व्यंजना

अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी की कविताएं


हुई स्वाह

नैनों के साहिल पर सहमा आँसू आकर रुक जाता सा

जब उन कंठो की कटु वाणी मेरे कानो में गूंजती थी

जब सख़्त हाथों की थपेड़ मेरे शरीर पर बजती थी

कहाँ थे वह अम्मा बापू, वह सखियाँ सहेलियाँ, वह नाते रिश्तेदार

जब अंगारों से मेरी डोली सजती थी

गरीब घर की जायी थी

अमीरों के घर ब्याही थी

सुखी संतुष्ट जीवन के स्वप्न लिए

मैं इस आँगन में आयी थी

दो बाँटो मे पिसती सी मैं

एक तरफ मायका

जहां अब मेरी ज़रुरत नहीं

तो एक ओर ससुराल

जहां मेरी कोई कीमत नहीं

अम्मा की सारी सीखें माने

घर को स्वर्ग बनाने की ठाने

पिसती रही मैं सालों साल

बदहवास और बदहाल

दया की भीख मांगी थी मैंने

जब जब उधड़ती मेरी खाल

खबरों में सुनती थी

अख़बारों में पढ़ती थी

दहेज प्रथा ने कईयों को निगला

आज भी विश्वास नहीं होता

की मेरा भाग्य भी ऐसा निकला

मैंने मुक्ति की गुहार लगायी

तो घरवालों को मुझ पर दया आई

कल रात कर दिया गया मेरा दाह

दहेज़ की भट्टी पर

स्वाह हुई एक और बेगुनाह

बाल श्रमिक

अनकहे कुछ ख्याबों के रेले

तम की गहराईयों से डूबते तरते

टूटे पंख कुछ मैले कुचैले

उड़ान की चाह में हैं फड़फड़ाते

न माँ बाप बचे जो पालते

न कोई रिश्तेदार थे जो पुचकारते

अपने अस्तित्व के संग्राम में बेबस

अपने बचपन को लुटाते

कभी दिन भर कप-प्लेटों के ढेर से लड़ते जूझते

मालिक की फटकारों से ही भरते पेट

और रात को कचरे की पेटी में खज़ाना ढूंढ

नींद की आस में फुटपाथ पर ठिठुरते- सहमते

कभी अमीरों के घर आसरा तलाशते

वहां अपने हम-उम्र की सहूलियत का साधन बन जाते

उन नसीबों वालो की दुनिया को

कतराकर परदे की आड़ से निहारते

तब अनकहे कुछ ख्याबों के रेले

तम की गहराईयों से डूबते तरते

टूटे पंख कुछ मैले कुचैले

उड़ान की चाह में हैं फड़फड़ाते

कभी ईंट, रोड़ी, गिट्टी का बोझा

अपने नाजुक सर पर उठाते

और उसी भार से दोहरे हो

हर रोज़ उन संकरी अस्थिर सीढ़ियों पर

लड़खड़ाते संभलते संभालते, मौत को लुभाते

कभी कारखाने की असहनीय तपिश में

अपने दिन और रैन बिताते

धौंकनी से चलते फेफड़े और

नित दिन हाथों में फूंटते नए छाले

तिल तिल कर जीवनरेखा को मिटाते

महानगर की इन गलियों से

कई बार सितारे भी हैं उभरते

ट्रैफिक सिग्नल पर मैगज़ीन बेचते हाथ

इन चमकदार तस्वीरों में अपने ख्वाब सहलाते

उन पन्नों को छाती से लगाए

घंटों तक करते बातें

तब अनकहे कुछ ख्याबों के रेले

तम की गहराईयों से डूबते तरते

टूटे पंख कुछ मैले कुचैले

उड़ान की चाह में हैं फड़फड़ाते

काला कितना काला

काला कितना काला

और सफेद कितना सफेद

यहां सफेद का मन काला

और काले का मन श्वेत

इन दो रंगो के द्वंद में लगे

कुछ लोगों के कुकर्मो पर

आज मानवता को है खेद

तो फिर काला कितना काला

और सफेद कितना सफेद

विकसनशीलता का ढिंढोरा पिटते

यह नैतिकता के ठेकेदार

अपनी क्रूरता को विनम्रता: में ढकते

मानवजाति को वर्गो में करते कैद

रंगो की इस रजनीति का

परिणाम है ये संबंध विच्छेद

तो फिर काला कितना काला

और सफेद कितना सफेद



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Antareepa

अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी


अंतरीपा ठाकुर मुखर्जी, अकादमी साउथ एशियन डान्स यू.के की हेड ओफ़ मार्केटिंग और रॉयल सोसायटी ऑफ़ आर्ट्स की फ़ेलो, की रूचि स्कूल और कॉलेज की पत्रिकाओं में हिंदी खंड का सम्पादन करते हुए कथा एवं कविता लिखने में बढ़ी। ब्रिटिश काउन्सिल दिल्ली में कार्यरत रहते हुए उन्होंने टीवी चैनल ऐक्टिव इंग्लिश पर आने वाले कार्यक्रमों के हिंदी अनुवाद में भी योगदान दिया। उन्हें हिंदी साहित्य के दिग्गज मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद का लेखन प्रेरणादायक लगता है। बहुभाषीय अंतरीपा अस्समिया तथा बंगाली में भी कुशल हैं। वे असम साहित्य सभा से जुड़ी हैं और लंदन में बंगाली नाटक दल, ड्रैमटिस्ट, की सदस्य भी हैं| वातायन यू.के के सौजन्य से वह मातृभाषा से जुड़ी रहना चाहती हैं।


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