व्यंजना

नमन उन्हें, जिन्होंने किए स्वाधीनता हेतु प्राणोत्सर्ग -१

अमर क्रांतिकारी चन्द्र शेखर आजाद

- सुरेश बाबू मिश्रा


विश्व में कई ऐसे महापुरुषों का जन्म हुआ है, जिन्होंने अपने राष्ट्र और उसके कालचक्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। अमर क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर उन्हीं में से एक हैं। भारत माता की परतन्त्रता उनके मन में शूल की तरह चुभती थी। जंगे आजादी के वे अमर क्रान्तिकारी थे। देश की आजादी में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे उत्कट देशभक्ति, अदम्य साहस और वीरता की प्रतिमूर्ति थे।


क्रान्तिकारियों के शिरोमणि चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के बदरका ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी था। आर्थिक विपन्नता के कारण इनके पिता चन्द्रशेखर को मध्य प्रदेश के भावरा ग्राम में अपने एक निकट सम्बन्धी के यहां रहने के लिए छोड़ आए थे। उस समय चन्द्रशेखर की उम्र केवल तीन वर्ष थी। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भावरा ग्राम में ही हुई थी।


दस वर्ष की उम्र में चन्द्रशेखर बम्बई चले गए। यहां वे बाल श्रमिक के रूप में इधर-उधर काम करने लगे। यहां उन्होंने बड़ी मुफलिसी में अपने दिन काटे। इस प्रकार अपनी किशोर अवस्था में ही उन्हें जीवन के कटु अनुभव हो गए थे।


बाद में चन्द्रशेखर बम्बई से वाराणसी आ गए। वे वहां संस्कृत पाठशाला में शिक्षा ग्रहण करने लगे। उस समय वाराणसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का प्रमुख केन्द्र था। वाराणसी में वे पंडित मदन मोहन मालवीय, शिव प्रसाद गुप्त, मुंशी प्रेमचन्द, लक्ष्मीनारायण गर्दे, डाॅ. भगवानदास, मन्मथनाथ गुप्त, महाकवि जयशंकर प्रसाद आदि के सम्पर्क में आए। इन सबके विचारों को सुनकर चन्द्रशेखर के मन में भारत माता को आजाद कराने की लहरें हिलोरे लेने लगीं।


चन्द्रशेखर पन्द्रह वर्ष की किशोरावस्था में ही आजादी की पथरीली राहों पर चल पड़े। वे देश की स्वतंत्रता के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। वे विद्यार्थियों के बीच में जाते और उन्हें स्वतंत्रता समर में भाग लेने के समझाते। धीरे-धीरे वे विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय हो गये। उनके प्रयासों से काफी छात्र स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े।


एक दिन वाराणसी में विद्यार्थियों द्वारा देश की स्वतंत्रता के समर्थन में एक जुलूस निकाला जा रहा था। इस जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे चन्द्रशेखर। अचानक पुलिस ने आकर जुलूस को तितर-बितर कर दिया। चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अंग्रेज मजिस्टेªट के सामने पेश किया गया। मजिस्टेªट द्वारा चन्द्रशेखर से उनका नाम पूछने पर चन्द्रशेखर ने अपना नाम आजाद बताया।


अंग्रेज मजिस्टेªट ने चन्द्रशेखर की कम उम्र को देखते हुए उन्हें पन्द्रह बेंत मारने की सजा सुनाई। इस हेतु उन्हें कारागार ले जाया गया। जहां उनकी नंगी पीठ पर बेंत लगाए गए। प्रत्येक बेंत के प्रहार पर वे भारत माता की जय और महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रहे थे। उनका यह साहस देखकर अंग्रेज जेलर भी दंग रह गया था।


चन्द्रशेखर के साथ घटी यह घटना पूरे बनारस में चर्चा का विषय बन गई। जेल से छूटने के बाद एक सार्वजनिक समारोह में उनका विधिवत सम्मान किया गया। इस घटना के बाद वे चन्द्रशेखर आजाद के नाम से पुकारे जाने लगे।


उस समय स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले रहे नौजवानों के मन में भारत माता की आजादी की आग सुलग रही थी। इनके विचार नरम दल के नेताओं के विचारों से मेल नहीं खाते थे। वे सशस्त्र क्रान्ति के पक्ष में थे। इन नौजवानों में चन्द्रशेखर आजाद भी सम्मिलित थे। वे अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे।


विख्यात क्रान्तिकारी मंमथनाथ गुप्त के सम्पर्क में आने के बाद वे क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गए। उनके साहस, देशप्रेम, वीरता विश्वसनीयता और संगठन की असाधारण क्षमता को देखते हुए उन्हें क्रान्तिकारी दल के विस्तार के लिए धन संगह का कार्य सौंपा गया।


बाद में ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ के प्रधान सेनापति बनाए गए। प्रखर क्रान्तिकारी सरदार भगतसिंह इस क्रान्तिकारी दल के थिंक टैंक थे। इस क्रान्तिकारी दल का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी, दिल्ली और लाहौर था। बाद में इसके सम्पर्क सूत्र बंगाल के क्रान्तिकारियों से भी जुड़ गए।


चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के नेतृत्व में हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना भारत माँ की आजादी के काम में जीजान से जुड़ी हुई थी। मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल, राजगुरु, सुखदेव, रामप्रसाद विस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, वटुकेश्वर दत्त आदि नौजवान इस क्रान्तिकारी दल के प्रमुख सदस्य थे।


