व्यंजना

फ़्रेंज़ काफ़्का

• फ़्रेंज़ काफ़्का फ़्रेंज़ काफ्का (३ जुलाई १८८३-३ जून १९२४) बीसवीं सदी के एक सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली, लघु कहानियां और उपन्यास के जर्मन लेखक थे। उनकी रचनाएँ आधुनिक समाज के व्यग्र अलगाव को चित्रित करतीं हैं। समकालीन आलोचकों और शिक्षाविदों, व्लादिमिर नबोकोव सहित, का मानना है कि काफ्का 20 वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक है। "Kafkaesque" अंग्रेजी भाषा का हिस्सा बन गया है जिसका उपयोग 'बहकानेवाला', 'खतरनाक जटिलता' आदि के संदर्भ में किया जाता है। उनकी मुख्य कृतियाँ हैं: द मेटामोर्फोसिस, द ट्रायल, द जजमेंट, द कैस्तल, कांटेम्पलेसन, अ हंगर आर्टिस्ट, लेटर्स टू फेलिस ।


चीन की दीवार


उत्तर के अन्‍तिम मोड़ पर चीन की दीवार का निर्माण पूरा हो गया था। दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्‍चिम की दीवारों के दोनों भाग यहीं आकर मिल गए थे। टुकड़ों में निर्माण का यह सिद्धान्‍त छोटे स्‍तरों पर पूर्वी और पश्‍चिमी दोनों ही श्रम-सेनाओं द्वारा अपनाया गया था। यह इस प्रकार किया गया थाः करीब बीस मजदूरों का एक समूह बनाकर एक निश्‍चित लम्‍बाई की दीवार बनाने का काम दे दिया जाता है, जैसे पाँच सौ गज लम्‍बी दीवार। इसी प्रकार एक दूसरे समूह को इतनी ही लम्‍बाई पर काम में लगा दिया जाता जिनका काम पहिले समूह के किए काम के अन्‍त में आकर समाप्‍त हो जाता था। लेकिन दोनों दीवारों के मिलने के बाद उनसे उस स्‍थान से आगे काम नहीं कराया जाता था, जैसे मान लो हजार गज दीवार जहाँ पूरी हुई, वहाँ से नहीं वरन्‌ मजदूरों के इन दोनों समूहों को पास के किसी दूसरे इलाके में दीवार बनाने लगा दिया जाता था। स्‍वाभाविक है इस प्रकार दीवार के बीच में बड़े-बड़े हिस्‍से बनने से छूटते गए, जिन्‍हें बाद में छोटे-छोटे टुकड़ों में बनाया जाता रहा, यहाँ तक कि दीवार के निर्माण की सरकारी घोषणा के बाद भी इन खाली स्‍थानों पर दीवार बनती रही थी। सच तो यह है कि कुछ लोगों की राय में तो बहुत से ऐसे भागों को कभी पूरा ही नहीं किया गया।


यह एक ऐसा सच था जो दीवार के निर्माण के साथ ही किंवदन्‍ती के रूप में प्रचलित हो गया और जिसे कभी भी जाँचा-परखा नहीं गया था। कम से कम किसी एक व्‍यक्‍ति के द्वारा जिसने अपनी आँखों से पूरी दीवार को देखा हो, दीवार इतनी लम्‍बी जो थी।


सामान्‍य सोच के अनुसार तो कोई भी यही कहता कि अधिक सुविधाजनक तो एक छोर से दीवार का बनाया जाना ही होता अथवा दो भागों में बाँटकर लगातार बनाना ही बेहतर होता। अन्‍ततः सच तो यही था और यही उद्देश्‍य पूरी दुनिया को बतलाया गया था कि इसके निर्माण का उद्देश्‍य उत्तर के निवासियों से रक्षा करना है। लेकिन ऐसी दीवार भला रक्षा कैसे कर सकती थी यदि उसका निर्माण पूरा न किया जाए। ऐसी दीवार न केवल रक्षा करने में असमर्थ होगी वरन्‌ यह तो लगातार ख़तरे का कारण भी बनी रहेगी। दीवार के ये बड़े-बडे़ हिस्‍से जिन्‍हें मरुस्‍थल में बनाकर छोड़ दिया गया था, इन्‍हें खानाबदोशों द्वारा बार-बार गिरा दिया जाता था विशेषकर इसलिए क्‍योंकि ये आदिवासी जातियाँ इन दीवारों को लेकर सशंकित थीं। और वे अपने कैम्‍प तेजी से बदलते रहते थे, टिड्डियों की तरह, इसीलिए दीवार के निर्माण के बारे में उन्‍हें अधिक जानकारी थी कम से कम हम दीवार निर्माताओं से तो कहीं अधिक। बहरहाल और किसी तरीके से दीवार का निर्माण सम्‍भव था ही नहीं इस निर्णय को समझने के लिए पहिले कुछ बातों पर आप ज़रा ग़ौर कर लें - दीवार को आने वाली सदियों तक रक्षा करनी थी। इसीलिए निर्माण में पूरी सावधानी अपरिहार्य थी, अतः पिछली सदियों के पुरखों के निर्माण कार्य के अनुभवों के उपयोग के साथ निर्माताओं में उत्तरदायित्‍व का भाव प्राथमिक आवश्‍यकताओं में था। यह सच था कि दीवार बनाने के लिए अनपढ़-नासमझ मजदूरों के रूप में आदमियों, औरतों और बच्‍चों को रोजनदारी पर रख लिया गया था लेकिन चार दिनों के लिए आए मजदूरों के ऊपर एक जानकार की आवश्‍यकता थी जो निर्माण कार्य में प्रवीणता रखता हो, ऐसा व्‍यक्‍ति जो पूरे दिल से काम करने और कराने में सिद्ध-हस्‍त हो। और जितना बड़ा कार्य उतनी बड़ी जिम्‍मेदारी। साथ ही ऐसे व्‍यक्‍तियों की आवश्‍यकता थी जो निर्माण कार्य में पूरा दिन और पूरा दिल लगाकर काम कर सकें, यही नहीं ऐसे लोगों की आवश्‍यकता बड़ी संख्‍या में थी।


लेकिन दीवार निर्माण का यह कार्य बिना सोच-विचार के आरम्‍भ नहीं किया गया था। पहिले पत्‍थर के रखे जाने के बहुत पहिले स्‍थापत्‍य कला, विशेषकर भवन-निर्माण कला को पूरे चीन के विशाल भू-भाग में सर्वोत्तम ज्ञान की शाखा के रूप में चारों ओर घोषित कर दिया गया था क्‍योंकि देश को दीवारों से घेरा जाना आवश्‍यक हो गया था। इसके साथ ही अन्‍य कलाओं के उसी अंग या शाखा विशेष की पूछ-परख थी जिसमें इसी विषय से सम्‍बन्‍धित सन्‍दर्भ दिए गए थे। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि हम बच्‍चे जो ठीक से अभी सधे पंजों पर खड़ा होना भी नहीं जानते थे, हम अपने शिक्षक के बगीचे में खड़े थे- जहाँ हमें गोल पत्‍थरों से दीवार जैसा कुछ बनाने का आदेश दिया गया था और तभी शिक्षक अपने चोगे को कसकर बाँध पूरी ताकत से दीवार से टकराया था, स्‍वाभाविक है दीवार गिर गई थी और उसने हमें हमारे घटिया काम के लिए इतने जोर से डाँटा था कि हम सभी जोर-जोर से रोते चारों दिशाओं में अपने-अपने माँ-बाप के पास भाग गए थे, एक बेहद सामान्‍य घटना किन्‍तु महत्त्वपूर्ण क्‍योंकि यह अपने समय की आत्‍मा की परिचायक थी।


