तुलसीदास कृत रामचरित मानस में सुंदर कांड की इस चौपाई के मद्देनज़र कुछ कुपढ़ , कुतर्की और नफरत के शिलालेख लिखने वाले जहरीले लोग न सिर्फ तुलसीदास को निशाने पर लेते रहने के अभ्यस्त हो चले हैं बल्कि समाज में घृणा फैलाने में अव्वल बन चुके हैं। दुर्भाग्य से बहुतेरे लोग इस फर्जी नारी विमर्श , पाखंडी दलित विमर्श के इस जहरबाद में उलझ कर इन नफरती लोगों के झांसे में आ भी जाते हैं। पर ध्यान रखिए कि अव्वल तो तुलसीदास मनुष्यता और सद्भावना के दुनिया के सब से बड़े और लोकप्रिय कवि हैं। मर्यादा ही उन की पहली प्राथमिकता है। स्त्री की मर्यादा सर्वोच्च है तुलसी के यहां। स्त्री अस्मिता का अविस्मरणीय महाकाव्य है रामचरित मानस। राम और सीता की कथा।
आप ध्यान दीजिए कि तुलसी सुरसा सरीखी स्त्री को भी माता से संबोधित करते हैं। हनुमान सुरसा को माता ही कहते रहते हैं। इतना ही नहीं मंदोदरी और त्रिजटा के लिए भी कहीं कोई अपमानित करने वाला शब्द इस्तेमाल नहीं करते तुलसी कभी। तुलसी तो स्त्री को देवी कहते नहीं अघाते। वह लिखते ही हैं :
एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
स्त्री पुरुष दोनों को बराबरी में बिठाते मिलते हैं तुलसीदास रामचरित मानस में। आप को पूछना ही चाहिए , पूछते ही हैं लोग फिर ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी॥ लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी तुलसीदास को। जानते हैं आप को यह क्यों पूछना और पूछते हुए भी नाराज क्यों होना होता है ?
दो कारणों से। एक कारण यह कि आप जहरीले लोगों के उकसावे में आ जाते हैं। कौआ कान ले गया में फंस जाते हैं। दूसरा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि आप इस उकसावे में यह भी भूल जाते हैं कि तुलसीदास ने रामचरित मानस हिंदी में नहीं अवधी में लिखी है। अवधी जुबान है रामचरित मानस की। और कि किसी भी अवधी वाले से , अवधी जानने वाले से पूछ लीजिए कि अवधी में ताड़न शब्द का अर्थ क्या है ? वह फौरन बताएगा , ख्याल करना , केयर करना। सहेज कर रखना। ताड़ना मतलब देख-रेख करना। मार पीट करना नहीं। ढोल को आप केयरफुली नहीं बजाएंगे , ध्यान से नहीं रखेंगे तो निश्चित ही वह फट जाएगी। ढोल जब फट जाएगी तो आप फिर बजाएंगे कैसे भला। तो तुलसी कहते हैं , ढोल को संभाल कर रखिए और बजाइए।
गंवार अगर कोई है तो आप उस के हाथ परमाणु कार्यक्रम तो छोड़िए , घर के किसी सामान्य कार्य की भी शायद ही कोई ज़िम्मेदारी दें। अगर मैं जहाज चलाने के लिए गंवार हूं यानी अनभिज्ञ हूं और जो गलती से कॉकपिट में बैठ जाता हूं तो जहाज चलाने के जानकार लोग , पायलट लोग मेरा ध्यान नहीं रखेंगे तो जहाज और जहाज में बैठे लोगों का क्या हाल होगा , यह भी क्या बताने की ज़रूरत है ? शूद्र यानी सेवक का ख्याल कौन नहीं रखता ? बहुत पीछे मत जाइए , घर में अपनी बेगमों को देखिए कि काम वालियों से कितना मृदु व्यवहार रखती हैं। कितना ख्याल रखती हैं , कितना मान और सम्मान करती हैं उन का। और पहले के समय में तो लोग अपने सेवकों को राजपाट तक थमा देते थे। इतना ख्याल रखते थे। एक नहीं , अनेक किस्से हैं इस बाबत। पशु चाहे कोई भी हो , शेर , गाय , बकरी या कुत्ता , बिल्ली , हाथी , घोड़ा , हर किसी का ध्यान आप नहीं रखते ?
