निकोलाई गोगोल (20 मार्च, 1809 ई०, नये कैलेंडर के अनुसार 1 अप्रैल, 1809 ई०-21 फरवरी 1852ई०, नये कैलेंडर के अनुसार 4 मार्च, 1852ई०) का जन्म यूक्रेन के एक जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता भी उत्तम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे तथा कविताएँ एवं हास्य भी लिखते थे। इसके अतिरिक्त वे रंगमंच पर अभिनय भी किया करते थे। अपने पिता के इन गुणों के कारण गोगोल को बचपन से साहित्य के साथ-साथ रंगमंच के प्रति भी अभिरुचि जग गयी। अपनी रचनाओं के माध्यम से गोगोल रूसी साहित्य में आलोचनात्मक यथार्थवाद के प्रवर्तक थे। मानव-व्यक्तित्व को अपमानित करने और कुरूप बनाने वाली हर चीज़ पर उनका क्रोधपूर्ण और रौद्र ठहाका, "छोटे मानव" के साथ उनकी दिली हमदर्दी तथा नेकी और इन्साफ़ की जीत में उनका विश्वास - इन्हीं तत्त्वों ने भावी पीढ़ियों के लिए उनके चिरन्तन महत्त्व तथा विश्व ख्याति को सुनिश्चित किया। उनकी रचनाएँ विश्व की अनेक भाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी सम्मिलित है, अनूदित हुई हैं। उनकी रचनाओं में शामिल हैं: दिकान्का के पास ग्रामीण संध्याएँ, मीरगोरोद (मीर गोरद), पीटर्सबर्ग की कहानियाँ, तारास बुल्बा, द गवर्नमेंट इंस्पेक्टर (आला अफ़सर), मृत आत्माएँ, मानिलोय, करोवोचका (डिबिया), 'नज्द्रेव', 'सवाकेविच' (कुत्ते का पिल्ला), 'प्ल्यूश्किन', चिचिकोव' आदि।
ओवरकोट (कहानी) : निकोलाई गोगोल
किसी विभाग में, लेकिन मैं समझता हूँ कि सही-सही यह न बताना ही बेहतर होगा कि किस विभाग में। क्योंकि ये सभी विभाग, रेजिमेंटें और चांसलरिया-मतलब यह कि सरकारी नौकरों की सभी कोटियाँ-बेहद बदमिज़ाज होती हैं। आजकल तो किसी साधारण नागरिक का भी अगर अपमान कर दिया जाये तो वह उसे पूरे समाज का अपमान समझता है। एक क़िस्सा बयान किया जाता है कि हाल ही में किसी शहर के, जिसका नाम हमें याद नहीं है, पुलिस के दरोग़ा ने शिकायत भेजी, जिसमें उसने बिल्कुल साफ़-साफ़ शब्दों में कहा था कि सरकार की व्यवस्थाओं का सत्यानाश होता जा रहा था और उसका अपना पवित्र नाम बिल्कुल बेकार में लिया जा रहा था। इसके सबूत में उसने अपनी अर्ज़ी के साथ एक मोटी-सी किताब भेजी थी, जो कोई रोमांटिक कृति थी, जिसमें हर दस पृष्ठ के बाद पुलिस के किसी दरोग़ा की चर्चा की गयी थी, जो कभी-कभी तो बिल्कुल ही नशे में चूर होता था। इसलिए, इस तरह की किसी भी बदमज़गी से बचने के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि जिस विभाग की हम चर्चा कर रहे हैं उसे हम ‘कोई विभाग’ ही कहें।
इस तरह, ‘किसी विभाग’ में ‘कोई अफ़सर’ काम करता था; उस अफ़सर को किसी भी तरह बहुत उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता; उसका क़द कुछ नाटा था, मुंह पर कुछ-कुछ चेचक के दाग़ थे, बाल कुछ लाल रंग के थे, उसकी नज़र कुछ चुंधी थी, उसकी खोपड़ी भी सामने से कुछ गंजी हो चली थी, उसके दोनों गालों पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं और उसके चेहरे का रंग पीला था। ख़ैर, किया भी क्या जा सकता है! यह तो सेंट पीटर्सबर्ग की जलवायु का दोष है।
जहाँ तक उसके पद का सवाल है (क्योंकि बात यह है कि हमारे यहाँ सबसे पहले पद की ही घोषणा की जानी चाहिये), वह उस जाति के लोगों में से था जिन्हें शाश्वत टाइटुलर काउंसिलर कहते हैं, जिनका, जैसा कि पाठक को मालूम होगा, उन अनेक लेखकों ने मज़ाक उड़ाया है जिनकी कमाल की आदत यह होती हे कि वे उन लोगों पर हमला करते हैं जो पलटकर हमला नहीं कर सकते। इस अफ़सर का कुल नाम बश्माचकिन था, जिससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि यह नाम बश्माक
से निकला हैः लेकिन कब, किस समय और किस तरह बश्माक से यह नाम बनाया गया, यह हम नहीं कह सकते।
उसके बाप और दादा दोनों ही और उसके बहनोई भी, और सच तो यह है कि सभी बश्माचकिन, बूट पहनते थे, उन्हें कभी बदलते नहीं थे और साल में सिर्फ़ तीन बार उनमें नया तला लगवा लेते थे। उसका नाम था अकाकी अकाकियेविच। यह नाम पाठक को कुछ विचित्र और बनावटी लग सकता है, लेकिन हम विश्वास दिला सकते हैं कि यह नाम कहीं से खोजकर नहीं निकाला गया था, और यह कि उसके नामकरण की परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं कि कोई दूसरा नाम संभव ही नहीं था। यह सारा मामला हुआ इस तरह। अकाकी अकाकियेविच का जन्म, अगर हमारी याद हमें धोखा नहीं देती, 22 मार्च को शाम के वक़्त हुआ था। उसकी स्वर्गीया माँ ने, जो खुद एक अफ़सर की पत्नी थीं और बहुत अच्छी औरत थीं, विधिवत् बच्चे का नामकरण करने का फ़ैसला किया था। माँ अभी तक दरवाज़े के सामने पलंग पर लेटी हुई थीं उनके दायीं ओर थे बच्चे के धर्मपिता इवान इवानोविच येरोश्किन, जो बहुत ही अच्छे सज्जन थे और सीनेट में हेडक्लर्क थे, और बच्चे की धर्ममाता अरीना सेम्योनोव्ना बेलोर्ब्यूश्कोवा, जो एक पुलिस अफ़सर की पत्नी थीं और बहुत ही अनुपम गुणों की महिला थीं। नयी माँ से तीन नामों में से कोई एक-जो उन्हें सबसे अच्छा लगे-चुन लेने को कहा गयाः मोक्की, सोस्सी या शहीद ख़ोज़्दाज़ात के नाम पर बच्चे का नाम रखना। ‘‘नहीं,’’ स्वर्गीया ने सोचा, ‘‘ये नाम तो कुछ ऐसे-वैसे ही हैं।’’ उन्हें खुश करने के लिए पत्रा फिर एक नये पृष्ठ पर खोला गया, और एक बार फिर तीन नामों का सुझाव दिया गयाः त्रिफ़ीली, दुला और वराख़ासी। ‘‘यह तो मुझे कोई दंड दिया जा रहा है,’’ वृद्ध महिला बोलीं, ‘‘ऐसे-ऐसे नाम, मैंने तो ऐसे नाम पहले कभी सुने ही नहीं। बरादात या वरुख भी होता तो कोई बात थी, लेकिन त्रिफ़ीली और वराख़ासी तो।’’ उन लोगों ने एक और पृष्ठ खोला और उस पर पवसिकाख़ी और वख़्तीसी के नाम सामने आये। ‘‘अच्छा, अब मैं समझ गयी,’’ वृद्ध महिला ने कहा, ‘‘कि इसमें कुछ तक़दीर का हाथ है। अगर यही बात है, तो इससे बेहतर है कि जो नाम बाप का है वही उसका भी रख दिया जाये। बाप का नाम अकाकी है इसलिए बेटे का नाम भी अकाकी ही रहने दो।’’ इस तरह, अकाकी अकाकियेविच नाम की उत्पत्ति हुई। बच्चे का नामकरण संस्करण संपन्न हुआ; उसके दौरान वह रोने लगा और उसने ऐसा मुँह बनाया जैसे उसे इस बात का पूर्वाभास हो रहा हो कि एक दिन वह टाइटुलर काउंसिलर बनेगा।
तो यह है जैसे यह सब कुछ हुआ। हमने यह चर्चा इसलिए उठायी कि पाठक स्वयं समझ लें कि यह केवल आवश्यक था और बच्चे का कोई दूसरा नाम रखा जाना बिल्कुल असंभव था। कब और किस उम्र में वह उस विभाग में भरती हुआ और किसने मदद दी, यह अब कोई नहीं बता सकेगा। डायरेक्टर आये और चले गये, एक के बाद एक कितने ही सुपरिंटेंडेंट आये, लेकिन वह उसी जगह बना रहा, उसी एक स्थिति में, उसी एक ओहदे पर, उसी एक मामूली नक़लनवीस के रूप में; इसीलिए बाद में सब को विश्वास हो गया कि वह माँ के पेट से इसी हालत में वर्दी पहने और सामने से थोड़ी-थोड़ी गंजी होती हुई खोपड़ी लेकर पैदा हुआ होगा। विभाग में कोई उसकी ज़रा-सी भी इज़्जत नहीं करता था। जब वह गुज़रता था तो चपरासी न सिर्फ़ यह कि उठकर खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उसकी ओर देखते तक नहीं थे-कि जैसे वह कोई मक्खी हो जो स्वागत कक्ष में से उड़ती हुई निकल गयी हो। उससे ऊपर के लोग उसके साथ बड़े रूखेपन और निरंकुशता का व्यवहार करते थे। कोई मामूली असिस्टेंट हेडक्लर्क भी उसकी नाक के नीचे काग़ज़ बढ़ा देता था और यह तक कहने की तकलीफ़ नहीं करता था कि ‘‘भाई, ज़रा इसे नक़ल कर दो,’’ या ‘‘यह बहुत ही बढ़िया, दिलचस्प काम है,’’ या कोई और भली लगनेवाली बात जैसा कि शिष्ट प्रतिष्ठानों में आम तौर पर होता है। वह उन्हें ले लेता था और सिर्फ़ काग़ज़ों को देखता था; वह न यह देखता था कि उसे काग़ज़ किसने दिये हैं और न इस बात की ओर ध्यान देता था कि उसे ऐसा करने का अधिकार भी था या नहीं। वह बस काग़ज़ लेकर फ़ौरन उन्हें नक़ल करने लगता था। नौजवान अफ़सर अपनी क्लर्र्कोंवाली अक़ल की हद तक उसे चिढ़ाते थे और उसका मज़ाक़ उड़ाते थे, उसी के सामने उसके बारे में तरह-तरह के मनगढ़ंत क़िस्से सुनाते थे; उसकी मकान-मालकिन के बारे में, जो सत्तर साल से ज़्यादा उम्र की औरत थी, कहते थे कि वह उसे मारती थी और उससे पूछते थे कि उनकी शादी कब होनेवाली है; वे काग़ज़ की छोटी-छोटी चिंदियाँ फाड़कर उसके सिर पर बर्फ़ की तरह बरसाते थे। अकाकी अकाकियेविच इसके जवाब में एक शब्द भी नहीं कहता था जैसे उसके सामने कोई हो ही नहीं; इसका उसके काम पर कोई असर नहीं पड़ता थाः इन तमाम शरारतों के बीच उसके नक़ल करने में एक भी ग़लती नहीं होती थी। सिर्फ़ जब मज़ाक हद से बढ़ जाता था, जब कोई उसकी बाँह पकड़कर झटका देता था, जिसकी वजह से वह अपना काम जारी नहीं रख पाता था, तब वह कहता था, ‘‘रहने भी दो, तुम लोग क्यों, मेरे पीछे पड़े रहते हो?’’ और उसके इन शब्दों में और उन्हें कहने के उसके स्वर में कुछ विचित्र भाव होता था। उसमें कोई ऐसी बात होती थी जो करुणा की सीमाओं को छू लेती थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक बार नौकरी पर नये-नये लगे हुए किसी नौजवान ने जब दूसरों की देखादेखी उसका मज़ाक़ उड़ाने की कोशिश की तो उसकी यह बात सुनकर वह बीच में ठिठक गया और उसके बाद से जैसे सब कुछ बदल गया, वह अपने चारों ओर की हर चीज़ को दूसरी ही रोशनी में देखने लगा। किसी अप्राकृतिक शक्ति ने उसे अपने उन नये मित्रों से दूर हटा दिया, जिन्हें वह शरीफ़ और सभ्य लोग समझता था। और उसके बाद बहुत अरसे तक जब बहुत हँसी-मज़ाक़ भी होता था तो उसे वह नाटा क्लर्क, उसकी सामने से गंजी होती हुई खोपड़ी और उसके वे चुभते हुए शब्द याद आते थेः ‘‘रहने भी दो, तुम लोग क्यों मेरे पीछे पड़े रहते हो?’’ और इन शब्दों में उसे एक दूसरे ही संदेश की गूंज सुनायी देती थीः ‘‘मैं तुम्हारा भाई हूँ।’’ ऐसे मौक़ों पर वह बेचारा नौजवान दोनों हाथों से अपना मुँह ढक लेता था। अपने जीवन में कितनी ही बार वह मनुष्य के प्रति मनुष्य की क्रूरता को देखकर, सुसंस्कृत सुशिक्षित और सुसभ्य चमक-दमक के पीछे छिपे हुए द्वेषपूर्ण फूहड़पन को देखकर कांप उठा था। और, हे भगवान, यह बात उन लोगों में भी पायी जाती थी जिन्हें दुनिया नेक और ईमानदार मानती थी।
आपको कोई दूसरा आदमी शायद ही मिल पाता, जिसके लिए काम इस हद तक जीवन का सुख बन गया हो। केवल इतनी ही बात नहीं थी कि वह बड़ी लगन से नौकरी करता था, बल्कि वह बड़े प्यार से नौकरी करता था। इसमें, इस नक़लनवीसी में उसे एक रंगीन और आकर्षक दुनिया दिखायी देती थी। उसके चेहरे पर उल्लास का भाव आ जाता था; वर्णमाला के कुछ अक्षरों से उसे विशेष लगाव था और जब भी इनमें से कोई अक्षर उसके सामने आ जाता था तो वह खुशी से फूला न समाता थाः वह चहक उठता था और आंख मारता था और तरह-तरह के मुँह बनाता था, जिसकी वजह से उसके क़लम से लिखे जानेवाले हर अक्षर को उसके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। अगर उसे उचित पुरस्कार मिलता तो अपने अपार उत्साह की वजह से उसे स्टेट काउंसिलर बना दिया गया होता- जिस पर उसे स्वयं भी बहुत आश्चर्य होता; लेकिन, जैसा कि उसके चुटकुलेबाज़ साथी कहा करते थे, इस सारे काम के बदले उसे बस यही पुरस्कार मिला था कि सामने एक बिल्ला और पीछे बवासीर। फिर भी यह कहना पूरी तरह सच न होगा कि उसकी ओर कोई ध्यान दिया ही नहीं जाता था। एक डायरेक्टर ने, जो स्वभाव से नेकदिल आदमी था और उसकी लम्बी सेवा के लिए उसे पुरस्कार देना चाहता था, आदेश दिया कि उसे आम नक़लनवीसी के काम के बजाय कोई अधिक महत्त्वपूर्ण काम दिया जाये; अर्थात्, उसे किसी दूसरे दफ़्तर के लिए एक ऐसे मामले की रिपोर्ट तैयार करने का काम सौंपा गया जिसकी कार्रवाई पूरी हो चुकी थी; इसमें करना बस इतना था कि शीर्षक बदल दिया जाये और इक्का-दुक्का क्रियाओं को उत्तम पुरुष से अन्य पुरुष में बदल दिया जाये। यह उसके लिए इतना कठिन काम था कि उसके पसीना छूटने लगा, उसने अपना माथा पोंछकर अंत में कहा : ‘‘नहीं, मुझे नक़ल करने का ही कोई काम दे दीजिये।’’ उसके बाद से उसे सीधा-सादा नक़लनवीस ही रहने दिया गया। लगता था कि इस नक़लनवीसी के बाहर उसके लिए कोई दुनिया थी ही नहीं। वह अपने कपड़ों की ओर कोई ध्यान नही देता थाः उसकी वर्दी अब हरे रंग की नहीं रह गयी थी, बल्कि कुछ चितकबरे ख़ाकी रंग की हो गयी थी। उसका कालर बहुत नीचा और पतला था जिसकी वजह से उसकी गर्दन बहुत लम्बी न होने पर भी बाहर को निकलकर ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी दिखायी देती थी, हिलते हुए सिरोंवाले पेरिस-प्लास्टर के बने उन बिल्ली के बच्चों की गर्दनों की तरह जिन्हें फेरीवाले दर्जनों की संख्या में टोकरियों में भरकर अपने सिर पर लादे घूमते थे। और उसकी वर्दी पर हमेशा कोई न कोई चीज़ चिपकी रहती थीः कोई तिनका या धागे का कोई टुकड़ा; इसके अलावा उसे इसमें विशेष निपुणता प्राप्त थी कि सड़क पर चलते हुए वह खिड़कियों के नीचे से होकर उस समय गुज़रता था जब उनमें से कूड़ा-करकट बाहर फेंका जा रहा होता था, और इस तरह वह अपनी हैट पर हमेशा छीलन के टुकड़े और खरबूज़े के छिलके और इसी तरह का दूसरा कचरा लेकर चलता था। अपने जीवन में एक बार भी उसने सड़क पर रोज़मर्रा होनेवाली घटनाओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था जिन्हें, जैसा कि सभी जानते हैं, उसकी तरह नौकरी करनेवाला कोई भी दूसरा नौजवान हमेशा बड़े ध्यान से देखता है जो अपनी फुरतीली नज़र को इतना पैना कर लेता है कि वह यह भी देख ले कि सड़क की दूसरी पटरी पर चलनेवाले किस आदमी के पतलून का तलुबे में अटकाने का फ़ीता ढीला हो गया है- इस बात से उसके चेहरे पर हमेशा एक चुलबुली मुस्कराहट दौड़ जाती थी।