मैं सौभाग्‍यशाली था कि जिस समय दीवार निर्माण का कार्य शुरू हुआ। उस समय मैं बीस वर्षों का था और मैंने निम्‍नस्‍तरीय स्‍कूल की अन्‍तिम परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मैंने जानबूझकर सौभाग्‍यशाली कहा है क्‍योंकि मुझसे पहिले बहुसंख्‍य लोगों ने संस्‍कृति की उच्‍चतम डिग्रियाँ उत्तीर्ण कर ली थीं, जो उन्‍हें प्राप्‍त हो भी गई थीं लेकिन साल-दर-साल उन्‍हें अपने ज्ञान के बदले में कोई काम ही नहीं मिला था, परिणामस्‍वरूप वे किसी तरह अपनी ज़िन्‍दगी काट रहे थे, जबकि उनके सिरों के अन्‍दर महत्त्वपूर्ण और सुन्‍दर स्‍थापत्‍य सम्‍बन्‍धी योजनाएँ थीं और इसके बावजूद वे निराशा की गर्त्त में डूब गए थे। किन्‍तु उनमें से जिन कुछ लोगों को सुपरवाइजर के रूप में काम मिला, भले ही वह उनके ज्ञान की तुलना में निम्‍न स्‍तर का था, फिर भी वे अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वहाँ ऐसे राजगीर भी थे जिन्‍होंने बहुत सोचा-विचारा था और जिन्‍होंने विचार-मन्‍थन करना अभी भी बन्‍द नहीं किया था कम से कम दीवार के निर्माण को लेकर, ऐसे लोग जिन्‍होंने पहिला पत्‍थर नींव में सरकाने के साथ स्‍वयं को ही दीवार का अभिन्‍न अंग स्‍वीकार लिया था। राजगीरों का यह वर्ग स्‍वाभाविक है तीव्र इच्‍छा रखता था कि वह अपना कार्य पूरी निष्‍ठा और ईमानदारी के साथ पूरी शिद्दत के साथ करे, यही नहीं वे पूरी दीवार के सम्‍पूर्ण रूप से उपयुक्‍त होने के लिए बेताब और बेचैन थे। दैनिक मजदूरों में धैर्य का अभाव था क्‍योंकि वे मात्र अपने दैनिक वेतन पर ही ध्‍यान रखते थे। उच्‍च श्रेणी के सुपरवाइजरों के साथ बीच के सुपरवाइजर भी निर्माण के बहुरूपी विकास को केन्‍द्र में रख अपने विश्‍वास को दृढ़ और उच्‍चस्‍तर पर रखा करते थे। किन्‍तु अपने सहायक सुपरवाइजरों को प्रोत्‍साहित करने के लिए जो उनके बौद्धिक स्‍तर से पर्याप्‍त नीचे थे और जो इसे बेहद साधारण काम मानते थे, उनके लिए दूसरे रास्‍ते निकालना आवश्‍यक था। जैसे उदाहरण के लिए कोई यह आशा नहीं करता था कि वे एक पत्‍थर पर दूसरा पत्‍थर महिनों तक या साल-दर-साल रखते चले जाएँगे-एक पर्वतों से भरे जनशून्‍य स्‍थान में, अपने घरों से हजारों मील दूर रहते हुए, साथ ही इस निराशा के साथ कि यह कठोर श्रम का परिणाम उनके लम्‍बे जीवन में भी पूरा होने वाला तो है नहीं। यह सोच उन्‍हें निराशा की खाई में पटक देती-फलस्‍वरूप स्‍वाभाविक है वे अपना काम लगन से करना बन्‍द कर देते। इस वास्‍तविकता पर मन्‍थन के उपरान्‍त ही टुकड़ों में निर्माण की योजना बनाई गई थी। पाँच सौ गज लम्‍बी दीवार करीबन पाँच वर्षों में पूरी होने का अनुमान था और इन वर्षों में सुपरवाइजरों की पूरी तरह शक्‍ति और ऊर्जा समाप्‍त हो चुकी होगी, यहाँ तक कि वे स्‍वयं पर विश्‍वास करना भी भूल चुके होंगे, यही क्‍यों उनका तो दीवार और दुनिया पर से ही विश्‍वास खण्‍डित हो चुका होगा। इसीलिए जब वे हजार गज दीवार के निर्माण के समाप्‍त होने के उत्‍सव के जोश से भरे, अपने निर्माण पर गर्व कर रहे होते थे, तभी उन्‍हें दूर, बहुत दूर भेज दिया जाता था। रास्‍ते में डन्‍हें यहाँ-वहाँ बनती दीवार, पूरी हो चुकी दीवार दिखती, वे उच्‍चाधिकारियों के मकानों के पास से निकलते थे जहाँ उन्‍हें सम्‍मानपूर्वक पदक भेंट किए जाते थे, देश के विशाल भू-भाग से मजदूरों की नई सेना उत्‍साह से जयकारा करती जाती देखती थी, जंगलों को काटकर दीवारों के सहारे के लिए पेड़ों को खड़ा करते देखते, पहाड़ों की चट्टानों को तोड़कर दीवार के लिए पत्‍थर निकलते देखते, पवित्र स्‍थलों में दीवार की पूर्णता हेतु की जाती प्रार्थनाओं को सुनते उत्‍साह से भरते वे आगे बढ़ते चले जाते थे। ये सभी दृश्‍य मिलकर उनकी अधीरता को शान्‍त करने में सहयोग देते थे। अपने घरों में कुछ दिनों का आराम, जहाँ वे कुछ दिनों के लिए रुकते थे, उनमें नई ऊर्जा से भर देता था। जिस विश्‍वास के साथ उनकी कार्य रिपोर्टों को सुना जाता था, जिस भरोसे के साथ सीधे-सादे शान्‍तिप्रिय किसान उनसे दीवार पूर्ण होने की सूचना से आश्‍वस्‍ति व्‍यक्‍त करते थे, इससे उनकी आत्‍मविश्‍वास की गाँठ सख्‍़त हो जाती थी। शाश्‍वत्‌ आशावादी बच्‍चों की तरह वे अपने घरों को अलविदा कहते थे, उनके अन्‍दर एक बार फिर देश की दीवार के निर्माण में जुट जाने की उत्‍कट अभिलाषा जाग्रत हो जाती थी। छुट्टियाँ समाप्‍त होने के पहिले ही वे निकल पड़ने को आतुर हो उठते थे और उन्‍हें विदा करने आधा गाँव उनके साथ बहुत दूर तक केवल उनके उत्‍साह को देख चलता जाता था। बैनर्स और स्‍कार्फ हिलाते लोगों के समूह उन्‍हें सभी सड़कों पर मिलते थे, यह सब देख उन्‍हें यह अहसास पहिली बार होता था कि उनका देश कितना महान, सम्‍पन्‍न और सुन्‍दर था। प्रत्‍येक देशवासी उनका भाई था, जिसके लिए वह दीवार बना रहा था, सुरक्षा की दीवार और प्रतिदान में वह आजीवन आभारी रहेगा अपनी हर वस्‍तु के लिए जो उसके पास थी। एकता! एकता! कन्‍धे से सटा कन्‍धा, भाइयों का घेरा, रक्‍त संचार जो मात्र एक देह में सीमित नहीं है, वरन्‌ प्रेम से बहता और लौटता हुआ असीम चीन की सीमाओं से।