घर में हमारी अम्मा , बुआ , दीदी , पत्नी , बेटी कितना तो ख्याल रखती हैं हम सब का। लेकिन घर से बाहर होते ही इन्हीं अम्मा , बुआ , पत्नी , बेटी , दीदी को आप कोई काम करने भी देते हैं क्या ? ज़रा भी इन के प्रति लापरवाह होते हैं क्या ? क्यों लगातार ताड़ते रहते हैं कि इन पर कोई बुरी नज़र न पड़े , कोई विपत्ति न पड़े। कोई परेशान न करे। जहाज हो , ट्रेन हो , बस हो , कार हो , रिक्शा , ऑटो कुछ भी हो , हर जगह ताड़े रहते हैं। घर में एक गिलास पानी भी ले कर न पीने वाले हम जैसे लोग भी बाहर होते ही हर चीज़ इन के लिए दौड़-दौड़ कर लाने लगते हैं। चाहे वह कितने भी बड़े लाट गवर्नर ही क्यों न हों , घर परिवार की स्त्रियों को निरंतर ताड़ते रहते हैं।
दिक्क्त यह है कि अगर आप अवधी नहीं जानते , अवधी को हिंदी के ज्ञान से बांचेंगे , जहरीले लोगों के भाष्य में फंस कर , उन की जहरीली परिभाषा में फंस कर रामचरित मानस और तुलसीदास का मूल्यांकन करेंगे तो यह अनर्थ तो होगा ही। हर भाषा की अपनी पहचान , अपना मिजाज और अपनी व्याख्या होती है। सो पहले उस भाषा , उस की तबीयत और उस का मिजाज ज़रूर जान लीजिए। फिर कोई फैसला करिए या सुनिए। भारत में ऐसी बहुत सी भाषाएं हैं जिन के शब्द एक हैं ज़रूर पर अर्थ अलहदा हैं। यह उर्दू के साथ भी है , मराठी , तमिल , कन्नड़ , तेलगू , आसामी , बंगाली के साथ भी है। उर्दू में तो एक नुक्ता हटते ही उसी शब्द का अर्थ फौरन बदल जाता है। अवधी ही नहीं , हमारी भोजपुरी में ही एक ही शब्द भोजपुरी के अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग ध्वनि और अर्थ में उपस्थित हैं। अब हिंदी में अकसर लोग कहते हैं , अरे यह तो हमारा धर्म था , हमारा कर्तव्य था। अब इसी को अंगरेजी में कहेंगे , दिस इज माई ड्यूटी ! भारत में तो कोई इस का बुरा नहीं मानेगा। पर यही दिस इज माई ड्यूटी ! लंदन में किसी से कह कर देखिए ! वह गुस्सा हो जाएगा। मारने को दौड़ा लेगा। क्यों कि वहां यह निगेटिव माना जाता है , दिस इज माई ड्यूटी ! लगता है उस के साथ ज़्यादती हो गई। जबरिया हो गया। तो मित्रों , दलित और स्त्री विमर्श के इन जहरीले विमर्शवादियों से ज़रा नहीं , पूरा संभल कर। इन की नफरत में न फंसिए। अवधी , रामचरित मानस और तुलसीदास को प्रणाम कीजिए। अपनी स्त्री शक्ति को प्रणाम कीजिए। महिला दिवस पर इन्हें और सशक्त कीजिए। साथ ही रामायण का एक प्रसंग देखिए अभी-अभी याद आ गया है , उसे भी सुनते जाइए।
क्या हुआ कि अशोक वाटिका में कैदी सीता से रावण ने एक बार बहुत मनुहार किया कि एक बार ही सही सीता , रावण को कम से कम एक नज़र देख तो लें। सीता किसी तरह तैयार हुईं और रावण को देखा। लेकिन तिनके की आड़ से देखा। यह प्रसंग जब मंदोदरी को पता चला तो मंदोदरी ने रावण को बहुत चिढ़ाया। तंज किया। कहा कि इतने बड़े बाहुबली को भी सीता ने देखना ठीक नहीं समझा। देखा भी तो तिनके की आड़ ले कर। फिर मंदोदरी ने रावण को सलाह दी कि इतना छल-कपट , तीन-तिकड़म और माया जानते हो , मायावी हो , मारीच को हिरन बना कर भेज सकते हो तो क्यों नहीं एक बार खुद राम बन कर सीता के पास चले जाते और सीता को संपूर्ण पा लेते। रावण यह सुन कर उदास हो गया। और बोला , किया , यह उपाय भी किया। लेकिन दिक्क्त यह है कि राम का रूप धरते ही सारी स्त्रियां मां के रूप में दिखने लगती हैं। मैं करूं भी तो क्या करूं ?
तो जिस तुलसी का रावण भी राम का रूप धरते ही सीता समेत सभी स्त्रियों को मां के रूप में देखने लगता है , वह तुलसी इसी रामायण में भला कैसे स्त्री को पिटाई का अधिकारी बता सकते हैं। सोचने , समझने की बात है। बाकी आप का अपना विवेक है , अपनी समझ और अपनी दृष्टि है। आप किसी भी परिभाषा और दृष्टि को मानने को पूरी तरह स्वतंत्र है। कोई बाध्यता थोड़ी ही है , कि आप मुझ से , मेरी बात से सहमत ही हों।