लेकिन अकाकी अकाकियेविच जब किसी चीज़ को देखता भी था तो उसे उसकी जगह अपनी सुंदर लिखाई में अंकित सजल रेखाएं ही दिखायी देती थीं, सिर्फ़ जब कोई गुज़रता हुआ घोड़ा अपनीथूथनी उसके कंधे पर रखकर अपने नथुनों से फुफकारकर उसके गालों पर सांस छोड़ता था तब उसे यह ध्यान आता था कि वह किसी पंक्ति को नक़ल करने के बीच में नहीं बल्कि सड़क के बीच में है। घर पहुँचकर वह फ़ौरन मेज पर बैठ जाता था, खाने के स्वाद की परवाह किये बिना मक्खियों समेत और भगवान की दया से जो कुछ भी और उस वक़्त मिल जाये उसके साथ एक सांस में अपना सूप पी जाता था और मांस का एक टुकड़ा प्याज़ के साथ खा लेता था। जब वह महसूस करता कि उसका पेट भरने लगा है तो वह मेज़ पर से उठ जाता, और दवात लेकर दफ़्तर से लाये हुए काग़ज़ नक़ल करने बैठ जाता। अगर इस तरह का कोई काग़ज़ न होता तो वह बस जी बहलाने के लिए अपनी तरफ़ से कोई चीज़ नक़ल करने लगता, ख़ास तौर पर अगर वह दस्तावेज़ उल्लेखनीय होता-अपनी शैली की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए कि वह जिसे सम्बोधित करके लिखा गया था वह कोई अनोखा या महत्त्वपूर्ण आदमी था।
उस समय भी जब सेंट पीटर्सबर्ग के धुंधले भूरे आसमान पर बिल्कुल अंधेरा छा जाता है और अफ़सरों की पूरी नस्ल अपने-अपने ढंग से और अपनी-अपनी हैसियत और खाने-पीने के मामले में अपनी पसंद के हिसाब से छककर खा चुकती है, जब दफ़्तरों में काम करनेवाले सभी लोग अपनी रोज़-रोज़ की क़लम-घिसाई से, खुद अपने और दूसरे विभागों की आवश्यक हलचल और झंझटों से, और बेचैन तबियतवाले अपनी मर्ज़ी से जो फ़ालतू और ग़ैर-जरूरी काम अपने ज़िम्मे ले लेते हैं उससे छुटकारा पाकर आराम कर चुके होते हैं, जब अफ़सर लोग अपना बचा-खुचा फ़ुरसत का वक़्त अधिक आनंददायक कामों में बिताने की जल्दी में होते हैंः जो ज़्यादा तेज़ होते हैं वे हड़बड़ाकर थियेटर की ओर भागते हैं; कुछ सड़क पर टहलते हुए औरतों की हैटों के नीचे झांकने में समय बिताते है; कुछ पार्टियों में जाते हैं- अफ़सरों के छोटे-से झुरमुट में सितारे जैसी चमकती हुई किसी परी की प्रशंसा करने में पूरी शाम बिता देते हैं; कुछ-और यह सबसे ज़्यादा होता है-बस अपने जैसे किसी अफ़सर के तीसरी या चौथी मंज़िलवाले फ़्लैट में जाकर, जहाँ उसके पास दो कमरे और एक ड्योढ़ी या रसोई होती है जिसमें वह कई रातों के खाने की क़ुर्बानी देकर या कई शामों की तफ़रीह हराम करके हासिल की गयी कुछ फ़ैशनेबुल दिखाऊ चीजें, कोई लैंप या कोई छोटी-मोटी चीजें, सजाकर सामने रखता है। दूसरे शब्दों में, जब सारे अफ़सर स्टार्म ह्विस्ट खेलने के लिए अपने दोस्तों के छोटे फ़्लैटों में बिखर जाते थे, वहाँ गिलासों से चाय की चुस्कियाँ लेते थे और सस्ती क़िस्म के कुरकुरे बिस्कुट खाते थे, अपने लम्बे-लम्बे पाइपों से धुआँ उड़ाते थे और ताश बांटने के दौरान ऊँचे समाज के लोगों के बारे में कोई सुना-सुनाया चटपटा क़िस्सा एक-दूसरे को सुनाते थे, जिसके बिना कोई भी रूसी किसी भी समय और किसी भी हालत में रह नहीं सकता, या बातचीत करने के लिए कोई भी विषय न बच जाने पर उस कमांडेंट का युगों पुराना घिसा-पिटा क़िस्सा भी सुनाने से नहीं चूकते थे, जिसे यह बताया गया था कि फ़ाल्कोने के बनाये हुए स्मारक’ में घोड़े की दुम कुछ काट दी गयी है- कहने का मतलब यह कि उस वक़्त भी जब बाक़ी दुनिया मनोरंजन के फेर में होती थी, अकाकी अकाकियेविच कभी किसी ऐसी हल्की-फुल्की हरकत में हिस्सा नहीं लेता था। यह कहना संभव नहीं था कि कभी किसी ने उसे किसी पार्टी में देखा था। नक़ल-नवीसी के आनंद से थक जाने के बाद विस्तर पर लेट जाता था, और आनेवाले कल के बारे में सोच-सोचकर मुस्कराता रहता था, इस बात के बारे में कि भगवान उसे नक़ल करने के लिए कल क्या भेजेगा। ऐसा था उस आदमी का शांतिपूर्ण जीवन, जो चार सौ रूबल के वेतन में अपनी नियति से संतुष्ट रहता था, और शायद बुढ़ापे तक ऐसे ही चलता रहता, अगर कुछ ऐसी विनाशकारी घटनाएँ न हो जातीं, जो न केवल टाइटुलर काउंसिलरों के भाग्य में बल्कि प्रिवी, स्टेट, ऑलिक और दूसरे काउंसिलरों तथा उन सभी सलाहकारों तक के भाग्य में भी लिखी होती हैं जो न किसी तरह की सलाह देते हैं और न किसी तरह की सलाह स्वयं लेते हैं।
जिन लोगों को चार सौ रूबल या इसके लगभग वेतन मिलता है उनका सेंट पीटर्सबर्ग में एक भयानक दुश्मन होता है। यह दुश्मन कोई और नहीं बल्कि हमारा उत्तर का पाला होता है, हालांकि लोगों को यह कहते भी सुना जाता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। सवेरे आठ बजे, ठीक उस घड़ी जब भागमभाग अपने विभागों की ओर जाते हुए क्लर्को से सड़कें भरी होती हैं, वह सबकी नाकों पर ऐसे जोरदार और डंक की तरह बेधनेवाले थपेड़े मारता है कि मुसीबत के मारे क्लर्क उन्हें छिपाने का कोई रास्ता खोजने लगते हैं। ऐसे मौक़ों पर जब ऊँचे पदोंवाले लोग भी महसूस करते हैं कि उनके माथे की खाल सर्दी में कसती जा रही है और उनकी आँखों में आँसू उमड़े आ रहे हैं, बेचारे टाइटुलर काउंसिलर तो बिल्कुल लाचार हो जाते हैं। उनके सामने जिन्दा बचने का बस यही रास्ता होता है कि वे अपने पतले, तार-तार ओवरकोट पहने सरपट भागते हुए चार-पांच सड़कें पार करके लॉबी तक पहुँच जायें, जहाँ वे तब तक अपने पांव पटकते रहें जब तक कि उनकी सारी जमी हुई प्रतिभाएँ और क्लर्कोंवाली योग्यताएँ पिघल न जायें। एक वक़्त ऐसा आया जब अकाकी अकाकियेविच को आवश्यक दूरी जल्दी से भागकर पार कर जाने की कोशिश के बावजूद अपनी पीठ और कंधों पर सर्दी की तेज़ चुभन ख़ास तौर पर महसूस होने लगी। आख़िरकार वह सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसके ओवरकोट में कोई ख़राबियाँ हों। घर पर उसे अच्छी तरह उलट-पुलट कर देखने के बाद उसे पता चला कि दो-तीन जगहों पर, यानी पीठ पर और कंधों पर, वह घिसकर बिल्कुल टाट जैसा पतला हो गया है और बिल्कुल पारदृर्ाी हो गया है, जबकि उसके नीचे अस्तर फटकर बिल्कुल धज्जी-धज्जी हो गया है।
पाठक के लिए यह जानना भी जरूरी है कि अकाकी अकाकियेविच का कोट उसके साथ के क्लर्कों के मज़ाक़ का भी निशाना था; उन्होंने उससे उसका ओवरकोट का नाम भी छीन लिया था और वे उसे लबादा कहने लगे थे। सच बात तो यह है कि वह देखने में लगता भी कुछ अजीब थाः उसका कालर हर साल कुछ छोटा होता जाता था क्योंकि उसका कुछ हिस्सा कोट की नयी गोट बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। मरम्मत के ये नमूने दर्ज़ी की कला के लिए कोई श्रेय की बात नहीं थे और ओवरकोट में बहुत झोल पड़े रहते थे जो अच्छा नहीं लगता था। इस तरह समस्या की जड़ का पता लगा देने के बाद अकाकी अकाकियेविच ने फ़ैसला किया कि ओवरकोट पेत्रोविच दर्ज़ी के पास ले जाना होगा, जो पीछे वाली सीढ़ी से जाकर कहीं चौथी मंजिल पर रहता था, और जो काना और चेचकरू होने के बावजूद अफ़सरों और दूसरे ग्राहकों के पतलूनों और उनके दोपाखे कोटों की मरम्मत करने में काफ़ी सफल था, लेकिन तभी जब वह नशे में नहीं होता था और उसका ध्यान भटकता नहीं होता था। हमारे लिए सचमुच इस दर्ज़ी के बारे में बहुत कुछ कहने की ज़रूरत तो नहीं है, लेकिन अब चूंकि यह चलन हो गया है कि कहानियों में हर पात्र के चरित्र का पूरा ब्योरा दिया जाये, इसलिए पेत्रोविच को भी ग़ौर से देखने के अलावा कोई चारा नहीं है।
शुरू में वह सिर्फ़ ग्रिगोरी कहलाता था और किसी ज़मींदार का भू-दास था; जब वह वहाँ से मुक्त हुआ तो लोग उसे उसके पैतृक नाम पेत्रोविच से पुकारने लगे थे और तभी से वह संतों की याद में मनाये जानेवाले दिवसों को ज़रा ज़्यादा ही पीने लगा था, पहले तो सिर्फ़ बड़े-बड़े त्योहारों को, फिर बिना किसी भेदभाव के हर उस दिन जिस पर कैलेंडर में क्रास लगा होता था। इस मामले में वह अपने पूर्वजों की परम्पराओं पर चलता था और अपनी बीवी से झगड़े के समय उसे विधर्मी औरत और जर्मन कहता था। और चूंकि अब हम उसकी बीवी को भी बीच में घसीट लाये हैं इसलिए हमें उसके बारे में भी कुछ शब्द कहने होंगे; दुर्भाग्यवश उसके बारे में कुछ ज़्यादा नहीं मालूम है। बस इतना मालूम है कि पेत्रोविच की एक बीवी थी, जो सिर पर रूमाल बाँधने के बजाय लैस की टोपी भी पहनती थी; लेकिन ऐसा लगता है कि वह बहुत रूपवती होने का गर्व नहीं कर सकती थी; बहरहाल, जो मर्द उसके पास से होकर गुज़रते थे उनमें से बस गारद के सिपाही ही उसकी टोपी के कगर के नीचे झांककर देखते थे, और अपनी मूंछें ऐंठकर एक अजीब-सी आवाज़ निकालते थे।
अकाकी अकाकियेविच जब पेत्रोविच के फ़्लैट को जानेवाली सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, वे सीढ़ियाँ जो, बिल्कुल सच-सच कहा जाये तो, पूरी तरह गंदे पानी और जूठन से लिसी रहती थीं और हर क़दम पर उनसे वह तीखी दुर्र्गंध आती थी जिससे आंखों में बहुत जलन होती है, और जो, जैसा कि पाठक को मालूम होगा, सेंट पीटर्सबर्ग की सभी पीछेवाली सीढ़ियों का एक अनिवार्य भाग होती है- उन सीढ़ियों पर चढ़ते समय ही अकाकी अकाकियेविच ने यह अटकल लगाना शुरू कर दिया था कि पेत्रोविच कितना मांगेगा और उसने मन ही मन फ़ैसला कर लिया था कि वह दो रूबल से ज़्यादा नहीं देगा। दरवाज़ा खुला हुआ था, क्योंकि दर्ज़ी की बीवी ने मछली पकाने के सिलसिले में रसोई में इतना धुआं पैदा कर दिया था कि काक्रोच भी दिखायी नहीं देते थे। अकाकी अकाकियेविच ने दर्ज़ी की बीवी तक की नज़रों से बचकर रसोई पार की और आख़िरकार कमरे में पहुँच गया जहाँ उसने पेत्रोविच को लकड़ी की एक चौड़ी-सी मेज़ पर, जिस पर रंग-रोगन नहीं था, घुटने मोड़े तुर्की पाशा की तरह बैठे देखा। वह नंगे पांव था, जैसा कि दर्ज़ी काम करते वक़्त आम तौर पर होते हैं। पांवों में सबसे पहले अकाकी अकाकियेविच की नज़र उसके अंगूठे पर पड़ी, जिससे वह भली भांति परिचित था, जिसका टेढ़ा-मेढ़ा नाखून कछुए की खपड़ी जैसा मोटा और कड़ा था। पेत्रोविच ने अपनी गर्दन में रेशमी और सूती धागे की एक-एक लच्छी डाल रखी थी और उसके घुटने पर पुराने कपड़े कुछ चिथड़े चिपके थे। पिछले तीन मिनट से वह सुई में धागा पिरोने का असफल प्रयत्न कर रहा था और इसलिए वह कमरे के अंधेरे और से उस धागे से बेहद नाराज़ था, और बुदबुदा रहा थाः ‘‘अरे कमबख़्त, चला भी जा! पागल बना रखा है बदमाश ने!’’ अकाकी अकाकियेविच के लिए यह परेशानी की बात थी कि वह ऐसे वक़्त आया था जब पेत्रोविच नाराज़ थाः वह पेत्रोविच से कोई काम करने को उस वक़्त कहना ज़्यादा पसन्द करता था जब वह कुछ तरंग में हो, या जैसा कि उसकी बीवी कहा करती थी, जब वह ‘‘बोतल चढ़ाये हुए नशे में धुत्त हो, वह काना शैतान!’’ इस हालत में पेत्रोविच हमेशा अपने ग्राहकों की बात मानकर सिलाई में काफ़ी आसानी से रिआयत कर देता था, और बहुत झुक-झुककर और साथ ही आभार मानते हुए अपनी स्वीकृति प्रकट करता था। यह भी सच है कि बाद में उसकी बीवी शिकायत करती हुई आती थी कि उसका शौहर नशे में था और इसीलिए वह बहुत सस्ते में काम कर देने को राज़ी हो गया था; लेकिन आम तौर पर उसमें दस कोपेक और बढ़ाने पड़ते थे और सौदा पट जाता था। लेकिन इस वक़्त पेत्रोविच काफ़ी संजीदा दिखायी दे रहा था, और इसलिए कुछ रूखा और अड़ियल भी लग रहा था और इस बात का ख़तरा था कि वह बेहद ज़्यादा पैसे मांगे। अकाकी अकाकियेविच ने जल्दी से परिस्थिति का लेखा-जोखा किया और उसका जी तो यही चाह रहा था कि उल्टे पाँव वहाँ से वापस चला जाये लेकिन इसके लिए बहुत देर हो चुकी थी। पेत्रोविच ने अपनी अकेली आँख सिकोड़कर उसे घूरा और अकाकी अकाकियेविच अपने आप ही बोलाः
‘‘सलाम, पेत्रोविच!’’