इस तरह खण्‍डों में निर्माण की यह व्‍यवस्‍था सम्‍भव हुई, लेकिन इसके अतिरिक्‍त कुछ और कारण भी थे। इतनी देर तक इसी प्रश्‍न पर रुके रहना व्‍यर्थ भी नहीं है, यह वास्‍तव में इस दीवार के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न है, भले ही सरसरी तौर पर यह इतना महत्त्वपूर्ण न दिखता हो। यदि मुझे यह बात बतलानी है और उस काल की सोच और भावनाओं को समझने योग्‍य बनानी है तो इस प्रश्‍न पर बिना गम्‍भीरता से चर्चा किए यह सम्‍भव ही नहीं होगा, हालांकि अधिक गहराई तक जाना मेरे वश में है नहीं।


सबसे पहिली बात तो यह कि उन दिनों बेबल की मीनार के निर्माण की तुलना में कमजोर निर्माण के बारे में सोचा ही नहीं जाता था, हालाँकि जहाँ तक दैविक सहमति या अनुमति का प्रश्‍न है और जहाँ तक मनुष्‍यों की सोच का प्रश्‍न है वह कार्य से अधिक असंगत नहीं हो सकता। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्‍योंकि निर्माण के शुरुआती दौर में एक स्‍कॉलर ने एक पुस्‍तक लिखी थी जिसमें उसने विस्‍तार से दोनों निर्माण की तुलना की थी। पुस्‍तक में उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि बेबल की मीनार अपने उद्देश्‍य में असफल उन कारणों से नहीं हुई थी जो दुनिया भर में बतलाए जा रहे थे अथवा स्‍वीड्डत तर्कों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण का तो कभी पता ही नहीं चला था। उसके तर्क और सबूत न केवल लिखित परिपत्रों या रिपोर्टों पर ही आधारित थे, उसके अनुसार वह स्‍वयं उस स्‍थान का निरीक्षण भी कर आया था और इसके बाद निष्‍कर्ष निकाला था कि मीनार इसलिए अपने उद्देश्‍य में असफल हुई और उसे असफल होना ही था- कारण था उसकी नींव। इस परिप्रेक्ष्‍य में हमारा समय उस प्राचीन काल से पर्याप्‍त श्रेष्‍ठ है, हमारे यहाँ प्रायः हर पढ़ा-लिखा व्‍यक्‍ति हमारे समय में व्‍यावसायिक रूप से राजगीर है और नींव रखने में प्रवीण है। हालाँकि वह स्‍कालर मात्र यही सिद्ध नहीं करना चाहता था क्‍योंकि उसकी राय में महान दीवार मानव इतिहास में एकमात्र गवाह होगी साथ ही नई बेबल की मीनार की सुरक्षित नींव भी रखेगी। इसलिए सबसे पहिले दीवार और फिर मीनार। उस ज़माने में यह पुस्‍तक प्रत्‍येक हाथ में हुआ करती थी लेकिन मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं आज भी यह समझ नहीं पाया हूँ कि आखिर उसने मीनार के बारे में सोचा क्‍यों था। भला दीवार जो आधा गोला तक नहीं बनाती, बमुश्‍किल चौथाई या आधा गोला, यह किसी मीनार की नींव कैसे बनेगी। इसका तात्‍पर्य यह है कि इसे आध्‍यात्‍मिक अर्थ में ही स्‍वीकारा गया होगा। लेकिन यदि यही सच था तो फिर दीवार बनाने की भला आवश्‍यकता ही क्‍या थी, जो पूरी तरह से साकार थी, हजारों-लाखों लोगों की ज़िन्‍दगी भर की मजदूरी, खून-पसीना की साकार परिणति? साथ ही पुस्‍तक में वर्णित योजनाओं, धुँधली-धुँधली अस्‍पष्‍ट-सी मीनार की योजनाओं द्वारा विस्‍तार से बतलाया गया था कि जनता की शक्‍ति और ऊर्जा को इस महान कार्य में कैसे लगाया जावेगा?


उस युग में लोगों के पास इस सम्‍बन्‍ध में एक से एक विचित्र विचार थे- स्‍कालर की पुस्‍तक तो एक उदाहरण मात्र है- शायद इसीलिए ताकि बहुसंख्‍य लोग मिलकर पूरी शक्‍ति से जहाँ तक सम्‍भव हो, इस एक उद्देश्‍य की पूर्ति में जुट जावें। मानवीय स्‍वभाव अनिवार्यतः परिवर्तनशील है धूल की तरह अस्‍थिर जो विरोध कतई बर्दाश्‍त नहीं करता, यदि वह अपने को बाँध भी लेता है तो तुरन्‍त ही पागलों की तरह उसे खोलने में जुट जाता है, जब तक वह सब कुछ को चीर-फाड़ न डाले, चाहे वह दीवार हो या कोई बन्‍धन, यहाँ तक कि स्‍वयं को भी।


