मुझे बचपन से वैसे अकेले लड़ने की आदत थी, मैं कभी पीछे नहीं हटी ना जीवन में ना लेखन में: मैत्रेयी पुष्पा
.……………कुछ औरतें भी औरत को रोकती हैं वो भी आदमी के लठत्व को मन में रख औरत की दुश्मन हो जाती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा से सुप्रसिद्ध कथाकार,कवि डॉक्टर संदीप अवस्थी और युवा कवयित्री कंचन वर्मा की बातचीत।
---हमारे समय की बहुचर्चित और जमीन से जुड़ी हुई लेखिका हैं । जिनकी आत्म-कथा हो ,कहानियां हों या जीवन से जुड़ी तल्ख सच्चाईयों को लेकर लिखी गई किताबें सब में पाठक अपने आप को सीधा जुड़ा महसूस करता है। ऐसी लेखिका जिन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ जुट जाती । एक जगह,मुम्बई में,तो हमने खुद देखा जहां कुछ प्राध्यापकों और लड़कियों के अभिभावकों ने कहा कि हमारी लड़की को मैत्रेयी जी के भाषण या इनका
प्रश्न . सर्वप्रथम हम आपको बता दें यह साक्षात्कार ना होकर के कुछ प्रश्न जिज्ञासाओं के समाधान जैसा है । साथ ही इसमें आपकी शख्सियत से लेकर वर्तमान में भावी पीढ़ी की स्थिति को लेकर भी बातचीत की जाएगी । तो यह बताएं अभी तक की यात्रा में जो भी हासिल हुआ इसमें नाम और शोहरत तो है ही और राजनीति और कहा जाए काफी आलोचना भी शामिल है तो किसका पलड़ा भारी रहा?
उत्तर. ये तो मैं नहीं कह सकती कि किसका पलड़ा भारी रहा लेकिन मुझे इन्हीं आलोचनाओं से साहस मिलता रहा बल मिलता रहा और मैं इन आलोचनाओं के आगे झुकी नहीं।मुझे जो अच्छा लगा वो मैंने लिखा। ज़रूरी तो नहीं जो मैंने कहा वो सबको अच्छा लगे या सब इसी रास्ते को अपनाएँ लेकिन मुझे जो लगा कि सही रास्ता ये है ये नहीं,मैंने वही बताया। बहुतों को रास आया बहुत ज़्यादाओं को नहीं आया।
उन्होंने अपनी प्रतिक्रियाएँ कही भी और सच कहूँ तो मैंने सोचा नहीं था कि मुझे शोहरत या आलोचना मिलेगी।
मैंने केवल लिखा वही लिखा जो मेरे अनुभव थे और नतीजा ये आया कि सब ओर से मेरी तरफ़ ढीली ईंट पत्थर फेंके जाते रहे,मुझे हर तरह से घायल किया जाता रहा,इल्ज़ाम भी बहुत लगे। क्या था कि उस समय लेखिकाएँ जो लिख रही थीं मैं उनसे बहुत अलग लिख रही थी अलग मिज़ाज से लिख रही थी। मेरी एक किताब की आलोचना होती तो मैं दूसरी लिखती,दूसरी की होती तो तीसरी। ऐसे मेरी किताबों की संख्या बढ़ती गई।
मैंने वो नहीं लिखा जो सब एक स्त्री से चाहते हैं या जो लिखा जा चुका है। मुझे लग ही रहा था कि मेरे द्वारा चलाए जा रहे बदलाव को लोग पसंद नहीं कर रहे। पुरुष तो है ही साथ में स्त्रियाँ भी पुरुष सत्ता से प्रेरित ही हैं तभी तो उनसे भी विरोध मिला। ताज्जुब भी हुआ की इन्हीं की आज़ादी की तो बात कर रही हूँ ,पाखंड से मुक्ति की बात कर रही हूँ और ये मेरे ही ख़िलाफ़ बोल रही हैं। इनकी समझदारी पर मुझे आश्चर्य भी हुआ और तरस भी आया।
बहरहाल मैं ये ही कहूँगी की आलोचनाओं के साथ साथ मेरा अडिग लेखन मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहा। बचपन से अब-तक ये आलोचनाएँ ही मेरी साथी रही हैं। मैंने शोहरत की तरफ़ ना देखा ना सोचा।
प्रश्न .क्या हमें हर बात जीवन से जुड़ी औपचारिक अनौपचारिक सच्चाई या अच्छाइयां खुलकर साहित्य में लिख देनी चाहिए? हालांकि अपने जीवन को जस का तस लिख देने का हुनर बहुत कम लोगों में आता है ,आपने ऐसा किया अपनी आत्म-कथाओं में और एक बड़े वर्ग ने देश में उसको स्वीकार भी किया । मेरा सवाल यह है की जो वर्तमान लेखन है हिंदी साहित्य का क्या उसमें यह खुलापन ,ईमानदारी गायब नहीं होती जा रही है ?और यह गायब होना कितना बड़ा नुकसान कर रहा है साहित्य का आप बताइए?
