व्यंजना

तुम कहते हो अपने...अपने होते हैं

- विमल कान्त बाजपेई


इतिहास...

कई परतें धूल की जब

उतरने लगीं

एक एक स्मृति

निखरने लगी..

इतिहास... इतिहास... इतिहास!!!

यह इतिहास

अंधकार में जन्म लेकर

पुनः गहरा हो जाता है

अंत में पूर्ण अंधकार सा

स्मृति के प्रत्येक पृष्ठ पर

रहता है मौन जीवित...

तुम जैसे

हृदयहीन इन पृष्ठों पर

दे देते हो अन्यायोचित

हस्ताक्षर...

अपितु, यह जग

समवेत स्वर में

कहता है...

इतिहास सत्य है...

इतिहास सत्य है...

जब प्रकृति की

हरीतिमा में होता रहा

रूपांतर..

जब संवेदना में

हुआ अपमिश्रण..

जब अश्रु का रंग

हुआ रक्तिम..

जब नियमों का

हुआ उल्लंघन...

जब शैशव हुआ

पीड़ित, जब.....

यौवना हुई.. पदमृदित...

स्मृति के नग्न पटल पर...

कहाँ था इतिहास?

हाः!! यह इतिहास

भयावह है!!

सत्य-मिथ्या की यह पोथी

किसी अपरिचित

आकाशगंगा में लुप्त हो जाए..

यदि तुम न देख पाओ...

तो तुम्हारा स्वर

रहेगा शमित...

इति कवि....

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vimal

|| विमल कान्त बाजपेई ||



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