सम्‍भव है ये सारे विरोधी विचार जो दीवार के निर्माण के विरोध में खड़े हो गए थे, हाई कमाण्‍ड के मन भी रहे होंगे जब उन्‍होंने खण्‍ड निर्माण का निश्‍चय किया था। मैं यहाँ पर्याप्‍त बड़ी संख्‍या की ओर से बोल रहा हूँ, वे वास्‍तव में उन्‍हें जानते ही नही हैं। जब हमने हाई कमाण्‍ड द्वारा पारित आदेशों को जाँचा-परखा तो पाया कि बिना हाई कमाण्‍ड के न तो हमारा पुस्‍तकें पढ़ना और ना ही हमारी मानवीय बुद्धि ही पर्याप्‍त होती जो हम अपने छोटे-छोटे प्रयासों से सम्‍पूर्ण कार्य के लिए करते रहे हैं। कमाण्‍ड आफिस में-वह कहाँ था और वहाँ कौन बैठता था, जिससे भी मैंने प्रश्‍न किया वे इस सम्‍बन्‍ध में कुछ भी नहीं जानते थे और न ही अब जानते हैं- उस आफिस में यह निश्‍चित तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्‍यों का प्रत्‍येक विचार और इच्‍छाएँ वहाँ चक्‍कर लगाती रहती थीं और उनके सभी मानवीय उद्देश्‍य और पूर्णताएँ प्रत्‍युत्‍तर में वहाँ उपस्‍थित थीं। साथ ही वहाँ की खिड़कियों से दैवीय दुनिया के वैभव की परछाइयाँ नेताओं के हाथों में पड़ा करती थीं जब वे अपनी योजनाओं पर चर्चा किया करते थे।


और इसीलिए भ्रष्‍टाचार से परे रहने वालों को यह जानना चाहिए कि नेतृत्‍व यदि गम्‍भीरता से कामना करता तो वह इन बाधाओं के पार भी जा सकता था जो लगातार निर्माण के विरोध में था। अतः शेष बचता है मात्र यह निष्‍कर्ष कि नेतृत्‍व ने जानबूझकर खण्‍ड-निर्माण का चुनाव किया था। लेकिन खण्‍ड निर्माण मात्र पालियों (शिफ्‍टों) में होना अनुपयुक्‍त था। अतः निष्‍कर्ष यह निकलता है कि नेतृत्‍व कुछ अनुपयुक्‍त की ही इच्‍छा करता था- आश्‍चर्यजनक निष्‍कर्ष है न! यह सच है और एक दृष्‍टिकोण से इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। आज तो इस विषय पर आराम से बिना किसी चिन्‍ता के कोई भी चर्चा कर सकता है। उन दिनों अधिकांश लोग और उनमें से भी श्रेष्‍ठ मस्‍तिष्‍कों के स्‍वामियों के पास भी एक गुप्‍त रहस्‍यमय कथन था, जिसके अनुसार हाई कमाण्‍ड के आदेश को अपनी पूरी क्षमता से पूर्ण करने की कोशिश करो लेकिन मात्र एक निश्‍चित बिन्‍दु तकऋ इसके बाद उस बारे में सोच-विचार पूरी तरह बन्‍द कर दो। एक सूक्‍ति व समझदारी भरी सूक्‍ति, जिसके विषय में विस्‍तार से एक नीतिकथा में दर्शाया गया है जिसे लोग प्रायः उद्धृत कर दिया करते थे। आगे ध्‍यान देने से बचो लेकिन इसलिए नहीं कि वह हानिप्रद हो सकता है, क्‍योंकि यह भी अन्‍ततः निश्‍चित नहीं है कि वह हानिप्रद वास्‍तव में है ही। क्‍या हानिप्रद है और क्‍या नहीं का प्रश्‍न से कोई सम्‍बन्‍ध ही नहीं है, इसलिए बेहतर होगा कि बसन्‍त ऋतु में नदी के विषय में सोचो। वह फैलती-बढ़ती जाती है जब तक वह शक्‍तिशाली नहीं हो जाती और धरती का पालन-पोषण करती है अपने तटों का दूर-दूर तक लेकिन अपनी दिशा को कभी नहीं भूलती और उसी पर चलती रहती है, जब तक वह समुद्र से मिल नहीं जाती, जहाँ उसका खुले हृदय से स्‍वागत किया जाता है क्‍योंकि वह एक उपयुक्‍त सहयोगी है- इसलिए कुछ दूर तक तो हाई कमाण्‍ड के निर्देशों का पालन और ध्‍यान रखना आवश्‍यक है, लेकिन उसके बाद नदी अपने किनारे तोड़ देती है, उसका आकर विलुप्‍त हो जाता है, उसकी धारा की गति को धीमा कर देती है, अपनी नियति की चिन्‍ता न कर धरती के ऊपर ही अपने स्‍वयं के छोटे-छोटे समुद्रों का निर्माण कर लेती है, खेतों को नुकसान पहुँचाती है और इतना सब करने के बावजूद अपने नए रूपाकार को अधिक समय तक बनाए नहीं रख पाती और अपने पुराने तटों के बीच बहने को उसे तैयार होना पड़ता है, गर्मियों में बहुत से स्‍थलों पर उसे सूखना भी पड़ता है, स्‍वाभाविक है वह मौसम भी आता ही है- इसीलिए अधिक दूरी तक हाई कमाण्‍ड के निर्देशों और नियमों पर तुम्‍हें चिन्‍तन-मनन करने की आवश्‍यकता ही नहीं है।


अब यह जो लोककथा है इसका प्रभाव दीवार निर्माण पर अधिक मात्रा में रहा होगा, किन्‍तु मेरे वर्तमान आलेख के लिए तो यह केवल सीमित सन्‍दर्भ ही रखती है। मेरी जाँच-पड़ताल और खोज तो विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक है, बहुत दिनों से कोई बिजली न तो लपलपाती है, न ही कौंधती ही है क्‍योंकि गरजने वाले बादल कहीं नहीं हैं और इसलिए मैं इस प्रखण्‍ड निर्माण की व्‍यवस्‍था की व्‍याख्‍या करना चाहता हूँ, जो वहाँ से बहुत आगे जाती है जिस पर उस समय के लोग सन्‍तुष्‍ट हो जाया करते थे। मेरी वैचारिक क्षमता पर्याप्‍त सीमित है किन्‍तु जिस लम्‍बे-चौड़े विशाल भू-भाग पर मुझे चलना है वह असीम है। यह महान दीवार किससे रक्षा के लिए बनाई गई थी? उत्‍तर के निवासियों के विरुद्ध! अब मैं तो चीन के दक्षिण-पूर्व का हूँ। उत्‍तर का कोई भी व्‍यक्‍ति हमारे लिए ख़तरनाक नहीं बन सकता। हम पुरानी पुस्‍तकों में पढ़ते हैं, उन क्रूरताओं के बारे में जो उन्‍होंने अपनी प्रड्डति के चलते की थीं, जिन्‍हें शान्‍त पेड़ों के नीचे बैठ पढ़ते हुए हम लम्‍बी साँसें लेते हैं। कलाकारों द्वारा किए गए उनके यथार्थ चित्रण हमें बतलाते हैं इन शैतान चेहरों के खुले मुँह से झाँकते बड़े-बड़े नुकीले दाँत, उनकी अधखुली आँखें जो पहिले से ही शिकार को अपने जबड़ों में फँसा निगलने को तैयार हैं। जब भी हमारे बच्‍चे शैतानी करते हैं हम उन्‍हें ये चित्र दिखलाते हैं और एक नज़र पड़ते ही वे रोते हुए हमारी बाँहों में समा जाते हैं। बस, इसके अतिरिक्‍त हम उत्‍तरवासियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते। हमने उन्‍हें देखा नहीं है और यदि हम गाँवों में रहे आते हैं तो उन्‍हें कभी देखेंगे भी नहीं, भले ही वे अपने जंगली घोड़ों को तेजी से दौड़ाते सीधे क्‍यों न हमारी ओर आवें। तब भी नहीं, हमारा देश बहुत विशाल है और उन्‍हें हमारे पास तक पहुँचने नहीं देगा, उनकी मन्‍जिल ख़ाली हवा में ही ग़ायब हो जावेगी।