‘‘सलाम, साहब!’’ पेत्रोविच ने जवाब में कहा और अकाकी अकाकियेविच के हाथों पर नज़र गड़ाकर देखने लगा कि उसके लिए किस तरह का लूट का माल लाया गया है।
‘‘मैं। मैं। बस इसलिए आया था, पेत्रोविच, कि यह।’’
बात तो यह है कि अकाकी अकाकियेविच अपने विचारों को ज़्यादातर परसर्र्गों, क्रिया-विशेषणों और भांति-भांति के निपातों के माध्यम से व्यक्त कर रहा था जिनका एकदम कोई अर्थ नहीं होता। अगर हालत ख़ास तौर पर अटपटी हो जाती तो वह अपने वाक्य भी पूरे नहीं करता था और अकसर कुछ इस तरह की बात शुरू करकेः ‘‘हाँ तो, बात यह है। कि दरअसल’’ वह बाक़ी बात कहना गोल कर जाता और अंत में सब कुछ भूल जाता, यह समझ बैठकर कि जो कुछ उसे कहना था वह उसने कह दिया है।
‘‘क्या, है क्या?’’ पेत्रोविच ने अपनी अकेली आँख से उसकी वर्दी को बड़े ग़ौर से देखते हुए पूछा; उसने शुरुआत कालर से की, फिर आस्तीन, पीठ, दामन और काजों पर आया; हर चीज़ अच्छी तरह उसकी जानी-पहचानी थी, क्योंकि यह सब कुछ उसी का किया हुआ तो था। दर्ज़ियों का यही दस्तूर होता है, और किसी ग्राहक का सामना होने पर सबसे पहले वे यही करते हैं।
‘हाँ तो, बात यह है, पेत्रोविच। मेरा यह कोट, इसका कपड़ा। तुम जानो, बाक़ी हर जगह से तो यह काफ़ी मज़बूत है, इस पर ज़रा गर्द जम गयी है और यह कुछ पुराना-सा लगने लगा है, लेकिन दरअसल यह है नया, बस, यहाँ एक जगह पर यह कुछ। यहां पीठ पर, और एक कंधे पर भी यह कुछ घिस गया है, और यहाँ इस कंधे पर भी थोड़ा-सा। यहाँ देखो, बस इतना ही। काम ज़्यादा बिल्कुल नहीं।’’
पेत्रोविच ने लबादा ले लिया, पहले उसे मेज़ पर फैलाया, उसे बड़े ग़ौर से देखता रहा, अपना सिर हिलाया और खिड़की की ओर नसवार की गोल डिबिया उठाने के लिए हाथ बढ़ाया जिस पर किसी जनरल की तस्वीर बनी थी, यह तो ठीक से नहीं मालूम कि किस जनरल की, क्योंकि जहाँ पर उसका मुँह बना था वहाँ उंगली घुसेड़कर छेद कर दिया गया था और उस छेद को काग़ज़ का एक चौकोर टुकड़ा चिपकाकर बंद कर दिया गया था। एक चुटकी नसवार चढ़ाने के बाद पेत्रोविच ने कोट को अपने हाथों पर फैलाया और उसे रोशनी के सामने करके देखा। एक बार फिर उसने अपना सिर हिलाया। इसके बाद उसने उसका अस्तर ध्यान से देखा और फिर अपना सिर हिलाया, फिर जनरलवाली डिबिया का ढक्कन खोला जिसके मुंह पर काग़ज़ चिपका हुआ था और एक चुटकी नसवार अपने नथुने में चढ़ाकर ढक्कन बंद किया, डिबिया वापस रख दी और आख़िर में बोलाः
‘‘नहीं, यह ठीक नहीं हो सकताः यह तो बिल्कुल घिस गया है!’’
ये शब्द सुनते ही अकाकी अकाकियेविच का दिल बैठ गया।
‘‘लेकिन क्यों नहीं हो सकता, पेत्रोविच?’’ उसने बिल्कुल बच्चों की सी आवाज़ में गिडगिड़ाकर कहा। ‘‘मेरा मतलब है कि यह तो बस कंधों पर थोड़ा घिस गया है, और तुम्हारे पास कपड़े के किसी तरह के टुकड़े तो होंगे ही।’’
‘‘मेरे पास कपड़े के टुकड़े तो हैं, उनकी कोई कमी नहीं है,’’ पेत्रोविच ने कहा। ‘‘लेकिन मैं उन्हें इसके ऊपर टांक नहीं सकता-यह तो बिल्कुल गल गया है, सुई लगाते ही बस तार-तार हो जायेगा।’’
‘‘जब तार-तार हो जाये तो उसी वक़्त ऊपर से सीधे पैवंद लगा देना।’’
‘‘लेकिन कुछ हो भी तो जिस पर पैवंद लगाया जाये, कुछ है ही नहीं जिस पर पैवंद टिक सके। पहन-पहनकर बिल्कुल झीना तो कर दिया है। अब तो इसे कपड़ा भी मुश्किल से ही कहा जा सकता हैः इसे तेज़ हवा में लेकर चलो तो टुकड़े-टुकड़े होकर झड़ जायेगा।’’
‘‘मगर किसी तरह टांक दो। यह कैसे हो सकता है कि सचमुच। एक तरह से!’’
‘‘नहीं,’’ पेत्रोविच ने अंतिम निर्णय के स्वर में कहा! ‘‘अब इसका कुछ हो ही नहीं सकता। इसके दिन पूरे हो चुके। बेहतर यह होगा कि जब कड़ाके का जाड़ा पड़ने लगे तब इसे काटकर पांव पर लपेटने की पट्टियाँ बना लीजियेगा, क्योंकि मोज़ों से पांव गरम नहीं रहते हैं। इनकी ईजाद तो जर्मनों ने लोगों से पैसा ऐंठने के लिए की थी,’’ (पेत्रोविच जर्मनों पर चोट करने का कोई मौक़ा नहीं चूकता था); ‘‘और लगता तो यही है कि आपको नया कोट बनवाना पड़ेगा।’’
‘‘नया’’ शब्द सुनते ही अकाकी अकाकियेविच को चक्कर आ गया और कमरे की सारी चीज़ें उसकी आँखों के सामने घूमने लगीं। बस एक चीज़ जो उसे थोड़ी बहुत साफ़ दिखायी दे रही थी वह थी पेत्रोविच की नसवार की डिबिया पर बनी हुई जनरल की तस्वीर जिसके चेहरे पर काग़ज़ चिपका हुआ था।
‘‘नया बनवाने से क्या मतलब तुम्हारा?’’ उसने इस तरह पूछा जैसे पूरी तरह होश में न हो, ‘‘मेरे पास तो उसके लिए पैसा नहीं है!’’
‘‘हाँ, नया,’’ पेत्रोविच ने असह्य भावशून्यता से कहा।
‘‘अच्छा, अगर मुझे नया सिलवाना ही पड़े, तो उसमें एक तरह से कितना, तुम जानो।’’
‘‘आपका मतलब है, कितना पैसा लगेगा?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मैं समझता हूँ डेढ़ सौ से ऊपर तो लग ही जाना चाहिये,’’ पेत्रोविच ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से अपने होंठों को भींचकर कहा। उसे बात में घातक प्रभाव पैदा करने का बेहद शौक़ था, उसे ऐसी बात कहना बहुत अच्छा लगता था कि सुनकर आदमी स्तब्ध रह जाये और तब वह कनखियों से उसके चेहरे पर अपने शब्दों का करिश्मा देखे।
‘‘एक कोट के डेढ़ सौ रूबल!’’ बेचारे अकाकी अकाकियेविच ने तड़पकर कहा अपने जीवन में शायद पहली बार वह ऊँची आवाज़ से बोला था, क्योंकि वह स्वभाव से ही बेहद नरमी से बोलनेवाला आदमी था।
‘‘जी हाँ,’’ पेत्रोविच बोला, ‘‘कोट में तो इससे भी बहुत ज़्यादा लग सकता है। उसके कॉलर पर चितराले का समूर और रेशमी अस्तरवाला कनटोप लगवा लीजिए तो क़ीमत दो सौ के पार पहुंच जायेगी।’’
‘‘बस-बस, पेत्रोविच,’’ अकाकी अकाकियेविच ने गिड़गिड़ाकर कहा और अपने कान पेत्रोविच के शब्दों और उनके तमाम प्रभावों की ओर से बंद कर लिये। ‘‘किसी न किसी तरह इसी को ठीक कर दो, कर दोगे न, ताकि कम से कम कुछ दिन तो और चल जाये।’’
‘‘क्या फ़ायदाः इसमें मेहनत भी बेकार जायेगी और पैसा भी,’’ पेत्रोविच ने कहा, और यह बात सुनकर अकाकी अकाकियेविच वहाँ से चला आया; उसका दिल टूट गया था।
अपने ग्राहक के चले जाने के बाद पेत्रोविच बड़ी देर तक निश्चल खड़ा रहा, उसने अपने होंठों को बड़े अर्थपूर्ण ढंग से भींचा और अपने काम को बड़ी देर तक हाथ नहीं लगाया; वह उस बात पर बेहद खुश था कि उसने न अपने साथ विश्वासघात किया था और न दर्ज़ी की कला के साथ।
बाहर सड़क पर निकलकर अकाकी अकाकियेविच को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह सो रहा हो।
‘‘तो, यह बात है,’’ उसने मन ही मन कहा, ‘‘और ज़्यादा सोचने की बात है कि उसकी यह शक्ल निकले।’’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद उसने जोड़ाः ‘‘ख़ैर ऐसा ही सही! आख़िरकार यह शक्ल निकली और मैं अनुमान भी लगा नहीं सकता था कि ऐसा हो सकता है।’’ इसके बाद वह फिर चुप हो गया, बड़ी देर तक चुप रहा, और फिर बोला : ‘‘देखो तो! भला यह कौन। कैसा। एक तरह से। मतलब है। तक़दीर का फेर है!’’
