व्यंजना

डीएनए@डॉटकॉम

- हुस्न तबस्सुम निहाँ


जिस वक्त दिनेश बाबू के वहां किलकारी गूंजी उनके अभिन्न मित्र नसीम खान किसी बिजनेस टूर पर थे। दिनेश बाबू ने जच्चा के पास जाकर फौरन बच्चे की फोटो क्लिक की और नसीम को भेज दिया। उधर से तत्काल फोन आया-


‘‘..यार...जी करता है ट्रेन से कूद पड़ूं। ऐसी जान मारू खबर दी है तूने। ‘‘


‘‘...बस तू आ जा मिल के जश्न मनाएंगे..‘‘


‘‘आ रहा हूं यार...एक खुशखबरी तेरे लिए भी...फैक्ट्री शुरू करने जा रहा हूं तेल की।...यह बचचा नसीब वाला है।‘‘


‘‘आह...क्या बात है‘‘


‘‘ हाँ यार, ओके जल्दी आता हू नन्हें को प्यार दे और भाभी जी का ख्याल रख‘‘


दिनेश बाबू और नसीम खान अभिन्न मित्र थे। बचपन की दोस्ती थी उनकी। साथ ही पड़े लिखे थे। आस पास के ही मोहल्ले में उनका घर भी था। वे एक दूसरे के घर भी आते जाते। एक दूसरे के परिवार में भी उनकी अच्छी जगह बनी हुयी थी। वक्त के साथ-साथ उनकी दोस्ती पूरे शहर में मशहूर हो गयी थी। आगे चलकर पढ़ाई खत्म करके दिनेश बाबू ने एक काॅलेज में क्लर्क की नौकरी संभाल ली थी और नसीम खान ने पिता का कारोबार संभाल लिया था। आस पास के गांवों से ही उन्होंने शादी भी कर ली थी। नसीम को काॅलेज में साथ पढ़ रही नफीसा पसंद आ गयी थी तो उसके घर रिश्ता भेज दिया। शादी हो गयी। दिनेश बाबू ने भी अपनी सहपाठी गीता को अपना जीवन साथी चुना था। नसीम की शादी पहले हुयी थी क्योंकि बचपन में ही मां का साया उठ गया था। पिता ने ही पाला पोसा था। दिनेश की मां भी इसीलिए नसीम को मां की तरह प्यार देती। नसीम के कारोबार संभालते ही पिता ने उनकी शादी कर दी। लेकिन कई साल गुजरने के बाद भी नसीम को कोई औलाद नही हुयी थी। उधर दिनेश बाबू ने नौकरी की तलाश शुरू कर दी थी। आखिर कई साल की जद्दो जहद के बाद नौकरी मिल गयी और नौकरी मिलते ही उन्होंने भी सहपाठी गीता से शादी कर ली। अब तक उनकी भी मां गुजर चुकी थीं। पिता भी। तो नसीम खान का परिवार ही उनका परिवार बन गया था। दिनेश बाबू का भी परिवार आगे नहीं बढ़ रहा था। तो दोनों परिवार में मायूसी छाई रहती। औरतें ताबीज गंडे के चक्कर में मंदिर मस्जिद छानती रहतीं। फिर अचानक किसी की भी कृपा से गीता गर्भवती हो गयी। दोनों परिवार झूम उठे। जमकर खुशियां मनायी गयीं। अब जब बेटा दुनिया में आ गया था तो दोनों परिवार फूले नहीं समा रहे थे। शहर पहुंचते ही नसीम खान सीधे दिनेश की तरफ पहुंचे। दिनेश ने बढ़ कर गले लगा लिया और कांपती आवाज में बोले-


‘‘यार तेरा परिवार पूरा हुआ।‘‘


‘‘मेरा नहीं...हमारा परिवार...‘‘ पीछे से गीता ने आकर बच्चा नसीम खान की गोद में डाल दिया-


‘‘भाई साहब, यह रही आपकी अमानत।‘‘ नसीम खान ने सीने से लगा लिया। आंखें भर आईं। लगा उनका सुकून यहीं था...भर्रायी आवाज में बोले-


‘‘...यह आज़ाद है हमारा.... चूँकि आज हमारा मुल्क आज़ादी का जश्न मन रहा है इसलिए इसका नाम ही आज़ाद होगा...इससे बेहतर कोई नाम नहीं हो सकता‘‘


‘‘डन‘‘


उधर नसीम खान ने नयी फैक्ट्री डालने की कवायद शुरू की। जल्दी ही फैक्ट्री शुरू हो गयी| नसीम उसमे मस्त हो गए| लेकिन दिन में एक बार दिनेश के यहाँ जा कर बच्चे को ज़रूर दुलार आते|


इस प्रकार बच्चा एक फूल की तरह दो मालियों के बीच फलने फूलने लगा।


दिनेश बाबू नौकरी के कारण बच्चे को ज्यादह टाईम नहीं दे पाते। जबकि नसीम खान जब तब स्कूल भी पहुंच जाते और ढेर सारे सामान भी लेकर आते। बच्चे को और क्या चाहिए। वह चाचू का शैदायी। कुछ भी फरमाईश होती बच्चा चाचू से ही बोलता। और चाचू जैसे इसी इंतजार में रहते कि बच्चा कुछ फरमाईश कर दे। दूसरी बात हद से अधिक मंहगाई होने के कारण दिनेश बाबू के बस में हर चीज थी नहीं। कई बार ऐसी फरमाईश करने पर वह बच्चे को झिड़क भी देते। तब बच्चा चाचू का मुंह देखता।


खैर अब बच्चा १२ साल का हो गया था| उसे किसी चीज की कमी नहीं थी| एक दिन गीता अचानक रसोई में खाना बनाते-बनाते गिरी और बेहोश हो गयी| दिनेश उसे फ़ौरन हॉस्पिटल ले गए| तीन दिनों की जांच पड़ताल के बाद पता चला की उसे ब्रेस्ट कैंसर है| थायराईड, शुगर आदि पहले ही थे। दिनेश बाबु को कुछ समझ नहीं आया करें क्या? पहले सोंचा कि नसीम से कहूँ लेकिन गीता ने फ़ौरन मन कर दिया-


‘’ नहीं, भाई साहब के पहले भी काफी एहसान हैं हम पर अब और नहीं...और हाँ आज़ाद को भी ये खबर न होने पाए..’’


दिनेश भरी आँखों से बस उसे देखता रह गया| उसने भी सोचा कि कहाँ तक नसीम से मदद ली जाये| पहले ही उसके एहसानों से कितना दबा हुवा था| वह अन्दर-अन्दर टूटते रहे| आज़ाद इन साड़ी स्थितियों से अनजान खुद में ही मस्त रहता| दिनेश बाबु अब कभी-कभी शराब भी पीने लगे थे। गीता की हालत दिन पर दिन ख़राब होती जा रही थी| कभी-कभी नसीम खान और नफीसा जाते भी उनके यहाँ लकिन गीता बहुत सफाई से छुपा ले जाती| एक दिन आज़ाद स्कूल से घर आया तो देखा माँ बेदम पड़ी है| वह चीख पड़ा| फिर माँ से लिपट कर रोता रहा| जब सुध आई तो बाप को फोन किया| नसीम खान को फोन किया| नसीम खान और नफीसा भागे-भागे आये| दिनेश बाबू बाद में पहुंचे| नफीसा ने पहुँचते ही आज़ाद को बांहों में भर लिया-


“ मेरे बच्चे...’’ और आज़ाद फूट-फूट कर रो पड़ा|


दिनेश बाबू आये तो नसीम ने पुछा-


‘’क्या हुवा था भाभी को?’’


‘’कैंसर’’


‘’क्या?’’ दोनों मियां बीबी एक साथ चीख पड़े| नसीम खान आगे बोले-


‘’तुमने इतनी बड़ी बात मुझसे छुपाये रखी..हवा भी नहीं दी?”