यदि यह सच है तो फिर भला हमने अपना घर क्‍यों छोड़ा, झरनों को उनके पुलों के साथ, अपनी माताओं और पिताओं, अपनी सुबकती पत्‍नियों, अपने बच्‍चों को जिन्‍हें हमारी आवश्‍यकता है। हम दूर बसे शहरों में टे्रनिंग के लिए क्‍यों जाते हैं, जबकि हमारी कल्‍पना हमें वहाँ से भी बहुत दूर वहाँ ले जाती है जहाँ दीवार है। क्‍यों? हाई कमाण्‍ड के लिए प्रश्‍न। हमारे नेता हमारे स्‍वभाव से अच्‍छी तरह परिचित हैं। भले ही वे विशाल समस्‍याओं को ले चिन्‍तित हों, हमारे बारे में वे जानते हैं, हमारी छोटी-छोटी आकांक्षाओं को। वे हमें अपनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में बैठा देखते हैं, हमारी सन्‍ध्‍या प्रार्थनाओं से सहमत-असहमत होते देखते रहते हैं जिसे घर का बुर्जुग परिवार के बीच दोहराता बैठा रहता है। यदि मुझे अपने इस प्रकार के विचार प्रकट करने की अनुमति है तो मैं यही कहूँगा कि मेरी राय में हाई कमाण्‍ड प्राचीन काल से अस्‍तित्‍व में है, वह यों ही बुला नहीं लिया गया है, जल्‍दी से इकट्ठी की गई मेंडरीन ;चीनी भाषाद्ध हो जो किसी के सपने पर चर्चा के लिए बुलाई हो और उतनी ही जल्‍दी से उसे बर्खास्‍त कर दिया जाता है ताकि उसी शाम लोगों को ढोल बजाकर बिस्‍तरों से उठा दिया जाता है निर्णय के अनुसार निर्धारित काम करने के लिए, भले ही वह कुछ भी क्‍यों न हो, वह एक पुच्‍छल तारा ही हो जो ईश्‍वर के सम्‍मान में निकला हो, जिसने मालिकों का एक दिन पहिले ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया हो और दूसरे ही दिन किसी अन्‍धेरे कोने में धक्‍के और लाठियाँ मार-मारकर ढकेल दिया गया हो, वह भी पुच्‍छल तारे के अन्‍तिम भाग के लुप्‍त होने के पहिले भले ही बहुत दूर क्‍यों न हो। मैं विश्‍वास करता हूँ कि हाई कमाण्‍ड का अस्‍तित्‍व अनन्‍त काल से है और उसी तरह से उनका दीवार बनाने का निर्णय भी। अब यह तो उनका अज्ञान ही है कि उत्‍तरवासी समझते हैं उनके कारण दीवार बनाई जा रही है। अनजान ईमानदार सम्राट जिसने कल्‍पना की कि उसने निर्माण का आदेश दिया था। हम दीवार निर्माण में व्‍यस्‍त राजगीर अच्‍छी तरह जानते हैं कि ऐसा कुछ है नहीं, इसके साथ ही हम अपनी जुबान भी हमेशा बन्‍द रखते हैं।


दीवार के बनते समय से आज तक मैंने स्‍वयं को जातियों के तुलनात्‍मक इतिहास के एकमात्र काम में व्‍यस्‍त रखा है- कुछ प्रश्‍न ऐसे हैं जिन्‍हें कोई चाहे तो उसकी हड्डियों की मज्‍जा तक पहुँच सकता है, जैसे वे हैं, ठीक इसी विधि से और मैंने खोज लिया है कि हम चीनियों में कुछ लोक और कुछ राजनैतिक संस्‍थाएँ हैं जो अपनी विशिष्‍टताओं में स्‍पष्‍ट हैं, और कुछ अन्‍य दुरूहता में विशिष्‍ट हैं। इन विचित्रताओं के कारणों को जानने की तीव्र इच्‍छा, विशेषकर बाद में हुई। घटनाएँ मुझे सदैव चिढ़ाती रही हैं और अभी भी चिढ़ाती हैं और दीवार निर्माण भी इसी समस्‍या का अंग है।


हमारे यहाँ सर्वाधिक दुरूह संस्‍था आप जानते हैं साम्राज्‍य ही है। पीकिंग की राजकीय कोर्ट में स्‍वाभाविक है इस विषय में पर्याप्‍त स्‍पष्‍टता मिलती है, हालाँकि वह भी यथार्थ से कुछ अधिक ही भ्रामक है। साथ ही हाईस्‍कूल के राजनैतिक-विधि एवं विधि के शिक्षक यह मानते हैं कि वे इस विषय के ज्ञाता हैं और उनमें इतनी सामर्थ्‍य है कि वे उस ज्ञान को अपने छात्रों को देने में भी समर्थ हैं। जितना अधिक कोई समाज नीचे स्‍तर के स्‍कूलों में जाता है, वहाँ स्‍वाभविक रूप से ऐसे शिक्षक और छात्र मिलते हैं जिनको अपने ज्ञान पर सन्‍देह बिल्‍कुल भी नहीं होता है और एक सतही दिखावटी-सी संस्‍ड्डति क्रमशः आकाश की ऊँचाई तक जाती दिखती है जो कुछ नियमों के चारों ओर घूमती है, जिन्‍हें लोगों के मस्‍तिष्‍कों में सदियों से ढूँढ़ा जाता रहा है, नियम या आदेश, अपने अजर-अमर सत्‍य, जिसमें से कुछ भी कम नहीं हुआ है, लेकिन वे शाश्‍वत रूप से सदैव सन्‍देहों के कोहरे में अदृश्‍य रहे हैं।