यह कहकर वह घर की ओर नहीं लौटा बल्कि, ख़ुद यह जाने बिना कि वह क्या कर रहा है, बिल्कुल ही दूसरी दिृाा में चल पड़ा। रास्ते में एक मैला-कुचैला चिमनी साफ़ करनेवाला उसे टकरा गया और उसका कंधा बिल्कुल काला कर गया; एक अधबनी इमारत की सबसे ऊपरवाली मंज़िल से उस पर टोकरी भर चूना फेंक दिया गया। वह इन सब बातों से बेख़बर था, और जब वह एक संतरी से जा टकराया, जिसने चुनौटी में से थोड़ी-सी नसवार अपनी खुरदुरी हथेली पर निकालने के लिए अपना फरसा पास ही रख दिया था, तब जाकर उसे कुछ होश आया और सो भी इसलिए कि संतरी ने उससे कहाः ‘‘कुछ होश है किधर जाने का है, चलने को और ठिकाना कोई नहीं होता? पटरी पर जाओ!’’ इस पर उसने चारों ओर नज़र डालकर देखा और घर की ओर लौट पड़ा। घर पहुँचते ही वह अपने बिखरे हुए विचारों को समेटने लगा और उसने अपनी हालत को सही तरीक़े से देखा; वह अपने आपसे उखड़े-उखड़े ढंग से बिल्कुल झटकों के साथ नहीं, बल्कि बड़े सुलझे हुए ढंग से खुलकर बात कर रहा था, जैसे किसी ऐसे समझदार दोस्त से बातें कर रहा हो जिससे आदमी सबसे अंतरंग और नाजुक मामलों के बारे में चर्चा कर सकता है।
‘‘नहीं, नहीं,’’ अकाकी अकाकियेविच ने कहा। ‘‘इस वक़्त पेत्रोविच से बात करने से कोई फ़ायदा नहीं हैः वह एक तरह से। उसकी बीवी ने उसे धप जमायी होगी। अच्छा यही होगा कि मैं इतवार को सुबह उसके पास जाऊँः बीते सनीचर के बाद जब वह अपनी आँख भेंगी करके देख रहा होगा, जब वह ऊँघ रहा रहा होगा और उसे अपने हवास ठीक करने के लिए एक घूंट चढ़ाने की ज़रूरत होगी, लेकिन उसकी बीवी उसे एक दमड़ी भी न दे रही होगी, और तब मैं उसे दस कोपेक। एक तरह से। और वह मेरी बात ज़्यादा आसानी से मान लेगा और कोट एक तरह से।’’
इस दलील का सहारा लेकर अकाकी अकाकियेविच ने अपना हौसला बढ़ाया और अगले इतवार तक इंतज़ार करता रहा; जब उसने दूर से देख लिया कि पेत्रोविच की बीवी किसी काम से बाहर निकल गई है वह फ़ौरन पेत्रोविच के पास जा पहुँचा। सनीचर के बाद पेत्रोविच सचमुच भेंगी आंख से देख रहा था, उसका सिर नीचे को लटका हुआ था और आंखें नींद से बोझिल थीं, लेकिन जैसे ही उसकी समझ में आया कि अकाकी अकाकियेविच क्या बात कर रहा है तो उसके सिर पर जैसे शैतान उतर आया।
‘‘नहीं,’’ वह बोला, ‘‘कोट तो नया ही लेना पड़ेगा।’’
इस पर अकाकी अकाकियेविच ने दस कोपेक का एक सिक्का उसके हाथ में सरका दिया।
‘‘बहुत शुक्रिया, मेहरबान, मैं ज़रा ताज़ादम हो लूं और आपकी सेहत का जाम पी लूं,’’ पेत्रोविच बोला, ‘‘लेकिन कोट की कोई फ़िक्र न कीजिये, पुराना किसी काम का नहीं रहा, मैं नया बढ़िया कोट बना दूंगा, विश्वास कीजिये।’’
अकाकी अकाकियेविच ने मरम्म का सवाल छेड़ने की कोशिश की लेकिन पेत्रोविच उसकी बात सुन नहीं पाया और बोलाः
‘‘मैं आपको बेशक नया बना दूँगा, आप पूरा भरोसा रखिये, मैं अपनी तरफ़ से सचमुच पूरी कोशिश करूंगा। हम उसे बिल्कुल नये फ़ैशन का भी बना सकते हैंः कॉलर बंद करने के लिए चांदी की कंटियाँ भी लगा सकते हैं।’’
अब अकाकी अकाकियेविच की समझ में आ गया कि कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं-उसे नया कोट ही बनवाना पड़ेगा। वह बिल्कुल निराश हो गया। वह उसके पैसे कहाँ से जुटायेगा- पैसा आयेगा कहाँ से? अलबत्ता, कुछ पैसे का सहारा तो त्योहार के बोनस से हो सकता था जो उसे मिलनेवाला था, लेकिन उस पैसे का तो हिसाब पहले ही लगा लिया गया था और वह दूसरे कामों के लिए रख दिया गया था। उसे नये पतलून की ज़रूरत थी, और जूतेवाले को बूट में ऊपरी हिस्सा लगाने का बहुत पुराना बिल चुकाना था, दर्ज़िन से तीन नयी क़मीज़ें और नीचे पहनने के लिए कोई दो चीज़ें सिलवानी थीं, जिनका छपाई में उल्लेख करना भी अभद्रता समझी जाती है। दूसरे शब्दों में उस पैसे में से तो कुछ भी नहीं बचेगा, और अगर डायरेक्टर ने उदारता के जोश में आकर उसे चालीस रूबल के बजाय पैंतालीस या पचास रूबल दे दिये तब भी उसके पास बहुत ही छोटी-सी रक़म बचेगी, जो ओवरकोट की क़ीमत के समुद्र में केवल एक बूंद के बराबर होगी। हालांकि वह जानता था कि पेत्रोविच की आदत थी कि वह भगवान जाने कितनी ऊँची क़ीमत बता देता था। कभी-कभी तो इतनी ऊँची कि उसकी बीवी भी आपे से बाहर होकर कहती थीः ‘‘क्या, तुम्हारी मत तो नहीं मारी गयी है, दीवाने कहीं के! कभी तो फोकट में ही काम कर दोगे, और अब तुम्हारे जी में न जाने क्या पागलपन समाया है कि इतने दाम मांग रहे हो जितने में कोई खुद तुम्हें भी नहीं खरीदेगा!’’ यह तो वह जानता था कि पेत्रोविच अस्सी रूबल में भी ओवरकोट बनाने को राज़ी हो जायेगा, लेकिन वे अस्सी रूबल भी वह कहाँ से लायेगा? उसकी आधी रक़म तो शायद वह जुटा भी लेता; मुमकिन है उससे कुछ ज़्यादा भी जुटा ले; लेकिन बाक़ी आधी रक़म कहाँ से आयेगी?। पर पहले तो पाठक को यह समझ लेना चाहिये कि आधी रक़म कहाँ से आनेवाली थी। अकाकी अकाकियेविच की आदत थी कि हर रूबल जो वह ख़र्च करता था उसमें से वह आधा कोपेक बचा लेता था और उसे एक छोटी-सी बंद संदूक़ची में जमा करता जाता था, जिसमें ऊपर सिक्के डालने के लिए एक झरी कटी हुई थी। हर छः महीने बाद वह जमा किये हुए तांबे के सिक्के गिनता था और उन्हें निकालकर उनकी जगह उतनी ही रक़म के चांदी के सिक्के डाल देता था। उसने यह सिलसिला कई साल से अपना रखा था, और अब तक चालीस रूबल से ज़्यादा की रक़म वह जमा कर चुका था। इस तरह आधी रक़म तो उसके हाथ में थी, लेकिन बाक़ी आधी रक़म वह कहाँ से लाये? चालीस रूबल और कहाँ से आयें? अकाकी अकाकियेविच ने अपने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला और फ़ैसला किया कि उसे कम से कम पूरे एक साल के लिए अपना रोज़मर्रा का ख़र्च कम करना होगाः शाम को जो एक प्याली चाय वह पीता था उसे बन्द कर देगा, रात को मोमबत्ती नहीं जलायेगा और अगर कोई काम करने को हुआ करेगा तो मकान-मालकिन के कमरे में चला जाया करेगा और उसकी मोमबत्ती की रोशनी में काम कर लिया करेगा़ चलते वक़्त सड़क के पत्थरों और रोड़ियों पर ज़्यादा हौले से और सावधानी से क़दम रखा करेगा, लगभग बिल्कुल पंजों के बल चला करेगा, ताकि जूते का तला कम घिसे; जहाँ तक मुमकिन होगा वह अपने कपड़े कम से कम धुलवाया करेगा, और घिसने से बचाने के लिए घर पहुँचते ही उन्हें उतार दिया करेगा और अपना सस्ता सूती ड्रेसिंग गाउन पहन लिया करेगा, जो बेहद पुराना हो गया था लेकिन काल के क्रूर हाथों से बच गया था। सच पूछिये तो शुरू में उसे इन पाबंदियों की आदत डालने में कुछ कठिनाई ज़रूर हुई, लेकिन धीरे-धीरे वह उनका आदी हो गया और सहज ही वे उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गयीं; वह शाम को बिना खाये ही रह जाने का बिल्कुल आदी हो गया; लेकिन अपने नये कोट के सपनों से उसे आत्मिक पोषण तो मिलता ही रहता था। इसके बाद से उसका समूचा अस्तित्व जैसा अधिक परितुष्ट हो गया था, मानो उसका विवाह हो गया हो, जैसे उसके साथ कोई दूसरा आदमी हो, जैसे वह अकेला न रह गया हो बल्कि कोई प्यारी संगिनी जीवन का मार्ग उसके साथ चलते रहने पर राज़ी हो गयी हो- और यह साथी कोई और नहीं बल्कि उसका भारी रूई-भरा गरम कोट था, जिसमें टिकाऊ और मज़बूत अस्तर लगनेवाला था। न जाने कैसे उसमें ज़्यादा जान आ गयी, और उसका चरित्र अधिक दृढ़ हो गया, उस आदमी की तरह जिसने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया हो। उसके चेहरे और उसके आचरण से अनिश्चय और ढुलमुलपन, यानी उनके सारे डांवांडोल और गोलमोल लक्षण ग़ायब हो गये थे। कभी-कभी उसकी आंखें अचानक चमक उठती थीं और उसके दिमाग़ से अत्यंत साहसपूर्ण और बहादुरी के विचार होकर गुज़र जाते थेः शायद चितराले का कॉलर भी वह आख़िरकार लगवा ही लेगा। इसके बारे में मन ही मन सोचते हुए वह बिल्कुल खो जाता था और एक दिन नक़ल करने के दौरान वह ग़लती भी करते-करते बचा, उसके मुंह से लगभग ज़ोर से ‘‘उफ़!’’ निकल गया और उसने उँगलियों से सीने पर सलीब का निशान बनाया। हर महीने कम से कम एक बार वह ज़रूर पेत्राविच के यहाँ कोट की चर्चा करने जाता, पूछता कि कपड़ा ख़रीदने के लिए सबसे अच्छी जगह कौन-सी होगी, किस रंग का कपड़ा ख़रीदे, कितनी क़ीमत चुकाये और यह सब कुछ पूछकर वह हमेशा खुश-खुश घर लौट आता, हालांकि थोड़ा-सा चिंतित भी रहता, लेकिन इस विचार से उसे संतोष मिलता कि वह वक़्त तो आयेगा जब वह सचमुच सब कुछ ख़रीद सकेगा और कोट बनकर तैयार हो जायेगा। उसकी आशा से जल्दी ही वह क्षण आ गया।
तमाम आशाओं के विपरीत, डायरेक्टर ने अकाकी अकाकियेविच को चालीस नहीं, पैंतालीस नहीं, बल्कि पूरे साठ रूबल का बोनस देना तै किया। उन्हें शायद इस बात का पूर्वाभास हो गया था कि अकाकी अकाकियेविच को कोट की सख़्त ज़रूरत है या शायद यह केवल संयोग की बात रही हो, लेकिन नतीजा यह हुआ कि अकाकी अकाकियेविच को बीस रूबल ज़्यादा मिल गये। घटनाक्रम में अचानक यह मोड़ आ जाने से पूरे सिलसिले की रफ़्तार तेज़ हो गयी। दो-तीन महीने और भूख सहने के बाद अकाकी अकाकियेविच के पास ठीक अस्सी रूबल की रक़म तैयार थी। उसका दिल, जो आम तौर पर शांत रहता था, ज़ोर से धड़कने लगा। अगले ही दिन वह पेत्रोविच के साथ दूकानों का चक्कर लगाने निकल गया। उन्होंने कोट के लिए बहुत बढ़िया कपड़ा लिया-और इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं थी, क्योंकि पिछले छः महीनों से वे इस ख़रीदारी के बारे में सोचते रहे थे और कोई महीना ऐसा नहीं बीता था जब क़ीमतें जानने के लिए उन्होंने दूकानों का चक्कर न लगाया हो। खुद पेत्रोविच तक ने कहा था कि उससे अच्छा कपड़ा कहीं मिल नहीं सकता था। उन लोगों ने अस्तर के लिए सूती कपड़ा पसंद किया था लेकिन इतनी बढ़िया क्वालिटी का और इतना मज़बूत कि, पेत्रोविच के शब्दों में, वह रेशम को भी मात करता था और देखने में ज़्यादा चमकीला और ज़्यादा रौबदार भी लगता था। उन्होंने चितराले का समूर न लगवाने का फ़ैसला किया था क्योंकि वह सचमुच बहुत महंगा था, लेकिन उसकी जगह उन्होंने दूकान में जो बेहतरीन बिल्ली की खाल मिल सकी थी उसको चुना था, बिल्ली की ऐसी खाल, जो दूर से देखने पर आसानी से चितराले का समूर मालूम होती थी। पेत्रोविच ने पूरे दो हफ़्ते मेहनत करके उस कोट को तैयार किया क्योंकि उसमें रूई भरने और निगंदे डालने का बहुत काम थाः वरना तो वह बहुत जल्दी तैयार हो जाता। पेत्रोविच ने उस काम के बारह रूबल लिये थे-इससे एक भी कोपेक कम में वह काम हो ही नहीं सकता थाः हर चीज़ रेशम के धागे से छोटे-छोटे टांकों की दोहरी बख़िया से सिली गयी थी, और बाद में पेत्रोविच ने खुद अपने दांतों से हर सीवन को दबा-दबाकर तरह-तरह के सजावटी बेल-बूटे बनाये थे।
आख़िरकार, जिस दिन पेत्रोविच ओवरकोट लेकर आया था। ठीक-ठीक यह बताना तो मुश्किल है कि वह कौन-सा दिन था, लेकिन शायद वह अकाकी अकाकियेविच की ज़िंदगी का सबसे यादगार दिन था। वह सुबह कोट लेकर आया था, ठीक उस समय से पहले जब अकाकी अकाकियेविच को दफ़्तर जाना था। कोट के तैयार होने के लिए इससे ज़्यादा अच्छा वक़्त हो ही नहीं सकता था, क्योंकि कड़ाके का जाड़ा अभी शुरू ही हुआ था और इस बात का ख़तरा दिखायी पड़ रहा था कि सर्दी अभी और बढ़ेगी। पेत्रोविच हर अच्छे दर्ज़ी की तरह कोट लेकर आया था। उसके चेहरे पर गंभीरता का ऐसा भाव था जैसा अकाकी अकाकियेविच ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। साफ़ ज़ाहिर था कि पेत्रोविच को अपने कारनामे की महानता का पूरा आभास था और वह महसूस करता था कि उसने अपने काम से सिद्ध कर दिया था कि उन दर्ज़ियों में जो सिर्फ़ अस्तर टांकते हैं और मरम्मत करते हैं और उन दर्ज़ियों में जो नये वस्त्रों का सृजन करते हैं कितना ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। उसने कोट को उस बड़े से रूमाल में से खोलकर निकाला जिसमें वह उसे लपेटकर लाया था; रूमाल ताज़ा-ताज़ा धोया गया लगता था; इसके बाद ही उसने रूमाल को तह किया और इस्तेमाल करने के लिए उसे अपनी जेब में रख लिया। कोट को ऊपर उठाकर उसने बड़े गर्व से देखा और बड़ी दक्षता से दोनों हाथों से उसे अकाकी अकाकियेविच के कंधों पर डाल दिया; फिर उसे ठीक से सीधा किया; पीछे से उसे खींचकर बराबर किया, और उसके बाद बटन लगाए बिना ही उसे अकाकी अकाकियेविच के शरीर पर लपेट दिया। अधेड़ उम्र का आदमी होने की वजह से अकाकी अकाकियेविच उसे ठीक से पहनने को उत्सुक था; पेत्रोविच ने बांहें आस्तीनों में डालने में उसकी मदद की-और आस्तीनों में हाथ डालकर पहनने पर भी वह अच्छा था। मालूम यह हुआ कि ओवरकोट हर तरह से बिल्कुल फ़िट था।