‘’ गीता ने मन किया था| नहीं चाहती थी कि उसपर तुम्हारा और एहसान बढे|’’


‘’या अल्लाह...हम क्या गैर थे? अगर वो हमारे बीच नही है आज तो हमें कितनी तकलीफ है? वो हमारा परिवार थी’’ नफीसा तड़प कर बोली|


नसीम खान अचानक फफक कर रो पड़े-


‘’यार कैसी नादानी कर दी तुम लोगों ने, हम अपना घर न बचा सके तो ये दौलत किस काम की? जरा भी मालूम होता मै बड़ा से बड़ा डोक्टर ला कर खड़ा कर देता| आज भाभी हमारे बिच होती| हमारा अज्जू बिना माँ का न होता’’ दिनेश बाबू किसी अपराधी की तरह सर झुकाए सुनते रहे|


बच्चा इस समय 12 साल का था। अब बच्चे की जिम्मेदारी दिनेश पर आ गयी थी| बच्चे को पालने लगे। बच्चा अक्सर नसीम साहब के वहां चला जाता। जहां उनकी बेगम नफीसा से उसे बेहद लाड़ मिलता। वह बच्चे की हर फरमाईश का खाना उसे बना-बना कर खिलाती रहतीं। हालांकि ये बात नसीम के छोटे भाइ नफील को बहुत नागवार गुजरती। ये एक कट्तर मुस्लिम प्रव्रित्ति का व्यक्ति थ। लोगो का कह्ना था कि हल्के फुल्के कुछ इस्लमिक संगथ्नो मे भी उसका दखल था। जिस पर सरकार की टेढ़ी नज़र थी|


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एक दिन स्कूल से आते वक्त आज़ाद का एक्सीडेंट हो गया। दिनेश बाबू ने उसे किसी सरकारी हस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती करवा दिया। जब नसीम खान ने सुना तो आग बबूला हो गए फ़ौरन फोन लगाया-


‘‘ यार तुझे हो क्या गया है? ऐसे ही भाभी की जान ले ली| अब बच्चे के साथ वही बर्ताव| दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा बच्चे की जरा भी परवाह नहीं। उसे सड़क पर फेंक कर छुट्टी पा लिया। उसे कुछ हो गया तो...‘‘ फौरन गाड़ी निकाली और हस्पताल पहुंचे और बच्चे को डिस्चार्ज करवाया और बड़बड़ाते रहे-


‘‘..बच्चे की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा है। यहां लाकर डाल दिया जानवरों की तरह...‘‘


‘‘नसीम यार मेरी मजबूरी समझा कर...‘‘


‘‘..तुम्हारी क्या मजबूरी...मैं मर गया था क्या..?‘‘


बच्चा बेदम पड़ा था। नसीम ने फौरन अस्पताल बदला। कुछ ही देर में बच्चा एअर कंडीशन हस्पताल में था। पीछे से नफीसा पहुंची और बच्चे को लाड करने लगी| अब आज़ाद को राहत थी| वह चुपचाप बड़ी कृतज्ञता से नसीम खान को और नफीसा को देखता रहा। नफीसा उसे दिलो जान से लगाती। हर वक्त इसी फेर में रहतीं की बच्चा कोई मांग रखे और वह पूरी करें| आज़ाद को दूसरी माँ मिल गयी थी| अक्सर वो दुलार में नफीसा की गोद में सर रख कर लेट जाता| नफीसा एक अजीब सुख से भर जातीं| लेकिन यह भी बहुत दिनों तक नहीं रहा। जब आज़ाद करीब 22 साल का था अचानक एक दिन बेगम को अटैक पड़ा और वह भी चलती हुयीं। अब रह गए सिर्फ तीन पुरूष। नसीम खान भी धीरे-धीरे टूटने लगे। आज़ाद प्रायः आकर उन्हें संभालता। पास बैठकर बातें करता रहता। खाना खिलाता। चाय बना लाता। कभी शतरंज उठा लेता और देर तक दोनों खेलते रहते। आफिस से छुट्टी होती तो दिनेश बाबू भी सीधे नसीम खान की तरफ ही चले आते। जिससे उनका कुछ गम बांट सकें। खैर धीरे-धीरे हालात सामान्य हो गए। आज़ाद अब बच्चा नहीं रहा था। 22 साल का युवक था अब वह। बी.ए. तक की पढ़ाई कर चुका था। अब नौकरी की तलाश में था वह। अपनी सहपाठी महिमा से उसका प्रेम भी था। अब वह भी नौकरी के लिए दबाव बना रही थी जिससे उनकी शादी हो सके। महिमा का नसीम खान और दिनेश बाबू के वहां बराबर आना जाना था। वे दोनों भी उसे बेटी के जैसा ही मानते थे। एक दिन नसीम खान दिनेश के वहां ही बैठे थे की आज़ाद थका हरा सा घर में दाखिल हुवा| नसीम खान ने उसे गहरी निन्गाह से देखा फिर बोले-


‘’बरखुरदार,, कहाँ मसरूफ रहते हो आज कल, दीखते ही नहीं| आखिर मई घबरा क्र खुद ही आ गया|’’


‘’ कुछ भी नहीं चाचू, अब में बच्चा नही रहा| बड़ा हो गया हूँ| जिम्मेदारी उठाने की अब मेरी बारी है| बाबू जी कमजोर हो गए है| इसीलिए नौकरी की तलाश में निकल जाता हूँ’’


‘’..वाह भाई वाह..बच्चा बगल में, ढिंढोरा शहर में|’’


‘’ मतलब?’’


‘’..यार, इतनी बड़ी फैक्ट्री तेरे घर लगी है और तू दूसरों के वहां नौकरी तलाशने जा रहा है..मे तो ये सोच क्र चुप था की अभी तू बच्चा है| मेरा मनेजर चला गया है| कुर्सी खाली है और तुम्हारा इंतज़ार कर रही है’’


आज़ाद जैसे चौंक सा पड़ा| उसने सोचा तक न था की उसकी समस्याओं का हल पलों में हो जायेगा| उसने ये बात पित दिनेश को बताई तो दिनेश चहक पड़े और पुलकते हुए बोले-


‘’डन ‘’


अगले दिन से ही आज़ाद ने नसीम खान की फैक्टरी मे मनेजर की कुर्सी संभाल ली थी| नसीम खान को बड़ी रहत मिली थी| अब वह बेफिक्र हो गए थे| जिस काबिलियत और मुस्तैदी से आज़ाद उनका काम संभाल रहा था उसे देख वह भी दंग थे| उन्हें कई प्रोजेक्ट भी मिल गए थे आज़ाद की वजह से| उन्हें हैरत थी-


‘’ये पिद्दी सा लड़का इतना सबकुछ कर सकता है?’’


अभी बाहर से आ कर कमरे में लेटे ही थे कि उनका भाई नफील आ गया| वह भन्ना गए जैसे| इस आदमी को वो बिलकुल पसंद नहीं करते थे| ये उनका छोटा भाई था| पढाई लिखाई के नाम पर जीरो| इसके सिवा कुछ गलत गतिविधियों में भी उसका दखल था| हलके फुल्के कई ऐसे इस्लामिक संगठन थे जिनसे वह जुड़ा हुवा था| जिनपर सरकार की टेढ़ी नज़र थी| आते ही वह बोला-


‘’ भाई जान कुछ पैसों की मुझे सख्त जरूरत है|’’


‘’तो...मैं क्या करूँ’’


‘’आपको पता है...’’


‘’...देखो, पैसे चाहिए तो मेहनत मशक्कत करो..ऐसे कब तक चलेगा| फिर जो तुम कर रहे हो वो मै अच्छी तरह जानता हूँ|’’


‘’मै क्या गलत कर रहा हूँ, अपने मज़हब की खिदमत कर रहा हूँ| दीन फैला रहा हूँ| आपको तो इसमें ख़ुशी-ख़ुशी हिस्सा लेना चाहिए|’’


‘’..मै नहीं कर सकता...अपनी गाढ़ी कमाई मै तुम लफंगों पर कतई नहीं खर्च करूँगा|’’


‘’..तो कहाँ ले जाओगे? कब्र में? भई आल औलाद तो कोई है नहीं| मै तुम्हारा इकलौता भाई| माशाल्लाह छह औलादें हैं| वही आपका हाथ पाँव करेंगी आखिर वक्त में| कुछ तो सोचो’’


‘’देखो मुझे किसी की ज़रूरत नहीं| तुम किसी अछे काम के लिए मांगते तो दे देता| और देता ही रहा हूँ| लेकिन अब नही| बीबी बच्चे भूखे मर रहे हैं| दीन का ख्याल है उनका ख्याल नहीं? छह बच्चे पैदा करके आवारगी करते घूम रहे हो| कोई कारोबार करो| ‘’


‘’मुझे आपका मशवरा नहीं चाहिए, मुझे मालूम है क्या करना है| हम अल्लाह के बन्दे हैं..इस्लाम का परचम पूरी दुनिया में लहराना हमारा मकसद है| इसके लिए हमे कुछ भी करना पड़े| बीबी बच्चों को अल्लाह देखेगा|”


“ ठीक है, अब अपना रास्ता लो तुम्हारी तुम जानो जिस दिन पुलिस के हत्थे चढ़ गए पता चलेगा| मै तुम्हेरे इस गलत काम में बिलकुल तुम्हारे साथ नहीं हूँ| हिदू मुसलमान क्या है, सारी मखलूक खुदा की है सभी मजलूम की खिदमत करो...”