उत्तर. एक होता है आदर्शवाद और एक होता है यथार्थवाद जो हमारे साहित्य में चलते हैं। इसके उदाहरण में मैं खुद की बात करती हूँ। मैं यथार्थ के ज़्यादा क़रीब थी और आडम्बर या झूठ को नहीं लिखना चाहती थी। मैं अपनी गलती भी लिखती थी या लिखती हूँ और जहां गलती नहीं वो भी लिखती हूँ। मैंने अपनी आत्म-कथा में सच लिखा,कुछ छिपाया नहीं।
मैंने बिना डर के लिखा कि मैं लड़कों के स्कूल में एकमात्र लड़की थी,स्कूल में शिक्षक और बच्चे सभी मुझे ट्रोल करते थे लेकिन मैंने बदनामी के डर से स्कूल नहीं बदला ना मेरी माँ ने मुझे लड़कियों के स्कूल में दाख़िला दिलवाया। मैंने तब भी साफ़ कहा और आज भी कहती हूँ कि लड़की जहाँ भी है उसे सहना ही पड़ता है मेरी खुद की लड़कियाँ भी हैं तब भी कहती हूँ कि पुरुष सत्ता में कोई फ़र्क़ नहीं आया, वर्चस्व कहो या आशिक़ी कहो या कुछ भी कहो। स्त्री बदल गई पढ़ी,लिखी, जॉब करने लगी आज वो जवाब भी देती है लेकिन पुरुष, पुरुष उसी तिकड़म में है कि कहाँ पासा फेकूँ।
मेरी आत्म कथा पढ़ कर कितनी ही औरतों ने मुझ से आकर कहा कि आपने तो हमारी कहानी लिख दी है। क्यों ? क्योंकि मैंने ईमानदारी से लिखा और ईमानदारी से लिखा हुआ लोग माने या ना माने अपने दिल से महसूस करते ही हैं।
सच ये है कि ईमानदारी किसी दूसरे के लिए नहीं होती अपने लिए होती है। साहित्यकार को खुद से भी जवाब माँगना चाहिए,क्या हमने सच लिखा ? या हमने मिलावट की ! मिलावट कितने दिन चलेगी। जो टाँका बट्टा है पता चल ही जाता है। तुम लिखती हो तो तुम यदि खरी बात कहोगी तो उसमें तुम्हें कोई जवाब नहीं देना है,कुछ नहीं समझाना है लेकिन तुम झूठ बोलोगी तो बहुत चाशनी लपेटनी पड़ेगी और झूठ कब तक चलेगा।
प्रत्येक साहित्यकार को साफ़ और निष्पक्ष लिखना चाहिए। जो कहना है साफ़ कहो, डर किसका है ? जिन्हें डर नहीं होता वो ही साफ़ कह सकते हैं, जिनको अपनी छवि पर बट्टा लगने की परवाह होती वो सच नहीं कह पाते वो सब बचा बचा के कहते है।
साहित्य का मतलब ही सच को सामने रखना है चाहे सच कितना की कड़वा क्यों ना हो। आजकल सच छुप रहा है तभी तो साहित्य का स्तर नीचे आ रहा है। इससे बड़ा नुक़सान किसे कहेंगे ? यदि साहित्य विश्वास को बचा ही ना पाए तो।
प्रश्न . आशा है आप मेरी बेबाकी के लिए क्षमा करेंगी । मेरा प्रश्न है एक सामान्य जिंदगी,घर,ग्रहस्ती,बच्चे और अनेकों कामकाज और लेखन वह भी ऐसा वैसा नही बल्कि खासा ईमानदार, सशक्त और दिल को छूने वाली अभिव्यक्ति, खासकर जब आप गम्भीरता से सोच सकती हैं की क्या कुछ जुड़ा और सीखा। कहने को आप यह भी कह सकती है कि यह सब मेरे ही अंदर था। हम आप से जानना चाहेंगे आपके लेखन की शुरुआत और निरंतरता के पीछे के सच।