पेत्रोविच ने यह कहने का मौक़ा हाथ से नहीं जाने दिया कि महज़ इसलिए कि वह एक छोटी-सी गली में रहता था और उसकी दूकान पर कोई साइनबोर्ड नहीं था, और इसके अलावा वह अकाकी अकाकियेविच को इतने दिन से जानता था, उसने उससे इतने कम पैसे लिये थे; जबकि नेव्स्की एवेन्यू पर सिर्फ़ सिलाई के उसे पचहत्तर रूबल देने पड़ते। अकाकी अकाकियेविच इस बात के बारे में पेत्रोविच से बहस नहीं करना चाहता था क्योंकि पेत्रोविच अपने ग्राहकों को चौंकाने के लिए जिन बड़ी-बड़ी रक़मों का ज़िक्र करता था उनको सुनकर ही उसे डर लगता था। उसने उसका हिसाब चुकता किया, शुक्रिया अदा किया और नया ओवरकोट पहनकर दफ़्तर की ओर चल दिया। पेत्रोविच भी उसके पीछे ही निकला और बड़ी देर तक सड़क पर खड़ा आँखों से दूर जाते हुए कोट को देखता रहा, और फिर जान-बूझकर वह एक टेढ़ी-मेढ़ी गली में से चक्कर काटकर दुबारा उसी सड़क पर कुछ आगे ऐसी जगह आ निकला जहाँ से वह अपने कोट को एक बार फिर देख सकता था, लेकिन इस बार एक दूसरे पहलू से, यानी सामने से। इसी बीच अकाकी अकाकियेविच भरपूर मस्ती में क़दम बढ़ाता चला जा रहा था। हर क्षण उसे इस बात का आभास था कि उसके कंधों पर उसका नया ओवरकोट है, और एक-दो बार तो वह खुशी के मारे मुंह ही मुंह में हँस भी दिया। दरअसल, उस कोट में दो खूबियाँ थींः एक तो वह गर्म था और दूसरे वह देखने में अच्छा लगता था। रास्ते की ओर उसने बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया और अचानक उसने देखा कि वह अपने दफ़्तर पहुँच गया है; लॉबी में पहुँचकर उसने कोट उतारा, उसे हर तरफ़ से अच्छी तरह देखा और फिर दरबान की ख़ास निगरानी में सौंप दिया। न जाने विभाग में हर आदमी को यह पता कैसे लग गया कि अकाकी अकाकियेविच नया कोट पहनकर आया है और उसका पुराना लबादा अब नहीं रह गया है। उसी क्षण वे सब लोग अकाकी अकाकियेविच के नये कोट को देखने भागकर लॉबी में पहुँच गये। वे उसे बधाइयाँ देने लगे और शुभ कामनाएँ प्रकट करने लगे, जिसका नतीजा यह हुआ कि शुरू में तो अकाकी अकाकियेविच सिर्फ़ मुस्कराता रहा, और फिर वह कुछ अटपटा महसूस करने लगा। जब वे सब लोग उसके पीछे पड़ गये और उससे मांग करने लगे कि इस खुशी के मौक़े पर तो जश्न मनाया जाना चाहिये और उसे कम से कम उन्हें पार्टी तो देनी ही चाहिये, तो अकाकी अकाकियेविच की सिट्टी गुम हो हो गयी और उसकी समझ में नहीं आया कि इस झंझट से छुटकारा कैसे पाये। इसके कई मिनट बाद शर्म से लाल होते हुए वह बड़े भोलेपन से उन लोगों को यक़ीन दिलाने लगा कि वह नया कोट बिल्कुल नहीं था, बल्कि उसका पुराना कोट था। आखिरकार, एक अफ़सर ने, जो किसी हेडक्लर्क के असिस्टेंट के ऊँचे ओहदे पर था, शायद यह जताने के लिए कि उसमें अकड़ बिल्कुल नहीं थी और वह अपने से नीचे के लोागों के साथ भी उठने-बैठने को तैयार था, कहाः ‘‘अच्छा, अकाकी अकाकियेविच के बजाय मैं पार्टी दूँगा और मैं तुम सब लोगों को आज मेरे यहाँ चाय पीने के लिए आने का न्योता देता हूँः इसके अलावा आज मेरा जन्मदिन भी है।’’ अफ़सरों ने असिस्टेंट हेडक्लर्क को फ़ौरन बधाई दी और बड़े उत्साह से उसके न्योते को स्वीकार कर लिया। अकाकी अकाकियेविच ने न आ सकने के लिए बहाने पेश करने की कोशिश की। लेकिन सभी कहने लगे कि ऐसा करना सरासर बदतमीज़ी है, कि यह बड़ी शर्म की बात है और उसे न्योता स्वीकार करना पड़ा। बाद में जब उसकी समझ में यह बात आयी कि उसे अपना नया ओवरकोट पहनकर टहलने का एक और मौक़ा मिलेगा, इस बार शाम को, तो वह खुशी से फूल उठा। यह पूरा दिन अकाकी अकाकियेविच के लिए उल्लास-भरे त्योहार का दिन था।
वह घर लौटा तो बहुत खुश था, उसने अपना कोट उतारकर बड़ी सावधानी से हुक पर टांग दिया, एक बार फिर उसके कपड़े और अस्तर को मन ही मन सराहा और फिर दोनों की तुलना करने के लिए उसने अपना पुराना लबादा निकाला, जो बिल्कुल तार-तार हो चुका था। उसे देखकर वह हँस भी पड़ा। कितना ज़मीन-आसमान का अंतर था! और इसके बाद बड़ी देर तक खाना खाते वक़्त जब भी वह अपने पुराने लबादे की दुर्दशा के बारे में सोचता था तो मन ही मन हँस देता था। उसने बहुत खुश होकर खाना खाया और उसके बाद नक़ल करने का काम नहीं किया, ज़रा-सा भी नहीं, बल्कि उसके बजाय वह अंधेरा हो जाने तक बिस्तर पर लेटा ऐंडता रहा। फिर जल्दी से उसने कपड़े बदले, अपना नया कोट पहना और सड़क पर निकल गया। जिस अफ़सर ने पार्टी दी थी वह कहाँ रहता था यह तो दुर्भाग्यवश हम ठीक-ठीक नहीं बता सकते : मेरी याददाश्त बुरी तरह धोखा देने लगी है और सेंट पीटसबर्ग की हर चीज़, उसकी सारी सड़कें और इमारतें मेरे दिमाग़ में इतनी बुरी तरह गड्ड-मड्ड हो गयी हैं कि उसमें से किसी भी चीज़ को सही-सलामत निकाल पाना कठिन है। बस इतना पूरे यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि यह अफ़सर शहर के किसी बेहतर हिस्से रहता था, यानी उसका घर अकाकी अकाकियेविच के घर के कहीं आस-पास भी नहीं था। शुरू में तो आकाकी अकाकियेविच को कुछ सुनसान और धुंधली-धुंधली रोशनीवाली सड़कों से होकर जाना पड़ा, लेकिन जैसे-जैसे वह उस अफ़सर के फ़्लैट के पास पहुँचता गया वैसे-वैसे रास्तों पर ज़्यादा चहल-पहन दिखायी देने लगी, वे ज़्यादा आबाद दिखायी देने लगे और उन पर रोशनी भी बेहतर थी। पैदल चलनेवालों की संख्या अधिकाधिक बढ़ती गयी, सजीली पोशाकें पहने हुए महिलाएँ और ऊदबिलाव की खाल के कालरवाले कोट पहने मर्द भी दिखायी देने लगे; सस्ती क़िस्म की किराये की उन लकड़ी की बनी हुई जंगलेदार बर्फ़-गाड़ियों के कोचवानों की संख्या कम होती गयी जिन पर पीतल की कीलें ठुंकी होती हैं-उनकी जगह वार्निश की हुई उन चमचमाती बर्फ़-गाड़ियों ने ले ली थी, जिनके कोचवानों ने लाल मख़मल की टोपियाँ पहन रखी थीं। और अपने मुसाफ़िरों की सुविधा के लिए गाड़ियों में भालू की खाल के ओढ़ने रख छोड़े थे; और सज-धजवाली घोड़ागाड़ियाँ भी जिनके पहिये बर्फ़ पर चर्र-चर्र की आवाज़ कर रहे थे, सड़क पर आ-जा रही थीं। अकाकी अकाकियेविच विस्मय से इन सब चीज़ों को देखता रहा। बरसों से वह शाम को सड़क पर नहीं निकला था। वह रुककर एक दूकान की जगमगाती हुई खिड़की में लगी तस्वीर को बड़ी दिलचस्पी के साथ देखने लगा, जिसमें एक ख़ूबसूरत औरत को जूता उतारने हुए दिखाया गया था, और ऐसा करने में उसकी बेहद सुडौल टाँग पूरी की पूरी नंगी हो गयी थी; उसके पीछे गलमुच्छों और निचले होंठ के नीचे छोटी-सी नुकीली सुंदर दाढ़ीवाला एक आदमी दूसरे कमरे के दरवाज़े में से झांककर उसे देख रहा था। अकाकी अकाकियेविच सिर हिलाकर मन ही मन हँस दिया और अपने रास्ते पर आगे चल पड़ा। वह मन ही मन क्यों हँसा था? शायद इसलिए कि उसने एक बिल्कुल ही अपरिचित चीज़ देखी थी, लेकिन जो ऐसी चीज़ थी जिसे हर आदमी अपने सहज-ज्ञान से अनुभव करता है, या शायद वह यह सोच रहा हो, जैसा कि उसकी जगह बहुत-से दूसरे अफ़सर सोचतेः ‘‘अरे ये फ्रांसीसी!। बस कुछ पूछिये नहीं! अगर कोई बात उनके मन में एक तरह से। तो वे यक़ीनन एक तरह से।’’ लेकिन, दूसरी ओर, यह भी हो सकता है, कि उसने यह न सोचा हो-हम तो किसी आदमी के दिमाग़ में झांककर देख नहीं सकते और यह पता नहीं लगा सकते कि वह क्या सोच रहा है। आख़िरकार, वह उस मकान तक पहुंच गया जिसमें वह असिस्टेंट हेडक्लर्क रहता था।
असिस्टेंट हेडक्लर्क बड़े ठाठ से रहता थाः उसका फ़्लैट दूसरी मंज़िल पर था, उस तक जानेवाली सीढ़ियों पर लैंप जल रहा था। हॉल में घुसने पर अकाकी अकाकियेविच को फ़र्श पर जूतों के ऊपर पहनने के रबड़ के जूतों की कई क़तारें दिखायी दीं। उनके बीच कमरे के बीचोंबीच एक समोवार रखा था जिसकी आवाज़ सुनायी दे रही थी और जिसमें से भाप के बादल निकल रहे थे। दीवारों पर बहुत-से ओवरकोट टंगे हुए थे, जिनमें से कुछ पर ऊदबिलाव की खाल के कॉलर भी लगे हुए थे या कॉलर के पल्लों पर मख़मल मढ़ा हुआ था। दीवार के पार उसे आवाज़ों का एक मिला-जुला शोर सुनायी दे रहा था जो जब दरवाज़ा खुला और एक नौकर खाली प्यालियों, क्रीम के जग और बिस्कुटों की टोकरी से लदी हुई ट्रे लेकर बाहर निकला, बिल्कुल साफ़ और तेज़ सुनायी देने लगा। साफ़ ज़ाहिर था कि ये अफ़सर वहाँ काफ़ी देर से जमा थे और चाय की पहली प्याली पी चुके थे। अकाकी अकाकियेविच अपना कोट खुद टांगकर कमरे में घुसा और मोमबत्तियों, अफ़सरों, पाइपों और ताश की मेज़ों की भरमार देखकर वह चौंधिया गया, और हर तरफ़ लोगों के बातें करने के मिले-जुले शोर और कुर्सियाँ खिसकाये जाने की तेज़ आवाज़ से उसके कान गूंजने लगे। वह कमरे के बीच में सिटपिटाया हुआ खड़ा था और चारों ओर नज़रें डालकर यह फ़ैसला करने की कोशिश कर रहा था कि उसे क्या करना चाहिये। लेकिन लोगों ने उसे देख लिया था; एक हुल्लड़ के साथ उन्होंने उसका स्वागत किया, और उसी क्षण उसके नये कोट को एक बार फिर देखने के लिये वे ड्योढ़ी में टूट पड़े। अकाकी अकाकियेविच शायद कुछ शरमा रहा था, लेकिन वह इतना भोला-भाला आदमी था कि अपने कोट की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनकर वह खुश हुए बिना न रह सका। इसके बाद अलबत्ता सब लोगों ने उसे और उसके कोट को जहाँ का तहाँ छोड़ दिया और जैसा कि हमेशा होता है ह्विस्ट खेलने के लिए सजायी गयी मेज़ों की ओर वापस चले गये। यह सब कुछ-शोर, लगातार बातें और इतने बहुत-से लोग-अकाकी अकाकियेविच के लिए बिल्कुल अनोखी चीज़ थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। अपने हाथ, अपने पांव और अपना पूरा शरीर कहाँ रखे; आख़िरकार, वह ताश खेलनेवालों के पास जाकर बैठ गया, उसके ताश के पत्तों को देखने लगा, उनके चेहरों को घूरने लगा और कुछ देर बाद जम्हाई लेने लगा; वह महसूस कर रहा था कि यह सब कुछ बहुत उबानेवाला सिलसिला है और फिर उसके सोने का वक़्त भी तो बहुत देर हुए हो चुका था। उसने अपने मेज़बान से विदा लेने की कोशिश की, लेकिन सभी लोगों ने उसे किसी तरह जाने ही नहीं दिया, उन्होंने कहा कि उसके नये कोट की खुशी मनाने के लिए वे सब शैम्पेन का एक-एक गिलास तो पियेंगे ही। घंटे भर बाद मेज़ पर खाना लगाया गया, जिसमें सलाद, ठंडा बछड़े का गोश्त, पैटिस, पेस्ट्रियाँ और शैम्पेन थी।
अकाकी अकाकियेविच को दो गिलास पीने पर मजबूर किया गया, जिसके बाद उसे कमरे का वातावरण पहले से बहुत ज़्यादा मस्ती-भरा लगने लगा, लेकिन वह इस बात को नहीं भुला पा रहा था कि बारह बज चुके थे और उसे बहुत पहले ही घर चला जाना चाहिये था। इस डर से कि उसका मेज़बान उसे और ज़्यादा देर न रोक ले, वह चुपके से दबे पांव कमरे के बाहर निकला, अपना कोट ढूंढ निकाला, जिसे नीचे फ़र्श पर पड़ा देखकर वह बहुत दुःखी हुआ, उसे झटका, उस पर चिपका हुआ सारा कचरा चुन-चुनकर साफ़ किया, उसे अपने कंधों पर डाला और सीढ़ियाँ उतरकर सड़क पर आ निकला। बाहर अभी तक रोशनी थी। कुछ छोटी-छोटी दूकानें, जिन्हें नौकरों-चाकरों के तबक़े के लोग अड्डेबाज़ी के लिए इस्तेमाल करते हैं, अभी तक खुली हुई थीं; कुछ दूसरी दूकानें बंद हो चुकी थीं, पर उनके दरवाज़ों की दरारों में से रोशनी की लम्बी-लम्बी सलाइयाँ बाहर निकल रही थीं, जिसका मतलब यह था कि वे अभी तक उजाड़ नहीं हुई थीं और शायद उनमें नौकरानियाँ और नौकर अभी तक बैठे अपनी रात की गप-शप पूरी कर रहे थे, जबकि उनके मालिकों और उनकी मालकिनों को कुछ भी पता नहीं था कि वे कहाँ चले गये थे। अकाकी अकाकियेविच खुश-खुश चला जा रहा था; एक बार तो यहाँ तक हुआ कि वह किसी प्रकट कारण के बिना ही एक महिला के पीछे लगभग भागने लगा जो उसके पास से बिजली के कौंधे की तरह लपकती हुई गुजर गयी थीं, और अपने शरीर के हर अंग में असाधारण गतिशीलता का परिचय दे रही थीं। लेकिन वह फ़ौरन ही थम गया और अपनी पहलेवाली धीमी रफ़्तार से चलने लगा; उसे खुद इस बात पर हैरत हो रही थी कि वह अचानक इस तरह सरपट भाग क्यों पड़ा था। जल्दी ही वह उन सुनसान गलियों में पहुँच गया, जहाँ, रात की तो बात ही जाने दीजिये, दिन में भी दिल बैठने लगता है। इस वक्त़ तो वे और भी उदास और सूनी लग रही थींः सड़क के किनारे की बत्तियों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी-साफ़ मालूम हो रहा था कि यहाँ तेल की ज़्यादा तंगी थी; लकड़ी के मकान और लकड़ी की चारदीवारियाँ मिलने लगी थीं, दूर-दूर तक कोई आदमी-आदमज़ाद दिखायी नहीं देता था; सिर्फ़ सड़क पर पड़ी हुई बर्फ़ की दमक दिखायी पड़ रही थी और नीची छतोंवाली झोपड़ियाँ अपने अंधेरे किवाड़ों के पीछे उदास भाव से सो रही थीं। अब वह उस जगह के पास पहुंच गया था जहां सड़क एक बड़े-से चौक में जाकर निकलती थी, जो एक भयानक खाली निर्जन विस्तार था, जिसके उस पार की इमारतें भी मुश्किल से दिखायी देती थीं।
कहीं बहुत दूर उसे पुलिस के संतरी की चौकी की टिमटिमाती हुई रोशनी दिखायी दे रही थी; ऐसा लग रहा था कि यह चौकी दुनिया के छोर पर बनी हुई है। यहाँ पहुँचकर अकाकी अकाकियेविच की सारी मस्ती स्पष्टतः मंद पड़ती दिखायी दी। अपने मन में एक अज्ञात भय लेकर उसने चौक को पार करना शुरू किया, मानो अंदर ही अंदर उसे कोई अशुभ बात होने का पूर्वाभास हो गया हो। उसने अपने पीछे और इधर-उधर देखा : ऐसा लग रहा था कि वह खुले समुद्र में चला जा रहा है। ‘‘नहीं, किसी तरफ़ न देखना ही बेहतर होगा,’’ उसने सोचा और आंखें मूंदे चलता रहा, और जब यह देखने के लिए, कि वह चौक के छोर से कितनी दूर रह गया है उसने अपनी आंखें खोलीं तो अचानक उसने देखा कि ठीक उसकी नाक के सामने बड़ी-बड़ी मूंछोंवाले कुछ लोग खड़े हैं, हालांकि वह ठीक से समझ नहीं पाया कि वे कौन हैं। उसकी आंखों के सामने धुंधलका छा गया और उसका दिल धड़कने लगा। ‘‘अरे, यह कोट तो मेरा है!’’ उनमें से एक ने उसका कॉलर पकड़कर धमकी-भरे स्वर में कहा। अकाकी अकाकियेविच मदद के लिए किसी को पुकारने ही जा रहा था कि दूसरे आदमी ने अपना घूंसा-जो किसी भी सरकारी नौकर की खोपड़ी के बराबर था- उसके मुंह की ओर बढ़ाया और बोलाः ‘‘चिल्लाकर तो देख!’’ अकाकी अकाकियेविच ने सिर्फ़ यह महसूस किया कि उन लोगों ने उसका कोट उतार लिया, फिर किसी ने उसको ठोकर मारी और वह पीठ के बल बर्फ़ पर गिर पड़ा; उसके बाद उसने कुछ भी महसूस नहीं किया। कुछ मिनट बाद उसे होश आया और वह उठकर अपने पांवों पर खड़ा हो गया, लेकिन तब वहाँ कोई भी दिखायी नहीं दे रहा था। खुले मैदान में उसे सर्दी लग रही थी, और यह समझ में आने पर कि उसका कोट जा चुका था उसने पुकारना शुरू किया, लेकिन उसकी आवाज़ चौक के उस पार तक पहुंच ही नहीं सकी। बिल्कुल निराश होकर और लगातार चिल्लाते हुए वह चौक के पार सीधे संतरी की चौकी की ओर भागा। संतरी अपने फरसे पर झुका हुआ चौकी से सटा खड़ा था और लगता था कि वह बड़े कौतूहल से देख रहा था, इस बात में दिलचस्पी लेते हुए कि क्यों कोई आदमी दूर से उसकी ओर भागा चला आ रहा है और चिल्ला-चिल्लाकर आवाज़ दे रहा है। उसके पास पहुंचकर अकाकी अकाकियेविच ने हाँफते हुए उस पर चिल्लाना शुरू किया कि वह अपनी ड्यूटी पर चैन से सो रहा था और उसकी आंखों के सामने लोगों को लूटा जा रहा था। सिपाही ने जवाब दिया कि उसने कुछ भी नहीं देखा था, कि उसने तो बस इतना देखा था कि दो आदमियों ने चौक में उसे रोका था और उसने समझा था कि वे उसके दोस्त होंगे; और उसने यह भी कहा कि बेकार गला फाड़ने और गाली देने में अपना वक़्त खराब करने के बजाय उसे अगले दिन जाकर सार्र्जेंट से मिलना चाहिये और सार्जेंट पता लगा देगा कि उसे किसने लूटा था।