‘’...हा...हा...हा...’’ जोर का ठहाका लगाया उसने और फिर दांत पीसते बोला-


‘’कब्र में ले के थोड़े ही जाओगे, देर सबेर मुझे ही मिलना है..खूब कमाओ मशक्कत से...’’ और पैर पटकते हुए बाहर चला गया था|


उनको उसकी अंतिम बात बहुत खली| वो वाकई में गंभीरता से सोचने लगे-


‘’..क्या मै इतना सब कुछ इसी लिए कर रहा हूँ? मेरे न होने पर तो ये सब कुछ बर्बाद कर देगा| मेरी मशक्कत की कमाई इन हरामखोरो के हाथ चली जाएगी और तमाम मज़लूमो और बेकसूरों का नुकसान होगा|” तबसे लगातार वह इसी मसले पर सोचते रहे |


आखिर उन्होंने ये फैसला किया कि क्यों न आज़ाद को ही गोद ले लिया जाए। उनको उनकी प्राॅपर्टी का वारिस भी मिल जाएगा। यहां वह रहेगा तो अपना भी मन लगा रहेगा। दिनेश तो वैसे भी उस पर बहुत ध्यान दे नहीं पाता। लेकिन पहले एक बार आज़ाद से राय ले ली जाए। उन्होंने आज़ाद को फोन लगाया-


‘‘..बेटा शाम को घर आना कुछ जरूरी बात करनी है।‘‘


‘‘ओके चाचू..‘‘


शाम सात बजे आज़ाद आया। नसीम खान ने प्यार से बैठाया फिर कहना शुरू किया-

‘‘...बेटा तेरी चची के जाने के बाद मैं पूरी तरह से अकेला हो गया हूं। कारोबार में भी अब मन नहीं लगता। तू कभी कभार चला आता है तो मन हरा हो जाता है। बाकी दिन मायूसी में कटते हैं। तेरा बाप तो शराब पीकर सब भूल भी जाता है लेकिन मेरे पास ऐसा कोई शगल नहीं। तू ही मेरा नशा है। क्या ऐसा हो सकता है कि तुझे में गोद ले लूं और तू यहीं आ जाए रहने के लिए। मेरा कारोबार संभाल और मैं सारा कुछ तेरे नाम करके ढुट्टी पा लूं इस जंजाल से। मेरा कौन बैठा है तू आ जा तो कंपनी का मालिकाना हक तुझे मिल जाए। ऐश कर....‘‘


-वह सुनता रहा फिर बोला-


‘‘...चाचू मैं तो वैसे ही आपका हूं। बाबू जी में और आप में अंतर ही क्या है।...बाकी मैं कल बताता हूं आपको।‘‘


आज़ाद, रात भर सोचता रहा। उसकी नजरों के सामने नसीम चचा का आलीशान बंगला और कंपनी घूम रहे थे। जब अपने बाबू जी ओर घ्यान जाता तो उसे जिंदगी से थका हारा एक बाबू

नजर आता जो जिस्म तोड़ मेहनत के बाद भी मन भर जी नहीं पाया। जो उसे रोज चेताता था-‘‘..बेटे पढ़ाई पूरी कर ली है अब किसी नौकरी का बंदोबस्त कर ले और बहू ले आ घर में।‘‘


उधर महिमा के ताने याद आते-


‘‘..अब ऐसे कब तक घूमोगे। कोई जाॅब शुरू करो नही तो हमारे बाबू जी कहीं और भेज देंगे मुझे, तुम हाथ मलते ही रह जाओगे।‘‘


‘‘....हुं...ह नौकरी इतनी आसान है क्या आज के दौर में। कहां तक जूतियां घिसूं....ये रास्ता सही है। बगैर किसी जद्दो जहद के करोडों का मालिक बन जाउंगा। फिर कोई टेंशन नहीं। लेकिन अगर मैंने मना कर दिया तो कल को उनकी संपत्ति का कोई दूसरा मालिक बन कर आ ही जायेगा| परिवार में तमाम लोग हैं| और मै फिर सड़क पर आ जाऊंगा| किस्मत खुद मेरा दरवाजा खटखटाने आयी है...इनकार करना मुर्खता होगी‘‘ उसने मन ही मन ‘‘डन‘‘ कर दिया। हां जब पिता से यह बात बतायी तो वह भावुक हो गए-


‘‘..आज़ाद तुझे हो क्या गया है। हमें छोड़ देगा?‘‘


‘‘...अरे बाबू जी..ये किसने कहा। छोड़ेगा कौन...ओर छूटता कौन है?...बाबू जी देखो यार...नौकरी कितनी कठिन है मिलना और तुम भी उम्र भर बाबू गिरी करके क्या बना पाए। अगर हर जगह चाचू सपोर्ट न करते तो आज हम जाने किस हालात में होते। ऐसा करके हम चाचू का भी मन रख लेंगे। वर्ना वह भी सोचेंगे की वह हमेशा हमारे साथ खड़े रहे और आज जब वह चाहते हैं तो हम उनका साथ नहीं दे रहे।‘‘


इस तरह की बातें सुन कर दिनेश बाबू थोड़ा ढीले पड़े-


‘‘ठीक है...हमें भी उसका ध्यान रखना चाहिए।...दरअसल औलाद के मामले में आदमी खुदगर्ज हो ही जाता है। खैर ठीक है उसे हां बोल देना...उसने अपने किए की बहुत बड़ी कीमत मांग ली मुझसे..‘‘ कहते कहते उनकी आंखें भर आयीं।


‘‘..बाबू जी...‘‘ आगे वह कुछ न बोल सका। दिनेश बाबू कमरे में चले गए।


जब खबर नसीम खान को सुनायी आज़ाद ने तो वह झूम उठे और आज़ाद को सीने से लगा लिया। अगले ही दिन उनहोंने कागज तैयार करने की क़वायद शुरू कर दी। हफते भर बाद एक दिन शाम को नसीम खान दिनेश बाबू के घर पहुंचे। दिनेश बाबू बेटे के लिए आलू के परांठे बना रहे थे। नसीम खान को देख कर चहक पड़े-


‘‘..लैं....तेरी पसली फड़क उठी ना...यहां आलू के परांठे बनाने शुरू किए और उधर तू आ धमका।‘‘


‘‘...क्यों भड़क रहे हो बाबू जी...अभी तो तुम ही कह रहे थे कि आलू के परांठे चाचू को बहुत पसंद है जरा फोन लगा दे।‘‘ इस पर दोनों दोस्त ठठा कर हंस पड़े। नसीम खान हंसते हुए बोले-


‘‘.....तुझे अकेले-अकेले थोड़े ही खाने दूंगा। जब से भाभी गयीं परांठे का जायका ही चला गया। तू ठहरा कंजूस...‘‘


‘‘...नहीं यार...तेरे लिए तो जान हाजिर है। बैठ लगाता हूं...अज्जू...पानी रख‘‘


जब खाने पीने का दौर ख़त्म हुआ तो नसीम खान ने बैग से कागज निकाला और दिनेश बाबू की ओर बढ़ा दिया-


‘‘...दिनेश...यह है गोदनामा। तुम दस्तखत कर दो‘‘


दिनेश बाबू का चेहरा अचानक उतर गया। उन्होने एक सहम के साथ पहले नसीम खान का फिर बेटे का चेहरा देखा-


‘‘आज़ाद, तू राजी है न बेटा...?‘‘ आज़ाद ने बहुत कसमसाते हुए ‘‘हां‘‘ में सिर हिला कर सिर नीचे कर लिया। दिनेश बाबू ने नसीम खान के हाथ से कागज ले लिया-


‘‘...ठीक है भई...क्या फर्क पड़ता है। यह तो पहले ही तुम्हारा ही था। गीता ने पैदा होते ही इसे तुम्हारी झोली में डाल दिया था फिर मैं कौन होता हूं रोकने वाला।‘‘ कहते-कहते दिनेश बाबू ने हस्ताक्षर कर दिए। नसीम खान ने धीरे से दिनेश बाबू के कांधे पर थपथपाया। दिनेश बाबू ने उनकी ओर देखा फिर दोनो मुस्कुरा दिए। नसीम खान फिर आज़ाद से मुखातिब हुए-


‘‘..जा बेटे अपना सामान ले आ। चलते हैं अपने घर।‘‘


आज़ाद तो झट उठ कर चला गया लेकिन दिनेश बाबू के दिल पर जैसे हथौड़ा सा लगा। मगर बोले कुछ नहीं। शांत बैठे रहे। कुछ देर बाद आज़ाद दो बैग तैयार करके ले आया। अचानक क्षण भर में सब बदल गया था। दिनेश बाबू बस निःशब्द से उसे देख रहे थे। तभी नसीम खान उठे-


