उसकी आँखों में भर आए आँसू उसके गालों पर गिरने ही वाले थे। आँसुओं से भरी उसकी आँखों में भीड़ और उनके हाथों में लहराते तिरंगे के अक्स दिखाई दे रहे थे। ज़ीरो डिग्री टेम्प्रेचर वाली कड़ाके की ठंड के कारण उसने ढेरों गर्म कपड़ों से ख़ुद को पूरी तरह से ढका हुआ था।
आँखें और उसके आस-पास का कुछ ही हिस्सा खुला हुआ था। वह भीड़ से थोड़ा अलग हटकर खड़ी थी। भीड़ भारत-माता की जय के साथ-साथ उस नेता का भी ज़िंदाबाद कर रही थी, जिसको, जिसके पूर्वजों, पार्टी को वह अपने सुखी-समृद्ध परिवार, पूरे जम्मू-कश्मीर की तबाही का ज़िम्मेदार मानती है।
वह उसे, उसके परिवार को अपने हाथों से उसी क्रूरता से सज़ा देना चाहती है, जैसी क्रूर यातनाएँ, व्यवहार, जेहादी दहशतगर्दों ने उसे और उसके परिवार को दीं थीं। वह उस व्यक्ति को बिल्कुल क़रीब से देखना चाहती थी, जो प्रौढ़ावस्था से आगे निकल जाने के बावजूद देश और दुनिया में अपनी बेवुक़ूफ़ियों के कारण एक राष्ट्रीय जोकर, मंद-बुद्धि बालक के रूप में जाना जाता है।
उसकी नज़र में वह एक परचून की दुकान चलाने की भी क़ाबिलियत नहीं रखता, लेकिन बाप-दादों द्वारा परिवारवाद की बनाई गई पक्की सड़क पर, सरपट दौड़ता हुआ प्रधानमंत्री बनने के लिए वैसे ही मचल रहा है, जैसे कोई बहुत ही देर से भूखा दुध-मुँहा बच्चा अपनी माँ का स्तन-पान करने के लिए मचलता है। अपने पूर्वजों की तरह देश को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझता है।
ठंड से ठिठुरते पूरे श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर में बहती बर्फ़ीली हवाओं के साथ उसके कानों में यह बात भी पहुँच रही थी कि, वह जोकर ऐसी ड्रग्स ले रहा है कि, माइनस टेम्प्रेचर में भी केवल टी-शर्ट पहन कर पद-यात्रा कर रहा है। और उसकी पार्टी के चापलूस उसको तपस्वी योगी बता रहे हैं, कुछ बिके हुए मीडिया वालों को पैसे दे कर, यही बात चलवा-चलवा कर जन-मानस के हृदय-पटल पर स्थापित करने का पुरज़ोर प्रयास कर रहे हैं।
उसे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था कि, उसके ऐसे सनक भरे काम के लिए सरकार उसको विशेष सुरक्षा प्रदान कर रही है। एस.पी.जी. सुरक्षा, सारे स्थानीय थानों की पुलिस के अलावा पचीस-तीस कंपनी सी.आर.पी.एफ़. के जवान उसको घेरे रहते हैं। फ़ाइव स्टार होटल रूम में परिवर्तित क़रीब सौ कंटेनर भी साथ चल रहे हैं, जो उसके और उसके चापलूसों के आरामगाह हैं। सब-कुछ जनता के पैसों पर हो रहा है।
वह लाल-चौक पर तिरंगा झंडा फहराते हुए उसे फूटी आँखों नहीं सुहा रहा था। पहले तो उसने लाल-चौक पर झंडा फहराने से मना कर दिया था, वह अपनी पार्टी के कार्यालय में ही तिरंगा फहराना चाहता था, लेकिन ज़्यादा राजनीतिक लाभ लेने के लिए लाल-चौक पर आ गया।
वही लाल-चौक जहाँ उसके नाना ने उन्नीस सौ अड़तालीस में तब जम्मू-कश्मीर के सदर-ए-रियासत शेख़ अब्दुल्ला के साथ तिरंगा झंडा फहराया था। उसकी अम्मी ने उसे बताया था कि तब उसके बाबा जान बोले थे कि, ‘शेख़ अब्दुल्लाह जल्दी ही इस जम्मू-कश्मीर राज्य को आज़ाद मुल्क बना देगा। हम काफ़िरों के देश भारत में नहीं रह सकते। अल्लाह ने चाहा तो शेख़ अब्दुल्लाह बहुत ही जल्दी पूरे भारत को काफ़िरों से छीन कर इस्लामिक अमीरात बना देगा। दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामिक मुल्क।’
मगर जिन लोगों के सहारे वह यह ख़्वाब देख रहे थे, उनसे उन्हें धोखे के सिवा कुछ और नहीं मिला। एक दिन उनके ख़्वाबों को तामीर करने वाले अब्दुल्लाह देश के साथ गद्दारी करने के आरोप में जेल में बंद कर दिए गए।
हालात कुछ ऐसे बदले कि देखते-देखते जम्मू-कश्मीर के नेता पाकिस्तान के इशारे पर नाचने लगे। पूरे राज्य में आतंकवादियों का प्रभाव बढ़ता चला गया और घाटी तो पूरी तरह से आतंकवादियों निशाने पर आ गई।
वह सनातनी कश्मीरियों का नर-संहार करने लगे और उसके बाबा जान, चाचा जान सभी आतंकवादियों के शुभ-चिंतक बने, उन्हें हर सम्भव मदद पहुँचाते रहे। फिर उनमें से कई लोग आतंकवादियों की परस्पर गुटबाज़ी संघर्ष में और कुछ सेना की गोलियों से मारे गए। उसके बाबा, चच्चा जान भी।