अकाकी अकाकियेविच अस्त-व्यस्त हालत में भागा-भागा अपने घर पहुंचाः उसके बाल, जिनके कुछ छोटे-छोटे गुच्छे अभी तक उसकी कनपटियों पर और उसकी गुद्दी पर बाक़ी बच गये थे, बुरी तरह बिखरे हुए थे, उसके शरीर का बग़लवाला हिस्सा, उसका सीना और उसका पतलून बर्फ़ में लिथड़े हुए थे। उसकी बुढ़िया मकान-मालकिन किसी को ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ाते सुनकर जल्दी से अपने बिस्तर से उठी और सिर्फ़ एक जूता पहने बड़े संकोच से रात को पहनने की कमीज़ को सीने पर हाथ से पकड़े दरवाज़ा खोलने के लिए भागी। दरवाज़ा खोलते ही अकाकी अकाकियेविच को इस हालत में देखकर वह चौंककर पीछे हट गयी। लेकिन सारा क़िस्सा सुनने के बाद उसने विस्मय से हथेली पीटते हुए कहा कि उसे सीधे इंस्पेक्टर के पास जाना चाहिये, कि सार्र्जेंट दुनियाभर के झूठ बोलेगा, वादे करेगा और टालमटोल करके उसको बेवक़ूफ़ बनायेगा; और सबसे अच्छा यही होगा कि वह सीधा इंस्पेक्टर के पास चला जाये, कि उससे उसकी जान-पहचान भी थी, क्योंकि वह फ़ीनी लड़की आन्ना, जो पहले उसके यहां खाना पकाने का काम करती थी, अब उसे इंस्पेक्टर के यहाँ आया का काम करती थी, कि वह ख़ुद अकसर उसी इंस्पेक्टर को अपने घर के सामने से गुज़रता हुआ देखा करती थी, और यह कि वह इंस्पेक्टर हर इतवार को गिरजाघर जाता था और प्रार्थना करता था और बहुत प्रसन्नता से चारों ओर देखता था और इसलिए वह बहुत नेक आदमी होगा। यह सलाह सुनकर अकाकी अकाकियेविच बहुत निराश होकर अपने कमरे में चला गया, और जहाँ तक इस बात का सवाल है कि वहाँ उसने वह रात कैसे काटी, तो इसे हम उस पाठक की कल्पना पर छोड़े देते हैं, जो अपने आपको किसी दूसरे की स्थिति में रखकर सोच सकता है।
अगले दिन बहुत सबेरे वह इंस्पेक्टर से मिलने के लिए चल पड़ा; लेकिन वहाँ पहुंचकर उसे बताया गया कि इंस्पेक्टर साहब अभी सो रहे हैं; वह दस बजे फिर लौटकर आया औरा एक बार फिर उसे बताया गया कि वह अभी तक सो रहे हैं; वह ग्यारह बजे आया तो उसे बताया गया कि इंस्पेक्टर साहब घर पर नहीं हैं; वह दोपहर के खाने के वक़्त आया तो सामनेवाले कमरे में बैठे हुए क्लर्र्कों ने बिना यह जाने उसे अंदर जाने देने से इंकार कर दिया कि उसे काम क्या था, कि वह इंस्पेक्टर साहब से क्यों मिलना चाहता था और मामला क्या था। जीवन में पहली बार अकाकी अकाकियेविच ने चरित्र की कुछ दृढ़ता का परिचय दिया और सीधे कहा कि उसे इंस्पेक्टर साहब से ही मिलना है, कि उन लोगों को उसे अंदर जाने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है, कि वह अपने विभाग से सरकारी काम से आया है और यह कि जब वह उनकी शिकायत कर देगा तब उनकी ख़बर ली जायेगी। अब आपत्ति करने की क्लर्र्कों की हिम्मत नहीं हुई, और उनमें से एक क्लर्क इंस्पेक्टर साहब को बुला लाने के लिए चला गया। लेकिन इंस्पेक्टर की प्रतिक्रिया बेहद अजीब थी। समस्या की मुख्य बात की ओर ध्यान देने के बजाय उसने अकाकी अकाकियेविच से पूछना शुरू किया कि वह इतनी देर से घर क्यों लौट रहा था, कहीं वह किसी ऐसे-वैसे घर में तो नहीं गया था, जिसका नतीजा यह हुआ कि अकाकी अकाकियेविच अपना धीरज बिल्कुल खो बैठा और यह जाने बिना ही वहाँ से चला आया कि ओवरकोट के मामले की जाँच-पड़ताल होगी भी कि नहीं। उस पूरे दिन वह जीवन में पहली बार दफ़्तर से ग़ैर-हाज़िर रहा।
अगले दिन उतरा हुआ चेहरा लिये और अपना पुराना लबादा पहने, जो अब पहले से भी ज़्यादा दयनीय लगने लगा था, वह काम पर पहुंचा। कोट लुटने का क़िस्सा सुनकर अफ़सरों को बहुत रंज हुआ, हालांकि उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्हें इस मुसीबत के वक़्त में भी अकाकी अकाकियेविच की हँसी उड़ाने में कोई संकोच नहीं हुआ। अफ़सरों ने फ़ौरन उसके लिए चंदा जमा करने का फ़ैसला किया, लेकिन बहुत ही छोटी-सी रक़म जमा हो सकी क्योंकि विभाग के कर्मचारी पहले ही चंदों में बहुत-सी रक़म दे चुके थे, पहले तो डायरेक्टर की एक तस्वीर के लिए, फिर किसी नयी किताब के लिए, जिसकी सिफ़ारिश उनके सेक्शन के बड़े अफ़सर ने की थी, क्योंकि वह उस किताब के लेखक का मित्र था। नतीजा यह हुआ कि वे बहुत ही थोड़ा पैसा जुटा पाये। उनमें से एक ने, दया के भाव से द्रवित होकर, कम से कम एक उपयोगी सलाह देकर अकाकी अकाकियेविच की मदद करने का फ़ैसला किया; उसने उससे कहा कि वह पुलिस सार्र्जेंट के पास न जाये, क्योंकि सार्र्जेंट अपने ऊपर के अफ़सरों की वाहवाही लूटने की उत्सुकता में कोट किसी न किसी तरह बरामद भले ही कर ले, पर जब तक उसकी मिल्कियत का क़ानूनी सबूत न दे दिया जाये तब तक वह रहेगा थाने में ही। इसके बजाय उसे जाकर एक बड़ी हस्ती से मिलना चाहिये, और वह बड़ी हस्ती सही लोगों से संपर्क करके और सही लोगों को चिट्ठियाँ भेजकर मामले को सही ढर्रे पर लगा देगी। अकाकी अकाकियेविच के लिए इस बड़ी हस्ती से मिलने के अलावा कोई चारा ही नहीं था।
इस बड़ी हस्ती का ओहदा सही-सही क्या था, और उसमें क्या आशय निहित था, यह तो आज तक एक रहस्य है। सिर्फ़ यही मालूम है कि इन बड़ी हस्ती को अभी हाल ही में बड़ी हस्ती बनाया गया था, और उससे पहले उनकी हस्ती बहुत मामूली थी, हालांकि उनके पद को कुछ दूसरी, उनसे भी बड़ी हस्तियों के पदों की तुलना में कोई ख़ास महत्त्वपूर्ण नहीं समझा जाता था। लेकिन जिन आदमियों को कुछ लोग बड़ी हस्ती नहीं मानते हैं, वे ही दूसरे कुछ लोगों के लिए बड़े महत्त्व के हो सकते हैं। इसके अलावा वही बड़ी हस्ती अपने महत्त्व को हर तरह से बढ़ाने की भी कोशिश करते थेः जैसे, उन्होंने यह आदेश दे रखा था कि जब वह काम पर आया करें तो उनके नीचे काम करनेवाले अफ़सर उन्हें सीढ़ियों पर मिला करें; कि कोई भी सीधे उनसे मिलने की जुर्रत न करे, बल्कि इस क्रम का सख़्ती से पालन किया जायेः कालिजिएट रजिस्ट्रार अपनी रिपोर्ट गुबेर्निया सेक्रेटरी के सामने पेश किया करे, गुबेर्निया सेक्रेटरी अपनी रिपोर्ट टाइटुलर काउंसिलर को, या जो कोई भी उससे अगला ऊँचा अफ़सर हो, उसको पेश किया करे, और इस तरह मामला आख़िरकार उनके पास तक पहुंच जायेगा। क्योंकि पवित्र रूस की यही दुर्दशा हो गयी है- नकल का बोलबाला है और हर आदमी अपने से ऊपरवाले आदमी की नक़ल करने की कोशिश करता है। किसी टाइटुलर काउंसिलर का तो यह क़िस्सा भी सुनाया जाता है कि जब किसी छोटे-मोटे विभाग का ज़िम्मा उसे सौंपा गया तो उसने फ़ौरन आड़ लगवाकर अपने लिए अलग एक कमरा बनवा लिया, उसे ‘‘हेड ऑफ़िस’’ कहने लगा और उसके दरवाज़े पर लाल कॉलर और सुनहरा गोटा लगी वर्दियोंवाले चपरासी तैनात कर दिये, जो किसी भी मिलनेवाले के आने पर दरवाज़ा खोलते थे, हालांकि ‘‘हैड ऑफ़िस’’ मुश्किल से इतना बड़ा था कि उसमें बस एक मामूली मेज़ ही आ सकती थी। तो उन बड़ी हस्ती की आदतें और तौर-तरीक़े मुनासिब हद तक शानदार और रोबदार थे, लेकिन उनमें किसी तरह की कोई पेचीदगी नहीं थी। उनकी आधारशिला थी सख़्ती। वह कहा करते थेः ‘‘सख़्ती, सख़्ती और सख़्ती’’, और अंतिम शब्द का उच्चारण करते समय वह सुननेवाले के चेहरे को बड़े अर्थपूर्ण ढंग से देखते थे। हालांकि, दरअसल, ऐसा करने की कोई वजह नहीं थी क्योंकि उस दफ़्तर में जो दर्जन-भर अफ़सर थे वे यों भी हमेशा डरे-सहमे रहते थेः अपने प्रधान को दूर से आता देखकर जो भी काम वे करते होते थे उसे छोड़कर वे कमरे से उनके गुज़र जाने तक सीधे तनकर सावधान की मुद्रा में खड़े रहते थे।
अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ उनकी बातचीत की विशेषता थी सख़्ती और उसमें वह प्रायः केवल तीन फ़िक़रे बोलते थेः ‘‘तुम्हारी यह मजाल? मालूम है किससे बात कर रहे हो? जानते हो तुम्हारे सामने कौन खड़ा है,’’ लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद वह दिल के बहुत नेक, मिलनसार और परोपकारी आदमी थे; लेकिन तरक़्क़ी मिलने के बाद उनका दिमाग़ बिल्कुल फिर गया था। जनरल का दर्जा पाने के बाद वह बिल्कुल बौखला गये थे और अब उनकी समझ में नहीं आता था कि किस तरह का आचरण अपनायें। जब वह अपने बराबरवालों के साथ होते थे तब वह बहुत भले आदमी रहते थे, शिष्ट और कई मामलों में काफ़ी समझदार हाने का भी परिचय देते थे, लेकिन जैसे ही वह अपने आपको ऐसी जगह पाते थे जहाँ एक भी आदमी उनसे एक दर्जा नीचे हो, तो उनका व्यवहार बिल्कुल घटिया होता थाः वह बिल्कुल चुप्पी साध लेते थे, और उनकी हालत इसलिए और भी दयनीय हो जाती थी कि स्पष्टतः उन्हें स्वयं भी इस बात का आभास रहता था कि वह अपना समय अधिक दिलचस्प तरीक़े से बिता सकते थे। कभी-कभी उनकी आंखों से यह प्रबल इच्छा व्यक्त होती थी कि वह किसी दिलचस्प बातचीत में हिस्सा लें या किसी दिलचस्प सोहबत में शरीक हों, लेकिन यह विचार उन्हें रोक देता थाः कहीं यह उनकी प्रतिष्ठा से निम्न स्तर की बात तो नहीं होगी, कहीं यह ज़रूरत से ज़्यादा बेतकल्लुफ़ी तो नहीं होगी और उनके महत्त्व को घटायेगी तो नहीं? इस तरह के सोच-विचार के बाद वह हमेशा अपनी चुप्पी पर क़ायम रहते थे, और बीच-बीच में बस कभी हाँ-हूँ कर देते थे, इस तरह उन्होंने बहुत ही नीरस आदमी होने की ख्याति प्राप्त कर ली थी। तो ऐसे थे वह बड़ी हस्ती जिनके पास हमारे बेचारे अकाकी अकाकियेविच को जाना पड़ा, और उसने इसके लिए बहुत ही अनुचित समय चुना, ऐसा समय जो अकाकी अकाकियेविच के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और उन बड़ी हस्ती के लिए बहुत ही सौभाग्यपूर्ण था। वह बड़ी हस्ती अपने कमरे में बैठे हुए थे और बहुत प्रसन्नचित्त होकर अपने एक पुराने मिलनेवाले और बचपन के दोस्त के साथ बातें कर रहे थे, जो हाल ही में आया था, और जिससे बरसों से उनकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। जिस समय वह इस तरह व्यस्त थे, उन्हें सूचना दी गयी कि बश्माचकिन नामक एक आदमी उनसे मिलने आया है। उन्होंने बड़ी रुखाई से पूछाः ‘‘कौन है वह?’’ और उन्हें जवाब मिलाः ‘‘कोई अफ़सर है।’’-‘‘तब उसे इंतज़ार करने दो, मेरे पास अभी वक़्त नहीं है,’’ बड़ी हस्ती बोले। यहाँ हम यह बता दें कि बड़ी हस्ती की यह बात सरासर झूठ थीः उनके पास ढेरों वक़्त था, वह और उनका दोस्त बहुत देर हुए अपनी दिलचस्पी के सारे विषयों पर बातें कर चुके थे और उनकी बातचीत का स्तर गिरते-गिरते लम्बी चुप्पियों तक सीमित रह गया था जिनके बीच-बीच में वे एक-दूसरे की जांघ पर धप मारकर कह उठते थेः ‘‘यह हाल है, इवान अब्रामोविच!’’-‘‘हाल तो यही है, स्तेपान वर्लामोविच!’’ लेकिन उल्टे, उन्होंने उस अफ़सर को इंतज़ार कराने का हुक्म दे दिया, ताकि उनके दोस्त को, जो एक ऐसा आदमी था जो बहुत पहले नौकरी से रिटायर होकर गांव में अपने घर पर रहने लगा था, यह पता चल जाये कि अफ़सरों को उनसे मिलने के लिए पासवाले छोटे कमरे में कितनी देर इंतज़ार करना पड़ता है।
आख़िरकार, जब वे जी भरकर बातें कर चुके, और उससे भी ज़्यादा उनका जी लम्बी चुप्पियों से भर गया, और वे तिरछी पीठवाली बेहद आरामदेह कुर्सियों पर बैठकर अपने सिगार पी चुके, तो उन्हें मानो अचानक कुछ याद आ गया और उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा, जो कोई रिपोर्ट लेने के लिए दरवाज़े के अंदर आकर रुक गया थाः ‘‘हुँ, बाहर कोई अफ़सर इंतज़ार कर रहा है न? उससे अंदर आने को कह दो।’’ अकाकी अकाकियेविच की निराशा में डूबी हुई मुद्रा और उसकी पुरानी वर्दी देखकर वह तेज़ी से उसकी ओर मुड़े और उन्होंने झटकेदार कठोर स्वर में पूछाः ‘‘क्या बात है?’’ उन्होंने तरक़्क़ी मिलने और अपने वर्तमान पद पर नियुक्त होने के एक हफ़्ते पहले से कमरा बंद करके आईने के सामने अकेले खड़े होकर इस लहजे का अभ्यास किया था। अकाकी अकाकियेविच, जो पहले से ही काफ़ी रोब खा रहा था, यह सुनकर अपना संतुलन कुछ हद तक खो बैठा और जहाँ तक उसके अल्पभाषी स्वभाव ने इजाज़त दी, उसने बीच-बीच में हमेशा से ज़्यादा बार ‘‘एक तरह से’’ का पुट देकर समझाया कि उसके पास बिल्कुल नया एक ओवरकोट था, और उसे बड़ी बर्बरता से लूट लिया गया था, और अब वह महामहिम की शरण में आया था कि वह उसकी पैरवी करके पुलिस के चीफ़ इंस्पेक्टर साहब से, या किसी और से, एक तरह से सम्पर्क स्थापित करने, और उसका खोया हुआ कोट दिलाने में मदद करें। किसी अज्ञात कारण से जनरल साहब को अकाकी अकाकियेविच का आचरण ढिठाई का लगा।
‘‘क्या है, भले आदमी,’’ वह उसी कठोर स्वर में कहते रहे, ‘‘तुम्हें क़ायदा-कानून कुछ मालूम नहीं? जानते हो तुम कहाँ हो? या इस तरह के मामलात को पेश करने का सही तरीक़ा क्या है? तुम्हें पहले इसके बारे में इस दफ़्तर में अर्जी देनी चाहिये थी, वह हेड क्लर्क को भेजी जाती, फिर विभाग के प्रधान को, और फिर वह सेक्रेटरी के हवाले की जाती और सेक्रेटरी उसे खुद मेरे पास लेकर आता।’’
‘‘लेकिन, महामहिम,’’ अकाकी अकाकियेविच ने अपने बचे-खुचे साहस के सारे साधन जुटाने की कोशिश करते हुए और साथ ही बुरी तरह पसीने में नहाकर कहाः ‘‘मैंने, महामहिम, आपको तकलीफ़ देने की जुर्रत इसलिए की है कि, बात यह है, सेक्रेटरियों पर एक तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता।’’
‘‘क्या कहा?’’ वह बड़ी हस्ती बोले, ‘‘इस तरह के रवैये तुम्हारे मन में कहाँ से पैदा हुए हैं? इस तरह के ख़्याल तुम्हारे दिमाग़ में आये कहां से? नौजवान पीढ़ी के लोगों का क्या हाल हो गया है कि अपने हाकिमों और बड़ों के ख़िलाफ़ ऐसा बागियाना रुख़ अपनाते हैं!’’