किन्‍तु यह साम्राज्‍य का प्रश्‍न ही तो है जो मेरी राय में सामान्‍य जनता से जिसका उत्‍तर पूछा जाना चाहिए, क्‍योंकि वे ही तो हैं जो साम्राज्‍य के अन्‍तिम आसरा हैं। यहाँ, मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं केवल अपने जन्‍म स्‍थान के विषय में ही ईमानदारी से कह सकता हूँ। प्राड्डतिक देवता और उनके कर्मकाण्‍ड जो पूरे वर्ष को सुन्‍दरता और प्‍यारे परिवर्तनों से भरे रखते हैं, इसके अतिरिक्‍त यदि हमारे चिन्‍तन का कोई विषय होता है तो वे सम्राट ही हैं। लेकिन वर्तमान सम्राट के प्रति नहीं, या फिर हम वर्तमान के बारे में विचार करते यदि हमें पता होता कि वे कौन हैं, या उनके सम्‍बन्‍ध में कुछ तथ्‍यों से परिचित होते, सच यही है कि उत्‍सुकता ही है जिसमें हम सदैव व्‍यस्‍त रहते हैं- हम हर सम्‍भव प्रयास करते हैं इस विषय में जानकारियों और सूचनाएँ प्राप्‍त करने की, चाहे वे तीर्थयात्रियों से ही क्‍यों न मिलें, क्‍योंकि उन्‍होंने लम्‍बे-चौड़े इलाके की यात्रा की होती है, या फिर पास या दूर के गाँवों से, या नाविकों से, क्‍योंकि उन्‍होंने न केवल हमारे झरनों को पार किया होता है वरन्‌ पवित्र नदियों को भी। ढेर सारी सूचनाएँ और समाचार एक व्‍यक्‍ति को मिलते हैं यह सच है, लेकिन कुछ भी निश्‍चित तथ्‍य एकत्र नहीं कर पाता।


हमारा देश इतना विशाल है कि कोई भी पौराणिक कथा उसकी विशालता के साथ न्‍याय नहीं कर सकती, स्‍वर्ग (आकाश) उसे नाप नहीं सकता और पीकिंग तो उसमें मात्र एक बिन्‍दु ही है और सम्राट का महल बिन्‍दु से भी छोटा। दूसरी ओर जहाँ तक सम्राट का प्रश्‍न है वह दुनिया के सभी धार्मिक राजनैतिक वर्गों में सर्वाधिक शक्‍तिशाली है, यह मैं स्‍वीकारता हूँ। लेकिन वर्तमान सम्राट हमारे-आपके जैसा एक व्‍यक्‍ति है, जो पलंग पर हमारी तरह ही लेटता है, जो हो सकता है विशाल हो या फिर यह भी सम्‍भावना है कि वह सकरा और छोटा हो। हमारी ही तरह वह कभी-कभार स्‍वयं को खींचता है और जब वह थक जाता है तो सुन्‍दर तराशे मुँह से जम्‍हाई भी लेता है। लेकिन इस सबका हमें भला पता कैसे चलेगा-हजारों मील दूर दक्षिण में तिब्‍बत की पर्वत श्रृंखलाओं की सीमाओं के पास? और इसके साथ ही जो भी ज्‍वार-भाटे वहाँ उठते हैं यदि वे हमारे पास तक पहुँचते भी हैं, तो बहुत देर से पहुँचते हैं और हम तक पहुँचने के पहिले ही लुप्‍त प्रायः हो चुके होते हैं। सम्राट सदैव बुद्धिमान किन्‍तु फिर भी अस्‍पष्‍ट से दरबारियों और कुलीनों से घिरे रहते हैं- नौकरों व मित्रों के वेश में विद्वेष और शत्रुता-जो साम्राज्‍य की शक्‍ति पर विरोधी दबाव बनाते हैं और लगातार सम्राट को पदच्‍युत करने के लिए विषाक्‍त बाण चलाते रहते हैं। साम्राज्‍य अमर है किन्‍तु सम्राट स्‍वयं लड़खड़ाता है और सिंहासन से उतार दिया जाता है। हाँ, सच यही है कि साम्राज्‍य अन्‍ततः डूब जाते हैं और अपनी मौत की बड़बड़ाहट में अन्‍तिम साँसें लेते हैं। इन संघर्षों और पीड़ाओं से जनता कभी परिचित नहीं होती, हारे-थके आगन्‍तुकों की तरह, शहर में आने वाले अजनबियों की तरह, किसी भीड़ भरी सड़क के किनारे खड़े हो, साथ लाए खाने को चबाते खड़े रहते हैं, जबकि उसी इलाके के सामने बहुत-बहुत दूर शहर के बीच के चौराहे पर उनके शासक को फाँसी दी जा रही होती है।


एक नीति कथा है जो इस पूरी स्‍थिति को बहुत अच्‍छी तरह समझाती हैः सम्राट ने, इस कथा के अनुसार, एक सन्‍देश तुम्‍हारे पास भेजा, एक सीधे-सादे नागरिक के पास, साम्राज्‍य के सूरज ने अपने विशाल देश के बहुत दूर, बेहद दूर स्‍थित महत्त्वहीन छाया के पास, सम्राट ने अपनी मृत्‍युशय्‍या से केवल आपके पास सन्‍देश भेजा। उसने सन्‍देशवाहक को आदेश दिया कि वह उसके पलंग के पास घुटनों के बल बैठ जाए, और तब उसने फुसफुसाकर सन्‍देश बतलाया। फिर उसने ज़ोर देकर सन्‍देशवाहक से कहा कि जो भी सन्‍देश उसने अभी बतलाया है, वह उसके कानों में दोहराए। सुनने के बाद उसने सिर हिलाकर यह निश्‍चित किया कि सन्‍देश सही है। आपने देखा न कि अपनी मृत्‍यु के अनगिनत दर्शकों के बीच-जहाँ सभी बाधा डालने वाली दीवारों और अवरोधकों को गिरा दिया गया था और ऊँची-चौड़ी सीढ़ियों पर साम्राजय के सभी राजकुमार एक घेरा बनाए खड़े थे- इन सबके सामने उसने अपना सन्‍देश सुना दिया। सन्‍देशवाहक तुरन्‍त अपनी यात्रा पर निकल पड़ा, एक तन्‍दुरुस्‍त, न थकने वाला आदमी-अब अपने दाहिने हाथ को आगे बढ़ाता, फिर बाएँ को, इस प्रकार भीड़ की चीरता वह अपनी राह पर चलता गया। जहाँ भी उसे विरोध का सामना करना पड़ा, उसने तुरन्‍त अपने सीने की ओर इशारा कर दिया जहाँ सूर्य का चिन्‍ह चमक रहा था, तुरन्‍त ही उसके लिए रास्‍ता आसान कर दिया जाता था, जो अन्‍य किसी के लिए नहीं होता। लेकिन जनसंख्‍या इतनी अधिक है कि उनकी संख्‍या का कहीं कोई अन्‍त ही नहीं है। यदि वह खुले खेतों-मैदानों में पहुँच जाता तो वह कितनी तेजी से उड़ता हुआ-सा चलता और निस्‍सन्‍देह बहुत जल्‍दी आप अपने दरवाजों पर उसकी मुट्ठियों की आवाज़ सुनते। लेकिन ऐसा होता नहीं है- उसकी शक्‍ति बहुत जल्‍दी ही क्षीण होने लगती है, लेकिन वह महल के आन्‍तरिक हिस्‍से के गलियारों में किसी तरह रास्‍ता बनाता चलता जाता है, जिसके अन्‍त में वह कभी भी पहुँच ही नहीं पाएगा और यदि वह सफल हो भी जाता है तो भी कुछ होने वाला नहीं है, उसे सीढ़ियों के बीच में लड़-झगड़कर रास्‍ता बनाना होगा और यदि वह सफल हो भी जाता है तो भी कुछ फायदा होने वाला नहीं है, अभी दरबारों को पार करना है उसे, दरबारों के बाद दूसरा बाहरी महल और फिर एक बार सीढ़याँ और दरबार और फिर आगे एक और महल और इस तरह हज़ारों वर्षों तक यही अनथक क्रम और यदि अन्‍ततः वह बाहरी दरवाजों को तोड़कर निकल पाने में समर्थ होता है- लेकिन नहीं, यह कभी नहीं होगा- साम्राज्‍य की राजधानी उसके सामने होगी, दुनिया का केन्‍द्र, अपने कूड़े-करकट से फटने की हद तक भरा। यहाँ से लड़-झगड़कर कोई भी रास्‍ता बनाकर जा ही नहीं सकता, यहाँ तक कि मृतक का शोक सन्‍देश लेकर भी। इसलिए बेहतर यही है कि तुम सूरज ढलते और शाम के उतरते समय खिड़की के पास बैठो और स्‍वयं उसका सपना देख लो।