‘‘ठीक है दिनेश चलता हूं। अपना ख्याल रखना‘‘


‘‘चलता हूं बाबू जी‘‘ जाने क्या हुआ इतना सुनते ही दिनेश बाबू ने लपक कर आज़ाद को बांहों में भर लिया और सिंसक पडे। जैसे कोई पिता अपनी बेटी को विदा करता है। नसीम खान ने दोनों को अलग किया और दिनेश बाबू को गले से लगा लिया-


‘‘...यार संभाल खुद को, हम अलग नहीं है।‘‘ फिर वे बाहर निकल गए। आज़ाद और नसीम खान दोनों गाड़ी में बैठ गए और गाड़ी चल पड़ी। दिनेश बाबू दरवाजे पर तब तक खड़े देखते रहे जब तक गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गयी।


कुछ ही दिनों में यह खबर पूरे में फैल गयी। लोग अपनी-अपनी तरह राय बना रहे थे। कभी -कभी कुछ अजीब सी परिस्थितियों का समना करना पड़ता आज़ाद को। जैसे कोई पूछ लेता-


‘तुमको अपने पिता की याद नहीं आती..?‘‘ वह हकबका जाता। अक्सर पिता से मिलने चला जाता। पिता थेाड़ा हाल हवाल पूछ कर रह जाते। घर में भी कभी-कभी उसे मायूसी घेर लेती तो नसीम खान उसे प्यार से समझाते-


‘‘बेटे...मायूसी कुफ्र है। ऐसे मत रहा करो। जो बात है साफ बताओ। दिनेश की याद अगर आती है तो ऐसा करो उसे भी यहीं आ कर रहने को कहो। उसका भी मन लग जाएगा मेरा भी। वहां क्या करता है अकेला पड़-पड़ा। तुम रोज गाड़ी से उसे आॅफिस छोड़ आना। शाम में हम दोनों दोस्त बैठ कर शतरंज खेलते रहेंगे..‘‘


आज़ाद को बात जंच गयी। लेकिन जब पिता से कहा तो उन्होंने हुड़क दिया-


‘‘..जा अपना काम कर| मेरे लिए मेरी वह कुटिया ही महल है। वहां हमारी गीता की यादें बसी हैं। वहां की एक-एक इंर्ट गवाह है हमारे सुख- दुःख की । उसकी बराबरी नसीम की कोठी नहीं कर सकती। वो तुमको ही मुबारक हो।‘‘


वह सकपका जाता|


एक दिन नसीम खान ने आज़ाद को कहा कि आज जल्दी चले आना शाम को इमाम साहब तुमसे मिलने आएंगे| उनके कहे अनुसार वह शाम को जल्दी आ गया| अभी वह फ्रेश हो ही रहा था कि इमाम साहब आ गए| सभी जब तसल्ली से बैठ गए तब नसीम खान ने कहना शुरू किया-


“..बेटे आज़ाद..अब जब तुम कानूनन हमारे बेटे हो गए हो तो ये आखरी काम भी पूरा हो जाना चाहिए|’’


‘’मै समझा नहीं चाचू’’


‘’आज इमाम साहब तुम्हे इस्लाम से जोड़ेंगे और तुमको मुसलमान बनायेंगे|’’


‘’क्या’..वह उलझन में पड़ गया|


“ परेशां मत हो बेटे सिर्फ कलमा ही पढ़ाएंगे तुम्हे और हाँ अब तुम नसीम खान को चाचू नहीं अब्बू बोला करो ” इमाम साहब समझाते हुए बोले|


‘’जी’’


वह जैसे सिहर सा गया| इमाम साहब बोले-


‘’ जाओ बेटे गुसल करके आओ’’


‘’जी’’ वह चला गया|


आजाद को एक बारगी सब कुछ बड़ा अजीब लगा था| एक मौलवी रोज आ कर उसे कुरआन पढ़ने लगा था| इसके सिवा वह आज़ाद को इस्लामी तरबियत भी देता| नमाज़ पढना भी सीख गया था वह| इमाम साहब अब उसे मस्जिद भी बुलाने लगे थे नमाज़ पढने के लिए| लेकिन वह झिझकता था| अगर जाता भी तो चार नमाज़ी भी मुंह बनाते और वो नमाज़ पढना छोड़ कर कनखियों से ये देखने लग जाते कि एक नया-नया मुसलमान बना हिन्दू नमाज़ कैसे पढता है| आज़ाद को सबकी निंगाहें तीर की तरह चुभती रहतीं| इसीलिए आज़ाद मस्जिद जाने से कट्ता रहता और घर में ही नमाज़ अदा करने लगा था| गहन अध्ययन के बाद उसे इस्लाम में खुद ब खुद रूचि होने लगी थी| कुछ स्तर पर वो इस्लाम को अपेक्षाकृत बेहतर मानने लगा था| अब वह खुद से ही पक्का नमाज़ी हो गया था|


एक दिन पास के ही गांव में रह रही नसीम की चचेरी भाभी आ धमकीं। घर में दाखिल होते ही सामना आज़ाद से हुआ, पुछा-


‘‘..कहां है नसीम खान..‘‘?


‘‘अब्बू...वह तो उपर...‘‘


‘‘..ओह...तो तुमही हो...‘‘ उन्होंने गहरी तीखी निंगाहों से आज़ाद को देखा और उपर चली गयीं।


‘‘..आओ भाभी आओ...कैसे आना हुआ?‘‘


‘‘..बस रहने दो...क्या मैं सही सुन रही हूं जो बात शहर में चल रही है?‘‘


‘‘क्या सुन रही हो?‘‘


‘‘..यही कि किसी काफिर के जने को तुमने गोद लिया हुआ है...अपने घर के बच्चे मर गए थे क्या?‘‘


‘‘...अब इसमें इतना गुस्सा होने की क्या बात है। नफीसा के बाद काफी अकेला हो गया था। यह बच्चा भी बचपन से काफी हिला है मुझसे...सो ले लिया‘‘


‘‘..तुम्हें नहीं पता...तुम्हारे भाईजान कितने खफा हैं। वह तो गुस्से में आए ही नहीं।...वही नहीं पूरा खानदान खफा है।‘‘


‘‘...क्या भाभी.., मैं अपने फैसले भी खुद अपने हिसाब से नहीं ले सकता?‘‘


‘‘ले सकते हो लेकिन ढंग के फैसले लो। दूसरी शादी कर दी जाती कहते तो। घर के लोगों से मशवरा तो लेते। तुमको जरूर उस काफिर ने बरगलाया होगा। जानता है तुम्हारे पास दौलत है, आगे-पीछे कोई है नहीं। खुद तो टुन्न हो कर पड़ा रहता है और अपनी औलाद तुम्हारे गले मढ़ दी...लालची कहीं का..‘‘


‘‘..भाभी...खबरदार ऐसी बातें जुबान पर मत लाना वर्ना मुझसे भी गुस्ताखी हो जाएगी। मेरे दोस्त में कोई फी नहीं। न लालची है न ही मेरा बुरा चाहने वाला। उसने कलेजे पे पत्थर रख कर अपने कलेजे के टुकड़े को मेरे हवाले किया है, क्योंकि वह मेरी जुबान टाल नहीं सका।...मैं जानता हूं..‘‘


‘‘अच्छा...?‘‘


‘‘जी हां...एक भिखारी भी अपनी औलाद किसी को नहीं सौंपता। आईंदा आप इस मसले पर मेहरबानी करके कोई बात न करें।‘‘


‘‘...ऐ हे...नासपीटे ने जाने क्या जादू कर दिया है। जा नहीं करती बात न ही अब तेरे घर कदम रखूंगी। सारा खानदान तुझसे खफा है| नफील तो नफरत करने लगा है तुझसे | उसी के बच्चे को ले लेते| अब कोई न मिलेगा तुमसे| लेकर रह अपनी हिंदू जमात को...थू.‘‘


-वह नकाब बांधती हुयी जल्दी-जल्दी नीचे उतरीं और बाहर चली गयीं। कुछ देर बाद आज़ाद उपर गया और चुपचाप नसीम खान के पास जाकर बैठा रहा। वह समझ गए, बोले-


‘‘बेटे बुरा न मान। यह दुनिया है। सब मेरी जायदाद के भूखे हैं। तुम जा कर आॅफिस में काम देखो और शाम को जाकर दिनेश को ले आना साथ ही खाना खाएंगे।


आज़ाद शाम पांच बजे गाड़ी लेकर पहुंच गया दिनेश के आॅफिस। दिनेश बाबू ने आज़ाद को देखा तो एक बारगी थोड़ा सुकून सा हुआ कि चलो जो सुख वह बेटे को नहीं दे सकते वो वहां मिल गया। गाड़ी की स्टेयरिंग संभाले उनका बेटा उन्हें बहुत अच्छा लगा। गाडी से उतर कर आज़ाद ने पिता के पांव छुए और उन्हें गाड़ी में बैठाया।