इससे उसके अब्बा जान घबरा उठे और अपना घर छोड़कर दूसरी जगह रहने लगे। मगर आतंकवादियों का ख़ौफ़ सिर पर मँडराता रहता था और केंद्र सरकार जिस तरह का व्यवहार कर रही थी, उससे जम्मू-कश्मीर के लोगों को लगता ही नहीं था कि वह जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानती है, उसके लिए चिंतित है, बाक़ी लोगों की सुरक्षा करना चाहती है।
इससे उसके अब्बा अन्य बहुतों की तरह चक्की के दो पाटों के बीच ख़ुद को पिसता महसूस कर रहे थे। इन सबके लिए वह अकेले एक ही व्यक्ति नेहरू को ज़िम्मेदार मानते और उनको बार-बार कोसते, और तब के एक सनातनी नेता की बात दोहराते कि, ‘श्रीनगर के जिस चौक का नाम श्रीनगर चौक या ऋषि कश्यप चौक होना चाहिए, क्योंकि यह ऋषि कश्यप की पवित्र भूमि है, यह बात सनातन संस्कृति के पौराणिक आख्यानों में दर्ज है, इन सारे तथ्यों को दरकिनार कर नेहरू केवल तुष्टीकरण, अपनी वामपंथी सोच और वामपंथियों के दबाव में, सोवियत संघ के रेड स्क्वायर के नाम पर लाल-चौक रख रहें हैं। यह एक आत्म-घाती क़दम है, वह दिन दूर नहीं जब यह लाल चौक रक्त चौक बन जाएगा।’ वह कहते उस काफ़िर ने बड़े पते की बात कही थी, लाल-चौक आख़िर रक्त-चौक ही बना।
आख़िर यह सनातनियों के ख़ून के साथ-साथ उन मोमिनों के रक्त से भी तो लाल होता आ रहा है, जो जेहादियों के इशारे पर नहीं नाचते, उनके मददगार, मुख़बिर नहीं बनते।
उसे अच्छी तरह याद है कि ज़्यादा समय नहीं हुआ जब वहाँ आतंकियों का एक-छत्र राज था, भारत का नाम लेने वाला ज़िंदा नहीं रह सकता था। यह सब उसके परिवार, ख़ुद उसके लिए जश्न मनाने का अवसर होता था। किसी भी सनातनी का ख़ून बहा देना बस यूँ ही हो जाया करता था।
नेहरू को वो धारा ३७०, धारा ३५ ए के तहत राज्य को ऐसा स्पेशल स्टेटस देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया तो कहते ही, साथ ही मूर्खता-भरा काम भी, क्योंकि इस क़ानून ने एक तरह से जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग ही कर दिया था स्वतंत्र इस्लामिक देश बना दिया था, भारत का कोई क़ानून उन पर लागू ही नहीं होता था।
उनकी और शेख़ अब्दुल्ला की इस मिलीभगत का परिणाम यह था कि, उन्नीस सौ अड़तालीस के बाद वहाँ पंद्रह अगस्त या फिर छब्बीस जनवरी को भी राष्ट्रीय तिरंगा फहराया नहीं जा सकता था, हर तरफ़ आतंकवादियों, अलगाववादियों का क़ब्ज़ा था।
आतंक इतना था कि कोई भी आस-पास न तो तिरंगा लगा सकता था, न ही बेच सकता था। ऐसा करने वाले को आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ता था। ऐसे ख़तरनाक माहौल के बावजूद उन्नीस सौ अड़तालीस के बाद एक पार्टी के दो नेताओं ने अलगाववादियों, आतंकियों के अड्डे लाल-चौक पर ही तिरंगा लहराने का संकल्प लिया।
और बड़ी भारी संख्या में लोगों के साथ लाल-चौक की तरफ़ बढ़ चले, लेकिन केंद्र और राज्य की सरकार ने उन्हें मना कर दिया। मगर वो नेता भी ज़िद पर अड़ गए कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है, श्रीनगर भारत का है और वहाँ पर तिरंगा फहराना ही उनका अटल निश्चय है। क्योंकि इसके बिना राष्ट्र का सम्मान अधूरा ही नहीं, उसका अपमान है, देश अब यह अपमान बर्दाश्त नहीं करेगा।
उनकी ज़िद और उन्हें देशवासियों का मिल रहा सपोर्ट, इन दोनों से केंद्र और राज्य सरकार झुक गई। तब उन्नीस सौ बानबे में उन्होंने इन दोनों नेताओं मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र दामोदरदास मोदी को लाल-चौक पर झंडा फहराने दिया।
इसके बाद तो आतंकवादियों को जैसे और छूट दे दी गई। वहाँ भूले से भी तिरंगा दिखना न सिर्फ़ बंद हो गया, बल्कि जलाया भी जाने लगा। लेकिन उसके बाद समय ने करवट ली, कांग्रेसी सत्ता से बेदख़ल कर दिए गए, जिस नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने उन्नीस सौ बानवे में आतंकवादियों की लाख धमकियों के बाद भी अभिशप्त लाल-चौक पर तिरंगा लहराया था, उसी ने देश की कमान सँभाल ली और देश के माथे पर लगा कलंक, अभिशप्त धारा ३७०, ३५ए जैसी धाराओं को समाप्त कर दिया।