उत्तर. मैं एक पत्थर थी मगर उसमें आग थी और परिस्थितियाँ मुझ जैसे पत्थरों के साथ रगड़ खा रहीं थी तो मुझमें आग उत्पन्न हुई। पत्थर से भी आग हर समय नहीं निकल पाती सही समय पर ही आग उत्पन्न होती है। बस ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ ठीक समय आया तो आग उत्पन्न हुई और फिर वो स्याही और कलम बनी तो मैंने लिखना शुरू किया।
ऐसा नहीं कि मैंने पहले नहीं लिखा।जब मैं पढ़ाई करती थी तब भी कुछ कुछ लिखती थी लेकिन तब वो छपता नहीं था। मेरे लेखन की शुरुआत थी मेरा पत्र लेखन। मैंने बहुत पत्र लिखे, मेरे पास पत्रों का ख़ज़ाना है, स्कूल में लड़कों को भी पत्र लिखे लेकिन हाँ तब भी कुछ नहीं छिपाती थी। शादी के बाद भी अपने पत्रों को साथ लाई डॉक्टर साहेब को भी दिखाया( डॉक्टर आर.सी.शर्मा, मैत्रेयी जी के जीवन साथी)। बच्चे होने के बाद बच्चों के स्कूल के लिए उनकी कक्षा के अनुसार आर्टिकल लिखती थी। वो प्रकाशित भी हुए उनके नाम से उनके स्कूल की पत्रिका में।
फिर मुझे लगने लगा कि मैं कहानी लिखूँ पर मुझे लगता था कि ये छपेगी नहीं लेकिन मैं चाहती थी कि ये छपे लोग इसे पढ़ें। तो मैंने अपनी कहानी छापने भेजी लेकिन वो लौट आई। एक दिन मैं खुद ही सम्पादक महोदय के दफ़्तर चली गयी सम्पादक महोदय को कहा कि आपने मेरी कहानी पढ़ी भी नहीं बिना खोले ही लौटा दी। कम से कम पढ़ तो लेते। सम्पादक जी ने उत्तर दिया कि अब भेज देना हम इस बार पढ़ के लौटा देंगे। मैंने बोला ठीक है। अब मेरे लिए भी चैलेंज हो गया। मुझे इस तरह चुनौतियाँ मिलती रहीं लेकिन मैंने लिखना नहीं छोड़ा। साप्ताहिक हिंदुस्तान ने भी लौटा दी।
फिर मन्नू भंडारी जी के कहने पर हँस पत्रिका में छपने के लिए देने गयी।राजेंद्र जी ने भी पाँच बार लौटाया।मैं फिर हँस के दफ़्तर पहुँची तो राजेंद्र जी ने कहा तुम मुझे गाली दे के जाओगी मैंने तुम्हारी पाँचों कहानी लौटा दी। मैंने कहा नहीं राजेंद्र जी मैं छठी कहानी लेकर फिर आऊँगी। देखूँगी आपका फ़ैसला आप कितनी बार रिजेक्ट करेंगे। फिर मेरे ग्रामीण अनुभव से भरी हुई छठी कहानी छप गई। आगे फिर वही मेरे गाइड हुए। उन्होंने मुझे रास्ते सुझाए,कैसे रास्ते? मुझे सूची लिखवाई और बोले ये किताबें पढ़ो जिससे तुम्हारा लिखना और बेहतर होगा,तुम्हें नए सुझाव आएँगे।
प्रश्न.राजेन्द्र यादव, एक विलक्षण व्यक्तित्व जितने गम्भीर लेखक उतने ही लापरवाह, सब पर भरोसा करने वाले । दोस्त, मेंटोर, और सहज इंसान सवाल मेरा यह है कि क्या दोस्ती का,गुरु का कर्ज अदा हुआ? बाकी है तो कैसे होगा?