घर पहुंच कर तीनों ने एक अच्छे माहौल में खाया पिया। साथ ही हंसी मजाक भी चलता रहा। फिर रात को आज़ाद ही पिता को घर छोड़ने गया। रास्ते में पिता ने बेटे का मन लिया-


‘‘बेटे तू वहां खुश तो है?‘‘


‘‘कैसी बातें करते हो बाबू जी मुझे किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं अब्बू मेरा बहुत ख्याल रखते हैं।‘‘


‘‘फिर ठीक है।‘‘


धीरे-धीरे जिंदगी सामान्य हो गयी थी। आज़ाद अपनी कंपनी संभाल रहा था। नसीम खान दिन भर घर पर रहते। शाम को दिनेश के पास चले जाते चेस खेलने।


एक इतवार को दिनेश नहा धो कर पूजा कर रहे थे। तभी उनकी रिश्ते की बड़ी बहन आ टपकीं। दालान में बैठी रहीं। जब वह पूजा खत्म करके बाहर आए उनके पांव छुए तो वह भड़क गयीं-


‘‘रहने दे यह नाटक..‘‘


‘‘दीदी...‘‘


‘‘मत बोल दीदी। मर गया मेरा भाई।‘‘


‘‘क्या बात है?‘‘ वह पास बैठते हुए बोले।


‘‘क्या यह सच है कि तूने ही छुटके को उस मुसलमान के हाथ बेच दिया है?‘‘


‘‘दीदी.., क्या बकवास है किसने कहा आपसे।‘‘


‘‘तो बुला उसे कहां है, उसी से पूछती हूं।‘‘


‘‘..वह बाहर गया है दोस्तों के साथ।‘‘ वह आंखें चुराते हुए बोले।


‘‘देख दिनेश...आंखें मूंदने से सच्चाई नहीं मुंद जाती। ऐसा क्यों किया, क्या कमी थी तेरे पास।‘‘


‘‘..वह वहां सुखी है दीदी। मैं उसे कार बंगला नहीं दे सकता। उसे वहां कोई दिक्कत नहीं‘‘

‘‘और धर्म...जो हमारा धर्म भ्रष्ट हुआ वो...?‘


‘‘....‘‘

‘‘जरूर तुझे उस मुसलमान के बच्चे ने बहकाया होगा। यह तो इनका पुराना धंधा है। इतिहास गवाह है। पहले भी हमें यह तलवार के बल पर मुसलमान बनाते रहे हैं। आज ये रासता अपना रहे हैं। तुम जैसे हिंदू कर रहे हैं‘‘


‘‘दीदी‘‘


‘‘चिल्लाओ मत। अपने धर्म अपने समाज का सत्यानाश किया है तुमने। पूरा हिंदू समाज नाराज है तुमसे।‘‘


‘‘दीदी, वह पहले से ही आजाद को बहुत प्यार करता था। उसकी पत्नी भी।‘’


‘‘यह उसकी साजिश थी जो अब अंजाम दिया है। उसने लंबा प्लान बनाया था तुझे छलने का। अगर भाभी होती तो आज यह नौबत थोड़े ही आती। थू है तुझ पर..‘‘


क्हती हुयी वह उठीं और तेज कदमों से बाहर चली गयीं यह कहते हुए कि-


‘‘अब से तू हमारे समाज और पट्टीदारी से बहिष्कृत।


दिनेश बाबू सिर पकड़ कर बैठ गए। धीरे-धीरे उनका समाज उनसे कटने लगा। अब वह भी नसीम खान से कटे-कटे रहने लगे। बेटे से भी कतराने लगे। कभी-कभी उन्हें पछतावा भी होता। धीरे-धीरे शराब की डोज भी उन्होंने बढ़ा दी थी। एक रोज आॅफिस से लौट रहे थे कि सुना कोई चुनावी सभा है। वह उधर ही निकल गए। सोचा यहीं कुछ वक्त काटा जाए। जाकर बैठ गए। कोई नेता हिंदुत्व का पाठ पढ़ा रहा था-


‘‘..भाईयों और बहनों इन मुसलमानों ने हम पर जबरन राज किया है। हम पर अत्याचार किए हैं। अब इन्हें हम और मौका नहीं देंगे। हम इनका सामना करेंगे। लव जिहाद पर भी रोक लगाएंगे। इन्होंने साम, दाम, दण्ड, भेद से हमें कुचला है। हमें मूर्ख बनाया है। हमे हिदू से मुसलमान बनाया है| इतिहास गवाह है| लेकिन अब ऐसा नहीं होने देंगे....‘‘


दिनेश बाबू...बीच सभा से ही उठ कर चले आए। उनसे बैठा नहीं गया। लगा जो बातें वहां कही जा रही हैं वो उनके साथ घट चुकी हैं। चक्कर सा आने लगा| सीधे मधूशाला गये| कई पैग लिए फिर नसीम को खूब गरियाया-


‘‘..साला...पीठ में छुरा घोप दिया। गद्दार मेरे बच्चे को ही अपना लिया। चालाक कहीं का। मुझे मूर्ख बना गया। सब कुछ ले गया मेरा। आस्तीन का सांप...‘‘


और अब यही रोज का सिलसिला| वह कई पैग चढ़ा लेते फिर नसीम खान को खूब गालियाँ देते|


एक दिन तो गई रात को वह नसीम के घर ही पहुंच गए और दरवाजे पर ही हंगामा कर दिया-


‘‘..अबे कटुए...गद्दार...धोखेबाज...निकल बाहर..‘‘


आज़ाद बाहर निकल कर आया हल्ला सुन कर और उनको अंदर खींच कर ले जाने लगा- ‘‘..बाबू जी अंदर चलों।‘‘


‘‘..चल हट...मैं नहीं तेरा बाबू जी।...मर गया मैं...‘‘ उसे धकेल दिया और दरवाजे पर ही बैठ कर गाने लगे-


‘‘..दोस्त...दोस्त न रहा प्यार...प्यार न रहा..‘‘ आज़ाद भाग गया अंदर। नसीम खान को जगाया। तब नसीम खान जलबलाते से निकले और उनको खींच कर अंदर ले गए। सुबह नशा उतरा तो दिनेश बाबू काफी शर्मिंदा थे और बिना किसी को बताए ही निकल लिए।


जबसे आज़ाद ने कंपनी का काम संभाला मुनाफा दोगुना हो गया| पहले इतना मुनाफा कभी न हुवा था| नसीम खान फूले नहीं समां रहे थे | इसकी सबसे बड़ी वजह आज़ाद की मेहनत और इमानदारी थी| उन्होंने एक नयी कंपनी खोलने की प्लानिंग की और तय किया की उस कंपनी का नाम डीएनए होगा| आज़ाद चौंका-


‘’मतलब?’’


वह हँसते हुए बोले-


‘’भई वो हम सबकी होगी...दिनेश..नसीम..आज़ाद...’’


‘’एसोसिएशन..?’’


‘’..ये भी ठीक है’’


‘’डीएनए@डॉट कॉम’’


‘’हाँ ये ठीक है’’


आज़ाद को जैसे पंख लग गए थे| बेहद खुश था| लेकिन समझ नहीं पा रहा था ये ख़ुशी कहाँ बांटे|खामोश था| उसे महिमा याद आई| दुःख अकेले कट जाता है सुख नहीं कटता| नसीम खान ने उसे मायूस देख कर पूछा-


‘’क्या बात है बेटे...तुम खुश नहीं?’’


‘’बहुत खुश हूँ अब्बू’’


‘’फिर ये चेहरे पर मायूसी?’’