तो इन परिस्‍थितियों में, इतनी निराशाओं के बीच आशा को जीवित रख हमारी जनता सम्राट का सम्‍मान करती है। वे यह भी नहीं जानते कि कौन सम्राट राज्‍य कर रहा है, यही नहीं उनके मन में राजवंश को लेकर भी सन्‍देह होते हैं। स्‍कूलों में पर्याप्‍त विस्‍तार से राजवंशों और उनके उच्‍चाधिकारियों के बारे में विस्‍तार से तारीखों सहित पढ़ाया जाता है लेकिन इस सम्‍बन्‍ध में सर्वकालिक अनिश्‍चितता चली आ रही है कि श्रेष्‍ठतम विद्वत्‌जन भी इसके भ्रमजाल में फँस जाते हैं। पता नहीं कब के मर-खप चुके सम्राटों को हमारे गाँव में राजगद्दी पर बैठा दिया जाता है और एक जो मात्र गीतों में ही जीवित है, अभी कुछ दिन पहिले उसकी घोषणाओं को पूजा स्‍थल पर पढ़ा गया है। युद्ध जो प्राचीन इतिहास में दफन हैं हमारे लिए हाल-फिलहाल ही हुए हैं और किसी का भी पड़ोसी चमकते-दमकते चेहरे के साथ उसके समाचार को आए-दिन सुनाते देखा जा सकता है। सम्राटों की रानियाँ, जिन्‍हें चतुर-चालाक दरबारी, राजसी रीति-रिवाजों द्वारा पथभ्रष्‍ट प्रायः ही कर लिया करते हैं, जो महत्‍वाकाँक्षाओं से मुटियाती दैहिक कामनाओं में असंयमित और घोर लालची होने के साथ अपनी घृणित आदतों में मगन रही आती हैं। वे अपने समय में जितनी गहराई में दफन हैं, उनके कार्यों को उतने ही गहरे रंगों से रंगा जाता है और दर्द भरी लम्‍बी-सी आह के साथ हमारे गाँव वाले अन्‍ततः सुनते हैं कि कैसे हजारों वर्षों पहिले एक साम्राज्ञी ने अकाल के दिनों में अपने ही पति का रक्‍तपान किया था।


आप समझे न, कि हमारी जनता अपने विगत सम्राटों के साथ कैसा व्‍यवहार करती है, किन्‍तु विडम्‍बना यह है कि वे जीवित शासकों को भी मृत समझ लेते हैं। यदि एक बार, बस आदमी की ज़िन्‍दगी में एक बार कोई राजकीय अधिकारी अपने प्रान्‍तीय दौरे पर मान लो धोखे से हमारे गाँव में आ जावे न, और शासन की ओर से कुछ घोषणाएँ कर दे या फिर कर-सूची की जाँच कर ले, या स्‍कूल के बच्‍चों की परीक्षा ले ले या पुजारी से हमारे क्रिया-कलापों के विषय में प्रश्‍न कर ले और फिर इसके पहिले कि वह अपनी पालकी में बैठे और एकत्रित सामूहिक ग्रामवासियों के सामने अपने निष्‍कर्षों की चेतावनियों को शब्‍दों का रूप दे-प्रत्‍येक के चेहरे पर मुस्‍कराहट तैरने लगेगी, हर कोई अपने पड़ोसी की ओर चोर-निगाह से देखेगा और अपने बच्‍चों के साथ कमर तक झुक जावेगा ताकि अधिकारी किसी मृतक के विषय में ऐसे बतला रहे हैं, जैसे वह जीवित न हो, जबकि उनका यह सम्राट तो बहुत पहिले ही मर चुका है, उसका वंश ही समाप्‍त हो चुका है, अच्‍छा-भला अधिकारी उसके बारे में हम से वास्‍तव में मजाक कर रहा है, लेकिन हम कुछ ऐसा व्‍यवहार करेंगे जैसे हमने इस पर ध्‍यान ही नहीं दिया हो, ताकि उसका अपमान न हो। किन्‍तु हम पूरी निष्‍ठा और ईमानदारी से अपने वर्तमान शासक के अलावा और किसी की भी आज्ञा नहीं मानते, क्‍योंकि ऐसा करना तो घोर दण्‍डनीय अपराध होगा न। -और अधिकारी की पालकी के विदा होते ही, वह उठ खड़ी होती है गाँव के शासक की तरह कोई भी एक आड्डति आकस्‍मिक रूप से उल्‍लास से भरे उस कलश की तरह जो पहिले ही धूल में मिल चुका है।