जिनके कारण जम्मू-कश्मीर देश के अंदर ही एक अलग क्रूर जेहादी राष्ट्र की तरह व्यवहार करता था, सनातनियों का नर-संहार करता था। उन्हें वहाँ से भगाने के लिए नारे लगाते थे, “असि गछि पाकिस्तान बटवरोअस्त बटनेव सान।” यानी कि हमें पाकिस्तान चाहिए पंडितों के बग़ैर पर उनकी औरतों के साथ। मस्ज़िदों से लाउड-स्पीकर पर चिल्लाते थे, पंडितों यहाँ से भाग जाओ पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ।
‘यहाँ क्या चलेगा? निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा।’ रालिब ग़ालिब या चालिब अर्थात् हमारे साथ मिल जाओ यानी इनके जैसे नर-पिशाच दहशतगर्द बन जाओ नहीं तो मरो या भागो। और आख़िर पूरे षड्यंत्र के साथ उन्नीस सौ नब्बे के क़रीब सनातनियों का सामूहिक नरसंहार शुरू कर दिया, घाटी सनातनियों की शवों से पट गई, वो पलायन कर गए, घाटी सनातनियों से रिक्त हो गई।
तीन दशक पहले कांग्रेस द्वारा पुष्पित-पल्लवित इस तथा-कथित जेहादी राष्ट्र में आतंकवादियों पर नए शासक ने इतने व्यापक हमले किए कि उनकी कमर टूट गई है।
जब-तक उनकी कमर नहीं टूटी थी तब-तक आतंकवादियों का ख़ौफ़ हर तरफ़ था, हर रोज़ उनकी और सेना की गोलियों, बमों के धमाकों से जम्मू-कश्मीर की वादियाँ दहलती रहती थीं, केसर नहीं बारूद की गंध फ़ज़ाओं में बनी रहती थी, और बारूद की इस गंध के बीच ही उसके अब्बाजान चाहते थे कि उनकी आठवीं संतान किसी तरह पढ़-लिख कर नौकरी करे, और आतंकियों की इस बस्ती से दूर किसी और राज्य में चला जाए।
वह यह देख सुन कर थर-थर काँपने लगते थे कि आतंकवादी छुपने के लिए लोगों के घरों में ज़बरदस्ती घुस जाते हैं, उनसे ज़बरदस्ती खाना बनवाते, खाते हैं और उन्हीं के यहाँ रात बिताते हैं, उनके घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं, ज़बरदस्ती उनको अपने साथ सुला लेते हैं, विरोध करने पर परिवार को मार देते हैं।
इन परिवारों पर दोहरी मार पड़ रही थी, एक तरफ़ आतंकवादियों की और दूसरी तरफ़ सेना की। पुलिस तो ख़ैर उनकी मित्र थी। सेना को जब पता चलता कि आतंकवादी वहाँ पहुँचे हैं, तो वह भी छानबीन करने पहुँच जाती थी, आतंकवादियों को शरण देने, उनका सहयोग करने के अपराधी पाए जाने पर गिरफ़्तार कर लेती, मुक़द्दमा चलता, सजा होती।
उसके अब्बा बच्चों को निकलने नहीं देते थे, पूरा परिवार ही हमेशा लुका-छिपा रहता था। संयोग से बड़ी जल्दी-जल्दी उन्होंने तीन लड़कियों का निकाह कर दिया। वह तीनों अपने-अपने शौहर के साथ दिल्ली में जा बसीं, उनके शौहर वहीं कुछ काम-धंधा करते थे।
बाक़ी बची तीन बहनों के लिए भी वह लड़कों की तलाश में थे। उसके दो भाई अब्बू के साथ काम-धंधे से जुड़ चुके थे। सबसे छोटा भाई पढ़ने में बहुत तेज़ था। इसीलिए उसका और उसके अब्बू का भी ख़्वाब था कि वह पढ़-लिख कर एक डॉक्टर बने। भाई जहाँ ज़्यादातर समय पढ़ने-लिखने में जुटा रहता वहीं, अब्बू ज़्यादा से ज़्यादा कमाई करके पैसा इकट्ठा करने में। पैसे सही रास्ते से आएँ या ग़लत इससे उन्हें कोई
लेना-देना नहीं था। जैसे भी हो, पैसा आना चाहिए बस।
उनकी कमाई किसी की निगाह में न आए, ख़ास-तौर से आतंकवादियों के, इसलिए वह और घर के बाक़ी सदस्य हमेशा ही फटेहाल बने रहते थे। बदली परिस्थितियों में अब उनका एक-एक दिन दहशत में बीतता था।
आख़िर जब पेड़ बबूल के बोए थे तो काँटे की जगह फूल कहाँ से आते। उसका छोटा भाई जो डील-डौल से बहुत लंबा-चौड़ा हो गया था, हमेशा पढ़ाई में लगा रहता था, पता नहीं कब आतंकवादियों की नज़रों में चढ़ गया।
वह भी जाड़े की एक रात थी। देश हफ़्ते-भर बाद ही गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी में जुटा हुआ था, और आतंकी धमाका करने की तैयारी में। उसके परिवार को भी कोई भी राष्ट्रीय-पर्व मनाने से घृणा थी।
परिवार खा-पीकर रजाई में दुबका हुआ था। मगर उसका छोटा भाई हमज़ा अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई की तैयारी में लगा हुआ था। अब्बू अम्मी अगली बहन के निकाह को लेकर, उसकी तैयारी के लिए सलाह-मशविरा कर रहे थे। जल्दी ही हमज़ा को छोड़कर सब सो गए, वह पढ़ता रहा।
