व्यंजना

चंद्रेश्वर की कविताएँ

चंद्रेश्वर


बदलाव

कुछ जगहें या चीज़ें बदलती नहीं

जब देखो तब दिखतीं

यकसाँ

जैसे आगरे का ताज़महल

जैसे वह शिलाखंड

केन किनारे

जैसे वो स्मारक

किसी राजा का

सुरेमनपुर में

जैसे वृंदावन की गलियाँ

जैसे काशी की मणिकर्णिका

जैसे हवामहल

जैसे जलमहल

जैसे किला आमेर का

जयपुर में

कुछ लोग भी होते ऐसे ही

जगहों या चीज़ों की तरह

जब मिलो उनसे दिखते नहीं बदले तनिक भी

वहीं पुरानी मनहूसियत छाई रहती

काली बदली की तरह

उनके चेहरे पर

दुनिया चाहे जितनी बदल जाये

वे खूँटे की तरह रहते गड़े

अपने दरवाज़े के सामने की

ख़ाली ज़मीन पर

लाख बदलाव हो मौसम में

हेमंत हो या वसंत

वे खोए रहते अपनी ही

किसी लंतरानी में

पत्थर भी सराबोर हो सकता

पानी से कभी

हो सकता रससिक्त

उगाई जा सकती उसपर

नरम-नरम हरी दूब

यमराज भी हो सकते कृपालु

पर कुछ चेहरे बने रहते भावहीन...

जड़वत...

मूर्तिवत...

जिनका कोई लेना-देना नहीं

आसपास की दुनिया से

ऐसी जगहों

ऐसे लोगों से मिलकर

नाउम्मीद होते हम

बदलती जगहें

बदलती स्थितियाँ

बदलते लोग

बदलाव को स्वीकार करते लोग

अच्छे लगते मुझे

एक चिराग जल उठता

काँपते लौ वाला मेरे भीतर

उम्मीद का ...!

प्रेमपत्र

पहली बार किसी मामूली कर्मचारी ने कहा होगा

दिलग्गी या हँसी- मज़ाक में

किसी सरकारी दफ़्तर में

अपने बॉस या हाक़िम के विरोधपत्र को

प्रेमपत्र तो कितनी उर्वरता

और ज़िन्दादिली से

भरा रहा होगा

उसका मन- मस्तिष्क

ग़लत विरोधों और आरोपों की

उड़ाता हुआ धज्जियाँ

ताक़त और पद के दुरूपयोग का

बनाता हुआ मज़ाक

यह एक शब्द 'प्रेमपत्र'

कितना भारी पड़ा होगा !

एक तो वैसे ही

एक तो वैसे ही उदास करती फरवरी

ऊपर से जबरन पिला रहे हो

लेक्चर पर लेक्चर

कुछ बात निकल कर आती नहीं

काम की

हमारा घाव जाने कब से

टभक रहा

और तुम दूर से ही मचा रहे

चिल्लपों

क़रीब आते नहीं

तुम्हें अंदाज़ा ही नहीं

कि कितना असह्य होता है

टभकना

किसी घाव का

ख़ाली सब्जबाग़ दिखा रहे

दूसरों के दामन पर दाग़ दिखा रहे

अपने कंधे पर सफ़ेद चादर डाले हो पर दिल -दिमाग़ में तो सड़ा पड़ा है कचरा जो मार रहा बदबू

कम से कम अभी तो

हम जनवरी के पाला और कोहरा से थे परेशान

फरवरी को तो बक़्श दो

हे हमारे शब्दवीर !

हम सच में अब कचुवा गए हैं

बुरी तरह से पक गए हैं

सुनते -सुनते तुम्हारी

खलबानी !

सुख

बहुत थकान थी

नींद आ गई

जाने कब

सुबह हुई...

ताज़गी का हुआ

अहसास

बहुत प्यासा था

पानी मिला शीतल

जी जुड़ा गया

कान छलनी थे

सुनते -सुनते

तीख़े विष बुझे

नुकीले शब्दों को

तुम्हारे बोल बने

मरहम मेरे लिए

बेहद हिंसक दृश्य

जो चुभ रहे थे

आँखों में

कहीं से गुलाबजल पड़ा उनमें

राहत मिली

लोहा-लक्कड़ पीटने वाली

हथेलियों को भी चाहिए

कोमलता का स्पर्श

सुख नहीं दिखता

अलग से जीवन में

पैबंद की तरह

फटे चिथड़ों में भी

रहता है समाया वह

जबकि दूर हो जा सकता है

रेशमी राजसी वस्त्रों से !