उत्तर. मैंने एक किताब लिखी “वो सफ़र था या मुक़ाम था”वो किताब “मेरी नज़र में राजेंद्र जी “विषय पर ही है।
एक सुप्रसिद्ध लेखक ने मेरी पुस्तक की समीक्षा लिखी तो उसमें लिखा,
“एक क़र्ज़ था जो उतार दिया
एक दर्द था जो बयाँ किया”
लेकिन उनका का क़र्ज़ एक किताब लिख कर चुकाया नहीं जा सकता। किसी भी गुरु का क़र्ज़ एक शिष्य कभी नहीं उतार सकता। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहन दिया। जब मैंने अपनी कहानी फ़ैसला लिखी तब पंचायती राज शुरू नहीं हुआ था। महिला आरक्षित क्षेत्र में महिला सीट पर चुनाव थे। पति खड़ा नहीं हो सकता था इसलिए पत्नी को जिता तो दिया लेकिन हर फ़ैसले उसके थे और होता भी यही है। तो जब राजेंद्र जी ने कहानी फ़ैसला पढ़ी तो बोले,” तुम बेवक़ूफ़ ये कहानी कैसे लिख लाई” मतलब था कि लेखिकाएँ ऐसे विषय नहीं लाती। तुम में ज्ञान है राजनीति हो या समाज या फ़िल्म जगत तुम जानकारी रखती हो। उसके बाद उन्होंने मुझे महत्व देना शुरू किया और निरंतर मुझे मार्ग सुझाए दिशा दिखाई।
प्रश्न .आज भी याद है दिल्ली की कई महिला लेखिकाओं ने कैसे बाकायदा मुहिम चलाई थी आपके खिलाफ। हालांकि उससे आप और सशक्त बनी।हर लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जाती। अपनों का साथ नहीं था ।किन किन ने साथ दिया?