‘’..अब्बू..अगर दुःख बांटने वाला आपके पास कोई ना हो तो उतना दुःख नहीं होता. जितना ख़ुश होने पर कोई ख़ुशी बांटने वाला न होंने पर...ये ख़ुशी मै कहाँ बांटूं’’ कहते कहते उसकी आँखें भर आयीं.. ‘’ पहले..किसी कामयाबी पर माँ माथा चूमती थी| फिर माँ नही रही तो अम्मा दिल से लगाती थी| आज सबसे बड़ी कामयाबी मिली है तो कौन है...’’ कहते कहते उसकी आवाज़ काँप गयी| नसीम खान चाह कर भी न उसे गले लगा सके न ही माथा चूम सके| ये पल उनको बड़े भारी से लगे| ये बात आज़ाद ने भी महसूस की और इस बोझिलता से मुक्ति दिलाने के लिए वह खुद ही उठ कर बालकनी में चला आया|


इस जद्दो जहद में आज़ाद बुरी तरह व्यस्त और त्रस्त हो गया था। कई महीने बीत गए। जब सबकुछ थोड़ा नाॅर्मल हुआ तो महिमा की सुध आयी। हांलांकि पहले भी कई बार उसे फोन पर संपर्क करने की कोशिश की थी। लेकिन फोन बंद आता रहा। आखिर एक दिन वह खुद उसके घर मिलने गया। उसकी मां बाहर आयीं-


‘‘अण्टी जी महिमा..‘‘


‘‘..नहीं है वह..‘‘बड़े ही कड़े स्वर में कहा गया। वह कुछ समझ न सका। फिर जाने के लिए मुड़ा तो देखा बाजू के दालान मे महिमा खड़ी है। वह चौंका और उसकी ओर बढ़ा तभी महिमा की मां चिल्लायी-


‘‘मैंने कहा ना नहीं है।‘‘ इतना सुनते ही महिमा भीतर चली गयी। वह ठगा सा खड़ा रह गया। घर आया और थके कदमों से उपर जाकर अपने कमरे में लेट रहा। खाने के वक्त नसीम खान उसे बुलाने आए। तो उसने मना कर दिया। तब काफी पूछने पर उसने महिमा वाली बात बतायी। उसकी बात सुन कर वह बड़े ठण्डे मन से बोले-


‘‘देख बेटा, अब तू मेरा बेटा है। एक मुसलमान का बेटा। इसलिए उस लड़की को भूल जा। अब तेरी शादी मैं किसी मुसलमान घराने में तय कर रहा हूं। मुस्लिम रीति रिवाज से करूंगा।‘‘


‘‘..क्या?‘‘


वह सन्न रह गया। लगा सैंकड़ों बम आस पास फूटे हों। वह तो सोच रहा था अब्बू उसकी मदद करेगें। महिमा के घर वालों को समझाएंगे।


दूसरे दिन वह महिमा के काॅलेज पहूंचा जहां वह पढ़ाती थी। छुट्टी हुयी तो महिमा के गेट से निकलते ही वह सामने आ खड़ा हुआ।


‘‘महिमा तुम ऐसा नहीं कर सकतीं..यह धोका है...फरेब है..‘‘ कहते हुए उसने महिमा के कंधे पर हाथ रखा लेकिन महिमा ने हाथ झिड़क दिया-


‘‘..दूर हटो...जो तुमने अपने समाज के साथ और धर्म के साथ धोखा किया है, गद्दारी की है वो...?‘‘


‘‘क्या किया है मैंने..?‘‘


‘‘..तुमको नहीं पता...दौलत की लालच में पिता को छोड़ दिया। अपने धर्म को छोड़ दिया। कल मुझे भी छोड़ दोगे,बेहतर है मैं ही तुम्हे छोड़ दूं..‘‘


‘‘किसने कहा छोड़ दिया..‘‘


‘‘और कैसे छोड़ोगे...जाओ किसी मुसलमानी को ले आओ...‘‘


‘‘मेरी बात सुनो..‘‘


‘‘नहीं सुनना‘‘


‘‘तुम ही कहती थीं न दौलत कमाओ, पैसे कमाओ..‘‘


‘‘कमाने को कहती थी न, खुद को बेचने को नहीं कहा था।‘‘ और स्कूटी स्टार्ट कर यह जा वह जा। वह ठगा सा खड़ा रह गया-


उसे एक शाम याद आई| महिमा दौड़ती सी आई और नसीम खान की आँखें पीछे से मूँद ली थीं-


“...चाचू जी...बताओ कौन..?”


“मेरी सुमन परी...और कौन..?”


“..ईद नज़दीक है..मुझे २ जोड़ी सूट चाहिए..’’


‘’ २ क्यूँ...चार ले ले..’’ कहते हुए नसीम खान ने महिमा की हथेलियाँ उधर करते हुए उसकी पेशानी चूम ली थी| सहसा वह मुस्कुरा उठा| और फिर उदास हो गया| फिर किसी ने सवाल किया-


‘’आखिर किसने फिर आकर खायी खोद दी हमारे बीच...’’


अचानक वह बहुत अकेला हो गया था। वह समझ नहीं पा रहा था गलती कहां हुयी। यही महिमा अब्बू को इतना मानती थी। अब्बू भी उसे बेटी की तरह मानते थे। वैसे ही बर्ताव करते थे। ईद में उसके लिए कपड़े वगैरह लेकर आते थे। महिमा भी कितनी सिरचिढी थी उनकी। होली में उनको भी रंग से पोत दिया करती थी और आज दोनों में एक दूसरे के लिए इतनी नफरत?


उसने यह बातें जाकर दिनेश बाबू से बतायीं। और उनसे महिमा के घर वालों को मनाने के लिए कहा। वह पहले अनमने से रहे। फिर बेटे का मुंह देख कर जाने को तैयार हो गए। महिमा की मां ने उनको आड़े हाथें लिया-


‘‘क्या सोच कर अब महिमा का हाथ मांगने आए हो दिनेश बाबू। आज़ाद अब तुम्हारा कहां रहा। तुमने तो बेच दिया उसे।‘‘


‘‘नहीं बहन जी, हमने सिर्फ दिया है बेचा नहीं है। अज्जू मेरा है, मेरा ही रहेगा। बच्चे बचपन से एक दूसरे को पसंद करते हैं इनका मन मत मारिए।‘‘


‘‘जी नहीं...मेरी बेटी मुसलमान घर में नहीं जाएगी भविष्य में इधर का रूख भी मत करना।‘‘ महिमा के पिता ने लताड़ा।


‘’और हाँ, आइन्दा आप इधर का रुख मत कीजियेगा’’ महिमा का भाई जो कैमरे के साथ घर में दाखिल हुवा था उसने भी दिनेश बाबू को हडकाया| दिनेश बाबू ने एक उचटती निन्गाह से उसे देखा और फिर बोले-


‘’कम से कम तुम नयी जमात की पीढ़ी से ऐसी आशा नहीं थी| आज दुनिया कहाँ पहुँच गयी है|’’


‘’ये सब किताबी बातें हैं अंकल, जमीनी हकीकत नहीं|’’ और फिर पिता को संबोधित करते हुए बोला-


‘’ पापा, मै कुछ दिनों के लिए श्रीनाथ जी जा रहा हूँ| इस बीच कुछ ऊंच नीच न कर लेना| उस महिमा को भी समझा देना वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा’’


महिमा के पिता फिर बड़े शांत भाव से बोले-


‘’दिनेश बाबु मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं| लेकिन सोचिये हम कहाँ श्रीनाथ जी के पक्के भक्त हैं| हमारा पूरा परिवार| हम अपनी बेटी को एक मुसलमान परिवार में बहु बना कर कैसे भेज सकते है| हमारा सारा समाज हमारे खिलाफ खड़ा हो जायेगा| कोई साधारण बात नहीं है ये”


उनकी बीबी ने दिनेश बाबू को खा जाने वाली निगाह से देखा-


“अब रहने दो ज्यादा सफाई देने की जरुरत नहीं है”


फिर एक गहरी ख़ामोशी छा गयी|


दिनेश बाबू अपना सा मुंह लिए चले आए। सांझ को आज़ाद घर आया हाल लेने। देखा दिनेश बाबू पिए पड़े हैं। वह बाजू में बैठ गया। दिनेश बाबू ने उसका हाथ पकड़ा और उसकी आंखों में झांकते हुए कहा-


‘‘बेटा...ये धर्म है न, ये धर्म बड़ी कुत्ती चीज है इंसान का सुकून छीन लेता है। इंसान की खुशी छीन लेता है। इंसान को इंसान नहीं रहने देता...‘‘


‘‘..ओह...यानी...‘‘


वह समझ गया मसला क्या हुआ है। कुछ देर चुपचाप बैठा रहा फिर उठा और चला आया। दिनेश बाबू अकेले ही बड़बड़ाते रहे।


आज़ाद का हाल बुरा था। एक ऐसे दलदल में फस गया था जहां से न निकलते बन रहा था न ही उसके अंदर रहते बन रहा था। कई दिन वह गफलत में यहां वहां घूमता रहा। घर के समीप ही मस्जिद थी। जिसके ईमाम नसीम खान के अच्छे दोस्त थे। घर की तरह आना जाना था। । उनसे कुछ छुपा हुआ नहीं था। एक रोज उनसे आज़ाद की मुलाकात हुयी-


‘‘क्या बात है बर्खुरदार...नजर नहीं आते।‘‘


‘‘जी इमाम साहब कुछ मसरूफ था।‘‘


‘‘ओह...आओ बैठो चाय पियो...काफी अर्से बाद मिले हो।‘‘ वह उनके पास जा कर चुपचाप बैठ गया। फिर इमाम साहब ने ही कुरेदा-


