व्यंजना
Samiksha-kamal
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कहाँ-कहाँ से गुज़र गए…

- कमल कपूर


आत्मकथा-लेखन हिन्दी-साहित्य की रोचक किन्तु अति श्रमसाध्य विधा है, जिस पर हर कलमकार कलम नहीं चला सकता क्योंकि मुझे आत्मकथा लिखने के लिए अपने जीवन में घटित रत्ती-रत्ती घटना को पूर्ण सच्चाई के साथ जस का तस बयान करने की हिम्मत और ईमानदारी अपेक्षित है और साथ ही विलक्षण स्मरणशक्ति की भी ज़रूरत है। जहाँ तक मैं अखिलेश भाई को जानती हूँ, उनमें ये तमाम विशिष्टताएँ विद्यमान हैं और स्मरणशक्ति के विषय में उन्होंने 'मेरा मन, मेरी क़लम' में स्पष्ट कहा है- "समय भी मस्तिष्क में दबी स्मृतियों को विस्तृत न कर सका और यह गुण मुझे पिता से नहीं, वरन् माँ से आनुवांशिक रूप से हस्तांतरित हुआ।” अस्तु, दस माह के निरंतर निष्ठायुक्त लेखन के उपरांत उनकी अनमोल आत्मकथा 'जो भुला न सका' अंततः सुधी पाठकों के कर-कुसुमों तक आ पहुँची है।


प्रथमत: ‘ हिन्दी साहित्य निकेतन प्रकाशन से प्रकाशित प्रस्तुत सुकृति का आवरण-पृष्ठ अत्यंत आकर्षक एवं मनमोहक है। गहन चिंतन में डूबी अखिलेश जी की सौम्य छवि अतिशय नयनाभिराम है और कृति का शीर्षक भी सार्थक तथा सटीक है। पुस्तक खोलते ही पृष्ठ-5 पर मन मुग्ध करने वाला अद्भुत 'समर्पण‘, सुलेखक के हृदय की विशालता को दर्शाता है। उन्होंने अपनी अनुपम कृति किसी एक को नहीं अपितु अपने माँ-बाऊजी, गुरुजनों, भाई-बहनों, पत्नी, पुत्री, तमाम परिजनों-पुरजनों एवं मित्र-सम्बंधियों को समर्पित करते हुए, विनम्र भाव से उनके प्रति सुंदर शब्दों में आभार व्यक्त किया है। ऐसा समर्पण…न भूतो न भविष्यति।


मात्र 264 पृष्ठों पर क़रीने और सलीक़े से टंके, विषयानुकूल मनोरम शीर्षकों से सजे 44 अध्याय…मुक्त मन से सुना रहे हैं, दास्तान ए अखिलेश। वस्तुतः यह कृति एक सफ़रनामा है…एक दीर्घ यात्रा है प्रबुद्ध लेखक डॉक्टर अखिलेश की, जिनके हाथ कभी अपने मरीज़ों के उपचार के लिए चिकित्सा-उपकरण थामते हैं तो कभी कविता, कहानी, लघुकथा और आत्मकथा लिखने के लिये कलम। उनकी यह जीवन-यात्रा ‘ 'नन्ही स्मृतियाँ' से शुभारंभित होकर 'जीवन का स्वर्णिम युग ‘ पर समापित होती है। इस यात्रा के प्रारंभ और समापन के बीच में पसरे हैं 42 मोड़। इस लंबे सफ़र में अनगिनत खट्टे-मीठे-तीखे-कड़वे अनुभवों से गुजरने के क़िस्से हैं। हँसी-आँसू , मिलन-वियोग, कष्ट-हर्ष और सुख-दु:ख, सहयात्री बनकर सतत इनके संग चले हैं। 'चार वर्षों में चार शहर'… बार-बार के स्थानांतरण ने ज़िन्दगी को बंजारापन दिया तो अजमेर शहर ने स्थायित्व का सुख प्रदान किया। बचपन से लेकर युवा होने तक के सकल स्कूल-कॉलेजों…विशेषत: मेडिकल कॉलेज के विवरण अत्यंत रुचिकर हैं। डॉक्टर की डिग्री प्राप्त करने से लेकर पदभार ग्रहण करना, विवाह-प्रसंग, पत्नी का मधुर सान्निध्य और बिटिया का आना...मन में अनिवर्चनीय आनंद भरते हैं तो वहीं, बहन की विदाई, माँ की बीमारी और मोहिनी बाई, पिता का जाना, फिर माँ का जाना मन को अवसादित एवं व्यथित कर गए। सुलेखक के मन में भी गहरी पीर और कसक है कि उनका उत्कर्ष देखने के लिये उनके माँ-बाऊजी इस दुनिया में नहीं हैं अब ।


आत्मकथा-सूत्र में पिरोई अवसरानुकूल कविताएँ…लेखक की काव्य-प्रियता को दर्शित करते हुए कृति को कोमल सौंदर्य प्रदान करती हैं। कथांत में ‘पुस्तकें उदास हैं' और अंतिम अध्याय 'जीवन का स्वर्णिम युग‘ के प्रारंभ में लिखी कविता ‘बुढ़ापे में बचपन' अति सुंदर बन पड़ी हैं।


सुखद यह है कि सुलेखक की कथा-कहन शैली सरस एवं सहज है और भाषा सरल-स्वाभाविक और त्रुटिहीन। मुद्रण-टंकण भी उत्तम एवं सर्वथा निर्दोष है ।


कृति की एक अन्य विशिष्टता है इसकी चित्रावलियाँ…6 वर्षीय सुंदर सजीले बालक अखिलेश का चित्र मन को मोहता है तो अन्य अनेक चित्र उनके गुजरे सुनहरे दिनों को लौटाकर जैसे हमारे सामने खड़े कर रहे हैं। पुस्तक के अंत में…उनके साहित्यिक सम्मानों और गौरवपूर्ण उपलब्धियों को उद्घोषित करती चित्र-वीथिका, उनका यशोगान कर रही है जैसे ।


नि:संदेह प्रस्तुत आत्मकथात्मक कृति अखिलेश जी के साठ वर्षीय विविधरंगी जीवन का एक शफ्फाक आईना है, जिसमें उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सूर्य-किरणों सा दमक रहा है। सेवानिवृत्ति के उपरांत षष्ठीपूर्ति का उत्सव मना चुके अखिलेश जी अब अपने सपनों के सारस्वत-मंदिर 'कला रत्न भवन' को सँभाल रहे हैं। यह इनके सफल जीवन का मोड़ नहीं, स्थाई पड़ाव है यक़ीनन क्योंकि इसी सुंदर कला रत्न भवन के प्रथम तल पर ही इनका गृह-मंदिर है, जिसमें वह भलीभाँति पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए, तल्लीनता से सतत साहित्य-साधना में रत हैं।


अभी यह कहानी समाप्त नहीं हुईं प्रिय पाठक-वृंद ! 'मनुस्मृति' में शत शरद जीने की जो मंगल कामना की गई है…वही कामना हम सब अपने इस विनम्र शब्द-शिल्पी को अर्पित करते हुए, उनसे आश्वस्ति चाहते हैं कि जीवन के इन शेष 40 वर्षों की आपबीती भी ज़रूर लिखेंगे और उसे शीर्षक देंगे…'जो भुला न सका-भाग 2 ‘ इति !


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