व्यंजना

फंसो फंसो जल्दी फंसो

- अजय अनुरागी


यह व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें हर अवस्था का व्यक्ति फंसा पड़ा है। व्यक्ति फंस रहा है फिर भी हंस रहा है।उसने फंसने को ही नियति मान लिया है।यहाँ नहीं तो वहां फंसेगा। यह नहीं तो वह फंसाएगा । इसलिए फंसते रहो और आगे बढ़ते रहो।


सवाल है कि कौन हमें फंसा रहा है ? जो हमें बचाने का वचन देता है वही फंसा देता है।जो बचा रहा है वही फंसा रहा है। बचाव में ही फंसाव निहित है।कहा जा रहा था कि बाजार फंसा रहा है। लोगों ने डर के मारे बाजार जाना कम कर दिया। बाजार ने तबसे घर में आना ज्यादा कर दिया। अब धड़ल्ले से बाजार घर में घुसा चला आ रहा है। जो बाजार में फंस जाते थे वे घर बैठे ही फंस रहे हैं।घर भी सुरक्षित नहीं रहा।


इस तंत्र में सुरक्षा का हर मन्त्र बेअसर हो गया है।घर में घुसा हुआ बाजार बाहें फैलाकर बुला रहा है , आओ - आओ , फंसो - फंसो। फंसो- फंसो जल्दी फंसो। जल्दी फंसकर चलते बनो ताकि दूसरों को मौका मिल सके। प्राणी फंस रहा है फिर भी खुश हो रहा है , कि मैं इतना ही फंसा। यहां तक ही फंसा। इसी में फंसा । इससे ही फंसा।बहुत नहीं फंसा। अपनों से फंसा परायों से बच गया। बाजार कह रहा है , आओ आओ फंसने के लिए जल्दी आओ। जल्दी फंसो और जल्दी जाओ। फंसने का यह सुनहरी मौका है । आज फंसने पर बीस प्रतिशत की छूट मिलेगी । साथ में एक कूपन और एक उपहार भी मिलेगा। कूपन स्क्रेच करने पर हंड्रेड पर्सेंट आकर्षक इनाम दिए जाएंगे।आप एक बार हमसे फंसोगे तो बार बार फंसने के लिए हमारे यहां पधारोगे। यह स्कीम केवल और केवल आज फंसने वालों को ही दी जाएगी। कल जो फसेंगे उन्हें बिना स्कीम के ही फसना होगा। ऑफर आज शाम तक फंसने पर ही लागू होगा। फंसो , फंसो जल्दी फंसो।


ऐसा लगता है कि व्यक्ति फंसने के लिए ही बना है। फंसे बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। जो सदा दूसरों को फंसाने में लगा रहता है वह भी कहीं न कहीं फंसा हुआ रहता है। उसे भी कोई न कोई फ़ांस ही देता है।इसलिए बात साफ है कि , फंसना ही जीवन है और फांसना , फंसाना ही संसार है।


याद रहे फंसने की कोई सीमा नहीं होती है और फंसाने की कोई मर्यादा नहीं होती है।फंसाने के लिए बड़े बड़े होर्डिंग्स , शाइन बोर्ड , फ्लेक्स , कट आउट लगे हुए हैं । जो दीवारें किसी काम की नहीं होती हैं , वे भी लोगों को फंसाने का विज्ञापन करती नजर आती हैं।फंसाने वालों के चेहरे बड़े विनम्र , शालीन , दयालु एवम् आकर्षक होते हैं। ये हाथ जोड़े हुए खड़े मिलते हैं।हाथ जोड़ कर खड़ा व्यक्ति फंसाने में माहिर होता है। हाथ जुड़े होने से व्यक्ति सेवक दिखाई देने लगता है तथा एक उत्कृष्ट फंसाऊ व्यक्तित्व निखर कर सामने आता है।उसके भीतर से कर्मठता , जुझारूपन टपक टपक पड़ता है । यह मुद्रा देखने वाले को भ्रमित करके फंसाऊ पन को प्रकट करती है। लोग फंसने के इतने आदी हो चुके हैं कि बिना फंसे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं है।फंसने के बाद ही उनकी आँखें खुलती हैं तथा कान खुल पाते हैं।


फंसने की क्या है , बाजार में बंद आँख , कान वाला भी फंसता है तो खुली आँख और खुले कान वाला भी फंस जाता है।अब तो दूर से व्यक्ति को फंसाने की तरकीबें चल निकली हैं।निकट जाने की जरुरत ही नहीं है।चोर चोर चिल्लाकर भी चोर को पकड़ा नहीं जा सकता है क्योकि वह तो ऑनलाइन चोरी करके सामान ले उड़ा है। जो कभी न फंसने का प्रण ले चुके हैं वे ही सबसे पहले और सबसे ज्यादा फंस रहे हैं।वे ही बार बार फंसकर शर्मिन्दा हुए जा रहे हैं। अब हर स्थिति में एक फंसा हुआ प्राणी हो गया है मनुष्य , जो फंसने के लिए ही बना है।इसमें कोई शक नहीं है।


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|| अजय अनुरागी ||


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