‘‘क्या बात है काफी बुझे-बुझे से लग रहे हो...‘‘


‘‘..जी..‘‘ वह कांप कर रह गया।


‘‘क्या बात है, कुछ हिंदू-मुसलमान का मसला है क्या?‘‘ फिर वह सारी बातें उनको बताता चला गया।


सब बातें सुन कर वह बोले-


‘‘यह तो होना ही था। मैने पहले ही नसीम को बोला था।‘‘


‘‘......‘‘


‘‘देखो बर्खुरदार, ऐसा होता कुछ नहीं है। सबकी नस्ल एक, सबका डी एन ए एक। सब एक आदम हौव्वा की औलाद। एक मिनट-


कहते हुए उन्होंने बाजु से मोबाइल उठाया और उसे ऑन करके कोई खबर सामने लगा दिया-


‘’...ये देखो, मोहन भगवत जी क्या कह रहे हैं? कि हम सबका डीएनए एक है| यानी हम सब एक आदम हव्वा की संतानें हैं| न कोई हिन्दू न मुसलमान| अभी शजरा उठा के देखो तो पता चलेगा कहीं न कहीं तुम्हारे वाले भी मुसलमान थे और हमारे वाले भी हिंदू हुआ करते थे।‘‘


वह एकदम से जागा-


‘‘इमाम साहब, यह शजरा क्या कहीं से हमारे अब्बू का मिल सकता है?‘‘

‘‘हूं....काम तो मुश्किल है लेकिन कोशिश की जा सकती है।‘‘


‘‘तो कीजिए न इमाम साहब, यह भेद भाव हम लोग ही मिटा सकते हैं। बहुत सारी उलझनें भी सुलझ जाएंगी।‘‘


‘‘ऐसा है, यह जो शहर की उर्दू लाईब्रेरी मसउदुल उलूम है वहां शहर के सभी बड़े खानदानों के शजरे महफूज किए गए हैं। तुम्हारे अब्बू भी खानदानी हैं। इनके वालिद जमीदार थे। कितने ही गांव इनके पास थे।‘‘


‘‘तो कल चलें‘‘


‘‘नहीं...पहली बात नसीम को पता नहीं लगना चाहिए। दूसरे, उनके वालिद के वालिद, और उनके वालिद का पता करके आना है तुमको।‘‘


आज़ाद ने घर जाते ही कागजों की उलट पलट शुरू कर दी। तीसरे दिन वह इमाम साहब के पास सारा डीटेल ले जा कर पहुंचा। इमाम साहब ने एक हफते के बाद आने को कहा।


अब आज़ाद के दिन गिनने की बारी थी। वह रोज दिन गिन रहा था। कैसे हफ्ता हफ्ता खत्म हो और कोई अच्छी खबर आए। कई बार फोन करना चाहता लेकिन कुछ सोच कर रह जाता। बाकी सब कुछ सामान्य था। आखिर एक सप्ताह पूरा हुआ और ईमाम साहब का फोन आया। उसके दिल की धड़नें तेज हो गयीं। रिसीव किया तो उधर से आवाज आयी-


‘‘शाम को छः बजे मिलो मुझसे...‘‘


अब जल्दी छः नहीं बज रहा था। उसने आज जाने कितनी बार घड़ी देख होगी। आखिर छः बजे और वह पहुंचा ईमाम साहब के पास। इमाम साहब गंभीर मुद्रा में बैठे थे। देखकर वह थेाड़ा सहम गया किसी बुरी आशंका से। फिर धीरे से उनके करीब बैठ गया। कुछ देर खामोशी रही फिर ईमाम साहब ने धीरे से कहा-


‘‘...मिंयां...खाली हाथ आए हो कुछ मिठायी विठायी का बंदोबस्त तो किया होता...‘‘ सुनते ही आज़ाद उछल पड़ा।


‘‘ईमाम साहब...‘‘ इमाम साहब ठठा कर हँसे फिर बोले-


‘‘इंशाल्लाह...सारी उलझनें सुलझ जाएंगी।‘‘


उन्होंने थैले से एक कागज निकाला जो उर्दू में था। फिर वह उसे उलटने-पलटने लगे- ‘‘आज़ाद मियां...यहां तो तुम्हारी किस्मत साथ दे रही है। आगे तुम जानो।


‘‘वह जल्दी से बोला।‘‘


‘‘..यह तुम्हारे अब्बू का शजरा है। तुम्हें जानकर हैरत होगी कि नीचे से सातवीं और छठी पीढ़ी नसीम खां हिंदू ठाकूर थे।‘‘


‘‘सच..?‘‘


‘’देख लो’’ उन्होंने कागज उधर बढ़ा दिया| उसने लिया लेकिन उलट पलट कर फिर वापस कर दिया| इमाम साहब आगे बोले-


‘‘ठाकुर जगजीत सिंह लाहौर के जमींदार थे। सिफत देखो उनका भी तेल का कारोबार था। उनके बाद वाली पीढ़ी में दो बेटे थे। ठाकुर हरमीत सिंह और ठाकुर बलजीत सिह। हरमीत सिंह ने बाप का पेशा अपनाया और ठाकुर बलजीत सिंह ने कपड़े का कारोबार शुरू किया। हरमीत सिंह के बच्चे नहीं थे। बलजीत सिंह की एक बेटी एक बेटा। ठाकुर बलजीत सिंह को अपने चचा का तेल का कारोबार संभालना पड़ा तो उन्होंने कपड़े का कारोबार बंद कर दिया। बलजीत सिंह का बेटा हुआ ठाकुर चरधजीत सिंह। ठाकुर चरणजीत सिंह ने मेंवों का काम शुरू किया। तेल का कारोबार बंद कर दिया। कुछ मसले मसाईल पड़े और इन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया। इनका बेटा हुआ अशरफ खान। अशरफ खान के दो बेटे हुए-यासिर खान और फिरोज खान। यासिर खान के दो बेटे महमूद खान महफूज खान और एक बेटी जरीना। महमूद खान के दो बेटे-मसरूर खान और नदीम खान। नदीम खान की औलाद नसीम खान।‘‘


‘‘वाओ...‘‘ कह कर आज़ाद ने इमाम साहब का हाथ चूम लिया और शजरा उनके हाथ से ले लिया। उसे देखता रहा लेकिन सब उर्दू में था तो कुछ नजर न आया।वापस करते बोला-


‘‘अब बात बन सकती है। सभी को इकट्ठा किया जाए और आप यह तफसील से बताएं सबको।‘‘


‘‘मुझे कोई एतराज नहीं‘‘


महिमा का भाई राहुल श्रीनाथ जी से वापस आ चुका था| मूड काफी सामान्य था| महिमा को देख मुस्कुराया| लेकिन वह कुछ नहीं बोली| उसका चेहरा काफी मुरझाया हुवा था| वह धीरे से जाकर उसके पास कान में बोला-


‘’तेरा काम बनवा दूंगा...टेंशन मत ले..’’


‘’क्या..?’’


‘’ सच’’


वह मुस्कुरा दी|


शाम को राहुल ने जब माँ और पिता साथ ही बैठे थे तो वह समीप जा कर बैठ गया फिर कुछ अटकता सा बोला-


‘’ मुझे आप लोगों से कुछ कहना है|’’


‘’हाँ बोलो’’ दोनों एक साथ बोले|


‘’ वो पापा...आप लोगों को मै अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्म दिखाना चाहता हूँ जो श्रीनाथ जी से बना कर लाया हूँ| ‘’


‘’हाँ...हाँ बिलकुल..महिमा को भी बुला लो...महिमा ओ महिमा...’’


महिमा आई| राहुल प्रोजेक्टर सेट करने लगा| माँ दौड़ कर धूप अगरबत्ती ले आयीं और सुलगा दिया| राहुल और महिमा माँ को फिर एक दुसरे को देख हंस दिए| डॉक्युमेंट्री शुरू हुयी| जैसे जैसे डॉक्युमेंट्री आगे बढ़ी माँ और पापा के चेहरे का रंग बदलता जा रहा था| दोकुय्मेंट्री में बताया जा रहा था कि श्रीनाथ जी की सेवा-श्रृंगार में औरंगजेब के ज़माने से आज तक एक विशेष मुस्लिम समुदाय लगा हुवा है| वही श्रीनाथ जी की देख रेख भी करता है|...डॉक्युमेंट्री समाप्त होते-होते माँ और पिता की आँखें खुली की खुली रह गयीं| जब डॉक्युमेंट्री ख़त्म हुयी तो राहुल ने महिमा को चाय बनाने को भेज दिया| वो चली गयी तो राहुल बोला-


‘’..माँ पापा, आपको पता है मैंने आपको ये फिल्म क्यूँ दिखाई है?’’


“क्यूँ”


‘’इसलिए कि जैसे मेरी आँखों से हिन्दू मुस्लमान की धुंध हट गयी है...आप लोगों की आँखों से भी ये धुध छंट जाये|’’


‘’मतलब?’’