उस बड़ी हस्ती ने, ज़ाहिर है, इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया था कि अकाकी अकाकियेविच पचास की उम्र पार कर चुका था। किसी ऐसे आदमी की अपेक्षा जो सत्तर की उम्र पार कर चुका हो, उसे अलबत्ता नौजवान कहा जा सकता था।
‘‘मालूम है किससे बात कर रहे हो? जानते हो तुम्हारे सामने कौन खड़ा है? क्या यह बात तुम्हारी समझ में आती है, कुछ आती है समझ में? मैं तुमसे सवाल पूछ रहा हूँ।’’
यहाँ पहुंचकर उन्होंने ज़ोर से अपना पाँव पटका और अपनी आवाज़ इतनी ऊँची उठायी कि अकाकी अकाकियेविच ही नहीं, कोई भी आदमी डर जाता।
अकाकी अकाकियेविच को जैसे सांप सूंघ गया, वह सिर से पांव तक कांपने लगा; उससे ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा थाः अगर नौकरों ने उसी वक़्त लपककर उसे सहारा न दिया होता तो वह फ़र्श पर गिर पड़ता। उसे लगभग बेहोशी की हालत में बाहर ले जाया गया। बड़ी हस्ती को इस बात की बहुत खुशी थी कि उनके शब्दों में इतना असर था, उनकी अपेक्षा से भी अधिक, और यह सोचकर उन पर नशा-सा छा गया था कि उनकी बात से ही आदमी के होश उड़ सकते थे, उन्होंने अपने दोस्त की ओर कनखियों से देखा यह जानने के लिए कि उस पर इसकी क्या प्रतिक्रिया हो रही है और यह देखकर उन्हें बहुत संतोष हुआ कि उनके दोस्त की हालत बेहद नाज़ुक थी और वह ख़ुद सहमा हुआ लगने लगा था।
वह सीढ़ियों से नीचे कैसे उतरा और बाहर निकलकर सड़क पर कैसे आया यह अकाकी अकाकियेविच कोशिश करने पर भी याद न कर सका। उसे न अपनी टांगों का पता था न अपनी बांहों का। किसी दूसरे विभाग के जनरल की बात तो दूर रही, अपनी पूरी ज़िंदगी में उसने किसी भी जनरल से कभी इतनी फटकार नहीं सुनी थी। मुँह खोले और सड़क की पटरी से बार-बार हटते हुए वह बर्फ़ के तूफ़ान को चीरता हुआ, जो सड़क पर सीटियाँ-सी बजाता हुआ उपद्रव मचा रहा था, किसी तरह आगे बढ़ता गया जैसा कि सेंट पीटर्सबर्ग में आम तौर पर होता है, हवा सभी सड़कों और गलियों से निकलकर, एक साथ चारों ओर से उस पर हमला कर रही थी। एकदम उसने महसूस किया कि उसका सीना जकड़ता जा रहा है और जब वह गिरता पड़ता घर पहुँचा तो उसकी आवाज़ बिल्कुल बैठ चुकी थी, और अपने गले की सूजन लिये हुए वह बिस्तर पर लेट गया। अच्छी डांट-फटकार का ऐसा भी असर हो सकता है!
अगले दिन पता चला कि उसे तेज़ बुख़ार चढ़ा हुआ है। पीटर्सबर्ग के जलवायु की उदार सहायता की बदौलत उसकी बीमारी उम्मीद से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती गयी, और आख़िरकार जब डॉक्टर ने आकर उसकी नब्ज़ देखी तो वह उसे सिर्फ़ पुल्टिस लगाने की सलाह दे सका, सो महज़ इसलिए कि रोगी दवा-दारू की सुविधा से बिल्कुल ही वंचित न रह जाये; और उसके बाद उसने एलान कर दिया कि डेढ़ दिन में उसका काम तमाम हो जायेगा। इसके बाद वह मकान-मालकिन की ओर मुड़ा और बोलाः
‘‘देखो, मेरी सलाह मानो, ज़्यादा वक़्त ख़राब न करो, फौरन उसके लिए चीड़ की लकड़ी का ताबूत बनवा दो क्योंकि शाहबलूत की लकड़ी का ताबूत तो उसकी बिसात के बाहर है।’’
यह तो मालूम नहीं कि अकाकी अकाकियेविच ने ये जानलेवा शब्द सुने भी कि नहीं, या, अगर उसने सुने तो उनका उस पर कोई असर भी हुआ कि नहीं, कि इस मुसीबत की ज़िंदगी से बिछुड़ने का उसे अफ़सोस था या नहीं, क्योंकि तमाम वक़्त उसे तेज़ बुख़ार चढ़ा रहा और वह सरसाम की हालत में रहा। उसके दिमाग़ में भ्रम पैदा होते रहे और हर भ्रम पिछले भ्रम से ज़्यादा अजीब होता थाः कभी वह पेत्रोविच को देखता और उससे एक ऐसा कोट बना देने को कहता जिसमें चोरों को पकड़ने के लिए फंदे लगे हों-उसे अपने पलंग के नीचे चोर दिखायी देते रहते, और वह लगातार मकान-मालकिन को पुकारता कि वह एक चोर को, जो उसके बिस्तर तक में घुस गया था, वहाँ से निकलने के लिए लिये आये; या कभी वह पूछता कि उसका पुराना लबादा उसके सामने क्यों टंगा हुआ है, जबकि उसके पास एक नया ओवरकोट है; या कभी वह कल्पना करता कि वह जनरल साहब के सामने खड़ा उनकी फटकार सुन रहा है और बुदबुदाकर कह रहा हैः ‘‘माफ़ कीजियेगा, महामहिम!’’ और आख़िरकार उसके मुंह से ऐसी गंदी-गंदी और बेहूदा गालियों की झड़ी लग जाती कि उसकी बूढ़ी मकान-मालकिन भी सीने पर सलीब का निशान बनाने लगती, क्योंकि उसने इससे पहले कभी उसे ऐसी कोई बात कहते नहीं सुना था, और वह इसलिए और भी ज़्यादा दंग रह जाती कि ये शब्द ‘‘महामहिम’’ शब्द के ठीक बाद आते थे। बाद में चलकर वह ऊटपटांग बकने लगा; एक ही बात बिल्कुल साफ़ थी कि उसकी सारी उलझी हुई बातें और विचार उस अभागे ओवरकोट पर केन्द्रित थे। आख़िरकार बेचारे अकाकी अकाकियेविच ने दम तोड़ दिया।
किसी ने उसके कमरे या उसकी चीज़ों को सील करने का भी कष्ट नहीं उठाया, जिसकी पहली वजह तो यह थी कि उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था, और दूसरे इसलिए कि वह गिनती की कुछ चीज़ें ही छोड़कर मरा थाः हंस के परों का एक गट्ठा, एक दस्ता सफ़ेद दफ़्तर का काग़ज़, तीन जोड़े मोज़े, उसके पतलून में से टूटे दो-तीन बटन, और वह पुराना लबादा, जिससे पाठक भली-भांति परिचित हो चुके हैं। यह सब कुछ किसे मिला, यह तो भगवान ही जानेः और सच पूछिये तो इस कहानी कहनेवाले ने इसमें कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखायी है। अकाकी अकाकियेविच की लाश को ले जाकर क़ब्र में लिटा दिया गया। और सेंट पीटर्सबर्ग की ज़िंदगी उसके बिना उसी तरह चलती रही जैसे उसका कभी अस्तित्व ही न रहा हो। उस जीव का कोई नाम-निशान भी बाक़ी नहीं रहा, जिसकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं था, जिसमें किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी, यहाँ तक कि वह किसी ऐसे प्रकृति-विज्ञानी का भी ध्यान आकर्षित नहीं कर पाया था जो बड़ी उत्सुकता से इस अवसर की ताक में रहता है कि पिन पर मामूली मक्खी को लगाकर माइक्रोस्कोप से उसका अध्ययन करें; वह जीव जिसने बड़ी विनम्रता से अपने साथ काम करनेवाले क्लर्र्कों के उपहास को सहन किया था और जो किसी भी उपलब्धि का श्रेय प्राप्त किये बिना अपनी क़ब्र में चला गया था, लेकिन जिसका अभागा जीवन अंतिम समय से कुछ ही पहले नये ओवरकोट के रूप में एक प्रदीप्त अभ्यागन की बदौलत एक संक्षिप्त क्षण के लिए आलोकित हो उठा था, लेकिन जो उसके बाद ही प्रभुओं और महाप्रभुओं के जीवन की तरह दुर्भाग्य के एक असह्य आघात से नष्ट हो गया था। उसके मरने के कुछ दिन बाद उसके विभाग के चौकीदार को उसके फ़्लैट पर भेजा गया कि यह आदेश उस तक पहुँचा दे कि वह फ़ौरन काम पर चला आयेः यही डायरेक्टर का हुक्म था; लेकिन चौकीदार को मजबूर होकर उसके बिना ही लौट आना पड़ा और उसने यह सूचना दी कि अब वह कभी काम पर नहीं आयेगा, और जब उससे पूछा गया कि ‘‘क्यों नहीं आयेगा?’’ तो उसने जवाब दियाः ‘‘देखिये, बात यह है कि वह मर चुका है, और तीन दिन पहले उसे दफ़ना भी दिया गया है।’’ इस तरह उसके विभाग के लोगों को अकाकी अकाकियेविच के मरने का पता चला और अगले ही दिन उसकी जगह एक दूसरे क्लर्क को बिठा दिया गया, जो उससे कहीं अधिक लम्बा था, और जो अपने पत्र एक ओर को झुके हुए अक्षरोवाली लिखाई में नक़ल करता था।
लेकिन कौन सोच सकता था कि यह अकाकी अकाकियेविच की कहानी का अंत नहीं था, उसके भाग्य में अपनी मृत्यु के बाद भी कुछ सनसनीखेज़ दिनों तक ज़िंदा रहना लिखा था, मानो यह उसके नीरस जीवन का हर्जाना हो। पर ऐसा हुआ और हमारी यह सपाट कहानी बहुत ही अप्रत्याशित और कल्पनातीत ढंग से समाप्त हुई। सेंट पीटर्सबर्ग में अचानक हर तरफ़ ये अफ़वाहें फैलने लगीं कि कालीन्किन पुल के पास और उससे बहुत दूर परे तक रात को एक भूत दिखायी देता है। यह भूत एक अफ़सर के भेस में होता है जो किसी चोरी चले गये ओवरकोट को खोजता रहता है और, ओहदे और रुतबे की कोई परवाह किये बिना, अपना कोट वापस लेने के बहाने हर आदमी के कंधों पर से कोट उतार लेता हैः बिल्ली की खाल और ऊदबिलाव की खल के अस्तर लगे हुए कोट, रूई-भरे कोट, वाह, लोमड़ी और रीछ की खाल के कोट, मतलब यह कि हर उस तरह के समूर और खाल के कोट जो इंसान ने खुद अपनी खाल को ढकने के लिए कभी भी इस्तेमाल किये हैं। विभाग के एक अफ़सर ने उस भूत को ख़ुद अपनी आंखों से देखा था और फ़ौरन पहचान लिया था कि वह अकाकी अकाकियेविच था; लेकिन इस बात से उसके दिल में ऐसा डर समाया कि वह दुम दबाकर भागा और इसलिए उसे अच्छी तरह देख नहीं पाया, वह बस इतना ही देख सका कि वह दूर खड़ा उसकी ओर उंगली हिलाकर उसे धमका रहा था। इस तरह की शिकायतों का तांता बंध गया कि नागरिकों को-टाइटुलर काउंसिलरों को ही नहीं बल्कि प्रिवी काउंसिलरों तक को-अपनी पीठ और कंधों पर बुख़ार के हमले का ख़तरा था क्योंकि उनके कोट रात को चुरा लिये जाते थे। पुलिस ने हुक्म जारी कर दिया कि किसी भी क़ीमत पर उस भूत को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ लिया जाये और दूसरों को सबक़ सिखाने के लिए उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये, और वे अपनी इस हिदायत को अमल में पूरा करने में लगभग कामयाब भी हो गये थे। किर्यूश्किन गली में गश्त करनेवाले एक संतरी ने अपराध के घटनास्थल पर ही इस मुर्दे का कॉलर उस वक़्त दबोच भी लिया था जब वह किसी बूढ़े रिटायर्ड संगीतज्ञ की पीठ पर से, जो किसी ज़माने में बांसुरी बजाया करता था, उसका कोट ज़बर्दस्ती उतारे ले रहा था। उसका कॉलर पकड़कर उसने अपने दो साथियों को चिल्लाकर बुला लिया था और उन्हें उस भूत को पकड़े रहने की हिदायत देकर उसने ख़ुद जल्दी से अपने बूट में से नसवार की डिबिया निकाली थी कि अपनी ज़िंदगी में छः बार पाला मारी हुई नाक में फिर से जान फूंक दे, लेकिन नसवार ऐसी थी कि मुर्दा भी उसे नहीं बर्दाश्त कर सकता था।
