीं आ रही थी कि आज के इस आपाधापी के दौर मंे बीस लाख रुपये ठुकरा देने वाली यह लेडी आखिर कौन थी ? काफी दिनों तक मैं इसी उधेड़बुन में रहा। मैंने उस लेडी का पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की मगर इसके बारे में कुछ पता नहीं चला।


“आपको कहां तक जाना है सर। अचानक टी.टी.ई. ने आकर प्रोफेसर गुप्ता की तन्द्रा को भंग कर दिया। वे अतीत से वर्तमान में लौट आए। टिकट चेक करने के बाद टी.टी. चला गया।


प्रोफेसर गुप्ता ने वह रूमाल उठाया जो शिवानी ने उन्हें देने के लिए प्रोफेसर माधवी को दिया था। उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की। यह शायद वही कढ़ा हुआ रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने उनके कमरे पर आई थी। सफेद रंग के उस रूमाल के एक कोने में सुनहरे रंग से एस. कढ़ा हुआ था। एस. यानी शिवानी के नाम का पहला लेटर।


अब प्रोफेसर गुप्ता को डोनर की सारी पहेली समझ में आ गई थी। उन्होंने रूमाल मंे रखे हुए तुड़े-मुड़े पत्र को खोलकर पढ़ा, लिखा था-


प्रोफेसर साहब,


आपका जीवन मेरे लिए बहुत बहुमूल्य है इसलिए मैंने अपने जीवन को संकट में डालकर आपके प्राणों को बचाया। मगर मैंने ऐसा करके आप पर कोई एहसान नहीं किया। मुझे तो इस बात की खुशी है कि मैं जिसे हृदय की गहराइयों से प्यार करती थी उसके किसी काम आ सकी।


आपकी शिवानी


पत्र पढ़कर प्रोफेसर गुप्ता का मन गहरी वेदना से भर उठा था। शिवानी का यह निःस्वार्थ प्यार देखकर उनकी आँख से आँसू बहने लगे। उन्होंने शिवानी का दिया हुआ रूमाल उठाया और उससे अपने आँसुओं को पोछने लगे। ऐसा करके शायद उन्होंने शिवानी के अमर प्रेम को स्वीकार कर लिया था।


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|| सुरेश बाबू मिश्रा ||


सुरेश बाबू मिश्रा

बरेली (उ.प्र.)

शिक्षा: एम.ए. (भूगोल, अंग्रेजी), बी.एड.

पद: सेवा निवृत्त प्रधानाचार्य, राजकीय इंटर कॉलेज, बरेली।


>> प्रकाशित कृतियाँ:

थरथराती लौ,लहू का रंग,बलिदान की कहानियाँ,आविष्कार की कहानियाँ,साकार होते सपने,संघर्ष का बिगुल,उजाले की किरन,जानलेवा धुआँ,ज़मीन से जुड़े लोग।


>> सम्पादन:

वाणी एवं सृजन (वार्षिक पत्रिका)


>> पूर्व में प्राप्त पुरस्कार/सम्मान आदि का विवरण:

“कथादेश“नई दिल्ली द्वारा आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता-2017 में द्वितीय पुरस्कार (लघुकथा, “समाधान” हेतु)।

“प्रेरणा अंशु“दिनेशपुर उत्तराखंड द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार (लघुकथा, “सोता रहा पुलिसिया” हेतु)।

शब्दांगन सामाजिक एवं साहित्यिक संस्था बरेली द्वारा पांचाल साहित्यशिरोमणि सम्मान।

रोटरी क्लब ऑफ़ बरेली साउथ द्वारा रुहेलखण्ड कहानी गौरव सम्मान।

मानव सेवा क्लब बरेली द्वारा-कहानी श्री सम्मान-2015

श्रीमदार्यावर्त विद्वत परिषद, प्रयाग द्वारा-सम्मानपत्रम्।

इनवर्टिस यूनिवर्सिटी द्वारा रुहेलखण्ड रत्न अवार्ड-2015

श्री सिद्धिविनायक ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स द्वारा पांचाल रत्न अवार्ड-2014

भारतीय पत्रकारिता संस्थान, बरेली उत्तर द्वारा साहित्य श्री सम्मान-2016

भारतीय सेवक समाज द्वारा नीरज वाला स्मृति सम्मान।

हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा कथा श्री सम्मान-2018

>>> उपलब्धियाँ:

लेखन एवं प्रकाशन 1984 से निरंतर जारी;

देश के विभिन्न समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में लगभग 150 कहानियाँ एवं लेख प्रकाशित;

आकाशवाणी रामपुर एवं बरेली से कहानी, वार्ता एवं नाटक प्रसारित;

दूरदर्शन बरेली से वार्ता, परिचर्चा एवं साक्षात्कार का प्रसारण।

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