उत्तर. साथ का तो ऐसा है कि कितना ही कोई हमारा दोस्त हो करीबी हो। वह अपनी लाभ हानि ज़रूर देखता है।
घर में मुझे मेरी बेटियों का साथ हमेशा मिला और मिलता है आज भी।
शुरू-शुरू में राजेंद्र जी साथ थे. लेकिन बाद में लोगों ने उन्हें भरमाना शुरू कर दिया तो उन्होंने मेरा पक्ष लेना बंद कर दिया। मुझे बचपन से वैसे अकेले लड़ने की आदत थी, मैं कभी पीछे नहीं हटी ना जीवन में ना लेखन में।
जैसे कि वो क़िस्सा,एक बड़े पुलिस अधिकारी ने वर्तमान साहित्य पत्रिका के अपने साक्षात्कार में लेखिकाओं के लिए अपशब्द लिख दिए। मैंने उसका विरोध किया, लिखित विरोध किया यहाँ तक कि पूरे देश में इसका विरोध हुआ। दिल्ली से मैं,मन्नू भंडारी,कृष्णा सोबती के साथ साथ अन्य बड़ी छोटी लेखिकाएँ शामिल थीं। लेकिन शुरुआत के बाद सब धीरे-धीरे पीछे हट गईं। मैं अकेली पड़ गयी, राजेंद्र जी ने भी मुझे पीछे हट जाने को कहा। लेकिन मैं अड़ी रही। सभी बड़ी लेखिकाओं ने मुझे अकेला छोड़ दिया लेकिन मेरे साथ पूरा देश था, समाज सेविकाएँ और कुछ साथी लेखिकाएँ रहीं। मैं और साथी समाज सेविका कपिल सिब्बल जी के पास गए उनसे आग्रह किया न्याय दिलवाने का। सिब्बल जी ने आश्वासन दिया कि या तो ये महोदय आपसे लिखित माफ़ी माँगेंगे नहीं तो यह मामला राष्ट्रपति तक जाएगा। अंत में पुलिस अधिकारी ने माफ़ी माँगी और हमें न्याय मिला। लेकिन इस बात का दुःख भी हुआ कि हमारे देश में औरत ही औरत का साथ नहीं देती। यह कारण है कि औरत को पुरुषों के उपकार सहने पड़ते हैं उनके दुराचार सहने पड़ते हैं।
मुझे कई बार पीछे खींचा गया आज भी खींचा जाता है लेकिन क्योंकि मैंने अपने जीवन के युद्ध अकेले लड़ें हैं तो मैंने कभी खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया। एक बात ज़रूर कहूँगी कि इस साहित्य समाज में जिन लेखिकाओं के साथ उनके रिश्तेदार या पति होते हैं उनको कोई नहीं डराता कोई उँगली नहीं उठाता। जिनके साथ कोई नहीं होता उनको अकेले संघर्ष करने पड़ते हैं।
प्रश्न .आज की तारीख में गिनी-चुनी लेखिकाएं हैं जो जोड़-तोड़ की राजनीति से दूर हैं। इसी वजह से बड़े पुरस्कार उन्हें नहीं मिलते। प्रकाशक भी,मैं नाम नहीं लूंगी,उन्हें ही बढावा देते दिख रहे जो उनके आगे पीछे घूमती हैं। तो ऐसे में घुटन नहीं होती? क्या आपको नहीं लगता कि साहित्य जगत में पारदर्शिता न के बराबर है जबकि वह अनिवार्य शर्त है लेखन की?
उत्तर “पारदर्शिता किसी भी पुरस्कार की पहली शर्त है ,ऐसे पुरस्कार की ज़रूरत ही क्या (हंसी) जो पारदर्शिता की छवि को धूमिल करके मिले, ईमानदारी को मिट्टी में मिला कर मिले।”
सच बात यह है कि ये राजनीति पुरस्कार तक ही सीमित है। जिसको लिखना है वो पुरस्कार ना मिलने पर भी लिखेगा जैसे मैं मेरा पुरस्कार रोक लिया गया कारण सामने आया कि राजेंद्र जी इनका पक्ष लेते हैं। ये बात “इदन्नमम”के समय की है। मुझे ख़ूब काटा गया लेकिन फिर भी मेरा उपन्यास ख़ूब चर्चाओं में आया।
मैं आज तुम्हारे सामने बोलती हूँ कि मुझे पुरस्कार की चाह ही नहीं यदि मैं अच्छा लिखूँगी तो मुझे छापा भी जाएगा और सराहा भी जाएगा।
प्रश्न .वर्तमान के लेखकों में किन-किन को आप समझती हैं कि यह साहित्य जगत में नाम कमाएंगे?