क़रीब एक बजे होंगे कि दरवाज़े पर रहस्यमयी अंदाज़ में दस्तक हुई। इतनी भयानक ठंड में आधी रात को दस्तक ने पूरे परिवार की धमनियों में ख़ून जमा दिया। दस्तक बराबर होती जा रही थी। उसके अब्बू ने सबसे पहले लड़कियों, बेगम और हमज़ा को घर के भीतरी कोने में छुपाया। अकेले ही दरवाज़ा खोलने जाने लगे, मगर बड़ा बेटा एक हाथ में तमंचा, दूसरे में छूरा लेकर उनके साथ हो लिया।
लेकिन दरवाज़ा खुलते ही उस पर इतना तेज़ दबाव पड़ा कि वह दोनों पीछे गिरते-गिरते बचे, जब-तक सँभले तब-तक सामने चार आतंकवादी एके-47 राइफ़ल ताने सिर पर सवार दिखे। एक ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया और एक दबी ज़बान में बोला, “हम अल्लाह के बंदे हैं, हमारी बात मना की तो जहन्नुम में पहुँचा देंगे।”
इसके साथ ही तुरंत पूरे घर की तलाशी लेकर, परिवार के सारे सदस्यों को एक ही कमरे में इकट्ठा किया। दहशत के मारे परिवार के किसी भी सदस्य के मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। उसकी अम्मी बेहोश हो गई थीं। तो एक दहशतगर्द बोला, “ये कहे दे रहा हूँ कि किसी तरह का लफड़ा बर्दाश्त नहीं करेंगे।”
उसने घर भर के सारे मोबाइल लेकर उनके स्विच ऑफ़ करके अपने पास रख लिए। घर के मुख्य कमरे में चारों जम गए। इस बीच उसकी अम्मी के मुँह पर पानी की छींटें मार कर उन्हें होश में लाया गया।
इसी समय उन सबके हुकुम के चलते उनके लिए एक बहन ने चाय बनाई। जिसे लेकर बड़ा भाई उनके पास पहुँचा। चाय पीते हुए उन्होंने तुरंत रोटी और मटन बनाने का हुकुम दिया।
उसके अब्बू ने अल्लाह का वास्ता देते हुए कहा, “इस समय गोश्त तो नहीं है, कुछ सब्ज़ी और दाल है, वह बन जाएगी।” उनकी बात पूरी होने से पहले ही उनमें से एक ने राइफ़ल तानते हुए कहा, “हमें मटन रोटी चावल ही चाहिए, चाहे जैसे भी, नहीं तो मरने के लिए तैयार हो, हम मज़हब के लिए काफ़िरों से लड़ रहे हैं, हमें यह अख़्तियार है कि हम तुमसे कुछ भी करने के लिए कह सकें, और उसे हर हाल में करना तुम्हारा फ़र्ज़ है। वह तुम करो। अगर तुम सब ने बात नहीं मानी तो यह अल्लाह के काम में रुकावट डालना है, कुफ़्र है, और फिर हमें या अख़्तियार होगा कि हम तुम सब को मार दें।”
यह सुनते ही परिवार की जान हलक़ में आ लगी। उसके अब्बा ने कहा, “अल्लाह के वास्ते थोड़ा वक़्त दो, बाहर जाकर कुछ इंतज़ाम करता हूँ।”
लेकिन वह सब किसी को भी बाहर जाने देने के लिए तैयार नहीं थे। अंततः घर में कुछ मुर्गियाँ थीं, उन्हें ही बना कर उन्हें चिकन रोटी चावल खिलाया गया। इस दौरान वह तीनों भाइयों को मज़हब के रास्ते पर चलने, मज़हब की हिफ़ाज़त के लिए हथियार उठा कर, अपने संगठन में शामिल होने के लिए समझाते रहे। उन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ दिखाते रहे।
उसके अब्बा ने कहा, “हमारा परिवार पाँचों वक़्त का नमाज़ी है। अल्लाह के ही बताए रास्ते पर चलता है, मज़हब के लिए ख़ानदान के कई लोग अपनी क़ुर्बानी दे चुके हैं।”
लेकिन दहशतगर्द अपनी ही बात करते रहे, उनके हिसाब से पाँचों वक़्त की नमाज़ अदा करना ही पूरा मुसलमान होना नहीं है। उन्होंने बार-बार क़ुरान के पारा दस, सूरा नौ, तौबा आयत पाँच की इस बात, “अतः जब हराम (वर्जित) महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों (बहुदेववादियों) को क़त्ल करो जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने की लिए बैठो। फिर अगर वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उन्हें छोड़ दो।” का ज़िक्र करते हुए कहा कि “क़ुरान ए पाक में साफ़-साफ़ हुकुम दिया गया है कि मुशरिकों की ताक में रहो, घात लगा कर जहाँ भी पाओ उन्हें क़त्ल करो। इसलिए जो इस पर अमल नहीं करता, जिहाद में शामिल नहीं होता, तलवार नहीं उठाता, काफ़िरों के सिर क़लम नहीं करता, तो वह पूरा मुसलमान हो ही नहीं सकता।”