‘’ मतलब महिमा और आज़ाद की शादी कर देनी चाहिए’’


‘’..क्या बकते हो.?’’


‘’क्यूँ?..क्या अब भी आप पाखण्ड लिए बैठे रहोगे? भई जो कौम हमारे श्रीनाथ जी की सेवा सुस्रा में लगी है उससे हमें नफरत करनी चाहिए? हमारे लिए तो वो पूज्निये है| वन्दनिय हैं, हम सब एक हैं पापा, बस इस गन्दी राजनीति ने हम लोगों का इस्तमाल करने के लिए ये भेद भाव फैलाया हुवा है| गोरखनाथ मंदिर के निर्माण के लिए एक मुसलमान राजा ने जगह दी थी| ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं| हम पढ़े लिखे लोग है| अगर हम ही ये अनपढ़ों वाली बातें करेंगे तो समाज कहाँ जायेगा|?’’


राहुल की बात पर दोनों माँ पिता सोच में पड़ गए| तभी महिमा चाय ले कर आ गयी|


तीसरे दिन अचानक आज़ाद दिनेश बाबू के घर महिमा के माता पिता को बुलाने पहुँच गया-


‘’...आंटी, आज आखरी बार आपसे कुछ आग्रह करने आया हूँ इनकार मत कीजियेगा...बाबू जी ने खाने पर बुलाया है आपको और अंकल को| विश्वाश रखिये कोई गलत बात नही होगी| आप लोगों ने इतना प्यार दिया है मुझे तो एक बार मेरा कहना भी मान लीजिये..’’


महिमा की माँ ने पहले महिमा के पिता की ओर देखा| फिर राहुल की तरफ| राहुल तपाक से बोल दिया-


‘’..आज़ाद, अंकल से कहना हम सभी लोग कल आयेंगे...और काम कैसा चल रहा है?’’


‘’बहुत अच्छा भैया..हमने एक और फैक्ट्री लगा ली है’’


‘’वैरी गुड...बधाई हो..’’


आज़ाद चमत्कृत था ये करिश्मा कैसे हुवा? राहुल का तो टोन ही बदला हुवा है| उसने पिता की तरफ देखा, पिता ने हाँ में सर हिलाया तो आज़ाद ने कृतज्ञता से उनके पाँव छू लिए|


दूसरी ओर नसीम खान को भी दावत दे आया। लेकिन किसी पर यह नहीं जाहिर किया कि वहां कौन-कौन आने वाले हैं। ईमाम साहब को भी बुलाया। शाम को सभी इकट्ठा हुए तो एक दूसरे को देख चौंके और कानाफूसी करते रहे। खैर खाना पीना शुरू हुआ। आज़ाद ने सबकी खूब अच्छी मेहमान नवाजी की और फिर जब सभी खाने से फारिग हो गए तो सबसे बोला गया कि कुछ देर बैठ कर ईमाम साहब की बातें सुनें वह कुछ कहना चाहते हैं। सभी संभल कर बैठ गए तो ईमाम साहब ने शजरा पढ़ना शुरू किया और शजरा खत्म होते-होते सबका मुंह खुला का खुला रह गया। इमाम साहब शजरे को समेटते बोले-


‘‘मुझसे इतनी मशक्कत आज़ाद ने करवाई क्योंकि यह बच्चा किसी को खोना नहीं चाहता। न नसीम को न बेटी महिमा को और न ही दिनेश बाबू को। मेहरबानी करके इसके जज्बात समझें आप लोग। हम सब एक मिट्टी के बने एक ही खून पानी से सींचे गए हैं। हम सब आदम हौवा की औलादें हैं। हमारा डी एन ए एक है। फिर किस चीज की गफलत। दो दिन की जिंदगी है फिर हम हिंदू मुसलमान बनके एक दूसरे की खुशियां क्यों छीने। बात तो तब है कि हम इंसान बनके एक दूसरे की खुशियां बांट लें‘‘


राहुल ने बढ़ कर आज़ाद को गले लगा लिया-


‘‘..हम सब तैयार हैं अज्जाद..‘‘


महिमा के पिता ने दिनेश बाबू को गले लगा लिया और धीरे से बोले-


‘’माफ़ करना..मैंने उस दिन बहुत गलत किया आपके साथ’’ अज्जाद ने महिमा के माता पिता के पाँव छुए|


नसीम खान जो अभी तक ठगे से बैठे थे एकदम से बोल पड़े-


‘‘लेकिन शादी किस रीत से होगी?‘‘


‘‘अमां तेवर अब नीचे करो। थोड़ा खुश हो कर दिखाओ..‘‘


ईमाम साहब बोले तो सभी हंस दिए, वह आगे बोले-


‘‘देखो भई...आज हम इसमें भी एक तरह की मिसाल पैदा करेंगे। कैसे... कि हम निकाह भी करेंगे और फेरे भी लिए जाएंगे।‘‘


‘‘..हां यह ठीक रहेगा...डन...‘‘ दिनेश बाबू पुलक उठे। इमाम साहब नसीम खान की और मुखातिब हुए-


‘’बहु मुबारक हो नसीम खान...खुदा जब भी देता है..देता है छप्पर फाड़ के..देखो आज तुम्हारे पास बेटा भी है और कल बहु भी आ जाएगी..’’ नसीम खान ने बढ़ कर महिमा के पिता को गले लगा लिया|


शादी दोनों रीत से निबटा दी गयी थी| जो एक मिसाल बन गयी थी| नसीम खान की कोठी खुशियों से जगमगा रही थी|


बैक ग्राउंड में गूँज रहा था-


छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी


नए दौर में नयी कलम से लिक्खेंगे नयी कहानी...


हम हिन्दोस्तानी....हम हिन्दोस्तानी...


बैक ग्राउंड में गूँज रहा था-






संक्षिप्त परिचय


|| हुस्न तबस्सुम निहाँ ||


नाम- हुस्न तबस्सुम निहाँ


जनम-08 जनवरी, रानी बाग, नानपारा जिला बहराईच, उत्तर प्रदेश।


पिता- श्री अनीस अहमद खां


माँ- श्रीमती हुस्न बानो


sशिक्षा-


अंग्रेजी, हिंदी, समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर । स्त्री अध्ययन और गांधीयन थॅाट में पी0जी0 डिप्लोमा, एम0फिल0, पी-एच.डी. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र से


सम्मान-


समाज रत्न, सरस्वती साहित्य सम्मान, महादेवी वर्मा स्मृति सम्मान, स्व0 हरि ठाकुर स्मृति सम्मान। विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा मानद उपाधि विद्यावाचस्पति (2011) से सम्मानित।


भारत एवं हिंदी प्रचारिणी सभा माॅरिशॅस द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मान (2016) से सम्मानित।


अंतरराष्ट्रीय अवधी महोत्सव (नेपाल) में सम्मानित (2018)


कविता संग्रह-चाँद ब चाँद, शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान (2014) द्वारा पुरस्कृत।


कहानी संग्रह-नीले पंखों वाली लड़कियाँ, स्पेनिन साहित्य गौरव पुरस्कार-(2014) से पुरस्कृत।


कहानी संग्रह- नर्गिस फिर नही आएगी, डॉ. विजय मोहन सिंह स्मृति पुरस्कार--(2017)


कहानी संग्रह -सुनैना...सुनो ना.., डॉ. लाजवंती संक्सेना स्मृति पुरस्कार (2020)


प्रकाशन-


कविता संग्रह- मौसम भर याद, चाँद-ब-चाँद, वादियाँ


कहानी संग्रह-नीले पँखों वाली लड़कियाँ, नर्गिस फिर नहीं आएगी, सुनैना...सुनो ना., गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता,


उपन्यास- फिरोजी आँधियाँ, विष सुंदरी उर्फ सूरजबाई का तमाशा, कामनाओं के नशेमन,


शोध पुस्तक-धार्मिक सह-अस्तित्व और सुफीवाद, आदिवासी विमर्श के विभिन्न आयाम, कविताओं में राष्ट्रपिता


一-‘‘साहित्य में मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे ( विशेष संदर्भ: हुस्न तबस्सुम निंहाँ )‘‘ लघु शोध प्रबंध सुश्री मंजू आर्या द्वारा प्रस्तुत।(स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा)


२- हुस्न तबस्सुम निहाँ की रचनाओं में विद्रोह के स्वर – लेखक रोशन ज़मीर


सम्प्रति- अध्यक्ष, रियल यूटोपिया गार्डन फाउंडेशन, उत्तर प्रदेश


सम्पर्क- रानी बाग, नानपारा, बहराईच, 271865 उ0प्र0


मो0-09415778595, 09455448844


ई-मेल-nihan073@gmail.com



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