अशुद्धियाँ

हे वैयाकरण महाशय जी

क्यों बैठे हैं आप चुपचाप

धरे हाथ-पर- हाथ

किस चिंता में गले जा रहे हैं आप

हर काल में ही होती रही है

अवहेलना आपके बनाए

नियमों की

ऐसा कुछ भी नहीं जो

हो रहा हो संभव

भाषा में पहली बार

टूटता ही रहा है घेरा

आपके अनुशासन का

यह भी पहली बार नहीं हुआ

कि लोग चाहकर भी

भूल जा रहे हैं प्रयोग

अल्पविराम,अर्द्धविराम

या पूर्णविराम का

ह्रस्व व दीर्घ का

भाषा में तो टूटती ही रहती हैं

मर्यादाएँ व वर्जनाएँ

कुछ भी शाश्वत या

सनातन नहीं है यहाँ

शुद्धता पर बल के बावज़ूद

बढ़ती ही रहती हैं अशुद्धियाँ

व्यवहार में

परंपरा रही है यह सदियों की

जाने क्यों कहने का

हो आता है मन बार-बार

कि शुद्धियाँ ही पैदा करती हैं

कृत्रिमता

मानव जीवन में

जबकि अशुद्धियाँ

नैसर्गिकता का बोध कराती हैं

हरदम

समाज-संस्कृति व भाषा के

विकास के लिए

वरदान हैं अशुद्धियाँ

अशुद्ध उच्चारण से ही बनते हैं

लोक में नए-नए शब्द

गढ़ी जातीं हैं नयी-नयी

लोकोक्तियाँ

बनाए जाते हैं

नए-नए

मुहावरे

रचे जाते हैं

नए-नए गीत

रची जातीं हैं

नयी-नयी कथाएँ !

नया-पुराना

कुछ भी नया नहीं होता

एकदम से

जिस तरह मौलिक होना

नितांत विस्मयकारी

या मूर्ख होने की पहचान

नया शामिल रहता

इस कदर पुराने में

पुराना शामिल रहता

इस कदर नए में

कि मत पूछिए

नए-पुराने का हाल

जिस तरह स्मृतियाँ

रूपांतरित होती रहतीं

पीढ़ी-दर-पीढ़ी

कई तरह के

जोड़-घटावों के साथ

उसी तरह पुराना

होता जाता नया

नया होता जाता पुराना

जैसे हमारे मकान बदले

जैसे हमारे पोशाक बदले

जैसे हमारे जूते बदले

जैसे हमारे हथियार बदले

जैसे हमारी लेखनी बदली

जैसे हमारे रास्ते बदले

जैसे हमारे सब साधन बदले

जैसे हमारी कविता बदली

जैसे हमारे शासक बदले

जैसे हमारी सरकारें बदलीं

पर कहीं कुछ था साझा

हमारे दरम्यान

जो सारे प्रयोगों

नवाचारों

तोड़-फोड़

कट्टरताओं

संकीर्णताओं के बाद भी

संचरित होता रहा

हमारी चेतना के अंतस्तल में

प्रेम,करुणा,दया

एवं विश्वास की तरह

हम बदलते रहे

बदलती रही

हमारी दुनिया

रोज़-रोज़

फिर भी कुछ

बचे रह गए थे

हमारे स्थायी भाव

सभ्यता के तमाम

आवरणों के बाद भी

कोई आ ही जाता था

सामने उत्साह लिए

कभी दिख ही जाता

किसी का क्रोध सच्चा

कंधे न मिलने के बावजूद

कोई रो लेता

हिचकियों संग

सारे शब्दों को

उनके मलिन करने की

तमाम कोशिशों के बाद भी

कुछ बचे रह जाते थे

पुराने शब्द

नयी तेजस्विता लिए

नए-नए रूप-रंगों के साथ !

यही समय होता

परिपक्व होते ही

रंग प्यार का

दिखता ख़ूब गाढ़ा

पके सिंदूरी आम की तरह

यही समय होता पर

उसके बिछुड़ने का भी

डार से !