वह ऐसी ही तमाम बातें करते रहे। उन्होंने खाना-पीना, बातचीत के दौरान उससे, उसकी बहनों और अम्मी से भी बदतमीज़ी की, अश्लील हरकतें कीं। सेना के ख़ौफ़ के चलते वो रात साढ़े तीन बजे चले गए। सशंकित और ख़ौफ़ज़दा इतने थे कि उनके मोबाइल जाते समय वापस किए और धमकी दी कि किसी से कुछ बात की तो पूरे परिवार को ख़त्म कर देंगे।
इसके बाद वो आए दिन आने लगे, उसके भाइयों को संगठन में शामिल होने के लिए दबाव डालने लगे। छोटा वाला हमज़ा उन्हें ज़्यादा तेज़-तर्रार और फ़ुर्तीला लगा तो वो उसके एकदम ही पीछे पड़ गए। दोनों बड़े वाले उनकी नज़र में आलसी और कायर थे।
राइफ़ल की नोक पर उन दोनों से उन्होंने सामान इधर से उधर पहुँचाने, लोगों को संगठन में शामिल करने के काम में लगने को कहा, लेकिन जब अब्बू और भाइयों ने मना कर दिया तो उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों को बहुत पीटा, राइफ़ल की बटों से मारा, कहा कि, “तुम सब काफ़िर हो गए हो, मज़हब के काम से मुँह मोड़ रहे हो तुम्हें ज़िंदा रहने का भी हक़ नहीं है।” आख़िर जान बचाने के लिए उनकी बात मान ली गई। जिन बातों के कारण वो दूसरी जगह रहने आए थे, उसी में फिर और गहरे धँस गए।
इसके बाद उन सब ने खाना भी बनवा कर खाया। उसके अब्बू, भाइयों को कमरे में बाँधकर डाल दिया। घर की सभी महिलाओं से बलात्कार किया। मर्दों के कलेजे फट गए कि दरिंदों ने न तो उसकी अम्मी को छोड़ा न ही बेटियों को। जाते-जाते किसी से कुछ कहने पर पूरे परिवार का सिर क़लम कर देने की धमकी भी दे गए।
उनके जाने के बाद सभी महिलाएँ बदहवास पड़ी रहीं, कौन किसको क्या समझाए, घर के मर्दों को बंद कमरे से बाहर कैसे निकालें, कैसे अपनी लुटी-पिटी तार-तार हुई अस्मत के बाद उन्हें अपना मुँह दिखाएँ, उनके बँधे हाथ-पैरों की रस्सियाँ खोलें, उनकी नज़रों का सामना करें।
उसकी अम्मी का दिल एक और बात से भी बैठा जा रहा था, कि तार-तार हुई अस्मत के बाद शौहर कहीं इसी वक़्त उसे तीन तलाक़ देकर घर से बाहर न निकाल दे। अक़्सर एक और निकाह करने की बात करता ही है। अस्मत लुटने को कहीं एक मौक़ा न मान ले।
मगर रस्सियाँ तो खोलनी ही थीं, और उन्हें ही खोलनी थीं क्योंकि लड़कियों की हालत और भी ज़्यादा दयनीय थी। दरिंदे दहशतगर्दों की कामुक आवाज़ें, महिलाओं की यातना-भरी सिसकियाँ मर्दों ने भी सुनी थी। किसी के पास किसी से भी बताने, छिपाने के लिए कुछ भी नहीं था।
सभी सब-कुछ जानते थे कि दरिंदों ने क्या-क्या किया है। जीवन में ऐसा भी भयावह मंज़र देखने, भोगने को मिलेगा, ऐसे हालातों से गुज़रना पड़ेगा, उनके ख़्वाबों में भी कभी यह नहीं आया था, किसी ने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था। सबकी आँखों से आँसू बह रहे थे, सिसकियाँ निकल रहीं थीं।
उसकी अम्मी को ऐसे में बार-बार टीका लाल मट्टू का परिवार याद आ रहा था, जब कुछ बरस पहले वह उनके पड़ोस वाले मोहल्ले में रहा करता था, तब दहशतगर्दों का निशाना सनातनी परिवार हुआ करते थे।
ऐसे ही दहशतगर्दों ने मट्टू परिवार पर दिन-दहाड़े हमला किया था, महिलाओं की अस्मत खुले-आम तार-तार की, फिर सबके सामने ही पूरे परिवार को काफ़िर मुशरिक कहते हुए गोलियों से छलनी कर दिया था। उन्हें भद्दी-भद्दी गलियाँ देते हुए ए। के। ४७ राइफ़ल की पूरी मैगज़ीन उनके सिरों में झोंक दी थी।
सभी के सिरों के परखच्चे उड़ गए थे, किसी को भी पहचाना नहीं जा सकता था। इसके बाद शेष बचे सनातनी परिवार रातों-रात पलायन कर गए थे। यह सभी व्यावसाई समृद्ध परिवार थे, जिनकी सम्पत्ति इन्हीं सब लोगों ने लूट ली थी।
तब इन्हें यही दरिंदे दहशतगर्द फ़रिश्ते लगते थे, उनके लिए पलक पाँवड़े-बिछाते थे, उन्हें कन्धों पर बिठा कर नारा ए तकबीर, अल्लाह हू अकबर, नारा लगाया करते थे। सनातनियों की रेकी कर उन्हें बताया करते थे। लेकिन अब उसकी अम्मी उन्हें मन ही मन शैतान कह रही थी, कोस रही थी कि, बहकावे में आ कर इन दरिंदों को वह लोग मज़हब का रहनुमा, फ़रिश्ता मानने लगे, जिन सनातनियों को इनकी ही तरह वो शैतान काफ़िर मानती थीं, असली शैतान तो ये ही निकले।