उत्तर. हंसते हुए, ऐसे तो मैं किसी का नाम नहीं ले सकती लेखन में कोई प्रतियोगिता नहीं होती। कोशिश अपनी सब करते हैं लेकिन नए विषय को लाना या पुराने विषय को भी नए तरीक़े से प्रस्तुत करना,पुरातन चरित्रों को नए सिरे से लाना,समाज के गंभीर विषय को उठाना, शिक्षा पद्धत्ति को लेकर विचार करना,अच्छे लेखन की निशानी हैं। जो ऐसा लेखन कर रहे हैं मेरी नज़र में वो ही आगे जाएँगे।
निलेश रघुवंशी का लिखा मुझे पसंद आया और अनुसक्ती सिंह ने जो “शर्मिष्ठा”पर लिखा,मुझे काफ़ी पसंद आया।
तुम्हें एक बात ज़रूर कहूँगी,”अच्छा लेखक वो है जो लगातार अच्छा लिखे। कम से कम पाँच सात किताबें तो अच्छी दे। जब तक आप निरंतर अच्छी किताबें नहीं देंगे जो कि अच्छी में भी अच्छी हो तब-तक आप साहित्य जगत में निमित्त नहीं रह सकते। ये लम्बी दौड़ है एक दिन एक महीने या एक साल की नहीं। वर्षों की तपस्या है जो यह वर्षों तक साथ चलेगा वो ही अच्छा लेखक बनेगा।”
प्रश्न .एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी कि क्या स्त्री-पुरुष सम्बंध मात्र परिवार तक ही सीमित हैं?क्या पुरुष स्त्री की मित्रता विवाह के बाद समाप्त हो जाती है? क्या स्त्री, महानगरों की चन्द महिलाओं की बात छोड़ दें तो सैंकड़ो नगरों की लाखों महिलाएं बस घर की चारदीवारी और पति की अनुमति से ही लेखन, सेमिनार में आती है अन्यथा नहीं। इसे जड़ता कहेंगी,या आज भी औरत दकियानूसी जिंदगी जीने को मजबूर है,या पुरुषों को सोचना चाहिए जिन्हें बाहर तो महिला मित्र चाहिए पर पत्नी के पुरुष मित्र नहीं पसन्द?
उत्तर . यह पुरुष सत्ता के एकाधिकार के कारण है। यह समाज स्त्री पुरुष की दोस्ती को दोस्ती नहीं मानता। छोटी मानसिकता से निकली छोटी सोच को औरत पर थोपा जाता है। लेकिन एक बात कहूँगी हर औरत के पक्ष में,”कोई कौन होता है हमारा इंसाफ़ करने वाला कि इनसे बात करना सही है इनसे नहीं। हमें जिनसे बात करना अच्छा लगे हमें अधिकार होना चाहिए,चाहे प्रोफ़ेशन हो,पड़ोसी हो, दोस्त हो या रिश्तेदार हो।”
हमारी सामाजिक संरचना ने ये नैचूरल कर दिया है स्त्री के लिए कि आप नज़रों में ही रहेंगी जबकि प्राकृतिक तौर पर ये नैचूरल है नहीं। ये बंधन सही हो ही नहीं सकता। मनुष्य के रूप में कहाँ सही है किसी पर नज़र रखना, रोकना टोकना, अपने फ़ायदे के अंतर्गत नियम बनाना। सबके अपने रास्ते हैं, सबको अपने रास्ते पर ही चलना है, बढ़ना भी है, लेकिन ये आकलन ग़लत बात है।
प्रश्न. मैत्रेयी जी की किताबों को सब पढ़ते हैं। पर आप किन-किन को पढ़ती हैं?
उत्तर. लेखिकाओं में तसलीमा नसरीन और बांग्ला देशी लेखिकाओं को मैं पढ़ती हूँ। लेखकों में फनीश्वर नाथ रेणु जी मुझे बहुत पसंद हैं। मोहन राकेश को भी पढ़ती हूँ प्रेमचंद भी लेकिन फणीश्वर मेरे पसंदीदा हैं।
प्रश्न . यह जो जानकर के बोल्ड लेखन और बिला वजह के सरकार के विरोध के लिए लिखने का फैशन हो गया है इस पर आप क्या कहेंगी?