संतरी ने उंगली से अपना दाहिना नथुना दबाकर दूसरे नथुने में नसवार की एक भरपूर चुटकी अभी चढ़ायी ही थी कि मुर्दे ने उन तीनों के मुंह पर ऐसे ज़ोर की छींक मारी कि उनकी आंखों के आगे धुंध छा गयी। आंखें पोंछने के लिए हाथ उठाने में उन्हें जितना वक़्त लगा उतनी देर में वह मुर्दा ग़ायब हो चुका था, और वे यक़ीन के साथ यह भी नहीं कह सकते थे कि कभी वह उनकी पकड़ में था भी कि नहीं। उसके बाद से संतरियों के दिल में मुर्र्दों का ऐसा डर समाया कि वे ज़िंदा लोगों पर भी हाथ डालने से कतराने लगे, और वे सब दूर से ही चिल्लाकर कहते थे : ‘‘ऐ,कौन है, चलते बनो वहां से!’’ वह मुर्दा अफ़सर कालीन्किन पुल से परे भी दिखायी देने लगा, और सभी डरपोक लोगों के दिलों में अपनी दहशत बिठाने लगा। लेकिन हम उन बड़ी हस्ती के बारे में तो बिल्कुल भूल ही गये जिनकी वजह से हमारी इस कहानी में, जिसके बारे में लगे हाथ हम यह बता दें कि यह बिल्कुल सच्ची कहानी है, यह कल्पनातीत मोड़ आया। सत्य के प्रति हमारी निष्ठा का तक़ाज़ा है कि हम यह बता दें कि इन बड़ी हस्ती को बेचारे बुरी तरह फटकारे गये अकाकी अकाकियेविच के चले जाने के कुछ ही देर बाद एक तरह की ग्लानि महसूस हुई। वह दया की भावना से सर्वथा अपरिचित नहीं थे; उनके हृदय में अनेक प्रकार के सद्भावनापूर्ण उद्गार उठते थे, लेकिन अपने पद का ध्यान करके आम तौरपर वह उन्हें व्यक्त करने से वंचित रह जाते थे। मिलने आनेवाले दोस्त के विदा हो जाने के बाद उनका ध्यान अकाकी अकाकियेविच की ओर ही गया। और उसके बाद से लगभग रोज़ ही वह अपनी कल्पना में अकाकी अकाकियेविच को देखते, जो बड़ी हस्ती की डांट-फटकार को बर्दाश्त नहीं कर पाया। उससे सम्बंध रखनेवाले विचारों ने उन्हें इतना बेचैन कर दिया कि हफ़्ते भर बाद उन्होंने एक अफ़सर को अकाकी अकाकियेविच के पास यह मालूम करने के लिए भेजने का फ़ैसला किया कि वह कैसा था और उसकी मदद करने के लिए कुछ किया भी जा सकता था कि नहीं। अब उन्हें सूचना दी गयी कि अकाकी अकाकियेविच तो तेज़ बुख़ार का शिकार होकर परलोक सिधार गया है तो अपने अंतःकरण की धिक्कार सुनकर उन्हें गहरा आघात पहुँचा, और वह उस पूरे दिन कुछ उखड़े-उखड़े-से रहे। किसी तरह अपना मन बहलाने और इस बोझिल छाप को अपने दिमाग़ से निकाल देने की इच्छा से वह एक दोस्त के यहाँ शाम का वक़्त बिताने के लिए चल पड़े, जिनके घर में उन्हें भले लोगों की सोहबत मिली और सबसे अच्छी बात तो यह थी कि वहाँ सभी लोग एक ही हैसियत के थे, जिसकी वजह से उन्हें किसी भी प्रकार के संकोच का आभास नहीं हुआ। उनकी मनोदशा पर इसका बेहद अच्छा प्रभाव पड़ा। उनका सारा तनाव दूर हो गया, वह बेहद खुशमिज़ाजी से बातचीत करते रहे, सबके साथ बड़ी मिलनसारी के साथ पेश आये और सारांश यह कि उन्होंने उस शाम का पूरा आनंद लिया। खाने के वक़्त उन्होंने एक-दो गिलास शैम्पेन के पिये, जो आदमी को ख़ुशमिज़ाज बना देने का जाना-माना तरीक़ा है।
शैम्पेन पीकर उनके मन में चुलबुलेपन की तरंग उठी और उन्होंने सीधे घर न जाकर अपनी जान-पहचान की करोलीना इवानोव्ना नामक एक महिला के यहां जाने का फ़ैसला किया, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह जर्मन मूल की थी, और जिसके साथ उनके बेहद दोस्ताना ताल्लुक़ात थे। यहाँ हम यह बता दें कि वह बड़ी हस्ती अब नौजवान नहीं थे; वह बस अपनी पत्नी के लिए अच्छे पति और अपने बच्चों के लिए अच्छे बाप थे। उनके दोनों बेटे, जिनमें से एक सरकारी नौकरी पर लग चुका था, और उनकी सोलह साल की सुंदर बेटी, जिसकी नाक आगे से कुछ मुड़ी हुई होने के बावजूद ख़ूबसूरत थी, रोज उनका हाथ चूमकर कहते थे : 7ठवदरवनतए चंचं!ष्’। उनकी पत्नी जिनके रंग-रूप में अभी तक काफ़ी ताज़गी थी, और जो किसी तरह अनाकर्षक भी नहीं थीं, पहले उनके चूमने के लिए अपना हाथ उनकी ओर बढ़ाती थीं और फिर उसे उलटकर ख़ुद उनका हाथ चूमती थीं। लेकिन उन बड़ी हस्ती ने इन घरेलू पारिवारिक प्यार-भरी बातों में पूरी तरह संतुष्ट रहने के बावजूद, इस बात को बिल्कुल भद्र समझा कि वह शहर के दूसरे हिस्से में एक महिला के साथ मित्रता का सम्बंध स्थापित करें। उनकी जान-पहचान की यह महिला उनकी पत्नी से न तो ज़्यादा सुंदर थीं और न ज़्यादा जवान ही; लेकिन दुनिया में ऐसी चक्कर में डाल देनेवाली बातें होती ही रहती हैं और उनके बारे में कोई फ़ैसला सुनाना हमारा काम नहीं है। तो, वह बड़ी हस्ती सीढ़ियों से नीचे उतरे, अपनी बर्फ़गाड़ी में बैठे और कोचवान को आदेश दिया : ‘‘करोलीना इवानोव्ना के यहाँ,’’ और यह कहकर उन्होंने अपने आपको ओवरकोट की सुखद तहों में अच्छी तरह लपेट लिया, और उस मनोदृाा में पहुँच गये जिसके लिए रूसी आदमी इतना लालायित रहता है, जब उसे स्वयं कुछ नहीं सोचना पड़ता बल्कि एक-दूसरे से सुखद विचार अनायास ही उसके दिमाग़ में आते रहते हैं और उनकी खोज करने तथा उनका पीछा करने की कोई जऱूरत नहीं पड़ती। संतोष की भावना से ओतप्रोत वह पार्टी के सभी रोचक क्षणों के बारे में, उन सभी चुटकुलों के बारे में सोचने लगे जिन पर उस छोटी-सी मंडली में क़हक़हे पड़े थे; उनमें से कुछ चुटकुले तो उन्होंने दबी ज़बान से अपने आपको सुनाने के लिए दोहराये भी और उन्हें यह पता लगा कि वे पहले जितने ही मज़ेदार थे और इसलिए आश्चर्य की कोई बात नहीं कि वह खुद कई बार ज़ोर से हँस भी पड़े। लेकिन कभी-कभी, भगवान जाने कहाँ से और किसलिए, हवा का कोई तेज़ झोंका आकर बीच-बीच में उनके चेहरे पर चाबुक की तरह लगता था, उस पर बर्फ़ की कंकड़ियों की चुटीली बौछार करता था, उनके कोट के कॉलर को किरमिच के बादबान की तरह फड़फड़ा देता था, या अचानक उनके कोट की कंधों को ढकनेवाली दोहरी परत को इतने अस्वाभाविक वेग से उड़ाकर उनके सिर पर ला पटकता था कि उनको उससे बाहर निकलने में बेहद परेशानी होती थी और उनका सारा मज़ा किरकिरा हो जाता था। अचानक बड़ी हस्ती ने महसूस किया कि किसी ने मज़बूती से उनका कॉलर दबोच लिया है। पीछे मुड़ने पर उन्हें फटी-पुरानी वर्दी पहने एक छोटा-सा आदमी दिखायी दिया, और अकाकी अकाकियेविच को पहचानकर उनका दिल दहल उठा। उस अफ़सर का चेहरा बिल्कुल बर्फ़ की तरह सफ़ेद था, और वह देखने में बिल्कुल लाश जैसा लग रहा था। लेकिन यह देखकर बड़ी हस्ती की दहशत का कोई ठिकाना न रहा कि उस मुर्दा आदमी का मुंह विकृत हो गया और उसने अपनी सांस के साथ क़ब्र का भयानक आभास देते हुए ये शब्द कहे : ‘‘अहा! तो तुम हाथ आ ही गये! आख़िरकार एक तरह से तुम्हारी गर्दन मेरे पंजे में आ ही गयी! मुझे तुम्हारे ही ओवरकोट की तो तलाश थी! तुम मेरी मदद नहीं करना चाहते थे और तुमने उल्टे मुझे फटकारा भी था! तो लाओ, उतार दो अपना कोट!’’
बदनसीब बड़ी हस्ती की तो डर के मारे जान ही निकल गयी। दफ़्तर में और आम तौर पर अपने से नीचे दर्ज़े के लोगों के साथ अपने बर्ताव की सख़्ती के बावजूद, और अपने तमाम मर्दाना डील-डौल और सूरत-शक्ल के बावजूद, जिन्हें देखकर लोग कह उठा करते थे : ‘‘सचमुच, क्या आन-बान का पक्का आदमी है!’’- इस वक़्त, बहादुरों जैसी सूरत-शक्ल के बहुत-से दूसरे लोगों की तरह, वह ऐसी दहशत महसूस करने लगे कि उन्हें डर लगा कि कहीं उन्हें कोई दौरा न पड़ जाये। उन्होंने जितनी जल्दी हो सका अपना कोट उतार दिया और कोचवान से अस्वाभाविक स्वर में चिल्लाकर कहा : ‘‘गाड़ी घर की तरफ़ मोड़ लो, जल्दी करो!’’
कोचवान ने उनकी वह आवाज़ सुनकर, जो आम तौर पर निर्णय के क्षणों में इस्तेमाल की जाती है और जिसके साथ आम तौर पर कोई इससे भी ज़्यादा ज़ोरदार बात जुड़ी होती है, बड़ी सावधानी बरतते हुए अपना सिर कंधों के बीच दुबका लिया, चाबुक फटकारी और वे इस तरह सरपट आगे बढ़ चले जैसे कमान से कोई तीर छोड़ दिया गया हो। लगभग छः मिनट में वह बड़ी हस्ती अपने घर के फाटक पर पहुँच चुके थे। करोलीना इवानोव्ना के यहाँ जाने की योजना त्याग कर, उतरा हुआ चेहरा और दिल में गहरी दहशत का आघात लिये वह कोट के बिना ही अपनी बर्फगाड़ी पर घर पहुँचे थे। किसी तरह लड़खड़ाते हुए वह अपने कमरे में घुसे और सारी रात उन्होंने ऐसी बेचैनी में काटी कि अगले दिन सवेरे उनकी बेटी ने उनसे साफ़-साफ़ कहा : ‘‘पापा, आज आपका चेहरा बिल्कुल उतरा हुआ लग रहा है।’’ लेकिन पापा ने अपनी ज़बान नहीं खोली और इसके बारे में किसी से एक शब्द भी नहीं कहा कि क्या हुआ था, वह कहाँ गये थे और कहाँ जाने की योजना बना रहे थे। इस घटना का उन पर बेहद गहरा असर पड़ा।
उन्होंने अब हर मौक़े पर अपने से नीचे दर्जे के लोगों से यह भी कहना लगभग छोड़ दिया था : ‘‘तुम्हारी यह मजाल? मालूम है किससे बात कर रहे हो?’’ और अगर कभी वह ऐसा कहते भी थे तो पहले यह सुने बिना नहीं कि दूसरा आदमी कहना क्या चाहता है। लेकिन सबसे कमाल की बात तो यह थी कि उस दिन के बाद से उस अफ़सर का भूत बिल्कुल ग़ायब हो गया; बात बिल्कुल साफ़ थी कि बस जनरल साहब का ओवरकोट उसके बदन पर ठीक आता था। बहरहाल, इसके बाद इस तरह के क़िस्से सुनायी देना बंद हो गये कि किसी की पीठ पर से उसका कोट उतरवा लिया गया हो। फिर भी, कई लोग ऐसे थे जो चैन से बैठ ही नहीं सकते थे और वे दावा करते रहते थे कि वह अफ़सर अब भी शहर के दूर-दराज़ हिस्सों में दिखायी देता रहता था। और यह बात बिल्कुल सच है कि कोलोम्ना मोहल्ले के एक संतरी ने अपनी आंखों से एक भूत को किसी इमारत के पीछे से निकलते देखा था; लेकिन वह संतरी स्वभाव से ही ऐसा कमज़ोर आदमी था कि जब एक बार मामूली-सा सुअर का बच्चा तेज़ी से बाहर निकलते हुए उससे टकरा गया था तो वह संतरी धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ा था, जिस पर पास खड़े हुए गाड़ीवाले खिल-खिलाकर हँस दिये थे और उनकी इस गुस्ताख़ी पर उसने उन सबसे एक-एक कोपेक जुर्माना वसूल करके उस रक़म से नसवार ख़रीद ली थी। इसी कमज़ोर संतरी को उस भूत को रोकने की हिम्मत नहीं पड़ी और इसके बजाय वह अंधेरे में उसके पीछे-पीछे चलता रहा, यहाँ तक कि भूत अचानक रुका और मुड़कर बोला : ‘‘क्या चाहिये तुम्हें?’’ और यह कहकर उसकी ओर उसने इतना बड़ा मुक्का ताना जैसा आप किसी ज़िंदा आदमी का नहीं देखेंगे। संतरी ने जवाब दिया : ‘‘कुछ नहीं,’’ और बड़ी मुस्तैदी से उल्टे पांव वापस चला गया। लेकिन यह भूत कहीं ज़्यादा लम्बा था, उसकी मूंछें बेहद बड़ी थीं, और वह ओबूख़ोव पुल की ओर बढ़ता हुआ थोड़ी ही देर में अंधेरे में खो गया था।
(अनुवाद: मुनीश सक्सेना)
साभार :hindikahani.hindi-kavita.com
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