चन्द्रशेखर आजाद दल के नेता के रूप में प्रत्येक कार्य में सबसे आगे रहते थे। वे बड़ी निर्भीकता एवं बहादुरी के साथ क्रान्तिकारी कार्यों को पूरा किया करते थे। क्रान्तिकारियों के सामने अपनी गतिविधियों को जारी रखने के लिए हथियारों की जरूरत थी। हथियार खरीदने के लिए धन कहां से आए यह समस्या सबके सामने मुंहवाए खड़ी थी।


बहुत विचार विमर्श के बाद धन की कमी को पूरा करने के लिए सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई गई। उस समय अंग्रेज सरकार के खजाने को लूटना बहुत जोखिम का काम था। मगर यह क्रान्तिकारी तो सिर पर कफन बांधकर निकले थे। भारत माता की आजादी के लिए वे कोई भी जोखिम लेने को तैयार थे। चन्द्रशेखर आजाद ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई। पंडित रामप्रसाद विस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खां और राजेन्द्र लाहिड़ी आदि नौजवान इस योजना में शामिल थे।


काकोरी स्टेशन से एक-डेढ़ मील आगे सहारनपुर से लखनऊ को जाने वाली टेªन को रोककर सरकारी खजाने को लूटा गया। इतिहास में इसे काकोरी काण्ड के नाम से जाना जाता है। काकोरी काण्ड से अंग्रेज शासकों में खलबली मच गई। क्रान्तिकारियों की धरपकड़ तेज हो गई। जगह-जगह क्रान्तिकारियों को पकड़ने के लिए पुलिस के ताबड़तोड़ छापे पड़ने लगे। रामप्रसाद विस्मिल, अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। इन लोगों के सहित बाइस लोगों पर मुकद्दमा चलाया गया।


चन्द्रशेखर आजाद को पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार ने रात-दिन एक कर दिया, मगर अंग्रेज पुलिस उन्हें पकड़ने में कामयाब नहीं हो पाई। वे वेश बदलकर झांसी चल गए। फरारी के दिनों में वे लारी ड्राइवर बन गए। और कई वर्षों तक वे वहीं रहकर क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।


चन्द्रशेखर आजाद के व्यक्तित्व में साहस, धैर्य, देश प्रेम और दृढ़ता का अद्भुत संगम था। वे एक अच्छे प्लानर थे। उनकी बनाई योजनाएं हमेशा सफल होती थीं। ब्रिटिश सरकार की चूलों को हिला देने वाले काकोरी काण्ड, साण्डर्स वध, असेम्बली बमकांड के सूत्रधार चन्द्रशेखर आजाद ही थे।


चन्द्रशेखर आजाद जंगे आजादी के अपराजेय पुरोधा थे। लम्बा चैड़ा बलिष्ठ शरीर, उन्नत भाल, विशाल भुजाएं और बड़ी-बड़ी मूंछे उनके व्यक्तित्व को भव्य बनाती थीं। वे अपने साथियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। उनके दल के सदस्य उन्हें ‘किक्क सिलवर’ के नाम से पुकारते थे।


आजाद की माउजर पिस्तौल हमेशा उनके पास रहती थी। वे उसे वमतुला बुखारा कहते थे। अपने साथियों से अक्सर वे मस्ती में कहा करते थे-“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं आजाद ही रहेंगे।“ सचमुच वे आजाद ही रहे। जीवन के महासमर में उन्होंने पराजय का मुँह कभी नहीं देखा।


27 फरवरी 1931 को आजाद इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में बैठे हुए किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रातःकाल का समय था, वे किसी गम्भीर चिन्तन में डूबे हुए थे। तभी पुलिस मुखबिर वीरभद्र तिवारी के साथ पुलिस दल को देखकर आजाद चैकन्ने हो गये। तब तक नाट वावर के नेतृत्व मंे पुलिस दल ने उन्हें घेर लिया। अपने को घिरा पाकर आजाद ने एक पेड़ के पीछे पोजीशन ले ली और पुलिस दल के नेता नाट वावर पर गोलियों की वर्षा कर दी। काफी देर तक दोनों ओर से गोलियां चलती रहीं। आजाद की वीरता और साहस को देखकर पुलिस आफीसर नाट वावर भी दंग रह गया था। पुलिस काफी संख्या में थी। आजाद की गोलियां खत्म होने वाली थीं। इसलिए उन्होंने अपने पिस्तौल को कनपटी पर रखकर स्वयं गोली मार ली और इस प्रकार शत्रु से लड़ते हुए उन्होंने वीरगति प्राप्त की।


इस धरती पर प्रतिदिन हजारों लोग जन्म लेते हैं और हजारों लोग रोज मृत्यु का वरण करते हैं। मगर कुछ लोग अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समय रूपी रेत पर ऐसे पदचिन्द बना जाते हैं, जिनका लोग युगों-युगों तक अनुसरण करते हैं। चन्द्रशेखर आजाद उन्हीं में से एक हैं। आज वे हमारे मध्य नहीं हैं मगर उनका अमिट बलिदान सदैव हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।


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|| सुरेश बाबू मिश्रा ||


सुरेश बाबू मिश्रा


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