इस प्रकार हमारी जनता पर न तो राज्‍य में होती किसी क्रान्‍ति या विद्रोह का कोई प्रभाव पड़ता है, न ही किसी समकालीन युद्ध का। अपनी युवावस्‍था की एक घटना मुझे याद आ रही है। हमारे पड़ौस में विद्रोह हो गया था, हालाँकि खासे दूर के प्रान्‍त में। किस कारण हुआ था, अब यह तो मुझे याद नहीं है और फिर आज इसका कोई महत्त्व भी नहीं है। विद्रोह के कारण तो यहाँ किसी भी दिन पाए जा सकते हैं, आप तो जानते ही हैं जनता कितनी जल्‍दी उत्तेजित हो जाती है। हाँ, तो एक दिन विद्रोहियों द्वारा वितरित एक कागज मेरे पिता के घर में एक भिखारी लेकर आया, जो उस प्रान्‍त से होकर आया था। वह भोज का दिन था, हमारे कमरे मेहमानों से भरे थे, पुजारी ने प्रमुख आसंदी पर बैठकर उसे पढ़ा। एकाएक सभी हँसने लगे, वह कागज का टुकड़ा फट गया, भिखारी को जिसे आवश्‍यकता से अधिक भीख मिल चुकी थी, घूँसों-थप्‍पड़ों से मार-मारकर कमरे से बाहर निकाल दिया गया और मेहमान सुहावने दिन का आनन्‍द उठाने तितर-बितर हो गए। भला ऐसा क्‍यों हुआ? उस पड़ोस के प्रान्‍त की स्‍थानीय भाषा हमारी अपनी भाषा से पर्याप्‍त भिन्‍न है और यह भिन्‍नता लिखने की भाषा में भी आ जाती है, जो हमारे पुरातन भाव को समाहित किए हुए है। अभी बमुश्‍किल से पुजारी ने दो पंक्‍तियाँ ही पढ़ी थीं कि हमने अपने निष्‍कर्ष निकाल लिए थे। प्राचीनतम इतिहास जो हमें बहुत पहिले ही बतला दिया गया था, पुराने घाव जो बहुत पहिले ही सूख चुके हैं। हालाँकि आज स्‍मरण करते हुए ऐसा लगता है- वर्तमान जीवन की वीभत्‍सता को भिखारी के पर्चे में लिखे शब्‍दों में अकाट्‌य रूप से वर्णन किया गया था- जिसे सुन हम सभी हँस पड़े थे और सिर हिलाने लगे थे और आगे सुनने को कतई तैयार न थे। इतने बेसब्र हैं हम लोग अपने वर्तमान को भूलने के लिए।


इस सबको देख यदि कोई यह निष्‍कर्ष निकाले कि वास्‍तव में हमारा कोई सम्राट है ही नहीं, तो वह सत्‍य से दूर नहीं है। बार-बार इसे दोहराते रहना होगा। सम्‍भवतः हमारी जनता से अधिक सम्राट की स्‍वामिभक्‍त जनता और कहीं नहीं होगी, विशेषकर दक्षिण में, किन्‍तु सम्राट हमारी विश्‍वसनीयता से कोई लाभ नहीं उठाते। सच है कि पवित्र ड्रेगन ;अजगरद्ध हमारे गाँव के अन्‍त में लगे एक खम्‍भे पर खड़ा है और मानवीय स्‍मृति के प्रारम्‍भिक काल से ही वह अपनी अग्‍नि की लपटों से भरी श्‍वासें पीकिंग की ओर सम्‍मान में फेंकता चला आ रहा है, लेकिन पीकिंग हमारे गाँववासियों के प्रति दूसरी दुनिया की तुलना में कुछ ज्‍यादा ही अनुदार है। क्‍या कहीं भी ऐसा गाँव होगा जहाँ मकान एक-दूसरे से सटकर बने हों और सारे खेत मकानों से भर गए हों-हमारी पहाड़ी पर खड़े हो बड़ी दूर तक चारों ओर नजरें घुमाकर कोई भी इस बात की तस्‍दीक कर सकता है। और क्‍या इन घरों में इतने अधिक लोगों की भीड़ दिन-रात भरी रह सकती है? ऐसे शहर के चित्र को बनाना हमारे लिए अधिक कठिन है, बजाय इस बात पर विश्‍वास करने के, कि पीकिंग और सम्राट एक ही है, एक बादल कहना चाहिए जो आराम से सूर्य के नीचे युगों से यात्रा कर रहा है।


अब ऐसी राय के उपरान्‍त निकाले निष्‍कर्षों के बाद जीवन तो पूर्णतः स्‍वतन्‍त्र और अमर्यादित ही होगा। हालाँकि अनैतिक किसी भी रूप में नहीं। मैंने अपनी यात्राओं में इतने शुद्ध नैतिक मूल्‍य नहीं पाए हैं, जितने हमारे अपने गाँव में हैं। किन्‍तु इसके बावजूद एक ऐसी जिन्‍दगी जो समकालीन नियम-कायदों से कतई प्रभावित नहीं होती हो और जो मात्र प्राचीन नियमों और ख़तरों को ही स्‍वीकारते हों।


मैं विस्‍तृत रूप से सामान्‍यीकरण नहीं करना चाहूँगा और ना ही ज़ोर देकर कहूँगाः कि मेरे प्रान्‍त के अनगिनत गाँवों का हाल-हवाल कुछ ऐसा ही है, चीन के पाँच सौ प्रान्‍तों की तुलना में कम। किन्‍तु सम्‍भवतः इस विषय में पढ़े बहुत से लेखों और अपने व्‍यक्‍तिगत अनुभवों के बाद मैं ज़ोर देकर कह सकता हूँ - दीवार के निर्माण में विशेष तौर पर जिसमें मानवीय शक्‍ति और ऊर्जा लगाई गई हो, एक अवसर मिला जिससे सभी प्रान्‍तों की आत्‍माओं को समझने का अवसर प्राप्‍त हुआ, इसी के आधार पर सम्‍भवतः मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि सम्राट के प्रति वर्तमान दृष्‍टिकोण सामान्‍यतः सार्वकालिक रूप में वही है जो हमारे अपने गाँव का है। अब मेरी ऐसी कोई इच्‍छा नहीं है कि इस विचार में निहित सत्‍य में कोई परिवर्तन करूँ, वरन्‌ इसके विपरीत सच तो यह है कि इसका प्रारम्‍भिक उत्‍तरदायित्‍व तो सरकार का ही है जो दुनिया में सबसे प्राचीनतम साम्राज्‍यों में से एक है और जिसने इसके विकास में कोई सफलता नहीं पाई है तथा विकसित करने को नकारा है जिसमें साम्राज्‍य को एक संस्‍था के रूप में विकसित किया जाता कि उसकी कार्यप्रणाली सीधे बिना बाधाओं के देश के सर्वाधिक दूर स्‍थित गाँवों तक पहुँच जाती। दूसरी ओर यह भी सच है कि जनता की कल्‍पना क्षमता और विश्‍वास में कमी है जो उसे पीकिंग साम्राज्‍य की गतिहीनता को जाग्रत करने में समर्थ होती और उसकी वर्तमान सच्‍चाइयों को अपने सीने से लगाने के लिए प्रेरित करती, जनता जो इससे अधिक की कामना नहीं करती कि कम से कम उसे स्‍पर्श तो किया और फिर मरने के लिए छोड़ दिया।


यह धारणा कोई निश्‍चित गुण नहीं है। फिर भी यह महत्त्वपूर्ण है कि यह दुर्बलता ही हमारी जनता की एकता को सर्वाधिक रूप से प्रभावित करती है, यदि कोई ऐसा कहने का साहस करे कि उस ज़मीन में जिसमें हम रहते हैं तो, यहाँ किसी दोष को स्‍थापित करने का अर्थ हमारे विवेक को अस्‍वीकारना मात्र ही नहीं होगा वरन्‌ उससे बुरा होगा हमारे पैरों के तले की ज़मीन को नकारना। और इसीलिए मैं इस स्‍तर के आगे जाँच के इन प्रश्‍नों को आगे नहीं बढ़ाऊँगा।


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साभार :hindikahani.hindi-kavita.com




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