बेचारे सनातनी, क्या-क्या बीती होगी उन पर, हो न हो उनकी आहें ही हैं जो अब हमें तबाह कर रहीं हैं, न जाने अब आगे क्या होगा, ये दरिंदे जो हाल कर रहे हैं, लगता है वो दिन दूर नहीं जब सनातनियों की तरह मोमिनों को भी कहीं और ठिकाना बनाना पड़ेगा, लड़कियों की अस्मत अब इनके मुँह लग गई है, अब ये रोज़ ही आ धमकेंगे।
बाक़ी बची रात बीती लेकिन कोई किसी से एक लफ़्ज़ नहीं बोला, महिलाएँ घुट-घुट कर सिसकती रहीं, अम्मी उसकी कई बार बेहोश हुईं। मार की चोटों, इज़्ज़त के धूल में मिलने से आहत हतप्रभ मर्द बुतशिकनों के कारण बुत से बन गए।
सब को ऐसा लग रहा था जैसे अब जीवन में कुछ बचा ही नहीं है। उसकी अम्मी की तरह उसके अब्बू को भी अपने एक ख़ानदानी बुज़ुर्ग की बात याद आ रही थी, जो दहशतगर्दी के लिए कहते कि ये वो आग है जो आख़िर में जलाने वाले को ही जलाती है।
उसके अब्बू चाहते थे कि पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाई जाए, सेना को सूचना देकर इन दहशतगर्दों को ढेर करवा कर बदला लिया जाए। लेकिन उसकी अम्मी, लड़कियों ने मना कर दिया।
बड़े भाई ने कहा, “पुलिस में जाने से बदनामी के सिवा कुछ नहीं मिलेगा, उलटे वो हमसे ही पैसे वसूलेगी, बेइज़्ज़त करेगी, परेशान करेगी। पुलिस तो ख़ुद ही उन से डरती है, पुलिस होकर भी इन दहशतगर्दों को हफ़्ता देती है, कि उनकी जान बख्शे रहें। हाँ सेना को ज़रूर बताएँगे वो इन . . . को” गंदी गाली देते हुए कहा, “ढेर करेगी, इनसे बदला लेने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है, ये सिर्फ़ दहशतगर्द हैं, मज़हब के नाम पर दरिंदगी कर रहे हैं। हम इनके झाँसे में आकर बर्बाद हो गए।” मगर इस बात पर भी पूरा कुनबा रज़ामंद नहीं हो सका। पूरी घटना परिवार के दिलों में ही दफ़न होकर रह गई।
मगर उन दरिंदे दहशतगर्दों के मुँह में गोश्त रोटी की दावत, महिलाओं, जवान लड़कियों के बदन की आदत लग चुकी थी। वो हफ़्ते भर बाद ही अचानक ही फिर आ धमके फिर वही सारी कहानी दोहराई।
इस बार उसके अब्बू ने कश्मीर से पलायन कर दिल्ली में बसने का इरादा ज़ाहिर किया तो उसकी अम्मी ने कहा, “वहाँ हम सब दो दिन में ही मारे जाएँगे। वहाँ काफ़िरों का जमावड़ा है। यहाँ पर जिस तरह हम-लोग काफ़िरों के ऊपर ज़ुल्मों-सितम होते देखते रहे, दहशतगर्दों को उन्हें मारते-काटते, उनकी औरतों की अस्मत लूटते देखते रहे, ख़ुश होते रहे कि काफ़िरों को सज़ा मिल रही है और उनको बचाने के बजाय दहशतगर्दों का साथ देते रहे। जम्मू से लेकर दिल्ली तक सारे काफ़िर यह जानते हैं, ऐसे में हम उनके बीच में जाएँगे तो वो हम से बदला लेंगे।”
उसके अब्बू कुछ देर सोचने के बाद बोले, “हमारी यही तो ग़लती, ग़लतफ़हमी है कि, हम जिन दहशतगर्दों को अपना फ़रिश्ता समझते रहे, वो एक दरिंदे से ज़्यादा और कुछ भी नहीं हैं, जो अपनी दरिंदगी से मज़हब को बदनाम कर रहे हैं, और हम-लोग आँख मूँद कर उनको मदद करते आ रहे थे।
“जिन्हें हम काफ़िर समझ रहे हैं, उनके बीच जाने से डर रहे हैं, मुझे मालूम है कि हम उनके बीच इन दरिंदों से ज़्यादा सुरक्षित रहेंगे। हमें वह कुछ भी नहीं होने देंगे। तुम जम्मू, दिल्ली की बात छोड़ो पूरे मुल्क में हर मुस्लिम काफ़िरों के बीच में सबसे ज़्यादा सुरक्षित है, तरक़्क़ी कर रहा है।
“यहाँ काफ़िरों के साथ इतने ज़ुल्म हुए हैं, वो दिल्ली देश-दुनिया की तमाम जगहों में जा बसे हैं, हम हमेशा उनके ख़िलाफ़ साज़िश करते रहे लेकिन मैं अब भी आँख मूँद कर यक़ीन करता हूँ कि जब हम उनके बीच में होंगे तो वो हमें कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाएँगे, बल्कि हमारी मदद ही करेंगे।
“इज़्ज़त लुटने के बाद अब हम यहाँ नहीं रह सकते, जैसे भी हो एक-दो दिन में छोड़ कर चल देंगे। अभी तो उन शैतानों ने हमारी अस्मत ही लूटी है, एक ना एक दिन वह हमारी जान भी ले लेंगे।”
उसके अब्बा की बात सबने मान ली और अगले दिन पड़ोसी मियाँ ज़ाकिर को अपना घर बेच देना और जो पैसा मिले उसे लेकर चल देना निश्चित हुआ। लेकिन शैतान तो जैसे उनके सिर पर सवार हो चुका था। उसी दिन वह चारों फिर आ धमके, गोश्त चावल की दावत उड़ाई, लाख मिन्नत के बावजूद सारी महिलाओं को जानवरों की तरह रौंदा।