किसी पोस्टकार्ड या अन्तर्देशीय के सहारे ही

कितने पारखी थे वे लोग जो भाँप लेते थे

ख़त का मजमूं लिफाफा देखकर ही

कम लिखकर......कम बोलकर ही

वे दे देते थे कोई बड़ा संदेश

देश होता था सदा दिल में उनके

ख़ाली ज़ुबान पर नहीं

आन-बान पर झूठे ही कटा देना कान या नाक

शान की बात नहीं होती थी उनके लिए

वे करते थे बेहद आत्मीय संवाद

किसी पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय के सहारे ही

तब इतना शोर कहाँ था

तब इतना दलदल कहाँ था

क़दम-क़दम पर

उन दिनों यारी सचमुच हुआ करती थी

ईमान का पर्याय

तब क से कबूतर ही कहने

या पढ़ने-लिखने का चलन था

कपट या कटार का नहीं

बुद्ध के नगर से आकर अयोध्या में बस गए

कवि स्वप्निल श्रीवास्तव कह सकते थे

बेखौफ़ होकर अपनी कविता में कि

'ईश्वर एक लाठी है'

और समाज में तनिक भी

बुरा मानने का रिवाज़ नहीं था

देखते ही देखते पतली हुयीं गलियाँ

रास्तों पर उग आईं कटीली झाड़ियाँ

चलना हुआ दुश्वार

दुश्मनी अब तो बात-बात पर !

पुनर्जन्म

दुनिया से जो चला जाता

आता नहीं लौटकर यहाँ

दुबारा

अब मेरे पिता भी

नहीं आयेंगे कभी

उसी रूप में दुबारा

पिछली स्मृतियों के साथ

कितनी निर्मम बात है कि

साथ के लोगों के चेहरे

सिर्फ़ दिखते हैं

स्मृतियों में

उनके चले जाने के बाद

फ़ेसबुक ही आभासी नहीं

यह दुनिया भी

जो दिखती कितना

वास्तविक

अगर मान लें कि

होता है कहीं

किसी जगह

पुनर्जन्म उनका

तो भी पिछले जन्म की

स्मृतियाँ नहीं होंगी

उनके साथ

वे हममें से किसी को

पहचान नहीं पायेंगे

फिर क्या मतलब

हमारे लिए

या उनके सगे-सम्बन्धियों के लिए

स्मृतियाँ ही तो

जोड़ती हैं हमें

एक-दूसरे से

तो फिर असल बात कि

एक जन्म

एक जीवन

और उनसे जुड़ी स्मृतियाँ ही

रखती हैं मायने !

आसमान में धान बोने वाला कवि

कवि विद्रोही को जब देखा

और सुना पहली बार

गोरख पाँड़े के गाँव

'पंडित का मुंडेरवा' में

तो जाना कि कैसा होता है

वह आदमी जो

भरता नहीं पानी

किसी रावण के घर पर

अभावों और मुश्किलों के बाद भी

किसी कंस के दरवाजे़ पर

खड़ा नहीं होता

लाठी लेकर

पहरेदार की तरह

पहली बार ही जाना कि

विद्रोही कवि ही बो सकता है धान

आसमान में

और कविता को बनाकर लाठी

भाँज सकता है

ईश्वर के ख़िलाफ

वह बाघ पर कविता लिखने के बदले

ज़ेब में रखकर

बीड़ी पीते बाघों को

सुनाता हैै कविताएँ

दुश्मन का बग़लगीर होकर

कविता उसके लिए है

खेती

बेटा-बेटी

बाप का सूद

माँ की रोटी

वह दुनिया को बना लेता है भैंस

और ख़ुद बन जाता है

उसका अहीर

वह सुविधा और दुविधा की दुनिया से

दूर होता है

उसे जो भी कहना होता है

कहता है बेलाग

बिना किसी हकलाहट के

कवि बनना उसके लिए

कोई कारोबार या सौदेबाजी़ नहीं !



संक्षिप्त परिचय ..........................


नाम - चंद्रेश्वर


जन्मतिथिः 30 मार्च,1960


उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01, जुलाई 1996 से एम.एल.के.पी.जी. कॉलेज, बलरामपुर में हिन्दी विषय में शिक्षण का कार्य आरंभ किया | 30 जून 2022 को अध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य | हिन्दी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित | तीन कविता संग्रह -'अब भी' (2010), 'सामने से मेरे' (2017), 'डुमराँव नज़र आयेगा' (2021) |


एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन एक भोजपुरी गद्य की पुस्तक--'हमार गाँव' (स्मृति आख्यान, 2020 ) एवं 'मेरा बलरामपुर' (हिन्दी में स्मृति आख्यान, 2021) का भी प्रकाशन | शीघ्र प्रकाश्य एक हिन्दी और एक भोजपुरी की पुस्तक-- 1.'हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता' (आलोचना), 2.'आपन आरा' (भोजपुरी में संस्मरण) | घर का स्थायी पता-- 631/58,ज्ञानविहार कॉलोनी,कमता--226028 लखनऊ (उत्तर प्रदेश) | मोबाइल नंबर --7355644658 ई मेल- cpandey227@gmail.com


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