उत्तर. सब चर्चित होने के लिए सरकार के ख़िलाफ़ लिखते हैं। ये दिखाने के लिए कि हम में इतनी हिम्मत है कि हम ख़िलाफ़त कर सकते हैं। मैं ये कहूँगी कि आप अच्छे काम और जो नागवार गुजर रहें हैं दोनो को लिखें। अच्छे काम ज़्यादा हैं तो निस्संदेह अच्छी सरकार है। लेकिन एक बात और सरकार में ही अच्छे बुरे का फ़ायदा उठाने वाले दलाल होते हैं। ये सब दलाल ही करवाते हैं। रिश्वत,लोभ,लालच भी कारण हैं।
प्रश्न. आलोचकों ने काफी समय से आप पर नहीं लिखा है। क्या यह एक सोची समझी कॉकस का घेरा है?
उत्तर. हंसते हुए,” अभी मैंने कुछ नहीं लिखा तो उन्होंने भी कुछ नहीं लिखा। खुश हैं देख कर कि चुप बैठी है। एक बात और कि अब मुझे पढ़ा जा रहा है आज के लेखक लेखिकाएं मुझे पसंद कर रहे हैं उनमें पहले के लेखकों की तरह जलन नहीं है।मैं तो आज भी वैसी ही हूँ आलोचकों का आज भी स्वागत है।
प्रश्न. दिल्ली के बाहर राजस्थान,महाराष्ट्र,बंगाल, बिहार, युपी,एमपी सभी जगह आपके लेखन और खासकर अल्मा कबूतरी, कस्तूरी कुंडल बसे, गुड़िया भीतर गुड़िया को पढ़ पढ़कर न जाने कितनी स्त्रियों को प्रेरणा और हिम्मत मिली है। फरिश्ते निकले, चर्चा हमारा में तो आपने बहुत ही हिम्मत भरा और उन दबी हुई आवाजों को स्वर दिया जो अनसुनी ही रह जाती। तो अब उसके आगे क्या? क्या लिख रही हैं आप?
उत्तर. अभी तो मैं शांत हूँ। “नमस्ते संसार” के तो कोई विषय अभी नहीं सूझा है।कुछ अलग विषय के इंतज़ार में हूँ और एक दो साल तो लगते हैं कोई नयी रचना देने में।
प्रश्न .अब कुछ सवाल हमारे नए पाठकों और लेखकों के लिए जैसे आप लिखने की तैयारी कैसे करती हैं और लिखने का आपका समय कौन सा निकलता है?
उत्तर. नए लेखकों के लिए ये ही कि कुछ नए विषय लाएँ लेखन में। ज़रूरी नहीं कि एक किताब आने के बाद दूसरी भी किताब अच्छी आए। या एक किताब सफल ना हो तो दूसरी भी सफल ना रहे। लेखन जगत में यू टर्न नहीं होता यदि आपने इस जगत में प्रवेश किया है तो आपको निरंतर मेहनत करनी ही होगी प्रयास करने ही होंगे। कुआँ मिले या खाई तुम्हें आगे जाना होगा अपना एक स्तर बनाना ही होगा जिससे नीचे तुम्हें नहीं जाना होता।
किताबें लिख लो,इनाम ले लो, लेकिन अपने स्तर के अनुसार आपको सवाल भी झेलने होंगे ही।
लिखने के समय की बात तो ऐसी है कि शुरू-शुरू में तो मैंने दस-दस घंटे भी लिखा। एकांत की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं होती लेकिन हाँ म्यूज़िक नहीं होने चाहिए। बाक़ी तो यदि मन में कुछ आ गया तो लिखा ही जाएगा।
प्रश्न. एक महिला के लिए लिखना और खासकर साहित्य पढ़ना आज भी आरामतलबी मानी जाती है। ऐसे कई पुरुष मैंने देखें जब वह स्त्री को अपने घर में भी देखते हैं पत्रिका,अखबार पढ़ता तो उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं ।ऐसे माहौल में ,जो बुनियादी ढांचा है समाज का आप क्या कहना चाहेंगी उन असंख्य महिलाओं और लड़कियों को ही नहीं उन पुरुषों को भी?