और भोर होते-होते जाते समय उसके छोटे भाई हमज़ा को भी साथ लेते गए। परिवार रोता रहा, हाथ-पैर पकड़ता रहा, उसके अब्बू ने अपनी टोपी, और कुछ ही देर पहले एक बार फिर अस्मत तार-तार होने के बावजूद उसकी अम्मी ने उनके पैरों पर अपनी चुन्नी डालकर गिड़गिड़ाते रहे लेकिन उसने राइफ़ल की बट उन दोनों के सिर पर मार दिया, उनका सिर फट गया, वह दोनों ही बेहोश हो गए।
उन्हें जब होश आया तो बाहर घना कोहरा छाया हुआ था। हर तरफ़ सन्नाटा था। लड़कों ने उनकी मरहम पट्टी करवाई थी। पूरे घर में मातमी सन्नाटा छाया हुआ था। मोहल्ले में यह बात फैल चुकी थी कि दहशत गर्द फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के घर आते-जाते हैं। हमज़ा के जाने के सदमे से वह उबर भी न पाए थे कि एक दिन बाद ही सेना आ धमकी।
सेना को ख़ुफ़िया सूचना मिल चुकी थी कि दरिंदे आतंकियों का फ़ारूक़ के घर आना-जाना लगा हुआ है, उनका एक बेटा भी आतंकी बन चुका है। पहले तो फ़ारूक़ ने साफ़ इनकार किया। उन्हें दहशतगर्दों का डर था कि यदि उन्हें पता चलेगा कि उन्होंने सेना को बात बताई है तो वह हमज़ा को मार डालेंगे। लेकिन सेना की सख़्ती के आगे उनका झूठ नहीं टिक सका, उन्होंने सच बता ही दिया।
परिवार अब दहशतगर्दों और सेना के बीच दो पाटों में फँस गया था। अब वहाँ से न निकल सकते थे न ही कुछ और कर सकते थे। उनकी एक-एक साँस साँसत में पड़ी थी। काम-धंधा जो भी था सब देखते-देखते चौपट हो गया था।
फ़ारूक़ जब घर की औरतों को देखते तो उनकी आँखों में ख़ून के आँसू आ जाते कि उनकी बेटियों और बीवी की इज़्ज़त को दहशतगर्दों ने उनके ही घर में घुसकर उनके, लड़कों के, सामने ही बार-बार तार-तार किया है।
उनको लगता जैसे कि वह सब उनके सामने बेपर्दा ही खड़ी हैं, वह उनकी तरफ़ नज़र उठा कर देखने की भी हिम्मत न कर पाते। शर्म से ज़मीन में गड़ जाते। उन्हें अपना पूरा घर सेना की नज़रों में घिरा हुआ दिखता।
एक दिन मुँह अँधेरे उनका एक पड़ोसी अशरफ़ वाणी छुपता-छुपाता हुआ आया। आते ही उसने सबसे पहले घर का दरवाज़ा बंद किया। और फ़ारूक़ मियाँ को दहशतगर्दों का पैग़ाम सुनाया कि तुमने सेना को हमारे बारे में बता कर बहुत बड़ा गुनाह किया है, कुफ़्र किया है, अल्लाह ता'ला के काम में रुकावट डाली है। तुमसे इसका हिसाब लेकर रहेंगे। देखते हैं सेना कब-तक वहाँ मँडराएगी।
अशरफ़ जल्दी से दहशतगर्दों का पैग़ाम देकर तुरंत घर भाग गया। वह सेना के डर से थर-थर काँप रहा था, एक तरफ़ सेना तो दूसरी तरफ़ दहशतगर्दों की राइफ़लें उसे अपनी ही तरफ़ घूमी दिख रही थीं। वह किसी भी सूरत में नहीं चाहता था कि भूलकर भी वह किसी भी तरह से सेना की नज़र में आए।
फ़ारूक़ को अब अपने पूरे परिवार के ख़ात्मे का डर सताने लगा। पूरा परिवार रोने लगा कि हो न हो दहशतगर्दों ने उसके बेटे हमज़ा को मार दिया होगा।
उसने सोचा कि जब मरना ही है तो एक कोशिश और करते हैं, सेना को बताते हैं और उससे कहते हैं कि, वह हमें यहाँ से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दे। कम से कम परिवार के बाक़ी बचे सदस्य तो सुरक्षित रहेंगे।
लेकिन उनकी बीवी ने कहा कि, “हो सकता है मेरा हमज़ा अभी ज़िन्दा हो, तुम अशरफ़ के मारफ़त ही दहशतगर्दों तक पैग़ाम भेजो कि, हम-सब तुम्हारे साथ हैं, तुम हमारे बेटे को मारो नहीं, तुम हमें कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाओ, हमने सेना को कुछ बताया नहीं है।
“सेना ने जो भी पता किया है, अपने लोगों से पता किया है। हमारा परिवार तो हमेशा से मुजाहिदों की मदद करता रहा है। ख़ानदान के कई सदस्य मुजाहिदों के साथ काफ़िरों को क़त्ल करते रहे हैं, काफ़िरों के साथ लड़ते हुए ही शहीद हुए हैं। तुम लोग हमें सेना के घेरे से बाहर निकाल लो, हम हमेशा तुम्हारे लिए काम करते रहेंगे। बेटा हमज़ा तो तुम्हारे साथ है ही।”
इस बात पर पूरे परिवार में बड़ी माथा-पच्ची हुई। आख़िर एक योजना बनी और अशरफ़ के मारफ़त पैग़ाम आतंकियों तक पहुँचा दिया गया। आतंकियों ने भी जवाब दे दिया कि, अल्लाह के लिए जिहाद के रास्ते पर चलने को तैयार हो गए हो तो हम तुम्हें वहाँ से निकाल लाएँगे।