उत्तर. पुरुष एक औरत को अपनी पत्नी बना कर घर लाता है। वो उसे केवल पत्नी के रूप में ही देखना चाहता है। किसी अन्य रूप में नहीं। इसलिए वो यह नहीं समझ पाता कि औरत भी समाज का हिस्सा है उसे भी समाज के बारे में जानने का हक़ है। कुछ औरतें भी औरत को रोकती हैं वो भी आदमी के लठत्व को मन में रख औरत की दुश्मन हो जाती हैं।
मैं सभी औरतों को ये कहूँगी कि और रुकावटों की तरह शादी नाम की भी छोटी सी रुकावट को समझते हुए उनको आगे बढ़ने के लिए तत्पर रहना चाहिए। लड़ाई मत करो लेकिन रुको भी मत अपने लिए अनुकूल परिस्थितियों का खुद निर्माण करो।
अब कुछ वन लाइनर
१ .मनपसंद किताब/किताबें
- फणीश्वर नाथ रेणु की किताबें
२ फ़िल्म
- “जब प्यार किसी से होता है”
याद है मुझे जब मैं ये फ़िल्म देख रही थी तो माँ ने पूछा कि क्या देख रही हो तो मैंने उत्तर दिया था “सम्पूर्ण रामायण”
३ गीत
-ओह रे ताल मिले नदी के जल से ………
४ हीरो(फिल्मी और नॉन फिल्मी)
-राजेंद्र कुमार
५ हीरोइन
-कोई नहीं
६ अच्छी सहेली
-निषात फ़ारूख
७ खाना
कचोड़ी साथ में डॉक्टर साहेब की बनाई आलू की सब्ज़ी और रायता।
८ गुस्सा होती हैं तो क्या करती हैं?
-मुझे ग़ुस्सा कम ही आता है और केवल तब ही आता है जब लोग बेमतलब की बात करते हैं लेकिन किससे कहना क्या है और करना भी क्या है।
९ सबसे कटु आलोचक,घर,बाहर दोनो से
-मुझे आलोचनाओं से प्रेम है। किसी का कोई नाम नहीं। मैं खुद भी खुल कर आलोचना करती हूँ। मन्नू भंडारी की “आपका बंटी” की मैंने ख़ूब आलोचना की। कृष्णा सोबती की “मित्रो मरजानी” के बारे में भी मैंने खुल कर विरोध किया। आलोचक और आलोचनाएँ तो लेखन का हिस्सा हैं और ये रहेंगी ही।
१०.किस बात से डर लगता है?
-मुझे अब डर नहीं लगता।बस तब लगा था जब उपन्यास चाक लिखा था और तब जब आत्म-कथा लिखी। बस डर ये था कि ये (डॉक्टर साहेब) न पढ़ें।
एक बात तो है कि औरत के मन में सदा पति का डर रहता ही है।चाहें वो अपने जीवन के किसी भी मुक़ाम तक पहुँच जाए।
११ सबसे बड़ी खुशी?
-पहली ख़ुशी शादी होने की थी, दस दिन तक।
फिर किताब आने पर बहुत खुश हुई। सबसे बड़ी ख़ुशी उसी को मानती हूँ जब “बेतवा बहती रही आई।”
१२ अपने आपको चार शब्दों में बताना हो तो वह चार शब्द?
- औरत की पक्षधर योद्धा
आपका बहुत बहुत आभार की आपने इस साक्षात्कार हेतु इतनी बेबाकी और ईमानदारी से जवाब दिए।
कवयित्री,लेखिका
काव्य संग्रह - स्मृतियों की गुल्लक
साझा संग्रह-पारिजात,कविता हिय के आँगन से,माहिया के हस्ताक्षर,अंतर्मन।
जन्म : लखनऊ में जुलाई, 1970
नवभारत टाइम्ज़ में कविता प्रकाशित।
kanchan98182@gmail.com