यह पैग़ाम सुनकर फ़ारूक़ के परिवार ने बड़ी राहत की साँस ली। अगले ही दिन अशरफ़ ने बताया कि अबकी जुम्मे को मस्जिद में नमाज़ के लिए बड़ी संख्या में लोग आएँगे। यह सभी नमाज़ी नमाज़ के बाद सेना पर पत्थरबाज़ी शुरू कर देंगे। इसी बीच वह लोग तुम्हें मौक़ा पाते ही निकाल ले जाएँगे, तुम लोग भी तैयार रहना।
पूरा परिवार तैयार हो गया। जुम्मे का इंतज़ार होने लगा। जिसमें बहत्तर घंटे बाक़ी थे। उन्हें यह बहत्तर घंटे बहत्तर दिनों से लंबे लगे और नमाज़ के बाद जब योजनानुसार लोगों ने सेना की टुकड़ी पर अकारण पत्थरबाज़ी शुरू कर दी, तो इसी बीच वह दहशतगर्द उनके घर आ धमके और फ़ारूक़ की छद्म योजना का शिकार हो गए।
सेना की एक टुकड़ी आस-पास पहले से लगी हुई थी। उसने दहशतगर्दों को घेर लिया। सेना से उनकी जो मुठभेड़ उनके घर के बाहर ही होनी थी, दहशतगर्दों के उनके घर में घुस जाने के कारण मामला बिगड़ गया।
छह दहशतगर्द थे, उनमें उनका बेटा हमज़ा भी था, जो अब पूरी तरह से ट्रेंड आतंकवादी बन चुका था। बाहर से जब सेना ने उन्हें हथियार डालने के लिए कहा तो उन सबने घर के अंदर से ही गोलाबारी शुरू कर दी।
फ़ारूक़ ने हमज़ा से कहा, “बेटा सेना बहुत बड़ी है, हथियार डाल दो, सब-लोग बच जाएँगे, तुम अपने परिवार में मिल गए हो। यह दहशतगर्द भी गिरफ़्तार हो जाएँगे।” उसको इस बात का एहसास नहीं था, कि उसका हमज़ा अब उसका बेटा नहीं रहा, उसका ब्रेनवाश हो चुका है, वह जिहाद के रास्ते पर जा चुका है, उसके दिमाग़ में बस एक ही मक़सद, एक ही बात है, जिहाद करना और शहीद होने पर उसे जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगीं, और जो भी उसके रास्ते में रुकावट बनेगा वह उसका, मज़हब का सबसे बड़ा दुश्मन होगा।
सेना और दहशतगर्दों के बीच फ़ायरिंग चल ही रही थी कि हमज़ा को अपने अब्बा की बात इतनी नागवार गुज़री कि उसने राइफ़ल की नली उनकी तरफ़ ही घुमा दी और क्षण भर में उसके अब्बा और दोनों भाई वहीं ढेर हो गए। दोनों बहनें बीच में आईं तभी सेना की ओर से हो रही गोलियों की बौछार का वो शिकार हो गईं।
इसी बीच सेना ने आख़िर कई ग्रेनेड अंदर फेंक दिए और एक सेकेण्ड में सब-कुछ समाप्त हो गया। उसका सारा परिवार, दहशतगर्द वहीं ढेर हो गए। घर भी भरभरा कर गिर गया। वह भी उसी के नीचे दब गई। छत का एक बड़ा टुकड़ा उसके ऊपर तिरछा गिर कर उसका कवच बन गया। वह उसी के नीचे बच गई।
और आज दस साल बाद भी रक्त-चौक के शिल्पी को अपने हाथों से सज़ा देने के लिए भटक रही है। झंडारोहण के बाद जोकर और भीड़ जब आगे चली तो वह भी उसी के पीछे चल दी, लेकिन तभी उसे ढूँढ़ते हुए पहुँचे उसके दो रिश्तेदार उसे पकड़ कर घर ले गए। दवा दी, फिर बेड पर लिटा कर उसी से उसे बाँध दिया। वह चीखती रही मुझे छोड़ो, मैं उसे सज़ा देकर तुरंत लौट आऊँगी, छोड़ो . . . छोड़ो मुझे . . .
प्रदीप श्रीवास्तव
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२०, उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान २०२२
सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com
जन्म : लखनऊ में जुलाई, 1970
>> प्रकाशन :
>> उपन्यास–
मन्नू की वह एक रात , बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब, वह अब भी वहीं है, अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं
>> कहानी संग्रह–
मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा , औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाजा, मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबू जी
>>>कथा संचयन-
मेरी कहानियाँ-खंड एक जून २०२२ में प्रकाशित
नाटक– खंडित संवाद के बाद
कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
संपादन :"हर रोज़ सुबह होती है" (काव्य संग्रह) एवं "वर्ण व्यवस्था" पुस्तक का संपादन
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२०, उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान २०२२
संप्रति : लखनऊ में ही लेखन, संपादन कार्य में संलग्न